रविवार, 22 सितंबर 2019

वास्तविक जीवन और अतीत का मोह

हो सकता है कि यह मेरी अल्पज्ञता के कारण हो, किन्तु मेरा सोचना है कि भारतीय वाङ्मय असंतुलित है| इसमें आत्मचिंतन, सन्यास, आराधना, दर्शन, भाषा, काव्य और स्वास्थ्य के वारे में बहुत कुछ है किन्तु जड़ प्रकृति को समझने के लिए बहुत कुछ नहीं है (या लुप्त है)| इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि जिस युग में भारतीय वाङ्मय का विकास हुआ उसमें कृषि और पशुपालन के सिवा और कोई धंधा विकसित नहीं हुआ था| या जो और धंधों के जानकार थे वे किताबें नहीं लिखते थे (ग्रन्थ का निर्माण नहीं कर सकते थे) और जो किताबें लिख सकते थे वे धंधों के गुर नहीं जानते थे, केवल पूजा-पाठ और आत्मचिंतन में व्यस्त थे| शायद इसी के चलते कहा गया था - वेदाः कृषिविनाशाय कृषिर्वेदविनाशिका (वेद और कृषि एक दूसरे के विनाशक हैं)|
समाज दो हिस्सों में बंटा था - एक हिस्सा (श्रमिक, कारीगर) भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था और दूसरा हिस्सा (अभिजात वर्ग, खास करके बुद्धिजीवी) भौतिक आवश्यकताओं की अवहेलना करता था| दोनों हिस्सों में तारतम्य नहीं था; बौद्धिक हिस्से का विचार था कि श्रमिक हिस्सा अछूत है और पढ़ाई-लिखाई पर उसका अधिकार नहीं है| नहीं तो ऐसा कैसे हुआ कि अशोक स्तम्भ बना लेकिन उसकी धातुविद्या (metallurgy) पर कोई लेख नहीं है (या यह विचार मेरी अल्पज्ञता के चलते है)| जो सभ्यता इतना अच्छा इस्पात बना लेती थी उसने काग़ज़ की ईज़ाद क्यों नहीं की (जब कि कपड़े और भोजपत्र पर लिखाई प्रचलित थी)| राजनीति और अर्थशास्त्र पर कौटिल्य का अर्थशास्त्र है जिसमें बृहस्पति और शुक्र की नीतियों का उल्लेख है, किन्तु हथियार बनाने की विद्या पर काफ़ी पुस्तकें क्यों नहीं हैं? रण व्यूहों का उल्लेख है किन्तु उन पर विस्तृत किताबें क्यों नहीं हैं? 'काव्येन गिलितं शास्त्रं' (काव्य ने शास्त्र को निगल लिया, यानि शास्त्रों के लेखन में कविता इतनी है कि शास्त्र गौण हो गया है) की प्रवृत्ति क्यों पनपी और फली-फूली? भाषा के अलंकार ने ज्ञान को क्यों ढँक लिया? सारा गृहस्थ जीवन पूर्वमीमांसा का ग़ुलाम और तदुपरांत जीवन उत्तरमीमांसा को समर्पित क्यों हुआ| मध्यमीमांसा पर कुछ नहीं है, क्यों?
हम भारतीयों को पुरातन और अतीत से बड़ा लगाव है| अच्छी बात है| लेकिन हम में अपने वर्तमान और भविष्य को अतीत पर न्योछावर कर डालने की इतनी ललक क्यों है? मैं नहीं जानता|

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