सोमवार, 2 सितंबर 2019

समाज का अर्थ

भारतीय संस्कृति में आत्मा केंद्र है| आत्मा सर्वज्ञाता है जिसमें जन्म-जन्मांतरों का ज्ञान होता है| इस ज्ञान के भंडार का एक पहलू चेतना है| आत्मा शरीर, चेतना और अहंकार (अपने अस्तित्व का ज्ञान) को धारण करता है|
केन्द्रभूत आत्मा के लिए प्रथम समाज यह शरीर है| शरीर समाज है क्योंकि यह अनेक तत्वों, इन्द्रियों, शक्तियों, भावनाओं इत्यादि का समन्वय है| पाँच ज्ञानेन्द्रिय (आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ) और पाँच कर्मेन्द्रिय (हाथ, पाँव, मुँह, मल-मूत्रोत्सर्ग की इन्द्रियाँ, और प्रजनेन्द्रिय ) मन तथा चेतना के माध्यम से आत्मा का संपर्क वाह्य जगत से करवाते हैं| चेतना के पास इन दसों इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय) के अतिरिक्त और भी कर्म तथा अनुभव के साधन हैं| शरीर में अनेक कर्मेन्द्रियाँ स्वचालित हैं जैसे हृदय, पाचन तंत्र और श्वसन तंत्र के अंग, इत्यादि| कुछ आंतरिक ज्ञान के साधनों से चेतना शारीरिक संतुलन, तापमान, गति, गुरुत्व, शरीर के अवयवों की स्थिति, दुःख, दर्द, अवयवों पर दबाव और शारीरिक वेग, मानसिक विकार और उत्तेजना, शरीर में वाह्य वस्तुओं की उपस्थिति, समय (काल), दिशा, आदि को समझती है| बुद्धि और विवेक चेतना के सहज गुण हैं जो अनुभवजन्य सूचनाओं का मूल्याङ्कन और आवश्यक उपयोग करते हैं| अचेतन आत्मा का दूसरा पहलू है| अचेतन बहुत विशाल है (चेतन की तुलना में)| चेतन और अचेतन का व्यवहार आत्मा का अपना निर्णय है जो बुद्धि और मन की पहुँच के बाहर है| चेतन और अचेतन का व्यवहार गतिशील/परिवर्तनशील है और इसका निर्णय आत्मा करता है| इस प्रथम समाज (शरीर) को धारण (uphold) करना आत्मा का मौलिक धर्म है|
द्वितीयक समाज व्यक्ति के शरीर के बाहर का भौतिक संसार है जिससे संपर्क की स्थापना व्यक्ति के शरीर की इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों) के द्वारा होती है| इस समाज के कई भेद हैं, जैसे समजातीय समाज (जैसे मनुष्यों का समाज), विषम जातीय समाज (मनुष्यों के साथ अन्य जीवों/निर्जीवों का सहजीवन, जैसे पशुओं, पक्षियों, वृक्षों, नदियों, पहाड़ों, खानों, खनिजों,आदि का समवेत समाज)| इसे इकोलॉजिकल समाज कहते हैं| इस समाज की धारणा मानव का धर्म है| व्यक्ति का द्वितीयक समाज से अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है|
तृतीयक समाज भौतिक और वैचारिक तत्वों का समन्वय है| भौतिक दुनियाँ के अलावे एक वैचारिक दुनियाँ भी होती है| वैचारिक दुनियाँ के व्यक्तियों को विचार, सिद्धांत, ज्ञान का संचित कोष, आदर्श, मूल्य और मानक (values) आदि कहते हैं| अध्यात्म भी इसी तृतीयक समाज का प्राणी है जो जीवात्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में चिंतन है| इस तृतीयक समाज की धारणा भी मानव का धर्म है|
अतः मानव धर्म के कई स्तर हैं - जो प्राथमिक (corporal, internal), द्वितीयक (physical, external) और तृतीयक (intellectual, ideal) समाज को धारण (uphold) करते हैं| किसी भी समाज (प्राथमिक, द्वितीयक या तृतीयक) की हिंसा (स्वार्थमूलक, अविवेकपूर्ण तरह से संतुलन का बिगाड़ना, non-constructive destruction driven by ill will) अधर्म है|

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