शनिवार, 21 सितंबर 2019

भाषा की उत्पत्ति और उपयोगिता

क्रिया (action, एक्शन) का निष्पादन एवं क्रिया तथा गुणों का अवलोकन, चेतन (consciousness) का मुख्य धर्म (property) है| कुछ क्रियाओं का संपादन कर्मेन्द्रियों से होता है| कुछ दूसरी क्रियाएँ प्रकृति की हलचलों से होती है| गुण प्राकृतिक है| दूसरों की क्रियाओं एवं गुणों का अवलोकन ज्ञानेन्द्रियों से होता है|
भाषा का प्राथमिक कार्य इन क्रियाओं और गुणों का नामकरण है| आना, जाना, भागना, दौड़ना, रोना, हँसना, चिल्लाना, इत्यादि क्रियाओं के नाम हैं| लाल, पीला, नीचा, ऊपर, पहले, पीछे, चिकना, रुखड़ा, इत्यादि गुणों के नाम हैं| इन नामों का अपने व समाज के लिए आरोपण भाषा का प्रथम और स्थैतिक (stationary) कार्य है| जिस भाषा में ये नाम अधिक हैं और उन नामों में विभेदीकरण (differentiation) की क्षमता अधिक है, वह भाषा अधिक समृद्ध होती है| पिटना, पीटना, पिटवाना तथा मरना, मारना, मरवाना का अंग्रेज़ी में (एक शब्द में) अनुवाद करने की चेष्टा कीजिये, हमारा अभिप्राय स्पष्ट हो जायेगा|
भाषा का द्वितीयक कार्य सोचने में, मानसिक नक़्शा बनाने में है| किसी कार्य में जानबूझ कर प्रवृत्त होने के पहले हम सोचते हैं, कार्य संपादन की प्रक्रिया की एक रुपरेखा तैयार करते हैं| यह क्षमता भाषा से सबल होती है| हम भाषा में सोचते हैं|
भाषा का तृतीयक कार्य सम्प्रेषण (communication) है| सम्प्रेषण वर्णनात्मक (descriptive), आदेशात्मक (instructive), उद्गारात्मक (emotive, exclaimatory) इत्यादि कई तरह के होते हैं| कुत्तों को भी हम 'आव' कहकर बुलाते हैं, 'हट' कहकर भगाते हैं, 'ले-ले-ले' कह कर किसी के पीछे भगाते हैं| दोस्तों को अपना दुख-दर्द बतलाना वर्णनात्मक होता है| रोने की भाषा उद्गारात्मक होती है|
भाषा का चतुर्थक कार्य ज्ञान, आदेशों, और भावों का संचयन (accumulation) है| इससे ज्ञान और भावनाओं की पूँजी (knowledge and emotional capital and workbook) बनती है| इस क्रिया में श्रुति और स्मृति की क्षमता बहुत सीमित होती है, वह अधिक टिकाऊ भी नहीं होती| इसीलिए भाषाएँ अपने लेखन का रास्ता अपनाती है| अलग़-अलग़ भाषाओँ की लेखन प्रणाली अलग़-अलग़ होती है| ब्राह्मी, देवनागरी, उर्दू, रोमन, ग्रीक आदि कितनी ही लेखन प्रणालियाँ होती हैं| कुछ भाषाओँ की अपनी लेखन प्रणाली नहीं है, कुछ-एक की कोई लेखन प्रणाली है ही नहीं| पूँजी के अभाव में ऐसी भाषाएँ अविकसित रह जाती हैं| कुछ भाषाओँ में भावनाओं का संचयन प्रचुर है पर ज्ञान का संचयन अधिक नहीं है| कुछ अन्य भाषाओँ में ज्ञान का संचयन विशाल है, किंतु भावनाओं का संचयन उतना अच्छा नहीं है|
भाषा का पंचमक कार्य सामाजिक पहचान (social identity) है| भाषा यह बतलाती है कि बोलने वाला किस समुदाय का है| इस पहचान के अपने गुण दोष हैं| भाषा का धर्म, संस्कृति, क्षेत्र इत्यादि से लगाव इसी सामजिक पहचान को लेकर है| इसके आधार पर राजनीति भी होती है| भाषा के आधार पर भेद-भाव भी पलता है|
प्राकृतिक भाषाओँ के अलावे मानवकृत बनावटी भाषाएँ भी होती हैं| सारी कूट भाषाएँ और कंप्यूटर की भाषाएँ बनावटी हैं| इनका प्रयोग प्रायः सामाजिक पहचान के लिए नहीं होता किन्तु इसकी सम्भावनाएँ अवश्य हैं|
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