बुधवार, 23 अक्तूबर 2019

माँ के मज़ूर

शुरू के दिनों में विवेकानंद अपनी मुक्ति के वारे में सोचा करते थे, श्री रामकृष्ण परमहंस से भी उसी मुक्ति की युक्ति के वारे में पूछा करते थे|
एक दिन श्री परमहंस ने उनको डाँटा| कहा कि अपनी मुक्ति के वारे में स्वार्थी की तरह इतना क्यों सोचते रहते हो? माँ ने जीवन देकर तुम्हें अपनी चाकरी में बहाल किया है| उनका काम करो| शाम होगी तो मजूरी मिल जाएगी| चले जाना| मुक्ति ही मुक्ति है, कौन पकड़े हुए है तुम्हें? क्या और मजूर नहीं मिलेंगे माँ को? फिर, मर्जी हो तो काम पर आ जाना| काम-धाम साढ़े बाइस, आते ही मजूरी चाहिए|
विवेकानंद जी समझदार थे| गुरु जी का इशारा समझ गए|

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

विवेकानंद जी की समाधि

कहते हैं, विवकानंद जी समाधि की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ज़िद मचाये हुए थे, और श्री रामकृष्ण परमहंस उनको टालते जा रहे थे| आख़िर श्री रामकृष्ण परमहंस हार गए, और उन्होंने विवकानंद जी को समाधि कि स्थिति में पहुँचा दिया| जब विवेकानंद जी समाधि की स्थिति से सामान्य स्थिति में लौटे, तो गुरु महाराज ने कहा - देख लिया न? बस| अब तू कभी समाधि की स्थिति में नहीं जा सकेगा| ताला बंद, चाबी मेरे पास| अब ताला एक वार ही खुलेगा - जब तू जानेवाला होगा| फिर तू चला जायेगा, लौटेगा नहीं| महासमाधि होगी|
विवेकानंद जी चिंतनशील थे| वह सोचने लगे कि गुरु जी ने देकर क्यों छीना? क्या मंशा है उनकी? क्या चाहते हैं? विना कहे ही क्या कहा उन्होंने? क्या उपदेश दिया? उनके लिए तो शिष्य को समाधि दिलाना और बच्चे को अमरुद दिलाना दोनों बराबर हैं, फिर यह ताले-चाबी की बात क्यों? क्या समाधि से भी बड़ी कोई चीज़ है जो मुझे देना चाहते हैं| क्या समाधि खिलौना है और वह नहीं चाहते कि मैं खिलौने के पीछे पागल होकर अपने उद्देश्य को भूल जाऊँ? क्या चाहते हैं वह? क्या करवाना चाहते हैं मुझसे? फिर अंतकाल में महासमाधि क्यों? क्या वह चाहते हैं कि मैं जाने के पहले यह समझ लूँ कि जो किया वह भी खेल था, जीना खेल था, करना खेल था, अब जाना भी खेल है? चलो, वाहे गुरू की फ़तह| उन्हीं की चले, जैसी उनकी मर्जी|
विवेकानंद जी पढ़े-लिखे व्यक्ति थे| उनकी गहरी पैठ थी भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में| आश्चर्यजनक याददाश्त और धारणाशक्ति थी उनकी| मन-ही-मन सारा पढ़ा शास्त्र खँगालने लगे| श्री रामकृष्ण परमहंस और विवकानंद जी में यह बहुत बड़ा अंतर था| श्री परमहंस का चित्त/मन सब्लिमेटरी था - वह एक दुनियाँ से दूसरी दुनियाँ में फांद कर चले जाते थे विदाउट गोइंग थ्रू अ प्रॉपर चैनल, पलक झपकते ग़ायब| विवकानंद जी रास्ते-रास्ते जाने वाले थे, क्रमिक ढंग से, लेक़िन बहुत तेज़ी से| सो, वह चले रास्ता पकड़ कर|
शास्त्रों को खँगाला तो हर जग़ह एक ही निष्कर्ष| पूरब में भी, पश्चिम में भी| जीवन का उद्देश्य है समाज का कल्याण, समाज का उत्थान, मानवीय मूल्यों की स्थापना, हृदय-हृदय में आलोक और शुभ-चिंतन, आईने सा साफ़ मन, फूलों का समाज, बच्चों की किलकारियों से भरा समाज, मां की ममता और बहन-बेटी के प्रेम से लबालब भरे नारी-हृदय, पिता और भाई के स्नेह से भरे पुरुष हृदय| भूख नहीं, बीमारी नहीं, चिंता नहीं, भय नहीं, ग़ुलामी नहीं| कर्म का यही अर्थ, धर्म का यही अर्थ, सत्य का यही अर्थ, तप का यही अर्थ, नैतिकता का यही अर्थ, जीवन का यही अर्थ, मृत्यु का यही अर्थ| अपनी व्यक्तिगत मुक्ति, और समाधि में उलझने का अपने-आप में कोई अर्थ नहीं है| अगर यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि समाज के लिए नहीं, वरन केवल अपने लिए हैं तो वे खिलौने हैं, बच्चों के लिए हैं|
विवेकानंद जी चिंतन में डूबे खड़े थे, कि श्री परमहंस वहाँ आ गए| हँसते हुए बोले - अब तो समझ गए? पर छूछे समझने से क्या होगा? करो, करना शुरू करो|
इस आदेश पर विवेकानंद जी ने सारी जिंदगी डाल दी|
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सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

खखरी और पोचा

सुजला, सुफला, शस्यश्यामला| पता नहीं, कवि (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, आनंदमठ में) ने सुदूर विगतकाल का वर्णन किया था, या तत्कालीन स्थिति का वर्णन किया था. या वर्णित स्थिति के भविष्य में आने की कामना की थी| एक सौ छत्तीस वर्ष गुज़र गए आनंदमठ के| तब क्या होता था, कौन बतलाये? हाँ, जो कवि ने दर्शाया है वह बंगाल का दुर्भिक्ष काल था, जब लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे थे - सब गाँव छोड़कर यहाँ-वहाँ भाग रहे थे| तो अवश्य ही कवि ने माता के उस रूप की कल्पना की होगी जो बेड़ियों के कटने के बाद होगी, या बेड़ियों के लगने के पहले की होगी| मेरे परदादे का जमाना - बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का जमाना - सुजला, सुफला, शस्यश्यामला धरती - मेरी धरती - मेरी जन्मभूमि - मेरे बाप-दादे-परदादे की जन्मभूमि| वन्दे मातरं|
मैं, बंकिमचंद्र का परपोता, क्या देख रहा हूँ? पृथ्वीमाता के अनगिनत परपोतों, प्रपरपोतों की भीड़ - बेरोज़गार बच्चों की भीड़, ख़ानदान की परंपरा और इज्ज़त को तार-तार करने के लिए हुहुआती भीड़, किसको कहाँ और कैसे लूट लें का मौक़ा ढूंढती भीड़, माता की गरिमा पर कीचड़ उछालने को उत्सुक भीड़, अपनी संस्कृति को लतियाती भीड़, भेड़ियों की भीड़, भेड़ों की भीड़, दलालों की भीड़, कंगालों की भीड़, फटे-हालों की भीड़|
धान के पौधे पला गए| पुआल ही पुआल - दाने नहीं लगे| सारा खाद-पानी बेकार गया| उपजा पर पोचा-पुआल| बुद्धि तो घास चरकर जिन्दा रह सकती है, लेक़िन शरीर क्या करे? बुद्धिमान लोग चारा खा सकते हैं, उन्हें पुआल की जरूरत है, पुआल-पोचा फ़सल बेशकीमती है - जहाँ चाहेँगे लगा देंगे - एक जून का खाना देकर - जय बोलेंगे, प्रदर्शन करेंगे, धरना देंगे, लाठी खायेंगे, टाँग तुड़वा कर घर लौट आयेंगे, इंकलाब करते हुए खेत आयेंगे, ख़ून की खाद दे देंगे| पुआल बड़े काम की चीज़ है - पोचा बड़े काम की चीज़ है| लेकिन आम आदमी तो पुआल खाकर जिन्दा नहीं रह सकता, सब तो नेता नहीं बन सकते|

खखरी - केवल भूसा, दाना नहीं| ओसाओ, फटको तो सब उड़ जायेंगे| हाँ, तब भी काम में आयेंगे - चूल्हे-भाड़ में झोंकने के काम आयेंगे - गाय-गोरू को खिलाने के काम आयेंगे| भारतमाता की औलाद - खखरी| डिग्री भी देते हैं और अनइम्प्लॉयेबल (निकम्मा, रोज़गार के अयोग्य) भी कहेंगे| अस्सी से अधिक प्रतिशत यांत्रिकी-डिग्रीधारी निकम्मे - डोनेशन देकर पढ़े - बाप की ज़मीन बिकवाकर पढ़े| खखरी|
कुछ खखरी अपने को बुद्धिजीवी कहने लगे हैं | थोथा चना बाजे घना| मैंने एक बुद्धिजीवी लौंडे को पूछा कि मार्क्स की क़िताब Das Kapital में Das का क्या अर्थ है? वह झुंझलाकर बोला - मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो अंकल| अरे, यह भी कोई प्रश्न है? दास का मतलब है ग़ुलाम| कैपिटल की इस्पेलिंग ग़लत लिखी है तुमने, Capital होती है| आप क्या समझेंगे, आप सब साम्राज्यवादी रहे हैं, पूँजीवाद के समर्थक| तभी तो Calcutta से Kolkata बनाया गया| Das Kapital का मतलब है सर्बोहारा - जिन्हें पूँजीवादियों ने गुलाम - दास - बनाया है|
खखरी, पोचा| दादा बंकिमचंद्र जी, आपके परपोते और उनकी औलाद खर-पतवार हैं|

चिंता का विषय

इसपर कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि भारत का समाज, इसकी मनोवृत्ति, इसके संस्थान और इसकी अर्थव्यवस्था अर्धविकसित (underdeveloped और developing) नहीं पर पिछड़े हुए (lagging) हैं| पिछड़ने के कारण बहुत सारे हैं, जैसे विदेशी शासन और उनकी नीति, स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद की नीति, भारतीय जनता और राजनीतिज्ञों, नेताओं की अदूरदर्शिता, उनका पाखंडपूर्ण देशप्रेम, बुद्धिजीवियों का दोगलापन और विकृत स्वार्थपरता, इत्यादि|
भारतीय राष्ट्रप्रेम ने बीजेपी की जीत के साथ सर उठाया जिसको नरेंद्र मोदी नेतृत्व दे रहे हैं| नरेंद्र मोदी एक ईमानदार, कर्मठ और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले चतुर व्यक्ति हैं पर अनेक विरोधी प्रबल शक्तियों (काउंटरवेलिंग पावर्स) से घिरे हुए हैं - यही चिंता का विषय है; उनके ख़ुद के लिए नहीं, भारत राष्ट्र के लिए, भारत की जनता के भविष्य के लिए|
मोदी ने काले धन और पूँजी पर हमला किया, दुश्चरित्रता पर हमला किया, पाखंडपूर्ण सेक्युलरिज़्म पर हमला किया, अलगाववाद पर हमला किया, राजनैतिक वंशवाद पर हमला किया और सबकुछ जल्दी-जल्दी किया, एक साथ किया|
इसका फल यह है कि विरोधी शक्तियाँ अनेक दिशाओं से मोदी और भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रहार कर रही हैं| अंदर से भी कमजोरियाँ हैं - बीजेपी के कतिपय नेता न राष्ट्रवादी हैं, न दूध के धुले हैं| वे अपना उल्लू सीधा करने की ताक में लगे हुए हैं, कर भी रहे हैं| ऐसे चरित्रहीन नेता बीजेपी को अंदर से कमज़ोर बनाते हैं और विरोधी ताक़तों को मदद करते हैं|
काले पूँजीपतियों पर प्रहार हुआ है तो अर्थव्यवस्था, जो अबतक काली पूँजी पर टिकी हुई थी, चरमरा गयी है| विरोधी शक्तियाँ इस मंदी को अपना हथियार बना रही है| आभासी वस्तुस्थिति उनके पक्ष में है, उन्हें भविष्य या मूल कारणों से क्या लेना देना|
देशी और विदेशी बुद्धिजीवी एकजुट होकर मोदी की बुली कर रहे हैं, धौंस दिखा रहे हैं, सारा ठीकरा मोदी के सर फोड़ रहे हैं| पिछले सत्तर साल की दुर्व्यवस्था के कारणों पर बोलने-लिखने के लिए उन्हें कुछ नहीं है| उन्हें लगता है कि अगर बीजेपी की सरकार नहीं बनती तो भारत में स्वर्णिम युग होता| सभी धर्मों के लोग आपस में मिलकर चाय-नाश्ता करते| उद्योग धंधे फलते फूलते, बेरोजग़ारी नाममात्र को रहती, ग़रीबी ख़त्म हो गयी रहती|
तथाकथित मशहूर अर्थशास्त्री, जो नालियों में बहे हुए भारतीय दिमाग़ हैं और विदेशी नागरिकता लेकर वहीँ बस गए हैं, अपने पिछड्डे पर ताल बजा कर मोदी को नचाना चाहते हैं| वे चाहते हैं कि मुफ़्तख़ोरी भी बढ़े, निकम्मों को नौकरियाँ भी मिलें, चीजों के दाम भी न बढ़ें, विनियोग भी बढ़े, पूँजीवाद भी बढ़े, और उद्योगपतियों का गला भी घोटा जाये| भारत टुकड़े-टुकड़े भी हो और एक राष्ट्र भी हो जो दुश्मनों और दोस्तों को समान दृष्टि से देखे| चुस्त व्यवस्था भी हो और मनमानी की पूरी छूट भी हो| हम लूटें पर कोई लुटे नहीं| घोड़े और घास, होवे दोनों का विकास| वो बेदर्दी से सर काटें अमीर और मैं कहूं उन से, हुज़ूर आहिस्ता, आहिस्ता जनाब, आहिस्ता आहिस्ता|
भारत एक दब्बू राष्ट्र नहीं रहा तो पड़ोसी देश चिंतित हैं - अब किस देश की बीवी को भाभी कहेंगे? अब जब भारत ने कबूतर उड़ाना बंद कर दिया है तो उनके हाथों के तोते उड़ रहे हैं| चिंतित होना लाज़िमी है|
पिछले छह दशकों से बैंक लूटे जा रहे थे और NPA बनता जा रहा था| अब छमकछल्लो कब तक नाजायज़ पेट छिपाए? पानी में हगा तो आख़िर उतरायेगा ही| अब सब छी-छी कर रहे हैं, नाक मूँद रहे हैं, 'आदा-पादा कौन पादा' खेल रहे हैं और अंत में बीजेपी/ मोदी को मार रहे हैं| यह चिंता का विषय है|
वर्ष 1990 में अमरीकी डॉलर साढ़े-सत्रह रूपये का था| वर्ष 2013 में वह साढ़े-बासठ रूपये का हो गया था| यानि 23 वर्षों में रूपये के गिरने की औसत वार्षिक दर (rate of fall) -0.0538 थी| अब 2019 में डालर 71 रूपये का है और 2014-19 की वही दर -0.0252 है| लोगों को यह नहीं दिखता कि अगर रुपया पुराने दर (-0.0538) से गिरता तो आज डालर 81 रूपये का होता| इसपर घोर चिंता व्यक्त की जा रही है और विरोधियों को शंका है कि अर्थव्यवस्था डूब जाएगी| 1990-2013 में अर्थव्यवस्था फलफूल रही थी|
मोदी सरकार ने क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन किया है - एक जर्जर इमारत को, जो बैठने के लिए अब-तब कर रही थी, गिरा डाला है| अब नयी इमारत बनेगी| बहुत सारी ईंटें गल गयी थी, उन्हें मलवे में डालना होगा| अच्छी ईंटों का पुनरुपयोग करना होगा| यह बड़ा काम है, इस की चिंता बड़ी चिंता है|

शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

पाखंड

उनका प्रवचन ख़त्म हो चुका था, श्रोता भक्त गण जा चुके थे; कुछ प्रबुद्ध-से लोग प्रश्नोत्तर सेशन में भाग लेने बैठे थे| संतश्री ने मेवा पाया और हमने भी थोड़ा सा प्रसाद पाया|
प्रश्नोत्तर शुरू हुआ और संतश्री ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा - विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः (पंडित लोग विद्वान विनयी ब्राह्मण को, गाय और हाथी, कुत्ते और चाण्डाल को एक दृष्टि से देखते हैं)| अगला प्रश्न एक प्रौढ़ व्यक्ति, जो देखने से लगता था कि महीनों से नहीं नहाया, गन्दा कुर्ता-पायजामा पहने, दाढ़ी-बाल बेतरतीब बढ़े - ने किया - संतश्री, क्या मैं आपको चाण्डाल या कुत्ता समझूँ?
संतश्री ने तपाक से उत्तर दिया - मैं न पंडित हूँ, न विद्वान विनयी ब्राह्मण हूँ, न गाय, हाथी, कुत्ता या चाण्डाल| मैं संत हूँ| तुम आधुनिक पंडित, विद्वान ब्राह्मण हो, मार्क्सवाद ब्रांड विद्या और विनय से सम्पन्न| तुम चाहो तो अपने को गाय, हाथी, कुत्ता या चाण्डाल समझ सकते हो|

भारतीय अर्थशास्त्र में फैड

फ़ैशन और फैड वे व्यवहार हैं या सोच हैं जो बहुत तेज़ी से बहुत सारे लोगों के चहेते हो जाते हैं, आधुनिकता के प्रतीक समझे जाते हैं, पर कुछ वर्षों के बाद घिस-पिट कर मिट जाते हैं| भारतीय अर्थशास्त्र में इस तरह के अनेक फ़ैशन और फैड आये हैं जिन्हें मैंने ख़ुद देखा है| अभी हम उनके वारे में बातें करेंगे|
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आर्थिक विकास का फैड चला| पहले आत्म-निर्भरता, सर्वोदय और कुटीर उद्योग का फैड चला| चरखा उसका प्रतीक था| लगता था कि चरखा कातने से देश की सारी आधि-व्याधि दूर हो जाएगी| लेकिन यह फैड पंद्रह वर्षों में दम तोड़ गया|
इसी बीच प्लैनिंग और भारी सरकारी उद्योगों की स्थापना का फैड आया| स्वदेशी, कुटीर उद्योग, चरखा और ग्रामीण आत्मनिर्भरता को पुराना कहकर झटक दिया गया| सारे अर्थशास्त्री प्लैनिंग का गुणगान करने लगे, देश का औद्योगीकरण करने लगे|
वर्ष १९६४-६५ आते-आते कृषिक्षेत्र का फैड आ गया| नए बीज, रासायनिक उर्वरक, हरित क्रांति का फैड अर्थशास्त्रियों का चहेता बन गया| पूरे देश के अर्थशास्त्रियों के लिए सावन आ गया और उनके विचारों में हरित क्रांति छा गयी| सावन के आंधरे को सूझत हरी हरी| हरे शोधपत्रों की भरमार हो गयी|
हरित क्रांति कुछ दिनों में सूखने लगी और क्षेत्रीय असमानताओं के अध्ययन ने फैड का रूप धारण कर लिया| जिसे देखो वही क्षेत्रीय असमानताओं की चिंता में दुबला हुआ जा रहा है| अर्थशास्त्र का अर्थ हो गया क्षेत्रीय असमानताओं का अध्ययन और उसे दूर करने की विद्या| समझने वाले समझ गए और जो न समझे वे अनाड़ी थे| वर्गीय असमानता की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया| वह तो ट्रिकल डॉन के चलते अपने -आप ख़त्म हो जायेगा|
फिर आया बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैड| इसे सब रोगों की एक दवा माना गया, उद्योग छोटे और बड़े, कृषि, पिछड़े क्षेत्रों का विकास और क्या-क्या नहीं| इसने राजनीतिक दरिद्रता को भी दूर किया| और तत्कालीन अर्थशास्त्रियों ने इसके ख़ूब गीत गाये|
इसके बाद वर्गगत असमानता का फैड आ गया| ग़रीबी को दूर करना जरूरी हो गया , पिछड़े तबक़े के लोगों को सामाजिक न्याय देना ज़रूरी हो गया| यह न हुआ तो कुछ नहीं हुआ|
ग़रीबी और वर्गगत असमानता दूर हुई नहीं कि वैश्वीकरण तथा आर्थिक खुलापन का फैड शुरू हो गया| लाख रोगों की एक दवा हाथ लग गयी| इसी पर धुआंधार रिसर्च होने लगे, शोधपत्र छपने लगे|
लेक़िन जल्द ही एक नया फैड आ गया - मानव विकास का फैड| अर्थशास्त्र के सारे जर्नल मानव विकास की चोंचलेबाजी से गंधा गए| सरकारों ने झूठ-सच संख्याओं से रिपोर्ट भर दिए और अर्थशास्त्रीगण ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स बना-बना कर कृतकृत्य हो गए| विकास का मतलब ह्यूमन डेवलपमेंट|
अब एक नया फैड आने वाला ही है| ज़मीन तैयार है| अगर आपका अर्थशास्त्र से कुछ भी रिश्ता है तो आप समझ गए होंगे| शुभं भूयात|
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।
(हम साथ-साथ प्रॉजेक्ट लें, साथ-साथ पेपर छपवाएँ, हमारा साथ-साथ विकास हो - हम मिल-जुल कर पैसा खायें - हम दोनों पढ़ने-पढ़ाने का ढोंग करते हुए तेजस्वी हों, एक दूसरे की पीठ को सहलाएँ, कभी एक दूसरे की पोल न खोलें)|
ॐ शांतिः शांतिःशांतिः|
इति फैडोपनिषद

जस्सो कक्का (संस्मरण)

फिर एक चिड़िया उड़ी, फुर्र|
उसके बाद क्या हुआ जस्सो कक्का?
फिर एक चिड़िया उड़ी, फुर्र|
आगे कहिये, न | आगे क्या हुआ?
फिर एक चिड़िया उड़ी, फुर्र|
आगे की कहानी कहिये न, जस्सो कक्का|
जब तक सारी चिड़ियाँ उड़ नहीं जाती, कहानी आगे कैसे बढ़ेगी?
हाँ, फिर एक चिड़िया उड़ी, फुर्र|
. . . . . . . . . .
. . . . . . . . . . .
हमें रोज़-रोज़ कहानियाँ सुनाते-सुनाते जस्सो कक्का थक चुके थे| तो उन्होंने यह तरीक़ा ढूंढ निकाला और यही चलता रहा कुछ दिनों के लिए| आख़िर तंग आकर हमने जस्सो कक्का का पिंड छोड़ दिया|
जस्सो कक्का दूसरे टोले के थे, पर शाम में अक्सर हमारे घर आते थे| आते ही हम बच्चे उन्हें घेर लेते थे और जब तक वह कहानी नहीं सुना देते थे, हम उन्हें बड़का कक्का (हम पिता जी को बड़का कक्का कहते थे) क़रीब तक नहीं जाने देते| कहानी सुना देने के बाद बड़का कक्का से कुछ बातें करके जस्सो कक्का चले जाते थे, और इसके बाद हम बड़का कक्का के पास पढ़ने बैठ जाते थे|
जस्सो कक्का के पास कहानियों का शायद अक्षय भंडार था| उनकी कहानियों में अनेक पात्र थे, बैल थे, गायें थीं, घोड़े थे, बन्दर थे, उल्लू थे, बाज़ थे, गिद्ध थे, सांप थे, सियार थे, शेर, बाघ, चीते थे, हिरन थे, कुत्ते थे, चूहे थे, पेड़ थे, चीटियाँ थीं, राजा, रानी, राजकुमार थे, परियाँ थीं, डायनें थीं, जादूगर थे, तोते में जान रखने वाले राक्षस थे, देवता थे - कौन नहीं था उनकी कहानियों में! उनके तीन भूत तो दूर बाड़ी में खड़े ऊँचे ताड़ के जोड़े पेड़ों पर रहते थे और सिर्फ़ बदमाश, शरारती बच्चों की चुटिया काटने पेड़ों से नीचे उतरते थे| खटिया पर बैठे बच्चों को भूत नहीं पकड़ते थे|
जस्सो कक्का से हमने बहुत कहनियाँ सुनीं| तब उनके कोई संतान नहीं थी| फिर नारायण का जन्म हुआ - जस्सो कक्का का बड़ा बेटा| जस्सो कक्का से कहानियाँ सुनना हमलोग बंद कर चुके थे और जस्सो कक्का भी कम आने लगे थे| हम सोचा करते थे कि जस्सो कक्का नारायण को कहानियाँ सुनाते होंगे और इस बात पर हँसते थे कि जो बच्चा केवल रोता है, बैठ भी नहीं सकता, बिछावन पर शूशू करता है, वह कहानियाँ क्या सुनता-समझता होगा!
हम धीरे धीरे बड़े होते गए - फिर शहर चले गए - और फ़िर चले ही गए|
एक दिन किसी ने बतलाया - जस्सो कक्का नहीं रहे|
फिर एक चिड़िया उड़ी, फुर्र|
यह जस्सो कक्का के पेड़ पर अंतिम चिड़िया थी और उनकी अंतिम कहानी भी|

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

बाह्य और आभ्यांतरिक दिशाएँ

बाह्य (बाहरी) दस दिशाएँ हैं - (१) पूर्व, (२) पश्चिम (३) उत्तर, (४) दक्षिण, (५) ईशान (पूर्वोत्तर), (६) अग्नि (पूर्व-दक्षिण ), (७) नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम), (८) वायव्य (उत्तर-पश्चिम), (९) उर्ध्व (ऊपर), और (१०) अधः (नीचे)|
इन दिशाओं का आध्यात्मिक पहलू भी है| आंतरिक (मन की) दस दिशाएँ (रुझान और चिंतन की दिशाएँ) हैं - (१) भविष्य की ओर (पूर्व-चिंतन), (२) भूत की ओर (भूत-चिंतन), (३) अलगाव, निवृत्ति-चिंतन, (४) लगाव, प्रवृत्ति-चिंतन, (५) पूर्व-निवृत्ति चिंतन, (६) पूर्व-प्रवृत्ति चिंतन, (७) भूत-प्रवृत्ति चिंतन, (८) भूत-निवृत्ति चिंतन, (९) ऐहिक या लौकिक चिंतन (सांसारिक, दुनियाँदारी), और (१०) बौद्धिक या पारलौकिक चिंतन|
इन दिशाओं में उर्ध्व और अधः के साथ पूर्व, पश्चिम इत्यादि से बने कोणों की गणना नहीं की गयी हैं| अगर इनकी भी गणना की जाये तो छब्बीस (८ x ३ + २) दिशाएँ होंगी| इन पर सत, रज और तम की स्थापना से कुल अठहत्तर (२६ x ३) दिशाएँ होंगी| पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों की सत, रज और तम में रुझान के चलते अतिरिक्त तीस दिशाएँ होंगी| इस तरह कुल ७८ + ३० = १०८ दिशाएँ होती हैं|
इन १०८ दिशाओं का विस्तार आंतरिक विश्व या ब्रह्माण्ड है| यह मन, बुद्धि और आत्मा समेत शरीर ही ब्रह्माण्ड या विश्व है| केंद्र में आत्मा है| केंद्र की कोई दिशा नहीं होती, दिशाएँ केंद्र के सापेक्ष होती हैं| इन्हीं दिशाओं में, इसी विश्व में मन के भ्रमण (चरण) को विचार कहते हैं| इन्हीं दिशाओं (आंतरिक विश्व) में चित्त का भ्रमण विकार हैं| चित्त के भ्रमण का निरोध और चित्त का केंद्रीकरण एकाग्रता है जो योगसाधना के लिए आवश्यक है| निरंतर प्रयास से चित्त की उड़ान पर, उसके विकारों और विस्तार पर, नियंत्रण और उसकी परिधि को क्रमशः सीमित करना साधना है| केंद्र में चित्त का विलय महासमाधि है| इस स्थिति में (आंतरिक) विश्व भी केंद्र में विलीन हो जाता है|
आत्मा अपने को चेतन रूप में प्रकट करता है और चेतन बुद्धि का निर्माण करता है| बुद्धि इन्द्रियों का निर्माण करती है और साथ ही, इन्द्रियों के नियमन-नियंत्रण के लिए मन का निर्माण करती है| इन्द्रियों से वाह्य जगत का ज्ञान और तत्सम्बन्धी कार्य अपना-अपना रूप लेते हैं| वाह्य और आंतरिक विश्व के भेद के लिए बुद्धि अहंकार का सृजन करती है| साधना पहले इन्द्रियजन्य विस्तार से निस्तार दिला कर बुद्धि को अहंकार (अपनेपन) पर केंद्रित करती है, फिर अहंकार मन के विलयन के रास्ते बुद्धि में विलीन होता है| इस विलयन से बुद्धि स्थिर हो कर चेतना की तरफ़ मुड़ जाती है| अंतर्मुखी बुद्धि चेतना के दरवाज़े खटखटाती रहती है और उसे यदा-कदा आत्मा की धुंधली झलक मिलती है| इस झलक से आनंद होता है| यह सत (आत्मा), चित (चेतना) और आनंद की त्रयी है| इसके बाद कुछ करना बुद्धि के वश में नहीं है| चेतना और आत्मा के बीच का पर्दा उठ भी सकता है, और नहीं भी| यह आत्मा का निर्णय है| अगर आत्मा पर्दा उठा ले तो बुद्धि और चेतना आत्मा को अनुभव कर सकती हैं, यह (सविकल्पक) समाधि है| विरली स्थिति में आत्मा चेतना और बुद्धि को अपने में समेट लेता है, जिसे महासमाधि (निर्विकल्पक) कहते हैं| इसके बाद चेतना स्वतः लौटती नहीं है| बुद्धि के लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता| इस समाधि से लौटकर पुनः चेतना, बुद्धि, मन और इन्द्रियों की प्राप्ति केवल आत्मा के वश में है, आत्मा का प्रसाद है, जो साधक की इच्छा से स्वतंत्र है| 

जिस क्रम में आत्मा ने आंतरिक विश्व का या जीव जगत का निर्माण किया है ठीक उससे विपरीत क्रम में चलकर आत्मा को महसूस करना साधना है| साधना रिवर्स इंजीनियरिंग है| विज्ञान भी रिवर्स इंजीनियरिंग है - लेक़िन वाह्य संसार को समझने के लिए कि प्रकृति ने इसे कैसे बनाया है| आध्यात्मिक साधना और विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं| इसीलिए एक अच्छा योगी वैज्ञानिक और अच्छा वैज्ञानिक योगी हो जा सकता है| आत्मा (व्यष्टि) और परमात्मा (समष्टि) के जड़ रूप (प्रकृति) को जानने  की साधना को विज्ञान कहते है और आत्मा (व्यष्टि) और परमात्मा (समष्टि) के चेतन  रूप (पुरुष) को जानने की साधना को योग कहते हैं| अतः विज्ञान और योग दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही तरीक़े के द्वारा  स्थूल से सूक्ष्म की ओर, तथा आभास (appearance) से मौलिक सत्य (ultimate reality) की ओर जाते हैं| [अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानां ईश्वरोऽपि सन् |  प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया || गीता 4.6]|  
   
अष्टांग योग (पतंजलि) के आठ सोपान है - यम, नियम, आसन और प्राणायाम शुरू के चार सोपान हैं जिनसे मन और बुद्धि को अंतर्मुखी बनाया जाता है| इसके बाद अंतर्यात्रा शुरू होती है जिसका पहला चरण (शुरू से पाँचवाँ चरण) है बाहरी विषयों से मन को समेटना और केंद्र की तरफ़ मोड़ना, जिसे प्रत्याहार कहते हैं| प्रत्याहार के बाद ही धारणा का अगला चरण संभव है| धारणा पक्की एकाग्रता है| यहाँ तक बहुत साधक पहुँच जाते हैं| लेकिन अगला चरण, ध्यान, दुरूह है| ध्यान पर टिक पाना आसान नहीं है| ध्यान साधक को एक नयी दुनियाँ में लेकर चला जाता है जहाँ प्रकृति के रहस्य खुलते-से प्रतीत होते हैं| एकत्व की अनुभूति यहीं से शुरू हो जाती है, चेतना का प्रकाश चारों तरफ़ फैल जाता है| इस प्रकाश में साधक का अस्तित्व विलीन होने लगता है और अहंकार लुप्तप्राय हो जाता है| योग का आठवाँ और अंतिम चरण है समाधि| समाधि ऐच्छिक नहीं है क्योंकि इसके पहले ही अहंकार लुप्त हो जाता है, बुद्धि की पकड़ छूट जाती है| प्रायः साधक इस चरण में नहीं जा सकते| साधक के प्रयासों में उसे ध्यान तक ले जाने की क्षमता है| प्रयासों से समाधि नहीं हो सकती| समाधि के लिए आत्मा की कृपा चाहिए| जिस पर आत्मा की कृपा होती है उसे सोपानों के रास्ते आने की ज़रूरत नहीं पड़ती, उसे घूमते-फ़िरते समाधि हो जा सकती है|

बिहार के आर्थिक विकास की समस्या - एकअज़नबी दृष्टिकोण


बिहार के आर्थिक हालात अच्छे नहीं हैं| इसका प्रधान कारण है पूँजी का अभाव| वैसे इसकी स्थिति प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों के दृष्टिकोण से भी अच्छी नहीं है|

पूँजी तीन तरह की होती है| पहली तरह की पूँजी है स्थूल वस्तुगत पूँजी जिसमें औज़ार, मशीनरी, किताबें वग़ैरह आते हैं| यह पूँजी अनाधिदैहिक (exosomatic - external to human physique) होती है| लेक़िन इसके उपयोग के लिए प्रशिक्षण, ज्ञान, और कुशलता चाहिए| यह प्रशिक्षण और कुशलता दूसरी तरह की पूँजी है| यह पूँजी आधिदैहिक (endosomatic) होती है और व्यक्ति में रहती है|
तीसरी तरह की पूँजी संस्थागत (Institutional) है| इसका स्वभाव सामाजिक होता है| संस्थाओं के दो आयाम हैं, मूर्त और अमूर्त| अमूर्त संस्था का निवास मन में होता है और वे रुझानों, आदतों व व्यवहार में परिलक्षित होती हैं| उदाहरण के लिए अच्छी शिक्षा की चाह अमूर्त है और स्कूल, कॉलेज वग़ैरह उसका मूर्त रूप है| न्याय-व्यवस्था अमूर्त है जिसका मूर्त रूप न्यायालय और उसके कार्यकारी हैं| विनिमय की तत्परता, साख, सहयोग की भावना, मानवीय संबंधों के जाल इत्यादि अमूर्त हैं पर ये बाज़ार, बैंक, आपसी व्यवहारों आदि में मूर्त रूप लेते हैं| ये पूँजियाँ सतत प्रयास से निर्मित और संचित होती हैं और ये उपेक्षित होने से या दुष्प्रयोग से क्षरित हो जाती हैं|
बिहार की अर्थव्यवस्था और समाज ने इन पूँजियों को बनाने और संचित करने के प्रयास में ढील दी है| इतना ही नहीं, इनके क्षरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है| इसकी संस्थागत पूँजी लचर है क्योंकि उसकी आत्मा (अमूर्त संस्थागत पूँजी) विकल है| इसके ज्ञान, कुशलता, और प्रशिक्षण अनुत्पादक है| इसके मशीन पुराने (obsolete), अर्धप्रयुक्त (underutilized) और कार्यविरत (dysfunctional) हैं| साख, सहयोग और विकासशील चिंतन की जग़ह धोख़ा, अविश्वास और विनाश की भावनाएँ प्रबल हैं|
बिहार की जनता और बिहार के नेताओं ने अपने निजी, अदूरदर्शी और स्वार्थपूर्ण कारणों से पूँजी का सतत विनाश किया है| स्कूल-कॉलेज हैं लेक़िन पढ़ाई नदारद| पुलिस और न्याय व्यवस्था है लेक़िन इनपर भरोसा नहीं किया जा सकता| सड़कें हैं लेक़िन यातायात धीमा और भरोसे का नहीं है| अधिकारीगण हैं लेक़िन आप उनसे बहुत आशा नहीं कर सकते|
परिदृश्य निराशाजनक है, लेक़िन इसमें सुधार केवल नवजागरण से ही संभव है| हर देश का इतिहास यही बतलाता है कि बुद्धिजीवी वर्ग नवजागरण के पुरोधा रहे हैं| किन्तु आज के बिहार की विडंबना यही है कि बुद्धिजीवियों की रुचि स्वार्थसाधन और अवसरवादिता में उलझी हुई है| जो गरुड़ बनकर नागपाश को काट सकते वे गिद्ध बनकर बन्दी के मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं या उसे जीते जी नोच खाने को उतारू हैं|

बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

बिहार की संस्कृति और मानसिकता

मेरी (अति सीमित) जानकारी में बिहार की संस्कृति का पहला उल्लेख, विश्वामित्र के विकट जिद्दीपन के बाद (जिसमें जातिवाद का खुला विरोध है), राजा जनक की कथा तक अन्वेषणीय है| जनक ने कहा था - "मिथिलायां प्रदग्धायां न मे दह्यति किञ्चन" यानि अगर पूरी मिथिला (उत्तरी बिहार) जल कर राख़ हो जाये फिर भी मेरा कुछ नहीं जाता| क़रीब-क़रीब ऐसी ही बात रोम के सम्राट नीरो के वारे में प्रचलित है - जब रोम जल रहा था तो नीरो संगीत में तन्मय था| पाश्चात्य संस्कृति ने नीरो की भर्त्सना की - उसे बेरहम, असामाजिक, कर्त्तव्यपराङ्मुख, संवेदनहीन और न जाने क्या-क्या कहा, उसकी निंदा की, उसपर राजधर्म से च्युत होने का अभियोग लगाया| लेक़िन हमारी भारतीय संस्कृति ने राजा जनक की सराहना की, उनकी बड़ाई में व्याख्याएँ लिखीं, उन्हें जीवन्मुक्त कहा, उन्हें आदर्श राजा कहा| फिर आज अगर बिहार बाढ़, सूखे, महामारी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, सामाजिक भेदभाव, गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार, या प्रशासनिक दुवस्था की आग में जल रहा है, पर इसके नेतागण नाच देख रहे हैं, बाँसुरी बजा रहे हैं, भेलपुरी खा रहे हैं तो लोगों को मिर्ची क्यों लगती है? वे तो राजा जनक की राह पर हैं, अपनी संस्कृति के बतलाये पथ पर हैं, आदर्शों पर दृढ़ हैं| बिहार का दूसरा उल्लेख महाभारत में आता है - दक्षिण-पश्चिमी बिहार के मगध (गया) का, जिसके राजा जरासंध थे| उन्होंने अपने बाहुबल से सैकड़ों राजाओं को बंदी बनाकर रखा था, बलिदान करने के लिए| उनके कारागार में अनेक सुंदरियाँ भी थीं [1]| ज़बरदस्त इतने कि कृष्ण तक को मथुरा से रपेट कर भगा दिया और द्वाका में बसने के लिए मज़बूर कर दिया| कंस जैसा प्रतापी राजा उसकी मुठ्ठी में था| जो भी हो, जरासंध अपने प्रताप, महत्वाकांक्षा, बहादुरी, और अत्याचार के लिए मशहूर थे| आज भी नेतागण अपने दल के लोगों (एमएलए) को होटल में कैद रखते रहे है (वैसे इस संस्कृति का नाटकीकरण हो चुका है) तो लोग प्रजातंत्र पर फ़िकरे कसते हैं| पर यह तो हमारी संस्कृति के सर्वथा अनुकूल है| दुर्योधन ने अंग देश (पूर्वी बिहार) का राज्य देकर महावीर कर्ण को अपना अभिन्न मित्र बनाया था| कर्ण शासक तो थे अंगप्रदेश के, लेक़िन रहते थे हस्तिनापुर में| उनका बचपन भी वहीं बीता था और सारी जिंदगी रहते भी वहीं थे| वह दुर्योधन की हर क्रीड़ा और हर षड़यंत्र में शामिल थे, और रोज़ाना दान-ज़कात भी वहीं करते थे; अद्भुत दानी थे| अब वह दुर्योधन से मांगकर तो दान करते नहीं होंगे| ज़ाहिर है, दान के लिए धन या तो अन्य राजाओं को लूटने से मिलता होगा (क्योंकि कर तो दुर्योधन को आता होगा) या अंगदेश की प्रजा देती होगी| कहते हैं, राजा सूर्य की तरह चप्पे-चप्पे से जल को कर-रूप में एकत्र करता है और बादल बनाकर बरसाता है जिससे फ़सलें पोषित होती हैं| किन्तु सूर्यपुत्र दानवीर कर्ण अंगदेश से कर लेकर हस्तिनापुर में लुटाता था - बिहार के बने बादल दिल्ली-हरियाणा में बरसते थे| फिर आज अगर बिहार (और झारखण्ड) की प्राकृतिक सम्पदा का दोहन देश की तरक़्क़ी के काम आया और बिहार में सूखा पड़ा - बिहार 'हाय एंड ड्राय' रहा - तो नया क्या हुआ? महाभारत में मैंने कहीं नहीं पढ़ा कि अंगदेश का शासन कैसे चलता था, जब कि महाराज कर्ण अनुपस्थित शासक (अबसेंटी लॉर्ड) थे| स्वाभाविक है कि अंगदेश का शासन सामंतों से चलता था| ऐसी स्थिति में अन्याय, शोषण, और सामंतों की विलासिता अनपेक्षित नहीं है| क्या शोषित जनता अंगप्रान्त से हस्तिनापुर जाकर महाराज कर्ण को अपना दुखड़ा सुना पाती होगी? मुझे शंका है| अतः यह अपेक्षित है कि अंगप्रान्त की जनता ने शोषण और अन्याय को अपनी नियति मान लिया होगा| बिहार के एकलव्यों के अँगूठे कितनी वार कटे, कौन जाने|   भगवान बुद्ध का आविर्भाव बिहार में ही हुआ और माना जाता है कि वह विष्णु के नवमें अवतार थे| जैसा कि विष्णु के आठवें अवतार कृष्ण ने साफ़-साफ़ कहा था कि भले-लोगों को बचाने, दुष्कर्मियों का नाश करने, और धर्म की स्थापना करने मैं वार-वार आता हूँ, वह बुद्ध बनकर आये| बुद्ध ने ब्राह्मण धर्म का विरोध किया, उसे उखाड़ फेंका, और एक नए धर्म की स्थापना की| इससे यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध के उदय के पहले जनता, ख़ास करके अब्राह्मण और नीची कौम, ब्राह्मणों के अत्याचारों से, पाखंडों से, छुआ-छूत से त्रस्त थी| वेदों का दुरुपयोग हो रहा था| नहीं, तो बुद्ध क्यों आते! बुद्ध के छा जाने के बावजूद भारत टुकड़े-टुकड़े में बंटा हुआ था और उसमें घनानंद की अनीति का बोलबाला था| इसीलिए चाणक्य ने मगध को राजनीति का केंद्र बनाया, क्योंकि मगध को समेटे विना भारत राष्ट्र नहीं बन सकता| भारत राष्ट्र बना, लेक़िन अशोक ने जो कुछ किया उसे कलिंग अब तक याद रखे है| कुछ लोग अशोक के साथ ही राजकुमार कुणाल को भी याद रखेंगे जिसकी ऑंखें महारानी ने निकलवा ली थीं और जिसकी जीवनयात्रा भीख से चलती थी| दूसरी तरफ़ अशोक का डंका श्रीलंका में बजता था| आज अगर मेरा भाई भीख मांगे तो इससे अधिक प्रिय घटना और क्या हो सकती है? अशोक स्तम्भ अब भी खड़ा है - इस्पात के स्तम्भ पर बैठा शेर - मजबूती का प्रतीक| मालूम नहीं, इस्पात, स्तम्भ, और शेर किन-किन तत्वों और सत्वों के प्रतीक हैं| देशाटन और शास्त्रार्थ करते हुए आदिशंकराचार्य केरल से बिहार आये| अहो, कितनी लम्बी यात्रा थी| मंडन मिश्र और भारती से मिथिला में टकराये, जीते, हारे, फिर जीते [2]| हारा कौन? पूर्वमीमांसा? - प्रवृत्तिमार्गी अद्वैत? कर्मकाण्डवाद?, रिचुवलिज़्म (ritualism)? जीता कौन? उत्तरमीमांसा? निवृत्तिमार्गी अद्वैत? आगे कुआँ पीछे खाई? कर्मकाण्डवाद या अद्वैत? प्रवृत्तिमार्ग या निवृत्तिमार्ग? एक अल्पज्ञानी होने के कारण मैं तो इतना ही देखता हूँ कि न मंडन-भारती जीते न शंकराचार्य| न प्रवृत्तिमार्गी अद्वैतवाद जीता न निवृत्तिमार्गी अद्वैतवाद| दोनों हार गए| जीता केवल पाखंडवाद| परम तत्व की ख़ोज में आकार, संरचना, संयोजन, और समवाय के महत्त्व की उपेक्षा एक आत्मघाती कदम है, एक सन्यासपरक चोंचलेबाजी है,  जिसके कारण सत्य में मिथ्या और मिथ्या में सत्य का आभास होने लगता है| ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या! विश्व ब्रह्ममय है लेक़िन रोटीमय नहीं है| मन मोदकन्हि कि भूख बुताई| सोने के टुकड़े और ढेले में एकता स्थापित करना आसान है लेक़िन ढेले और रोटी के टुकड़े में तादात्म्य स्थापित करना आसान नहीं है| अन्नमेव ब्रह्म कहना ही पड़ा| तभी से बिहार अब तक अन्नमेव ब्रह्म को भूल नहीं सका है| बिहार सबसे ग़रीब मुल्क है| मुग़लकालीन बिहार कर (tax) देता रहा और सामंतों से शासित ही जीता रहा| सामंतों और जमींदारों का विलासितापूर्ण जीवन, उनका रुतवा, उनकी शान-शौकत, उनका रौब-दाब, उनका ग़ुरूर, उनका अहंकार, उनका शक्तिप्रदर्शन, उनकी हठधर्मिता, उनका बड़बोलापन, उनका जातीय घमंड बिहार के मष्तिष्क पर चढ़ कर बोलता है| कृष्ण ने कहा था - यावदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः| सः यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते (ऊँचे तबके के लोग जो करते हैं, जिसे आदर्श बना देते हैं, जनसाधारण वही करते हैं, अनुगमन करते हैं)|

सन्यासी विद्रोह (१७६०-१८००) में अंग्रेजो के विरुद्ध बगावत बिहार-बंगाल से शुरू हुई जिसको बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के आनन्द मठ में लिपिबद्ध किया गया और जहाँ से वन्दे मातरं की अलख जगी|  प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) में वीर कुंवर सिंह ने नेतृत्व दिया, घाव खाये, जान दी| गाँधीजी के स्वतंत्रता और अवज्ञा आंदोलन ने चम्पारण के निलहे खेतिहर मजदूरों की मदद से ज़ोर पकड़ा और देशव्यापी हो गया| उजले कुर्ते, उजली टोपी, लकदक खादी, लाल गुलाब  आगे बढ़ गए, लेक़िन बिहारी कॉलर नीले ही रह गए - मानो निलहे खेतों से उपजी स्वतंत्रता की याद दिलाते हों|    आज का बिहार या तो मज़दूर पैदा करता है या प्रशासनिक अधिकारी| प्रशासनिक अधिकारी तो देश की संपत्ति हो जाते हैं - जैसे दही बिलोने से माखन तैरने लगता है और जिसे काट लिया जाता है| वे जीवन भर मलाई काटते हैं| जो बच जाता है वह छाछ है - कलकत्ते से लुधियाना और कन्याकुमारी तक रिसता-टपकता पसीना - खट्टे-खट्टे गंध से बोझिल| हमें अपने प्रशासनिक अधिकारियों पर नाज़ है, हमारे प्रशासनिक अधिकारियों को हमसे दुरावभरी अपनियत है या उपेक्षापूर्ण अज़नबीपन| एक डर भी - बचो-बचो, उसे चीन्हने से इंकार करो - वह भदेस कंगाल, कहीं कोई रिश्ता न ले निकाल| -------------------------------------------------------------------------- नोट:
[1]. Jakhotiya, G.P. (2009).Krishna: The Ultimate Idol. Banyan Tree Books, New Delhi. p.98.
[2]. एक वार इस ब्लॉग को अवश्य पढ़ लें - https://deoshankarnavin.blogspot.com/2018/02/blog-post.html

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

बैकुंठी काका (संस्मरणात्मक लेख)

क्या आपने ब्रह्मकमल के फूल देखे हैं? ब्रह्मकमल गमलों में लगाया जाने लायक़ कैक्टस (?) की जाति का लगभग डेढ़ फुट ऊँचा, मोटे दल के पत्तों वाला, छोटा-सा पौधा होता है जो ऊँची, पहाड़ी, ठंढी जगहों में पाया जाता है| इसमें,साल में एक वार, एक या दो फूल आते हैं; बड़े-बड़े, पत्ते को चोंच से पकड़ कर जैसे हंस लटक रहे हों, उजले, निर्मल, सात्विकता के रूप, पर एक दिन ही टिकने वाले | जब मैं शिलाँग में रहता था, मेरे बाग में थे और जब फूलते थे तब मुझे बैकुंठी काका की याद दिला देते थे| ब्रह्मकमल के फूल और बैकुंठी काका के बीच क्या रिश्ता है, मैं समझ नहीं पाया| आदमी का अचेतन कैसे-कैसे सम्बन्ध क्यों जोड़ता है इसे समझना मेरी क्षमता के बाहर है|
मेरे गाँव के घर, जिसमें मैं जन्मा और पला-बढ़ा, के कोई दो सौ फुट पूरब एक बीरान-सी, उजड़ी-उजड़ी ठाकुरबाड़ी है जहाँ ठाकुर जी होते हैं, और उनके अगल-बग़ल होती हैं कुछ गाय-भैसें, खूँटों से जुड़ी, लीदती और पागुर करती, कुछ बकरियाँ खुली, घास टूंगती, कुछ बकरियाँ खूटों से बँधी, गोमूत्र के गंध से बोझिल हवा, कुछ बदहाल बच्चे, इधर-उधर उछलते-कूदते, और कुछ फूल के पौधे जो जब तक हैं तब तक हैं|
लेक़िन यह ठाकुरबाड़ी हमेशा ऐसी ही नहीं हुआ करती थी| एक जमाना वह भी था जब इस ठाकुरबाड़ी का चप्पा-चप्पा फूलों के पौधों से भरा हुआ होता था और पौधे फूलों या लस हरी पत्तियों से भरे होते थे| कितनी तरह के फूल और कितनी तरह के पौधे| फूलों से लदा कचनार का पेड़| इसी पेड़ को देखकर मैंने कालिदास के 'चित्तं विदारयति कस्य न कोविदारः' की अनुभूति की थी (मैं बचपन में संस्कृत पढ़ता था और ठाकुरबाड़ी में खेलता था)| कोने कोने में वैजयंती (कैन्ना लिली) के मीठी सुगंध और चटक रंगो के फूलों को सर पर लिए पौधे| वैजयंती ने मुझे यहीं अपने प्रेमपाश में बाँधा था| चिकने-चिकने पारदर्शी-से हरे फलों से लदे आँवले का पेड़ और 'खेलना पर तोड़-फोड़ नहीं करना, बेटे' की प्रेम और आदेश से भरी बैकुंठी काका की आवाज़|
बैकुंठी काका इस ठाकुरबाड़ी के अकेले विधाता थे| वही न जाने कहाँ-कहाँ से फूलों के पौधों को लाते थे, उन्हें लगाते थे, उनकी देखभाल करते थे, घास साफ़ करते थे| मंडप बनाने से लेकर उसमें कीर्तन करवाने तक की व्यवस्था करते थे| हालाँकि वह विवाहित थे, लेक़िन उनकी सुबह ठाकुरबाड़ी में होती थी और शाम भी| दोपहर में खाना खाने घर जाते रहे होंगे, हम बच्चों को क्या मालूम|
बैकुंठी काका गोरे, लम्बे, कसरती बदन वाले, आकर्षक नाक-नक्श वाले हँसमुख और मिलनसार व्यक्ति थे| सबेरे-शाम मुद्गर फेरते थे और दंड-बैठक करते थे| मैंने मुद्गर पहली वार ठाकुरबाड़ी में ही देखा था| हम बच्चों को वह पिता-सा प्यार देते थे, पर तोड़-फोड़ नहीं करने की हिदायत भी देते रहते थे|
हम कुछ बड़े हुए और इस बात को महसूस करने लगे कि बैकुंठी काका ने ठाकुरबाड़ी में रहना छोड़ दिया और उसकी व्यवस्था से अपने हाथ खींच लिए| क्या हुआ, क्यों हुआ, कब हुआ, यह सब जानना-समझना हम बच्चों के मतलब की बातें नहीं थीं, लेक़िन जो मतलब की बात थी वह यह थी कि पौधों की जड़ों से घास साफ़ नहीं होती थी और 'तोड़-फोड़ मत करना' कहने वाला कोई नहीं था| फिर उजले गुड़हल और लाल कनेर की डालें काटकर मैं ले गया, वैजयंती के बच्चे पौधे उखाड़कर मैं ले गया, जेबें भर कर आँवले मैंने तोड़े, कचनार की फूल-लदी डालियाँ मैंने तोड़ी, कामिनी के सारे फूल मैंने चुन लिए, चंपा के कच्चे-पके फूलों पर आफ़त मैंने ढायी, बकरियों को ढेले मैंने मारे|
फिर मैं बड़ा हो गया, पढ़-लिख कर बाहर चला गया, नौकरी करते हुए सेवानिवृत्त हो गया| अब लौटा हूँ तो बैकुंठी काका बहुत बूढ़े हो चुके हैं, पर स्वस्थ हैं| गाँव के ही हैं| मिलने गया तो हँस कर स्नेह के साथ मिले, मानो बेटा परदेश से घर आया हो| वह सदा की तरह प्रसन्न दिखे| मालूम नहीं उनके मन में और क्या हुआ लेक़िन मेरे मन के कानों में कोई गा गया - मग़र मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिस का पानी| और आंखों के सामने ब्रह्मकमल के फूल आ गए, शिलाँग वाले ब्रह्मकमल के फूल|


मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

चंची (संस्मरणात्मक कहानी)

चंची को देखा बहुतों ने है लेक़िन मेरे सिवा उसे जानता कोई नहीं है| अब, जब मैं भी उस उम्र में पहुँच गया हूँ कि मुझे अपने गाल में रख लेना काल की मजबूरी हो जाने वाली है, मैं सोचता हूँ कि चंची के वारे में मैं जो कुछ जानता हूँ वह संक्षेप में ही सही पर लिख ज़रूर दूँ| नहीं तो पढ़ना-लिखना जानने से फ़ायदा ही क्या!
चंची बड़े जीवट वाली औरत थी| मैंने उसे तब से जानना शुरू किया जब वह पैंतालीस की उम्र पार कर गयी थी और मैं पाँच-छह साल का बच्चा था| एक सस्ती-सी उजली साड़ी में लिपटी हलकी साँवली सी मूरत, खुले पैर, किसी न किसी काम में लगी हुई| मैंने उसे आराम करते कभी नहीं देखा| सूरज की पहली किरण फूटने के साथ ही नहा-धोकर, शिवपुराण और रामचरितमानस के एक-एक अध्याय का पाठ कर, जीवन के युद्ध के लिए तैयार| वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करती थी, काम उसका इंतजार करते थे| सकारे ही वह टोले-मोहल्ले के बीसियों काम निपटा लेती थी और इसके बाद खाना बनाने में लग जाती थी| उपले, लकड़ियों और सूखे घास-फूस या पुआल से जलने वाला मिट्टी का चूल्हा, अल्युमिनियम की ढंकना समेत बटलोही, काला मोटा सा लोहे का लोहिया, कछुल और छोलनी| बाड़ी से तोड़ी थोड़ी सी सब्ज़ी, नहीं तो फ़क़त आलू| चंची को भुने आलू का भरता (चोखा) बहुत पसंद था| इसमें उसे तरद्दुद नहीं करनी पड़ती थी| चूल्हे की आग में आलू यूँ ही जल-पक जाते थे| बस, निकाल कर गूंडा, नमक तेल मिर्चा मिलाया और सोंधी तरकारी तैयार| गोलत्थी (विना मांड पसाये बना गीला अधिक सिझा, भात) और आलू का भरता (चोखा) उसका बहुत प्रिय भोजन था| मालूम नहीं कि चंची जीभ की बात मानती थी या उसकी जीभ उसकी व्यस्तता और अभाव से उपजी मजबूरियों की बात मानती थी, लेक़िन चंची की जीभ और गोलत्थी-भरता में खूब पटती थी|
वैसे तो चंची के सात बच्चे थे लेक़िन चार बेटियाँ ब्याही जा चुकी थीं अपने-अपने ससुराल में बसती थीं| बड़ा बेटा भी लगभग ससुराल ही बसता था| जब आदमी को अपना काम इतना हो जाये कि वह परदेश में मय बीवी-बच्चे के रहे और उसी को अपना घर समझने लगे, अपने पुराने वाले (जहाँ जन्म हुआ हो, माँ-बाप रहते हों) घर को देखने की फुर्सत साल में एक वार भी न हो, चिट्ठी-चपाती भी न चले तो फिर ससुराल बसना किसे कहते हैं! तो कुल जमा दो बच्चे (बेटे) बचे जिसे पाल कर बड़ा करना चंची की ज़िम्मेदारी थी| और यह काम चंची ने बख़ूबी किया|
चंची को इतनी ज़मीन-जग़ह नहीं थी कि उसकी उपज से परिवार का गुज़ारा हो जाये| उसके पति अच्छे-भले थे लेक़िन उन्हें वेदांत पढ़ने की बीमारी लग गयी थी| किस्सा कुछ यूँ है कि चंची के पति के बहनोई, पंडित कमलाकांत चौधरी, संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और उनके पास संस्कृत की अच्छी-ख़ासी लाइब्रेरी थी - कमला संस्कृत पुस्तकालय| पंडित जी बाल-बच्चों को ब्रह्म के सहारे छोड़कर सन्यासी हो गए और लापता होने से पहले अपनी बहुत सारी किताबें अपने साले को सौंप गए| जिस तरह पापी के साथ रहकर पाप से नहीं बचा जा सकता, हथियारों के साथ रहकर उनके उपयोग से बचना आसान नहीं है, उसी तरह किताबें भी आदमी को फँसा ही लेती हैं| तो चंची के पति को वेदांत की क़िताबों ने फाँस लिया| अब अगर कुछ किये विना रूखी-सूखी मिल जाये और कर के भी वही मिले तो सारे उपनिषद करने और नहीं करने में एकत्व सिद्ध कर ही देंगे| इस एकत्व की अनुभूति के बाद उन्होंने बैदगिरी (जो उनका पेशा थी) छोड़ दी| पर उपनिषदों और शास्त्रों में, जहाँ सोने के टुकड़े और मिट्टी के ढेले में तादात्म्य स्थापित करने की लत सी दिखती है, मिट्टी के ढेले और रोटी में तादात्म्य नहीं दिखाया गया है| रोटी को ब्रह्म ज़रूर कहा गया है| यह बात दीगर है कि रोटी नहीं मिले तो ब्रह्म रोटी में विलुप्त हो जाता है|
चंची और उसके बच्चों की पहुँच वेदांत तक नहीं थी| विश्व ब्रह्ममय है लेक़िन रोटीमय नहीं है अतः चंची के माथे पर रोटी का जुगाड़ करने का भार आ पड़ा| बैद का घर था, तो उसपर बीमार लोगों की आशा कुछ-न-कुछ टिकी थी ही| औरतें औरतों को पूछती ही रहती हैं| सो, वे चंची से भी अपनी समस्याएँ बतलाती थीं, किसी-न-किसी दवा की आशा करती थी| चंची ने अपना लम्बा समय एक वैद्य पति के साथ गुज़ारा था और कुछ पढ़ी-लिखी भी थी| घर में वैद्यक की बहुत सारी किताबें थीं जिनमें से कुछ-एक हिंदी में थीं| चंची कुछ पढ़कर और कुछ अपने पति के साथ बातचीत कर दवाइयाँ ढूँढ लेती थी| उसके हाथ में जस था, बीमार ठीक भी होते थे (वैसे अस्सी प्रतिशत बीमारियाँ ठीक होने के लिए ही होती हैं)|
उन दिनों एलोपैथिक डॉक्टर बहुत सारे इंजेक्शन लेने को लिख देते थे (शायद अब भी लिखते हैं)| दवाइयाँ तो शहर से ख़रीद ली जाती थीं, पर इंजेक्शन कौन दे| देहात में झोला छाप डॉक्टर प्रायः मर्द ही होते हैं| औरतें उनसे इंजेक्शन लगवाना अक्सर नापसंद करती हैं| फिर इंजेक्शन लगवाना ही ज़रूरत की इतिश्री नहीं है, औरतों के हज़ार मुद्दे हैं जो वे औरतों से खुलकर बतला सकती हैं| चंची ने समाज की इस ज़रूरत को पूरा किया| प्रसव के समय चंची जैसी मददगार और जानकार महिला का दिन-रात कभी भी उपलब्ध होना एक वरदान सा साबित हुआ| चंची ने सैकड़ों बच्चों को जन्म लेने में मदद की और बात-की-बात में समय के साथ वह डेढ़-दो हज़ार घरों की डॉक्टर-दादी बन गयी|
डॉक्टर-दादी बहुत मिलनसार थी और बहुत सारी औरतें उसे सास वाला सम्मान देती थी| घर भर की तमाम बातें, दुख-दर्द, सब कुछ बाँटे जाते थे| डॉक्टर-दादी को ग़रीबों के लिए बहुत प्रेम था और बहुत ग़रीब मरीज़ों को वह मुफ़्त ही सुइयाँ लगा देती थी, कुछ हल्की-फुलकी दवाइयाँ दे देती थी| इससे उसे बहुत सम्मान और प्रेम भी मिलता था| वह न पैसे के लिए ज़िद करती थी न सेवा के लिए इनकार करती थी| बीमार चंगे होकर कुछ-न-कुछ दे ही जाते थे| कोई धान दे जाता था, कोई अरहर, कोई दूध, कोई आलू, कोई गोयठा (उपले), और कोई पैसे भी| बूंद-बूंद से तालाब भरता है|

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तो पुनरायातः। वर्ष पर वर्ष गुजरते रहे| ...  ...  ...  ...  ...  

डॉक्टर-दादी के दोनों बेटे पढ़-लिख कर बड़े होकर दूर-दराज़ रहने लगे| एक बहू बरसों साथ रही क्योंकि उसके पति को नौकरी नहीं मिली थी| उसने सास की ख़ूब सेवा की| लेक़िन पति के नौकरी मिलते ही वह अपने पति के साथ रहने चली गयी| दूसरी बहू तो केवल मुँह दिखाने और अपने पति को ले जाने को आयी थी| ग़रज़ यह कि डॉक्टर-दादी को दुबारा गोलत्थी-भरता पर जीना पड़ा| लेक़िन उसने कभी कोई शिकायत नहीं की| कहती थी, मुझे बेटों, बहुओं, पोते-पोतियों की कमी है क्या? दर्जनों नहीं, सैकड़ों हैं| सैकड़ों पोते-पोतियों ने अपनी पहली साँस मेरी गोद में ली है| डॉक्टर-दादी के पति ने हर वस्तु और जीव में ब्रह्म को देखना चाहा, पर पता नहीं, देखा कि नहीं देखा| चंची ने हर बच्चे में पोते-पोतियों को देखा और मैं दावा कर सकता हूँ कि हाँ, उसने देखा| मैंने चंची का जगज्जननी रूप अपनी आँखों से देखा है, उसकी अपनियत को देखा है, स्नेह को देखा है, ममता को देखा है, करुणा को देखा है, उदात्तता को देखा है| संभव है कि चंची में उदात्तता का उदय बेसहारापन, पति और बेटों से मिली उपेक्षा, अकेलापन, प्रबल आत्मविश्वास  और आत्मघाती निर्भयता की मिली-जुली भावनाओं से हुआ|
डॉक्टर-दादी अस्सी पार कर चुकी थी| एक दिन वह अपनी सेवा, अपनी ममता और अपनी उदात्तता बाँटते हुए मरी| मोहल्ले में ही किसी बीमार को देखकर घर आ रही थी कि गली में ही ढह कर गिर गयी| लोगों ने उठाया, पानी-वानी दिया लेकिन चंची (डॉक्टर-दादी) जा चुकी थी| उसके अगल-बग़ल में उसका कोई अपना जना बच्चा नहीं था - लेकिन जो वहाँ थे सब उस जगज्जननी के ही बच्चे थे - हर उम्र के, हर कद के, हर जाति के| और उसकी स्पंदनहीन देह मानो कह रही थी - ख़ुश रहो अहले चमन, हम तो चमन छोड़ चले|

[नोट: डॉक्टर-दादी के बचपन का नाम चंची था| हमारे पुरुषप्रधान समाज में (ख़ास कर हमारी माँओं, दादियों के समय में) औरतों के नाम ससुराल आते ही लुप्त हो जाते थे और उन्हें उनके मातृगाँव, या पति/पुत्र/पति के नाम से ही नया नाम मिलता था| मैं इस कहानी का शीर्षक डॉक्टर-दादी भी रख सकता था लेकिन यह चंची जैसी महिला को भुलाना होता|]

विद्या धन - महान धन

करतार सिंह के दो बेटे थे, एक (गणेश) ने खूब पढ़ा-लिखा और दूसरे (सुरेश) ने साक्षर होने के बाद ही पुस्तकों से नाता तोड़ कर धान ख़रीदने-बेचने, धान-कुटाई वग़ैरह का धंधा कर लिया | बड़ा वाला एक प्राइवेट स्कूल में मास्टर लग गया| गणेश को अपनी विद्या का बहुत गौरव था और वह सुरेश और उसके धंधे को तुच्छ समझता था| विद्या का गुणगान करते हुए वह अक्सर कहा करता था -
न चौरहार्यम् न च राजहार्यम्, न भ्रातृभाज्यम् न च भारकारी।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यम्, विद्याधनं सर्वधनप्रधानम् ।।

समय पर दोनों की शादी हुई, छोटे-छोटे बच्चे भी आ गए| करतार सिंह के मरने के बाद दोनों भाई अलग़ हो गए और उन्होंने अपनी-अपनी गृहस्थी अलग़-अलग बसा ली|
कुछ बरस बीते| अब ख़ुदा की वो मर्ज़ी हुई कि दोनों भाई अपनी इकलौती चचेरी बहन, जो उनसे बहुत छोटी थी, के लिए लड़का ढूंढने गंगा-पार गए और लौटते वक़्त नाव डूबने के कारण मारे गए| कोहराम मच गया|
महीने दो महीने के बाद छोटे भाई, सुरेश, की बीवी ने धंधा संभाल लिया| लेक़िन बड़े भाई, गणेश, के घर में फाके पड़ने लगे| उसके बच्चे अपनी चाची के मिल में बाल-मजदूर हो गए और गणेश की बीवी अपनी देवरानी के बर्तन माँजने लगी| सुरेश के बच्चे कान्वेंट स्कूल में पढ़ने लगे|
गणेश ने विद्या हासिल की - बेजोड़ धन, जिसे चोर नहीं चुरा सकते, पर ... कौन ठगवा नगरिया लूटल हो ....| उसके बच्चों को फ़ाकाकशी मिली| सुरेश ने धन कमाया, उसके बच्चे कान्वेंट में पढ़ते हैं|
हमारे शास्त्र अधूरे हैं| अपने दिमाग़ को न बेच खाइये, ऑंखें बंद कर किसी के कहने पर मत जाइये|