सोमवार, 2 सितंबर 2019

मंदी बनाम ढीलतंत्र की दुलत्ती (Recession - the Backlash of the Soft State)

आज हर कोने से एक ही आवाज़ आ रही है - मंदी, मंदी, मंदी| राष्ट्रीय आय की बढ़त की दर बहुत घट गयी है| अचल संपत्ति का बाज़ार (Real Estate Market) डूबने की कगार पर है| गैर-बैंकीय वित्तीय संस्थान डूब रहे हैं, गाड़ियाँ नहीं बिक रहीं हैं, बैंकों की हालत पतली है, मौद्रिक क़िल्लत है, शेयर बाज़ार की हालत खस्ता है, विदेशी विनियोग रूठ गया है, रूपये का भाव गिरता जा रहा है, इत्यादि, इत्यादि|
बहुत लोग मोदी को इस का उत्तरदायी मानते हैं| सदा शांति, अहिंसा और मौनधारण के पुजारी श्रीमनमोहन सिंह जी भी बुलंद आवाज़ में बोल रहे हैं| मोदी ने भयंकर गलतियाँ की हैं| तो क्या बैंक का सारा NPA मोदी सरकार की देन है? क्या बैंक का nationalization करके उसका राजनीतिक दोहन मोदी ने शुरू किया? क्या सारे स्कैम मोदी ने करवाये? क्या स्विस बैंक में मोदी का पैसा जमा है? क्या भारतीय व्यवस्था (oligopoly) मोदी की देन है? जब डुबकी मार कर अपना हगा पानी पर उतरा रहा है तो लोग छी-छी कर रहे हैं|
पहले ज़रा धंधे की बात कर लूँ | जनश्रुति में मनमोहन सिंह जी जाने-माने अर्थशास्त्री हैं - सत्ता से जुड़े रहने वाले अर्थशास्त्री, अर्थशास्त्र के सैद्धांतिक बकवास से दूर| लेकिन हर धंधे का एक उसूल होता है, उसकी एक अपनी संस्कृति होती है, एक तौर-तरीक़ा होता है, एक मानदंड होता है, एक कसौटी होती है| जेएम कीन्स (JM Keynes) कोई छोटे अर्थशास्त्री नहीं थे| मंदी के अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ थे| वह चुप नहीं रहे, बोले, बहुत बोले| लिखा, बहुत लिखा| अर्थशास्त्र के पूरे नजरिये को बदल डाला| गुन्नार मिर्डल (Gunnar Myrdal) कोई छोटे अर्थशास्त्री नहीं थे| वह राजनीति में भी सक्रिय रूचि लेते थे, मिनिस्टर भी थे| लेकिन लिखा भी, और जमकर लिखा| आज जो हम भ्रष्टाचार के अर्थशास्त्र की बात करते हैं, उसपर अर्थशास्त्रियों का ध्यान उन्होंने ही खींचा था| जेके गालब्रेथ (JK Galbraith)| बड़े अर्थशास्त्री थे, राजनीतिज्ञ भी थे| भारत में अमेरिकन एम्बेसेडर भी रहे| धुवाँधार लिखते थे, बोलते थे| जेएस मिल (JS Mill)| बड़े अर्थशास्त्री थे - बहुत लिखते थे, बोलते थे, राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेते थे| धंधे की बात करें तो ऐसे अर्थशास्त्रियों की तुलना में मनमोहन जी भुनगे हैं| पिछले अनेक वर्षों से राजनीति से जुड़े हैं और हर कोई कहता है कि वह बड़े अर्थशास्त्री हैं| क्या लिखा उन्होंने अर्थशास्त्र में? आज के भारतीय अर्थशास्त्र के विद्यार्थी को उन्होंने क्या दिया? उनके दसियों (decades) के अनुभव का सारांश क्या है? धंधे में लोग उनके लेखों की आशा करें कि नहीं? हमारा धंधा मौन को नहीं, लेखन को आंकता है| मनमोहन जी उसपर खरे नहीं उतरते| वह जो कुछ भी हैं, बड़े अच्छे हैं, लेक़िन जीवंत अर्थशास्त्री नहीं हैं, बड़े अर्थशास्त्री तो कभी नहीं थे| उनका कहना क्या और न कहना क्या! इन दिनों अपनी राजनीतिक पार्टी की तरफ़ से बोलते हैं, अर्थशास्त्र की तरफ़ से नहीं|
जब देश स्वतंत्र हुआ तो हमारी अर्थव्यवस्था में एक ख़ास तरीक़े के स्ट्रक्चर (structure) का उदय/विकास हुआ और उसकी स्थापना हुई| सक्षेप में यह स्ट्रक्चर व्यापारियों, राजनेताओं, पदाधिकारियों और भूस्वामियों का गिरोह (coalition) था जिसका सम्मिलित उद्देश्य देश की जनता और क्षमता (संसाधनों) को अपने हित के लिए लूटना था| इस लूट की सफलता के लिए चार चीज़ों की ज़रूरत थी: (१) सत्ता की अछुण्ण अनवरतता (perpetuation of hold on power), (२) सुव्यवस्थित तर्कसंगतता (invincible rationalization), (३) जनता का अंधभक्ति पूर्ण समर्थन (populistic non-critical support), और (४) गिरोह के सदस्यों में आपसी पृष्ठपोषण (mutual support among the members of the coalition)| इसी बात को हिंदी के महाकवि धूमिल कहते हैं: "मैंने हरेक को आवाज़ दी है/ हरेक का दरवाजा खटखटाया है/ मगर बेकारमैंने जिसकी पूँछ/ उठायी है उसको मादा पाया है। वे सब के सब तिजोरियों के दुभाषिये हैं। वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं। अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं। यानी कि- कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।"
सत्ता की अछुण्ण अनवरतता के लिए कई चीज़ों की आवश्यकता जान पड़ी| आर्थिक और माँसपेशियों के बल (economic and muscular strength) की आवश्यकता ने मोटे उत्कोच (घूस, kickback) और गुंडागर्दी (hooliganism) को जन्म दिया और पाला-पोसा| वोट-बैंक की राजनीति और जनता को वर्गों, जातियों, धर्मों में बाँटने की राजनीति शुरू हुई| यह सब चलता रहे इसके लिए ढीली-ढाली प्रशासनिक व्यवस्था की ज़रूरत भी हुई| पुलिस और न्याय व्यवस्था को लचर करने की ज़रूरत हुई| लूट मचती रहे, स्कैम होते रहें, अपराध होते रहें, मुक़दमे चलते रहें - अंत में हो कुछ भी नहीं| समय हर घाव पर मलहम लगा दे (Time cures every injury)| यह हमारे समाज और देश की संस्कृति में घुस गया|
सुव्यवस्थित तर्कसंगतता के लिए बुद्धिजीवियों या बुद्धिधारियों का सहारा लिया गया| किताबें लिखो, परचे छपवाओ, भाषण दो, पढ़ाओ, रिसर्च करो, गोष्ठियाँ आयोजित करो और प्रमाणित कर दो कि सरकार की योजनाएँ और उसके प्रयास तो सही हैं लेक़िन - | इस लेक़िन में सारा दोष जनता को दो, जनसंख्या को दो, विरोधी पार्टी के नेताओं को दो, इतिहास को दो, अंग्रेज़ों को दो, विदेशी शक्तियों को दो, धर्म को दो, भारतीय संस्कृति को दो, कुशिक्षा को दो, मैकॉले को दो, मौसम को दो, भाग्य को दो| जिसके सर पर चाहो ठीकरा फोड़ो, जिसे भी चाहो दोष दो, पर सरकार को दोष मत दो, व्यवस्था को दोष मत दो, अधिकारियों को दोष मत दो, व्यापारियों को दोष मत दो - coalition के सदस्यों को दोष मत दो| हर तर्क दो जो साबित कर दे कि सरकार ओर प्रशासन तो चुस्त-दुरुस्त है लेक़िन आप बच्चे बहुत ज़्यादा पैदा करते हो| एक ही बच्चा होता तो कलक्टर होता, गवर्नर होता| चार बच्चे कर लिए तो वे बेरोज़गार नहीं होंगे तो क्या होंगे| यह हुई सुव्यवस्थित तर्कसंगतता| इसको क़ायम करने का जिम्मा शिक्षा विभाग को मिला| कभी यह बात नहीं उठी कि चलो, माना मैकॉले बहुत बदमाश आदमी था, पर छः-सात दशकों में हमने उसे निकाल बाहर क्यों नहीं किया?
जनता के अंधभक्ति पूर्ण समर्थन के लिए सारे इंतज़ाम किये गए| सबसे पहले तो उसे सोचने और सवाल करने की छूट नहीं दी गयी| मज़बूरी में जीना सीखो, आवाज़ मत उठाओ| इसी को गालब्रेथ accommodation कहते हैं| अगर शिकायत की सुनवाई न हो, या शिकायत बेअसर हो, या शिकायत करने वाला दंडित हो, तो धीरे-धीरे लोग शिकायत करना छोड़ देंगे और भुनभुनाने लगेंगे| भारत भुनभुनाने वालों का देश बन कर रह गया| भुनभुनाने वाले लोग आशा और प्रलोभन पर आसानी से बिक जाते हैं और उन्हें बहका कर किसी भी अस्मिता का रंग दिया जा सकता है क्योंकि उनकी कोई अपनी अस्मिता नहीं होती| वे किसी भी टुच्ची-सी अस्मिता के लिए अंधभक्ति को स्वीकार लेते हैं| इसी बात को हिंदी के महाकवि धूमिल ने कहा है - वे (नेता) जिनकी पीठ पर हाथ रखते हैं उनके पीठ की हड्डी (मेरुदंड) गल जाती है| ज़ाहिर है, हवा का हल्का झोंका भी धूल को उड़ाने का सामर्थ्य रखता है| जनता की अंधभक्ति और समर्थन के लिए उन्हें धूल बनाकर रखो (चट्टान नहीं रहने या बनने दो)| इसके लिए आवश्यक है कि उसका आत्मविश्वास तोड़ो, उसकी शिकायतों पर ध्यान मत दो, उन्हें लाचार बना डालो| यह सबकुछ किया गया - समझ-बूझ कर किया गया और यह परंपरा बहुत पुरानी है| इसी बात को हिंदी के महाकवि धूमिल कहते हैं "यह जनता…/ उसकी श्रद्धा अटूट है/उसको समझा दिया गया है कि यहाँ/ ऐसा जनतन्त्र है जिसमें/ घोड़े और घास को/ एक-जैसी छूट है/ कैसी विडम्बना है/ कैसा झूठ है/ दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र/ एक ऐसा तमाशा है/ जिसकी जान/ मदारी की भाषा है।"
गिरोह के सदस्यों में आपसी पृष्ठपोषण के लिए सारे और देशव्यापी तंत्र ने काम किया| व्यापारियों को नक़ली अभाव/क़िल्लत के सृजन (creation of artificial shortage) का मौका दिया गया, उन्हें खुले-आम एकाधिकारी बनने दिया गया, मुनाफ़ाख़ोरी करने दिया गया| उन्हें सरकारी प्रतिष्ठानों द्वारा घाटा उठाकर भी सस्ता कच्चा माल और व्यवसाय के लिए पूँजी दी गयी| इसकी शुरुआत दूसरी पंचवर्षीय योजना में हुई| बिरला (हिंद मोटर्स) ही मोटर क्यों बनाते रहे और सारे सरकारी विभाग केवल एम्बेसेडर कार ही क्यों खरीदते रहे? यह मोनोपोली क्यों? व्यापारियों ने लूट का एक हिस्सा नेताओं को दिया| भारत में नेतागीरी का धंधा चल निकला| गुंडों को संरक्षण दिया गया| गुंडे नेता बनने लगे, नेता गुंडागर्दी करने लगे| इनकी आमद के तीन श्रोत हुए - व्यापारियों से गुप्त धनदान, सरकारी संस्थानों में लूट और गवन, तथा जनहित में आवंटित धन का दुरूपयोग| राजीव गाँधी तक ने स्वीकार किया था कि जनता के लिए आवंटित धन का पचासी प्रतिशत (85%) ज़मीन पर आने के पहले ही ग़ायब हो जाता है| शासनतंत्र के पदाधिकारी जमकर घूस लेने लगे और जनता के पैसों पर संपन्न होने लगे| जनता हर तरह से मज़बूर हो गयी| शिकायत भी करे तो किस-किस की और कहाँ-कहाँ? दबंगों को देहाती राज दे दिया गया, उन्हें लूटने का अधिकार और वोट-बैंक की सुरक्षा का कर्त्तव्य मिल गया|
इस तंत्र ने एक लचर व्यवस्था - ढीलतंत्र (the soft state) को जन्म दिया| यह एक बेहद लचीली स्थिति का नाम है जिसमें सब कुछ चलता है| कोई अपराधी है पर आराम से पुलिस और नेताओं के संरक्षण में अपना धंधा चला रहा है; अरबों का गवन कर लिया है, मज़े में बीस साल से मुक़दमा लड़ रहा है, कांट्रैक्ट लिया, आधा-अधूरा काम किया और पैसा हज़म| कोई कार्रवाई नहीं| पढ़ाता नहीं है, मज़े से सरकारी पैसा खा रहा है, ट्यूशन पढ़ा रहा है; लड़के खुले-आम परीक्षा-हॉल में नकल कर रहे हैं, वीक्षक नक़ल करवा रहे हैं, प्रिंसिपल निगरानी कर रहा है| दफ़्तरों में बाबू बारह-बजे तक नहीं आये हैं| ट्रेन में पुलिस पैसे वसूल रही है, कंडक्टर पैसेंजर से बिना रसीद के पैसा ले रहा है| सब देखते हैं, सब चल रहा है, सिस्टम चल रहा है| यह soft state है|
मोदी सरकार ने इस ढीलतंत्र पर हमला किया| नोटबंदी बहुत भारी झपट्टा था - गुरिल्ला वार के स्टाइल वाला| बहुत सारे पदाधिकारियों और नेताओं पर भी झपट्टे मारे गए हैं| काली सम्पत्ति ख़तरे में है, काले धंधे चलानेवाले ख़तरे में हैं| व्यापारियों के पुराने नेटवर्क स्ट्रक्चर टूटने लगे हैं, नए नेटवर्क बन नहीं पाए हैं, न्यायव्यवस्था में थोड़ी चुस्ती आयी है, जनता का आत्मविश्वास लौट रहा है| अब पैसा लगाया तो पैसा आया कहाँ से - पूछा जा रहा है, यह आधार कार्ड मुसीबतों की जड़ बनता जा रहा है, केवायसी (KYC) ने बखेड़ा खड़ा कर दिया है| कम्प्यूटर और इंटरनेट विनाशकारी सिद्ध हो रहे हैं|
यह स्ट्रक्चरल परिवर्तन एक झटका है, एक हलका-फुलका भूचाल है| लोग छुई-मुई की पत्तियों की तरह सिकुड़ गए हैं - और इसी कारण मंदी आयी है| मंदी भागते ढीलतंत्र की दुलत्ती है, the backlash of the soft state.
सिस्टम अपने को नयी स्थिति में ढाल लेगा| अर्थव्यवस्था बहुत हद तक एक self-organizing सिस्टम है| मंदी रहेगी नहीं, लेकिन अपना गाना गाकर ही जाएगी - It will run its own course.


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