शनिवार, 28 सितंबर 2019

आडम्बर, पाखंड, धर्मध्वजिता, और न्यायध्वजिता

भारत एक ऐसा देश है और भारतीयता एक ऐसी संस्कृति है जिसमें मनसा, वाचा, और कर्मणा एक होने के बगटुट उपदेश दिए गए हैं पर क़दम-क़दम पर इन तीनों के बीच न केवल खाइयाँ खोदी गयी हैं अपितु उन खाइयों को उत्तरोत्तर विस्तृत और सम्पोषित किया गया है| भारतीय संस्कृति की कुल जमा पूँजी है आडम्बर, पाखंड, धर्मध्वजिता और न्यायध्वजिता|
आगे बढ़ने के पहले आडम्बर, पाखंड, धर्मध्वजिता और न्यायध्वजिता की कामचलाऊ परिभाषा से अवगत होना लाज़िमी है| आडम्बर का तात्पर्य ऊपरी बनावट, तड़क-भड़क, टीम-टाम, झूठे आयोजन, ढोंग और कपट से है जिससे वास्तविक रूप छिप जाये| आडम्बर दृष्टिगोचर, शब्दगोचर या विचारगोचर (बुद्धिगोचर) हो सकता है| आडम्बर पाखंड भाव का आलम्बन है| विना आडम्बर के पाखंड को मूर्त और इन्द्रियगम्य नहीं बनाया जा सकता, पाखंड केवल पाखंडी के मन में रह जायेगा और उसका सम्प्रेषण नहीं हो सकेगा| पाखंडी को सर्वोदय वाली मीठी जुबान बोलनी होगी, सिक्यूलरिज़्म का गुणगान करना होगा, छापा तिलक लगाना होगा, आत्मा परमात्मा की एकता और इस दुनियाँ को माया सिद्ध करना होगा, खादी पहननी होगी, बेतरतीब दाढ़ी-बाल और कंधे पर झोला लटकाये, हफ़्तों विना ग़ुस्ल किये, पुलिया पर बैठना होगा, आवारा गायों को रोटी और चीटियों को चीनी खिलानी होगी, उचके पाजामे और जालीदार टोपी पहनने होंगे, गले की माला में क्रॉस लटकाना होगा, भगवे रंग की पुतली पहननी होगी, नीम-हकीमी को छुपाने के लिए गले से स्टेथोस्कोप लटकाना होगा|
पाखंड एक भाव है जो ठगने की नैसर्गिक प्रवृत्ति, जिसका मूलस्रोत जिजीविषा है, से अंकुरित होता है| जगज़ाहिर है कि शिकारी (predator) की सफलता इस बात पर निर्भर होती है कि शिकार (prey) की तुलना में उसके पास कितना अधिक ज्ञान और अवसर है| यह ज्ञान और अवसर की विषमता ही शिकार (hunting) का आधार है| स्वाभाविक है कि शिकारी और शिकार दोनों छिपेंगे, छद्मावरण (camauflaging) का सहारा लेंगे, एक-दूसरे को ग़लत इशारे सम्प्रेषित करेंगे और वस्तुस्थिति को उजागर नहीं करना चाहेंगे| शंका और विश्वास मौलिक प्रवृत्तियॉँ हैं लेकिन दोनों ही दुधारी तलवारें हैं| विश्वास के विना उपलब्ध अवसरों का दोहन तथा उपयोग (exploitation) नहीं हो सकता, पर अतिविश्वास जानलेवा हो सकता है| दूसरी तरफ़, शंका नए अवसरों को ढूँढने की प्रवृत्ति (exploration) को उकसाती है किन्तु अत्यधिक शंका अस्थिरता और चपलता को जन्म देती है और सफलता की भ्रूणहत्या कर देती है| विश्वास और शंका के साम्य में पाखंड और उसके आलम्बन (आडम्बर) का बहुत बड़ा रोल है जो शिकार के मन में विश्वास पैदा करता है| शिकारी इसी विश्वास का फ़ायदा उठाता है|
धर्मध्वजिता पाखंड और उसके आलम्बन का वह रूप है जिसमें धर्म के टोटकों का प्रयोग होता है| सर्वधर्मसमानत्व, धर्मनिरपेक्षता इत्यादि नारों से लेकर धार्मिक कट्टरता और हिंदू, मुस्लिम या ईसाई ज़िहाद धर्मध्वजिता के उदाहरण हैं| किसी मनुष्य का चिंतन, उसकी भाषा, उसके हाव-भाव, उसकी आचारपरक मान्यताएँ इत्यादि उसके पालन-पोषण की संस्कृति के सर्वदा निरपेक्ष हो ही नहीं सकती| गाँधी जी तक ने ईश्वर और अल्लाह की एकता बतलायी, लेक़िन उनके भजन में मुलुंगु या न्याकोपोन (अफ्रीका के भगवान) तो नहीं आये, हालाँकि वह अफ़्रीका में रह चुके थे| कोई भी व्यक्ति अपने कल्चरल मैट्रिक्स से बाहर नहीं निकल सकता, और कल्चरल मैट्रिक्स से बाहर होने का ढोंग - धर्मनिरपेक्षता - धर्मध्वजिता है, पाखंड है, आडम्बरधारिता है, शिकारी प्रवृत्ति है| यही हालत उनकी है जो इस दुनियाँ को माया और मिथ्या बतलाते हैं पर मठों में महंत बने बैठे हैं या आश्रमों में चकला चलाते हैं, या धन की लोलुपता में गोद ली हुई बेटी तक से निक़ाह पढ़ने को तैयार हैं| यही धर्मध्वजिता थी जिसकी वज़ह से हज़ारों दृढ़संयमी नन्स (nuns) डायन कहकर जिंदा जला दी गयी थी, हालाँकि इसका मूल कारण धर्मगुरुओं की अदम्य और आपराधिक कामुकता थी|
चाहे सौ वर्षों तक मुकदमा चलता रहे लेक़िन किसी बेग़ुनाह को सज़ा नहीं देंगे की ज़िद न्यायध्वजिता है| चाहे हज़ार दोषी अभयारण्य में विहार करते रहें लेक़िन एक निर्दोष को सलाख़ों के अंदर नहीं होने देंगे, यह टेक न्यायध्वजिता है| हम औरतों की शिकायतों को सदासत्य मानेंगे और मर्दों को जन्मजात अपराधी मानेंगे - और हम ऐसा करेंगे डंका पीटकर - यह न्यायध्वजिता है| कोई नहीं मानेगा कि यह सब न्यायधारियों और न्यायकारियों की भीरुता या असंवेदनशीलता के चलते होता है| हर एक व्यक्ति को बोलने का - कुछ भी बोलने का - अधिकार है| कोई किसी को पप्पू कह सकता है, चायवाला कह सकता है, घूसखोर कह सकता है, चरित्रहीन कह सकता है और विना किसी उत्तरदायित्व के, विना किसी पुख्ते प्रमाण के| यह है बोलने की आज़ादी की रक्षा और यही न्याय की कसौटी है; इसी को न्यायध्वजिता - इंसाफ़ का परचम लहराना कहते हैं| आज की जातिवादिता, पिछडेपन की गुहार, सामाजिक न्याय, आरक्षण, संस्कृति की रक्षा, वेदवादिता, मनुवादिता, इत्यादि न्यायध्वजिता के ही लक्षण हैं| छद्मन्यायपरता (न्यायधर्मिता का दिखावा) के पाखंड ने न्याय के छद्म से किस तरह अपराधियों की रक्षा की है यह जग-ज़ाहिर है| अधिकांश बड़े अपराधी छुट्टे सांढ़ की तरह घूमते रहे और उन्होंने न्यायव्यवस्था का मज़ाक बना दिया| नेता और अपराधी मिल गए; अपराधी नेता बनकर विधायक बन गए और नेताओं का वर्चस्व बाहुबल से स्थापित होने लगा| न्याय की प्रक्रिया इतनी जटिल, लस्त-पस्त, छिद्रपूर्ण, लचर, और दीर्घसूत्रितापूर्ण कर दी गयी जिसमें केवल अपराधी ही पनप सके, जी सके, विकास कर सके| धार्मिक बहुलवाद (रिलीजियस प्लूरलिज़्म) , सिक्युलरिज़्म, धार्मिक सहिष्णुता, और सामाजिक न्याय (सोशल जस्टिस) के पाखंड के भीतर अन्याय, उपेक्षा और तरफ़दारी की फ़सल उगायी गयी जहाँ भारत की बहुसंख्यक जनता मार खाकर भी रो नहीं सकी| हमारी न्यायव्यवस्था एक अंधी देवी है जिसके हाथ में न्याय की तराजू ज़रुर है, लेकिन वह देख नहीं सकती की डंडी समतल है या नहीं| तीन गाँधीवादी बन्दर लगे हुए हैं पलड़ों को बराबर करने और जिधर का पलड़ा नीचे होता है उधर की रोटी से एक कौर काट लेते है| अंधी देवी और तीन प्रपंची बन्दर|

देवात्मक मानवतावाद के पाखंड में मानव को देवोचित गुणों से भरपूर माना गया हालाँकि धरातल पर आदमी पशुता से भरा हुआ है| इस पाखंड में यह माना गया कि धनाढ्य वर्ग, उद्योगपति और व्यापारी धन के न्यासरक्षक (ट्रस्टी) के रूप में स्वार्थहीन रूप से काम करेंगे| उदाहरण के लिए वे अपनी कमाई का अधिकांश (80% से 95% तक) हिस्सा टैक्स दे देंगे जिससे समाज का कल्याण होगा| राजनीतिक नेतागण भूखे पेट, खादी कपड़े धारण कर, जनकल्याण के लिए दर-दर भटकेंगे और सत्ता से कोई व्यक्तिगत फ़ायदा नहीं उठायेंगे| जमींदार करुणावश अपनी ज़मीन को भूमिहीन जनता में बाँट देंगे| सर्वोदय के नटवरलालों ने अनेक तरह की नौटंकियाँ कीं और ज़मीन के बँटवारे का नारा एक छलावा होकर रह गया| शिक्षकगण पेट में कपड़ा बाँधकर सरस्वती की उपासना करेंगे| वक़ील और न्यायाधीश दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए जान लड़ा देंगे| पुलिस के लोग डंडे लेकर अपराधियों को नियंत्रित कर लेंगे| यह मान लिया गया और इसे मनवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी कि विश्वशांति की घोषणा और कबूतरबाज़ी के चलते भारत के कोने-कोने में बुद्ध पैदा होंगे और सारे अंगुलिमाल कंठी धारण करके मेवानिवृत्त हो जायेंगे| इत्यादि|
समाजवादिता के पाखंड को एक सुनहरा नाम देकर जनमानस पर चस्पा किया गया| इसका नाम था सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी (या सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ कैपिटलिस्टिक सोसाइटी, जिसमें कैपिटलिस्टिक शब्द को गूढ़ रखा गया)| इसकी विस्तृत विवेचना डा. शिवचंद्र झा की पुस्तक (Studies in the Development of Capitalism in India, Firma K. L. Mukhopadhyay, 1963) में है जिसमें दिखाया गया है कि समाजवादिता की आड़ में किस तरह भारतीय पूँजीवाद का विकास हुआ और किस तरह उद्योगपतियों और व्यापारियों के स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय हितों का वलिदान किया गया| डा. प्रणब बर्धन की पुस्तक (The Political Economy of Development in India, Oxford. University Press, Delhi) में यह दिखाया गया कि किस तरह व्यापारियों/पूँजीपतियों, जमींदारों और नेताओं की तिकड़ी ने गंभीर साज़िश की तहत जनता और देश के संसाधनों की लूट मचाई| प्रो. अशोक रूद्र ने दिखाया [Emergence of the Intelligentsia as a Ruling Class in India, ASHOK RUDRA, Indian Economic Review, New Series, Vol. 24, No. 2 (July-December 1989), pp. 155-183] कि कैसे बुद्धिजीवी वर्ग ने उस तिकड़ी को सराहा और बुद्धिजीवी वर्ग अपने स्वार्थों के लिए उस तिकड़ी के हाथ बिक गया| इन कारणों से भारत क्रोनी कैपिटलिज़्म (Crony Capitalism) का नमूना बन गया| हम समाजवादिता और आदर्शवादिता का राग अलापते रहे और प्रच्छन्न पूँजीवाद बढ़ता रहा| काले धन, काली अर्थव्यवस्था और काली मनोवृत्ति हमारे जनमानस और कार्यकलापों पर छा गयी| इसका इलाज़ पाखंड में नहीं है, प्रकट होने में है| पूँजीवाद को झूठे आदर्शवाद से रोका नहीं जा सकता है|  
हम भारतीय इस तरह की अनेक पाखंडों में लिप्त हैं| ख़ास करके बुद्धिजीवी वर्ग इसमें अधिक लिप्त है| लेक़िन ध्यान रहे, झूठ के पाँव नहीं होते| आज न कल हम भरभराकर ढह जायेंगे|

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें