गुरुवार, 12 सितंबर 2019

मास्टर साहब के रेखाचित्र

घर-बाहर अनेक लोग जानते थे कि मास्टर साहब हिंदी जगत के आसमान के चाँद थे जिन्हें परिस्थितियों के राहु ने ग्रस लिया था | वह जितना भी छटपटाते थे, उतना ही राहु की दाढ़ों में समाते जाते थे | वह चीखते थे लेकिन उनकी चीख ज़मीन तक न आ पाती थी, किसी के कानों में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था | उनका रोना-चिल्लाना अरण्यरोदन से भी कम प्रभावशाली था, शायद साहित्य की भाषा में उसे अंतरिक्षरोदन कहा जायेगा |
मास्टर साहब को कोई सुख नहीं था जिसे वह औरों के साथ बांटते| उनके खाते दुख से भरे थे और कोई भी दुख बाँटने के लिए तैयार नहीं था | अतः वह दुख बाँटने के लिए लालायित रहते थे| मेरी उनसे निकटता थी| अतः दुख बाँटने के लिए मैं अक्सर पकड़ लिया जाता था | एक दिन मैं ऐसे ही पकड़ा गया था कि उन्होंने अपने पेंटिंग्स की बात शुरू कर दी | मैं नहीं जानता था कि मास्टर साहब ललित कला में सिद्धहस्त थे (हालाँकि मैं जानता था कि जवानी के दिनों में वह सितार-वादन, हारमोनियम-वादन एवं शास्त्रीय गायन में भी दख़ल रखते थे और 'हठ न कर मग छाँड़ दे' पर घंटों आलाप लिया करते थे | यह बात मुझे उनके एक बेटे ने बतलायी थी जो मास्टर साहब की मज़ाकिया नक़ल करता था और छाँड़ की जग़ह तुक मिलाते हुए एक ज़्यादा प्रभावपूर्ण शब्द को रख दिया करता था)|
सभी जानते हैं कि वेदना कला की जननी है| मास्टर साहब की वेदना महादेवी वर्मा की वेदना से हज़ार गुनी तीव्र थी और किसी उत्स (सोते) की तरह पत्थर फाड़ कर निकलने की क्षमता रखती थी | तभी तो वह मास्टर साहब के हृदय से कविता, कहानी, लेख, गायन, वादन, चित्रकला के रूप में अनेक सोतों से बहती थी | ग़नीमत थी कि वेदना ने कभी नृत्यकला के रूप में बहने की ज़िद नहीं की थी अन्यथा मास्टर साहब भरतनाट्यम, कथक, कथकली, ओडिसी, कुचिपुड़ी बग़ैरह में भी खूब नाम कमाते|
तो मास्टर साहब हाथ पकड़ कर, स्नेहपूर्वक, मुझे अपनी स्टूडियो में ले गए जो उनके घर के पीछे बनी गुहाल के एक कोने में सिमटी हुई उपेक्षा का जीवन जी रही थी |
मास्टर साहब ने बड़े उत्साह के साथ अपनी पहली कलाकृति (जो एक फटी और मैली-सी धोती से ढँकी थी) का परिचय दिया| उन्होंने बतलाया कि वह कलाकृति 'धूमिल' की एक कविता से अनुप्राणित है और इंदिरा गाँधी द्वारा लाये गए इमर्जेंसी काल की है| वह इस कलाकृति को खुलकर जनता के सामने नहीं ला सके और न किसी कलाप्रदर्शनी में भेज सके क्योंकि ऐसा करने से उनकी जीविका छिन जा सकती थे, वह डंडे खा सकते थे और जेल भी जा सकते थे | फिर उन्होंने उसका अनावरण किया | हिंदुस्तान के क़रीब आधे नक़्शे पर एक गन्दा, बेतुका पर विशाल धब्बा था - लगता था कि उसपर चाय गिर कर फैल गयी थी और फिर सूख गयी थी | उस धब्बे ने बंगाल, बिहार, यूपी, दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान पर पूरा कब्ज़ा कर लिया था और इस तरह हिंदुस्तान के नक़्शे का सत्यानाश कर दिया था |
मेरे चहरे पर मूढ़ता देखकर मास्टर साहब मुस्कुराये और बोले - "समझे नहीं? हिंदुस्तान के नक़्शे पर गाय ने गोबर कर दिया था | वह देखकर मुझे धूमिल की कविता याद आ गयी और लगे-हाथ गौमाता के साहित्य प्रेम एवं कलाप्रेम को देखकर मैं अभिभूत हो गया | मैंने हिंदुस्तान के नक़्शे को कैनवास बोर्ड पर टाँग दिया और जब लीद सूख गयी तो उसे झाड़ दिया | केवल यह बड़ा-सा धब्बा बच गया - गंदा, घिनौना,बेडौल| लेकिन यही तो कला है - जीवंत, वास्तविक पर कल्पनाओं से भरी| यह यथार्थवाद से जुड़ी है, आक्रोश से जुड़ी है, नवचेतना का आह्वान करती है| अब कहो, कैसी लगी यह रचना?
मुझे चकित देखकर वह मुझे अपनी दूसरी पेंटिंग की ओर ले चले |
दूसरी पेंटिंग एक मटमैले-से परदे से ढँकी थी जो किसी सीमेंट की बोरी को फाड़कर बनाई गई थी| विना किसी प्राक्कथन के मास्टर साहब ने उसे अनावृत कर दिया | देखा, चित्र में एक पोपले-मुँह, खुले सफ़ेद केश, झुकी क़मर वाली, अर्ध-नग्न खूसट बुढ़िया अपनी साड़ी को खिंचने से और निर्वस्त्र होने से अपने को बचाने के लिए जद्दोज़हद कर रही है और दूसरी और कई लोग मिलकर उसे निर्वस्त्र करने के लिए सारी ताक़त लगा रहे हैं| कृष्ण की ओर से आनेवाली असीम साड़ी का अंकन ही नहीं है | मैंने पूछा - "मास्टर साहब, द्रौपदी तो बूढ़ी नहीं थी, न दुःशासन अनेक थे| फिर इस पेन्टिंग का क्या अर्थ है?" मास्टर साहब हँसने लगे | बोले - "अच्छा यह बताओ, क्या दुःशासन के सिर पर टोपी थी? इस चित्र में तो हर प्रतीकात्मक दुःशासन के सिर पर अलग-अलग किस्म की टोपी है| आदमी टोपी से ही तो पहचाना जाता है - कौन नेता है, कौन सेठ है, कौन पंडित है, कौन मौलवी है, कौन शोहदा है, इत्यादि| आदमी की अपनी वैल्यू क्या है टोपी के विना?" टोपियों का रहस्य विना समझे ही मैंने पूछा - "और मास्टर साहब, द्रौपदी तो बुढ़िया नहीं थी - आपने उसे बुढ़िया क्यों दिखाया है?" मास्टर साहब फिर से हँसने लगे और बोले - "अगर भारत के पढ़े-लिखे नौजवानों को इतनी समझ होती ही तो रोना किस बात का था?" फिर मुझे हाथों से खींचते तीसरी चित्रकलाकृति की और बढ़ गए|
तीसरी कलाकृति को अनावृत करते समय मास्टर साहब के चेहरे पर एक हलकी-सी मुस्कान तैर गयी| मैंने देखा - कैनवास पर चार बंदर आँके गए थे| तीन बंदर तो चिरपरिचित थे - गाँधीजी वाले| एक ने दोनों हाथों से अपनी दोनों ऑंखें ढक रखी थी, दूसरे ने अपने दोनों कान और तीसरे ने अपना मुँह| लेक़िन चौथा बंदर अपने बाएँ हाथ में कई केलों को पकड़े हुए था और दाएँ हाथ से एक केला गपागप मुँह में डाले हुए था| मैं हँसने लगा तो मास्टर साहब बोले - यहाँ हँसने का क्या है? वह बंदर केले हथियाए हुए है और खा भी रहा है| बाक़ी बंदरों में से एक ने यह सब न देखने की क़सम खा रखी है, दूसरे ने चुप रहने की क़सम खा रखी है और तीसरे ने केले हथियाने वाले बंदर की शिकायत नहीं सुनने की क़सम खा रखी है| सबके हाथ भी इसी में बंधे है| तीनों की सारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ केले हथियाने वाले बंदर का अकर्मात्मक सहयोग कर रही हैं| यह कलाकृति स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त होने वाली सारी घटनाओं को समग्रात्मक रूप से आँकती है| ये चारों ही बंदर एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं, चारों ही गाँधीजी के पालतू बंदर हैं| एक केले खाता रहा और बाक़ी तीन नाम कमाते रहे| इस कलाकृति को आँकने की प्रेरणा मुझे नागार्जुन जी की एक कविता से मिली थी|
मास्टर साहब मुझे अपनी चौथी चित्रकला दिखाना ही चाहते थे कि उनका सबसे छोटा लड़का दौड़ता-हाँफता आया और बोला - बाबू जल्द से दुआर पर आइये, पुलिस वाले आपको बुला रहे हैं| भैया का अता-पता पूछ रहे थे| बोले कि बैजेगाँव में हुई परसों रात की डकैती में भैया शामिल थे| मैंने कह दिया कि भैया तो तीन महीने से घर आये ही नहीं| पुलिस वालों ने कहा कि जा बाप को बुला ला| उन्हीं की ख़बर लेंगे| भैया तो घर में ही छिपे हैं| अब उन्हें कैसे बचाया जाय, यह सोचिये| चित्रकला को चूल्हे में डालिये, पहले भैया को बचाइए| जल्द चलिए|
मैंने कहा, तो अब चलता हूँ मास्टर साहेब, ज़रूरी काम आ गया तो अब यह भी आपको सलटना ही होगा| चित्रकला कभी और देख लेंगे| मुझे छोड़कर मास्टर साहेब अपने दुआर की तरफ़ लपक गए|

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