गुरुवार, 12 सितंबर 2019

एकलव्या - एक पगली-सी लड़की की कहानी

उसका नाम प्रभा था और उसका घर मेरे घर की बग़ल में था| वह उम्र में मुझसे दो-तीन साल बड़ी थी| वह मेरे घर अक्सर आती थी और घंटों बैठती थी| मेरी माँ अगर छोटा-मोटा काम करने कह देती तो ख़ुशी-ख़ुशी कर देती थी| मेरी पढ़ाई-लिखाई शुरू हो चुकी थी और मैं स्लेट पर ककहरा सीखने लगा था| वह बहुत ग़ौर से मुझे स्लेट पर लिखते हुए देखती रहती थी और शायद मन ही मन - मन के हाथ से मन की स्लेट पर - वही लिखती रहती थी जो मैं स्लेट पर लिखा करता था | कुछ देर के बाद जब मैं अपना काम पूरा कर स्लेट को साफ़ करके टेबुल पर रख देता था तो वह बहुत देर तक स्लेट को निहारती रहती थी - फिर अपने घर चली जाती थी|
एक दिन मैं लिखाई का काम पूरा करके स्लेट साफ़ करने ही वाला था कि वह मेरे क़रीब आ गयी और बोली - ला, मैं साफ़ कर दूँ| तेरे हाथ गंदे हो जाते हैं और तुम हाथों को पेंट में पोंछ कर पेंट भी गन्दा कर लेते हो| बात वाज़िब थी| मैंने पूछा - स्लेट तोड़ेगी तो नहीं ? वह हँसी और बोली - क्या तुम मुझे बच्ची समझते हो कि मैं स्लेट तोड़ दूंगी ? मैंने उसे स्लेट साफ़ करने का काम दे दिया | दो-चार दिनों ऐसा करते रहने से उसकी पहुंच मेरी स्लेट और पेन्सिल तक हो गयी| वह स्लेट साफ़ करने के पहले मेरी लिखी इबारतों को निहारती थी जैसे मन-ही-मन उस पर लिख रही हो | फिर स्लेट को साफ करती और टेबुल पर रख देती |
मुझे ककहरा लिखना मेरे पिता ने सिखलाया था - हाथ पकड़कर| उसे ककहरा लिखना किसी ने नहीं सिखलाया | लेक़िन एक दिन जब मेरे पिता ने मुझे बही और लेड-पेन्सिल लाकर दी और मैं स्लेट छोड़कर बही पर लिखने लगा तो वह झिझकते हुए मुझसे बोली - तेरी स्लेट-पेन्सिल तो यूँ पड़ी है, मैं उस पर ककहरा लिख लूँ? मैं हँसने लगा और उससे पूछा - तुझे लिखना आता है? वह तपाक से बोली - स्लेट-पेन्सिल दे तो मुझे, दिखाती हूँ| मैंने उसे स्लेट-पेन्सिल दे दी| उसने पूरा ककहरा लिख डाला| मैं चकित रह गया| मैंने पूछा कि तुझे ककहरा लिखना किसने सिखलाया, तेरे पिताजी तो तुझे पढ़ाते ही नहीं हैं| उसने कहा - अरे, तुम बोलते भी ही, लिखते भी हो| मैं सुनती हूँ, देखती हूँ| तुम मुझे क्या अंधी-बहरी समझते हो? इसी तरह देखते-सुनते मैं सीख गयी| इसमें अचरज क्या है? यहाँ एक बात कह दूँ - मेरे लिखे अक्षर मेरे पिताजी के अक्षरों जैसे ही सुडौल और सुन्दर होते हैं| लेकिन प्रभा के लिखे अक्षर बेडौल थे| आगे चलकर भी वे सुधरे नहीं | अपने-आप सीखने की भी एक हद होती है|
मैं धीरे-धीरे छोटी-मोटी किताबें पढ़ने लगा | मेरे पिताजी मुझे स्कूल नहीं भेजकर घर पर ही पढ़ाते थे| मैं जब एक क़िताब पूरी करता था तो वह दूसरी क़िताब ला देते थे| मेरी पढ़ी हुई क़िताब यूँ ही रखी रहती थी जिसे प्रभा पढ़ती थी और मुझे नयी क़िताब को ज़ल्द पढ़कर ख़त्म करने के लिए उकसाती रहती थी | मेरी पढ़ाई में उसका निजी स्वार्थ था - एक निर्मल स्वार्थ, एक आदर्श स्वार्थ| सरस्वती की उपासना का लोभ - जानने का लोभ| शिक्षित होने का लोभ| विश्वास कीजिये, मैंने एकलव्य को बहुत बचपन से ही देखा है - यह कहानी नहीं तथ्य है कि एकलव्य होते हैं - आज भी होते हैं | उस उतरन वाली किताबें पढ़कर शिक्षित होने वाली प्रभा का ही नाम एकलव्य है|
मेरी पढ़ाई आगे बढ़ती रही और मेरे पीछे-पीछे उसकी भी| मेरे पिता जी मुझे संस्कृत पढ़ाना चाहते थे| अतः उन्होंने मेरे हाथ में अमरकोश रख दिया और आज्ञा दी कि पन्ने पर पन्ना कंठस्थ करूँ और हर शाम जितना कंठस्थ किया उतना उन्हें सुना दूँ| उनकी आज्ञा अटल होती थी| मैं वही करने लगा| संस्कृत श्लोकों को कंठस्थ करने के लिए स्वरित पाठ ज्यादा फलप्रद होता है| मेरा स्वरित पाठ प्रभा के लिए वरदान साबित हुआ | वह सुन-सुन कर ही अमरकोश के श्लोकों को हृदयस्थ करने लगी| कोई पाठ हृदयस्थ हो जाये तो उसे कंठस्थ करना बहुत कठिन नहीं होता | वह मुझे उतना सुना देती थी जितना मैं अपने पिता जी को सुनाता था| इस क्रम में प्रभा अब मेरी सहपाठिनी हो गयी|
लेकिन धीरे-धीरे मेरे मन में प्रतियोगिता और तज्जन्य ईर्ष्या का जन्म हुआ| मैंने सोचा कि प्रभा की पढ़ाई तो मेरे बोल-बोल कर पढ़ते रहने और याद करने पर आश्रित है| अगर मैं चुप-चुप पढ़ कर याद करूँ तो प्रभा याद नहीं कर सकेगी और मैं हमेशा प्रभा से आगे ही रहूंगा| अतएव मैंने बोल-बोल कर याद करना छोड़ दिया| इस चाल से प्रभा की पढ़ाई रुक सी गयी| प्रभा व्याकुल रहने लगी, पर बेचारी अगर शिकायत करे तो किससे और क्यों ? पढ़ने-लिखने से प्रभा का क्या सरोकार ? और फिर अगर मैं बोले विना पढ़ता हूँ तो प्रभा का क्या बिगड़ता है?
लेकिन जल्द ही प्रभा ने तरीका निकाल लिया| एक दिन मुझसे बोली - तुम सस्वर पढ़ा करो| इसके बदले में मैं तुम्हारे कपड़े साफ कर दिया करुँगी| कपड़े गन्दा करके रोज़-रोज़ माँ से डांट खाते हो और कभी-कभी पिटते भी हो| मैं कपड़े साफ कर दूँगी तो डांट से बचोगे - माँ खुश रहेगी | प्रभा की यह चाल चल गयी | प्रभा मेरे कपड़े साफ कर दिया करती थी | वह लगे-हाथ माँ के दिए कुछ कपड़ों को भी साफ कर दिया करती थी | इसीलिए माँ प्रभा पर बहुत प्रसन्न रहती थी | सब कुछ प्रभा के मनोनुकूल हो गया| मैं सस्वर पढ़कर अमरकोश के श्लोक याद करता रहा और प्रभा सुन-सुन कर उन्हें याद करती रही | वह मेरी सहपाठिनी बनी रही | कहा जाता है, विद्या गुरु की सुश्रूषा से भी प्राप्त होती है| प्रभा इसी सेवा-सुश्रूषा के बल पर विद्या प्राप्त करने लगी| मुझे मेरे पिता जी के अथक प्रयासों के कारण विद्या मिल रही थी और प्रभा को अपने सेवा-बल पर| प्रभा के गुरु प्रच्छन्न थे और शायद उनकी रौशनी में मैं दिखता था| जिस तरह मूर्ति में देवता प्रच्छन्न होते हैं और मूर्तिपूजा उनकी पूजा हो जाती है, उसी तरह मेरी सेवा करके वह मुझमें प्रच्छन्न गुरु की सेवा करने लगी थी |
एक दिन बोली - जानते हो, तुम्हारा अमरकोश अधूरा है | उसमें पृथ्वी के कई नाम नहीं हैं| मैंने पूछा - बताओ तो सही कि पृथ्वी के कौन से नाम मेरे अमरकोश में नहीं हैं? वह नए नाम ले आयी - विपुला गह्वरी धात्री गौरिला कुम्भिनी क्षमा; भूतधात्री रत्नगर्भा जगती सागराम्बरा| वह जीत गयी | मेरे अमरकोश में सचमुच ये नाम नहीं थे | इसका फल यह हुआ कि मैं भी सोचने लगा कि इसके साथ मिलकर पढ़ने में ही भलाई है | नहीं तो यह तो नए नाम जान जाएगी और मुझसे आगे बढ़ जाएगी | उसने सहपाठिनी होने का अधिकार अपने बूते पर हासिल कर लिया| कहते हैं - "गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा । अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपलभ्यते ॥" यानि विद्या से भी आगे की विद्या मिलती है| प्रभा ने अतिरिक्त ज्ञान के जरिये अतिरिक्त ज्ञान को साधा - ज्ञानार्जन की व्यवस्था की | वाह री एकलव्या | तभी तो तुम्हें याद रखे हूँ और आज तेरे वारे में लिख रहा हूँ | नहीं तो कौन लिखता तुझ जैसी नाचीज़ पर?
संस्कृत एक कवित्वपूर्ण भाषा है और इसके साहित्य का बहुत बड़ा हिस्सा छंदोबद्ध है - यानि श्लोकों में है| अनुष्टुप इसका सबसे अधिक व्यापक छंद है| संस्कृत के विद्यार्थी को गति, यति और मात्रा का ज्ञान स्वतः हो जाता है| इसीलिए संस्कृत के विरले विद्यार्थी ही अपनी मातृभाषा में कविताओं की तरफ़ नहीं झुकते और अपनी कविता नहीं करने लगते हैं| लेकिन कविता केवल छंदोबद्धता, लयात्मकता या गति, यति, मात्रा, तुक और गणों में नहीं रहती| शब्दों का चुनाव, और भावों की गहराई सबसे महत्वपूर्ण होते हैं|
संस्कृत के प्रभाव के कारण मैं छोटी-मोटी कविताएँ लिखने लगा जिसमें शब्द और प्रवाह तो होते थे, लेकिन भाव और प्रभाव नदारद होते थे| प्रभा को इस प्रकार की कविता थेथरई जैसी दिखती थी| वह मुझे यह सब ऊल-जलूल लिखने से मना करती थी| लेकिन वह ख़ुद कहानियाँ लिखने लगी| चूँकि वह मेरी कविताओं को ऊल-ज़लूल कहती थी, चुनांचे यह मेरा अधिकार था कि मैं उसकी लिखी कहानियों को बेकार पन्ने रँगने की सस्ती कला कहूँ| वह बहियाँ भी मुझी से लेती थी, कलम और स्याही भी मेरी होती थी | इसीलिए मैं प्रायः कहा करता था - कागज़ कलम पर दया कर प्रभा, कविता लिख मेरी तरह - कम शब्द अधिक भाव, कागज़ की बचत| परन्तु उसने कभी नहीं सुना|
समय बीतता गया और एक दिन आया जब प्रभा के पिता-माता ने प्रभा की शादी तय कर दी| मेरे पिता जी ने भी मुझे स्कूल भेजना शुरू कर दिया ताकि मैं स्कूल का विद्यार्थी बनकर मैट्रिक के इम्तहान दे सकूँ| देखते-देखते प्रभा की शादी हो गयी और वह अपने ससुराल चली गयी और मैं गाँव के स्कूल की दसवीं कक्षा में पढ़ने लगा| हम दोनों सहपाठी अलग हो गए - वह अपने रास्ते चल पड़ी और मैं अपने रास्ते चल पड़ा|
एक साल बीता और मैंने मैट्रिक पास करके पास ही के शहर के कालेज में दाखिला ले लिया| मेरे कालेज से प्रभा की ससुराल बहुत नज़दीक थी - कोई आधा घंटा पैदल चलने की दूरी पर बसे एक गांव में| एक दिन मैंने प्रभा से मुलाक़ात करने की सोची और पहुँच गया उसकी ससुराल| चूँकि मैं प्रभा के पीहर से था, अतः प्रभा की ससुराल के लोगों ने मेरा स्वागत किया| मुझसे मिलकर प्रभा खूब रोयी | मैंने देखा - प्रभा सूखकर आधी हो गयी थी| मैंने पढ़ा था कि बाघ का चमड़ा देखकर बकरी और सास का मुखड़ा देखकर बहू - दोनों की जानें हलक में अटक जाती हैं | मुझे यह कहावत उस दिन सटीक लगने लगी|
दो-चार महीनों को दरम्यान करके मैं प्रभा से मिल आता था| धीरे-धीरे बहुत कुछ पता चला - कुछ तो उसकी सास के द्वारा की गयी शिकायतों से, कुछ प्रभा की जुबान और आँसुओं से| कुछ बातें उसके मुहल्ले की ननद लगने वाली लड़कियों ने भी बतलायीं| कुछ-कुछ मैंने अनुमान भी लगाया|
प्रभा की सास ने अपना दुखड़ा रोते हुए बतलाया - एक ही बेटा है, सोचा था कि ढंग की बहू मिलेगी| लेक़िन ऐसी बहू मिली कि सारे अरमान मिट्टी में मिल गए | एक तो इसका बाप दलिद्दर है - बेटी-दामाद को कुछ नहीं दिया| ऊपर से अपनी सिड़न बेटी को हमारे यहाँ फेंक गया | कहते हैं - पीहर में एक मुट्ठी अनाज़ के लिए दूसरों के घर कपड़े धोती थी, बच्चे संभालती थी और कूड़े बीनती थी | वह आदत यहाँ भी बरक़रार है| दूकान से कोई चीज़ कागज़ के ठोंगे में आयी तो ठोंगे के कागज़ को सलीक़े से फाड़ कर उसे ऐसे पढ़ने लगती है जैसे बाप भाई के यहाँ से आयी चिट्ठी हो| ठोंगे में आये सामान में इसे कम दिलचस्पी है - ठोंगे के कागज़ में ज़्यादा | पहले सारे काग़ज़ जमा करती थी - न जाने क्या करने | मैंने एक दिन जमा कूड़े को चूल्हे में डाल दिया| तब से वैसे कागज़ों को जमा तो नहीं करती पर उन्हें पढ़ने की लत अभी भी है| तुम्हीं बतलाओ बेटा, यह पागलपन नहीं तो और क्या है? वैसे बात नहीं उलटाती है, पर बात-बात में रो देती है | क्या ये लच्छन अच्छे हैं?
एक तीखे नैन-नक्श वाली लड़की ने - जो स्थानीय कालेज में पढ़ती थी और जिसके चेहरे पर भाव कुछ वैसे ही आते-जाते रहते थे जैसे फूलों पर रंग-बिरंगी तितलियाँ - बतलाया: पढ़ी-लिखी तो ख़ाक नहीं - सातवीं तक भी नहीं - लेक़िन भैया के हिज्जह् सुधारने लगी | भैया बीए हिंदी ऑनर्स हैं| उसकी गुस्ताख़ी पर भैया बिगड़ पड़े लेक़िन वह नहीं मानी, बहस करने लगी| फ़िर भैया ने जब जूते मार-मार कर उसकी तबीयत सुधार दी, तब उसने अपनी ग़लती मानी|
किसी दूसरी लड़की ने बतलाया - पंडित जी पाठ कर रहे थे तो लगी विना कारण हँसने | पंडित जी नाराज़ हो गए | उनके जाने के बाद में बड़ी माँ ने हँसने का कारण पूछा तो कहने लगी कि पंडितजी ग़लत पाठ करते थे | पाठ तो पाठ है - पंडितजी पोथी सामने रखकर करते थे | पाठ ग़लत कैसे होगा? फ़िर उसे ढंग से समझाया गया कि अपनी होशियारी अपने पास रखे | पागल है - सोचती है कि वही एक सही है, बाकी दुनियाँ ग़लत है| मालूम नहीं कैसे निरच्छर परिवार से है जो कभी स्कूल तक नहीं गयी, लेक़िन अपने को बीए एमए पास समझती है| चार लाइन लिख कर भी नहीं दिखा सकती और अपने को विद्वान समझती है| जभी तो मैं उसके पास कभी नहीं बैठती| बकवास का पुलिंदा है|
ख़ुद प्रभा ने बतलाया - घर मैं एक किताब नहीं है, अख़बार भी नहीं आता| कोई पढ़े तो क्या पढ़े? ठोंगे के कागज़ में कुछ पढ़ने को मिल जाता है| कभी-कभी अच्छे लेख के हिस्से भी मिल जाते हैं | मैं उन्हें सँजो कर रखती थी कि कभी पढ़ने का मन हो तो पढूँगी | दूसरों को यह आदत कूड़ा जमा करने की-सी लगी| तब से जमा नहीं करती, लेक़िन कुछ लेखांश इतने अच्छे होते हैं कि पढ़कर फेंकने के वक़्त मन कचोटने लगता है| फिर भी, फेंकना ही पड़ता है| तुम आते हो तो एक दो क़िताबें ले आया करो - छिप कर पढ़ लूँगी और जब तुम अगली वार आओगे तो तुम्हें वे क़िताबें लौटा दूँगी | मेरी मदद करने वाला कोई नहीं है | यहाँ लोगों के पेट और मन दोनों ही भात-रोटी से भर जाते हैं | लेक़िन विना कुछ पढ़े मेरा मन नहीं भरता | कुछ तो मदद कर, भाई| मैं सरस्वती से प्रार्थना करूँगी कि तुझे बहुत विद्या दे | तू पढ़-लिख लेगा तो समझूँगी मैंने भी पढ़-लिख लिया|
मैं प्रभा के दर्द को समझता था| सोचता था, कहाँ फँस गयी बेचारी| पड़ी पद्मिनी भांड़ के पल्ले| लेक़िन मेरे वश में कुछ नहीं था| गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है - "या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी; यस्यां जाग्रन्ति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः|" प्रभा जिस दुनियाँ में जी चुकी थी और जीना चाहती थी उस दुनियाँ के दरवाज़े उसकी ससुराल से सैकड़ों मील दूर थे| देवी-पूजा में भी उसकी ससुराल वाले प्रसाद (बलिदान के उपरांत प्राप्त होने वाले - बलि के बकरे की बोटियों) में ज़्यादा रुचि लेते थे | पाठ के शुद्ध-अशुद्ध होने में उन्हें कोई रुचि नहीं थी | देवी से क्षमा प्रार्थना भी तो इसीलिए की जाती है कि शुद्ध-अशुद्ध माफ़ हो| फिर शुद्ध-अशुद्ध पाठ पर क्यों सोचें| हाँ, प्रसाद की बोटियाँ कम न पड़ें, मसाले कम ज़्यादा न पड़ें, बोटियाँ ज़्यादा गलकर हड्डियाँ न छोड़ दें, इत्यादि ध्यान देने की चीज़ें हैं|
एमए करके मैं अपने शहर से बहुत दूर चला गया और थोड़ी और पढ़ाई (पीएचडी) करके नौकरी से लग गया | इसलिए बरसों नहीं मिल सका प्रभा से | एक वार अपने देश लौटा तो प्रभा से मिलने गया | प्रभा के बच्चे स्कूल में पढ़ने लगे थे | प्रभा उन्हें हिंदी और संस्कृत पढ़ाती थी | घर में कुछ क़िताबें रहने लगी थीं| इन चीजों से प्रभा का मन बहल जाता था| अब उसे अपने पढ़ने के लिए बेचैनी नहीं रहती थी, वह बच्चों को पढ़ाने के लिए बेचैन रहने लगी थी| मैंने सोचा, चलो, देर आयद दुरुस्त आयद| मैंने प्रभा को बतलाया कि मैंने पीएचडी कर ली है| ख़ुश हुई और बोली - तो समझो मैंने भी पीएचडी कर ली है| तुमने लिख-पढ़ कर की, मैंने सुनकर की|
मैं उठकर चलने ही वाला था कि प्रभा का बड़ा बेटा वहां आया और बोला - माँ, मैं दादी के साथ बाज़ार जा रहा हूँ कुछ मंगाना है क्या? प्रभा ने मुझसे कहा कि मैं एक कागज़ के टुकड़े पर उन चीज़ों के नाम लिख दूँ जो वह लिखा रही है | मैंने पूछा - कि मैं क्यों लिख दूँ, क्या तुम खुद नहीं लिख सकती हो? तो बोली - पहले वो कर जो कहती हूँ - बाद में सारी बातें बतलाऊँगी| मैंने प्रभा के कहे मुताबिक लिस्ट बना दिया और उसका बेटा लिस्ट लेकर चला गया | फिर प्रभा ने बतलाया कि पहले वह छठे-छमाहे अपने माँ-बाप को चिट्ठी लिख देती थी| उसकी सास को भरम हो गया कि चिट्ठी में वह अपने ससुराल के वारे में अपने माँ-बाप से शिकायत करती है| तो जीजा जी ने इसी शुबहे पर उसे बहुत पीटा| दाहिने हाथ का अँगूठा डंडे मार-मार कर तोड़ दिया| तभी उसने प्रतिज्ञा की कि अब कलम नहीं पकड़ेगी| जरुरत पड़ने पर बाँयें हाथ के अँगूठे से निशान लगाती है और कोई यह देखकर हँसता है तो कह देती है कि वह निरच्छर है - अँगूठा छाप|
कुछ दिनों के बाद पता चला कि प्रभा चल बसी| ख़त्म हुई एकलव्या की कथा - एक पगली-सी लड़की की कहानी| लेक़िन आज भी वह कहीं से देखती होगी कि मैंने आख़िर कविता छोड़ कर कहानी लिखनी शुरू कर दी है - बेकार पन्ने रँगने की सस्ती कला का अभ्यास शुरू कर दिया है| कहती होगी - मैं जानती थी - आज न कल तुम रास्ते पर आ ही जाओगे|

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