गुरुवार, 12 सितंबर 2019

असुरों ने अपनी नयी राजधानी चुनी

देवर्षि नारद जी आकाशमार्ग से बड़ी तेज़ी से कहीं जा रहे थे कि उनकी मुलाकात डिंडिभासुर से हो गयी| प्रणाम करके डिंडिभासुर ने पूछा कि नारद जी कहाँ से आ रहे और कहाँ जानेवाले हैं| नारदजी ने बतलाया कि वह देवताओं की एक मीटिंग से आ रहे हैं और विष्णुलोक जा रहे हैं| चूँकि भगवान विष्णु और लक्ष्मीजी मीटिंग में नहीं आये थे, अतः देवताओं ने उनसे अनुरोध किया है कि वह शीघ्रातिशीघ्र भगवान विष्णु से मिलें और मीटिंग के रिजॉल्यूशन के वारे में उन्हें बतलाएँ|
देवताओं की मीटिंग और रिजोल्यूशंस की बात सुनकर डिंडिभासुर की जिज्ञासा का बढ़ना स्वाभाविक था| वह नारद के चरणों में लोट गया और विनयपूर्वक बोला कि अगर बातें अतिगुप्त नहीं हों और असुरों से छिपाने लायक़ नहीं हों तो कृपया उसे भी जानकारी दी जाये कि मीटिंग में देवताओं ने क्या निर्णय लिया है| नारद जी तो मन ही मन सारी ख़बरें डिंडिभासुर को सुनाना ही चाहते थे| उन्होंने कहना शुरू किया|
हे डिंडिभासुर, कुछ महीने (ध्यान रखना कि देवताओं का एक दिन मानवों के एक वर्ष के बराबर होता है) पहले देवताओं ने अपनी मीटिंग में भारत में रहने वाले मानवों के संबंध में कुछ निर्णय लिए थे और वे अपना निर्णय बदलें या उसी पर चलें यह कुछ महीने बाद होनेवाली मीटिंग (जो आज हुई) में तय करने वाले थे| आज उन्होंने निर्णय लिया है कि चूँकि भारत के मनुष्यों के आचार-व्यवहार में या सोच में कोई अंतर नहीं आया है, वल्कि गिरावट ही आयी है, अतः देवताओं के निर्णय भी यथावत रहेंगे और सारे कार्य तदनुरूप चलेंगे| शायद भगवान विष्णु एवं लक्ष्मीजी को यह आभास था अतः वे मीटिंग में न आये| फिर भी इंद्र महाराज ने मुझे कहा है कि मैं सारी बातें उन्हें बतला आऊँ|
इतनी बात जानकर डिंडिभासुर थोड़ा प्रगल्भ हो गया और हाथ जोड़कर बोला - हे देवर्षि, अगर आप हमें इस योग्य समझते हैं कि हम असुर भी जानें कि देवताओं ने भारत में रहने वाले मानवों के संबंध में क्या निर्णय लिए हैं, तो कृपया वह भी बतलाएँ|
नारद जी ने कहा: हे डिंडिभासुर, प्रायः देवता और देवियाँ भारत में रहने वाले मानवों के आचार, व्यवहार एवं विचार से क्षुब्ध हैं| उनमें देवताओं को धोखा देने की प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ गयी है| वे सोचने लगे हैं कि देवता कुछ नहीं समझते और वे फूल-पत्तियों, मिठाइयों और भावनाहीन स्तोत्रों को सुनने के लिए लालायित रहते हैं| वे ग़लत-सही मन्त्रों के वश में हैं और उन्हें जब चाहो बुलाया और अपने घर भेजा जा सकता है| पंडितगण पाखंडी हैं और पूजा-पाठ को धंधा समझते हैं - पर ख़ुद आचार-हीन हैं और बहुधा मूर्ख और धर्मध्वजी हैं| त्रिपुंड लगाकर वे पापकुण्ड में कूदने के लिए हमेशा तैयार मिलते हैं| पूजा के बहाने लोग चंदा मांगकर अपने भोग-विलास पर ख़र्च करते हैं और मेलों-तमाशों का आयोजन करके सस्ता मनोरंजन करते हैं| एक तरफ़ पूजा का स्वांग होता है और दूसरी तरफ़ भद्दे फ़िल्मी गाने मीलों तक गूँजते हैं| विध्वंसक आतिशबाजी कान के पर्दे फाड़ती हैं| पूजा रचनात्मक होती है, विध्वंसात्मक नहीं, और आज-कल की पूजा केवल विघटनात्मक प्रवृत्तियों का प्रतीक होकर रह गयी है|
तीनों महादेवियाँ - सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा बहुत अप्रसन्न हैं| सरस्वती जी शिकायत कर रही थी कि स्कूलों और कालेजों में मेरी पूजा का ढोंग किया जाता है| न कोई पढ़ता-लिखता है और न कोई पढ़ाना चाहता है| शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही मुझे मूर्ख समझते हैं और वे सोचते हैं कि मिठाई और बेर खाकर मैं उन्हें विना पढ़े-लिखे ही विद्वान बना दूँगी - मतलब कि मैं घूस खाकर उनका काम कर दूँगी| यह मेरा अपमान है - घर बुलाकर, आवाहन कर के| अब तो मैं बहुत पंडालों में जाती भी नहीं हूँ - ऐसी पूजा करने से पूजा न करना ही बेहतर है - कम से कम मेरा आवाहन करके अपमान तो नहीं किया जाता| मैं अब विना पूजा के ही प्रसन्न हूँ - पूजा होती है तो मन दुखने लगता है, गुस्सा भी आता है|
लक्ष्मी जी ने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए बतलाया कि बेईमानी कर के पाप से कमाए धन से मुझे नफ़रत है - और मैं प्रतीक्षा करती हूँ कि लोगों में अपने-आप समझ आ जाये| नहीं तो मैं अपने भाई-बन्दों को खुला छोड़ देती हूँ| वे असुर हैं और अपना काम करना जानते हैं|
दुर्गा देवी ने ज़्यादा कुछ कहा नहीं, लेक़िन उनके चेहरे पर रोषभरी तमतमाहट थी| वह इतना ही बोली कि उन्हें उन दुष्टों का दमन करने के हज़ार तरीक़े ज्ञात हैं - बीमारी, महामारी, मृत्यु, पराजय, अपमान, अशान्ति, भ्रान्ति, आपसी फूट, कलह और अनिष्ट का आवाहन वे स्वयं कर रहे हैं| मैं चुप बैठी देखती रहती हूँ| सब काम अपने ही हो जायेगा| वे लोग इसी के लायक़ हैं| वे मेरी कृपा की आकांक्षा बेकार ही करते हैं|
इसके अलावा प्रकृति, गङ्गा, यमुना आदि नदी देवियों, पृथ्वी देवी, तारिकाओं तथा अनेकानेक अन्य देवियों ने अपने-अपने अपमान और आक्रोश की बातें कहीं | देवियों का पूरा समूह ही असंतुष्ट और क्रोधित है|
देवताओं में सूर्य, चन्द्रमा, वायु और सारे वसु असंतुष्ट हैं| अग्नि तो स्वभावतः उग्र हैं और क्रोधित भी| इंद्र कुछ बोले नहीं, क्योंकि सभापति थे| लेक़िन उनकी मुखाकृति अप्रसन्न-सी थी|
सारी कहानी सुनकर डिंडिभासुर हँसने लगा| शह पाकर नारद से बोला - तो देवर्षि, भगवान विष्णु को सारा समाचार बतलाकर धरती पर अवश्य जाइएगा, और भारत के लोगों से कहियेगा कि देवता उनसे अप्रसन्न हैं, लेक़िन असुर उनकी मदद करने में कोई कोताही नहीं करेंगे| हम उनके साथ हैं और हम उन्हें हर संभव सहयोग देंगे| देवताओं से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है|
इधर नारद जी वैकुण्ठ की तरफ़ रवाना हुए और डिंडिभासुर चला अन्य असुरों को बतलाने कि भारत में अपने राज्य की बहुत सम्भावनाएँ है| तैयारी शुरू की जाए| अंतिम विजय दानवों और असुरों की होगी| हम अब पाताल में नहीं, भारत में अपनी राजधानी बनायेंगे, कहीं दिल्ली के आस-पास|

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