सोमवार, 12 सितंबर 2016

इंटेलिजेंसिया और नयी व्यवस्था की नींव

आपकी जिज्ञासा उत्तम है। तो आगे बढ़ें। जाएँ वहाँ, जब सारे ऋषि-मुनि जंगलों में रहकर ज्ञान की उपासना करने लगे थे (शहर से दूर, रेजिडेंसियल कैंपस में पढ़ने-पढ़ाने ओर रिसर्च करने-करवाने लगे थे - अपने को जनजीवन से दूर कर चुके थे) शहर - देहात निरंकुश शासकों के हाथ में था। वे जनता को लूट कर खूब ऐश-मौज़ करते थे। किसी की बेटी-रोटी या संपत्ति का लिहाज़ करना भूल चुके थे। इसी रौ में कार्तवीर्य अर्जुन ने जमदग्नि की गैया पर हाथ डाल दिया। ऋषि ने इनकार किया तो ज़बरन ले गए। परशुराम गैया को लड़-झगड़ कर लौटा लाये, तो अर्जुन के बेटों ने जमदग्नि का क़त्ल कर दिया। इसपर परशुराम आपे से बाहर हो गए। समर्थ नेता थे, ऋषि-कुमारों को जुटा कर सेना बना ली। कहते हैं, इक्कीस बार बेहूदे राजाओं को क़त्ल किया। तो ये हुई शासक के अन्याय और निरंकुशता के विरोध में इंटेलिजेंसिया की सेना का बनना, जूझना, जीतना और नयी व्यवस्था की नींव डालना। 

बेचारे चाणक्य (कौटिल्य) तक्षशिला के कुलपति थे। तक्षशिला रेजिडेंसियल विश्वविद्यालय थी। विद्यार्थियों की जीविका के लिए अनुदान चाहिए था। उस समय राजा लोग ही यूजीसी थे (आज भी शिक्षामंत्री ही यूजीसी के मालिक हैं)। मगध आये चाणक्य। अनुदान माँगा तो अपमान मिला। कोई आज-कल के कुलपति तो थे नहीं कि पूँछ हिलाते यूजीसी के बाबुओं के आगे। बिफ़र गए, वाइस-चांसलरी छोड़ी, और चुटिया खोल कर हिला दी। डुबा दिया राजा को। नयी व्यवस्था की स्थापना हुई। तो ये हुई शासक के अन्याय और निरंकुशता के विरोध में इंटेलिजेंसिया का कमान संभालना, जूझना, जीतना और नयी व्यवस्था की नींव डालना। 

भारत अंग्रेजों का गुलाम था। अफ़्रीका में थे मोहनदास गाँधी। गोरों ने उनकी चुटिया खींच ली, अपमानित किया। लौट आये भारत। पुकार लगाई। इंटेलिजेंसिया ने सुनी। हीरा-ब्रांड इंटेलिजेंसिया ने अपने कैरियर को लात मारी। राजेंद्र प्रसाद, जेपी, लोहिया, तिलक, नौरोज़ी, अरविन्द, सुभाष, नेहरू, जिन्ना कितने नाम गिनाएँ। सबने अपने घर ख़ुद फूंक लिए। जेल में रहे, लाठियाँ खाई। कुछ एक ने तो शादी तक न की। भारत स्वतंत्र हुआ। तो ये हुई शासक के अन्याय और निरंकुशता के विरोध में इंटेलिजेंसिया का कमान संभालना, जूझना, जीतना और नयी व्यवस्था की नींव डालना। 

है आज वैसा एक भी भारतीय विश्वविद्यालयों में (पूँछ का न होना आदमी होने की मज़बूरी ही तो है!)? एसोसिएशन बनते हैं बिगड़ते है, स्वार्थ को लेकर, हासा के लिए (याद कीजिये)। निकला काम गुदरिया साला। कहाँ-की एकता ? एकता तो बम्बई गयी, कपूर बनकर काफ़ूर हो गयी। जहाँ की इंटेलिजेंसिया नामर्दी की दवा खा रही हो (वो भी यूनिवर्सिटी क्लीनिक के बूते पर), वहाँ कोई सुधार नहीं हो सकता। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः (शान्ति पसन्द ना आये तो सुशीला को ढूंढिए)।

शनिवार, 10 सितंबर 2016

The Ought and the Is

--------- The Ought and the Is --------

Can ‘Ought’ be derived from ‘is’? Or more explicitly, can we derive the morality ideals (what is right and what is wrong conduct) from the empirical (that is observed in practice) facts?


A lot has been written on this topic – some pleading for ‘no’ and the others pleading for ‘yes’. For no-voters, there is an ideal society and a set of rules (of conduct) needed to most closely realize that kind of society. Since reality is only a defective replica of the ideal one, a fallen one, the ideal cannot be derived from the real. For yes-voters, the ideals are not fixed and unchangeable – they are only the most befitting pictures of the reality. Hard reality is only a deviation from such a most befitting picture and therefore one can obtain the ideal picture from the hard real observations.


There is an interesting result in mathematics, obtained by Otto Hölder. It says that if there is a set of positive real numbers, S, with x as its smallest member and y as its largest member, i.e. S=(x,...,y) then (on the real line) any point between x and y (including them both) is some sort of mean of S. In particular, x (the smallest member) is the mean for the norm tending to be minus infinity, y (the largest member) is the mean for the norm tending to be plus infinity. By the way, the harmonic mean, the geometric mean and the arithmetic mean correspond to norms -1, 0 and 1 respectively.


Returning to our ‘ought’-‘is’ issue, when real conduct or a defective fallen conduct, is in S (measured in some scale) and the ideal is outside S (even larger than y, the largest of the members of S), none can obtain the ideal from studying or analysing S. This is the position taken by those (no-voters) who think that ideals cannot be obtained by analysing the real. For yes-voters, ideal is some sort of Hölder mean of S and it resides in S. Only the need is to choose a particular sort of norm. Harder the norm, ideals are closer to y (the max value of S). Various moral precepts (depending on culture and religion, varying from time to time, context to context and place to place) choose a particular norm, harder or softer. They also tend to lower the norm in specific critical situations (Aapat Dharma concept).

सोमवार, 8 अगस्त 2016

समीक्षा

----------------------------------------
राजनीतिबाज़ी और ड्रामेबाज़ी : मुझे राजनीतिबाज़ी और ड्रामेबाज़ी में कोई फ़र्क नहीं दीखता। और कुछ कहने के पहले यह कह दूँ कि फिल्म भी ड्रामेबाज़ी ही है। चालू ज़ुबान में ड्रामा तब होता है जब अभिनय और अभिनेता रियल टाइम में दर्शक के सामने होते हैं, फ़िल्म में ड्रामे की मूवी पिक्चर चलती है। मौलिक रूप में दोनों ही ड्रामा हैं। दोनों ही सिमुलेशन हैं।


राजनीतिबाज़ एक्टर हैं, अभिनेता। दर्शक है जनता। बेटिकट नहीं देखती - बाक़ायदा वोट देती है। बच्चों के लिए फ़्री। थ्री-काउंटर-एक्सचेंज (वोट - सत्ता - पैसा)। यहाँ भी स्विस बैंक वहाँ भी स्विस बैंक। यहाँ भी हीरो वहाँ भी हीरो, यहाँ भी विलेन वहाँ भी विलेन। यहाँ भी बड़े परदे पर न चले तो छोटे परदे पर उतर आये, और वहाँ भी। यहाँ भी कुछ पाटेकर हैं और वहाँ भी। नाचेंगे तो भरतनाट्यम नहीं तो घुँघरू ही न बांधेंगे। यहाँ भी मार-धाड़, वहाँ भी। यहाँ भी बाहुबली, वहाँ भी। यहाँ भी रंगदारी टैक्स, वहाँ भी। यहाँ भी एक फैमिली नाम कमा गई - पापा से डब्बू तक, और वहाँ भी ख़ानदानी एक्टर। वहाँ भी आदमी से जानवर ज़्यादा वफ़ादार हैं, यहाँ भी वफ़ादारी दिखाने आदमी जानवर बनने को तैयार है। यहाँ भी न्याय के लिए, अन्याय के विरोध में, प्रेम (प्रेम, प्रेम है, देश के लिए हो, प्रदेश के लिए हो या मिस स्वीट सन्देश के लिए हो) के लिए, बेहतर दुनियाँ बनाने के लिए जद्दोज़हद की एक्टिंग होती है, यहाँ भी, वहाँ भी। यहाँ भी डायलॉग वहाँ भी डायलॉग। डायलॉग लिखने वाले यहाँ भी और वहाँ भी। यहाँ और वहाँ भी कमअक्ल या इमोशनल लोग रोने-हँसने लगते हैं एक्टिंग देखकर। जब रामायण (टीवी सीरियल) का जमाना था, गाँव में औरतें टीवी पर राम और सीता के पैर छूने टूट पड़ती थीं। यहाँ भी और वहाँ भी रामा राव महान एक्टर थे, ललिता जी के लालित्य के ऊपर तो सदके कुरबान जांवां। और ये बात इतनी जमी, कि दर्जनों बॉलीवुड वाले उतर आये राजनीति में। जब ड्रामेबाज़ी ही करनी है तो कहीं भी करें - की फ़रक पैंडदा।
--------------------------------
भारत एक ऐसा देश है जिसमें कुछ सीधा चल ही नहीं सकता, चाहे सौ बरस सीधी नली में रखें। इतना अच्छा धरम, सनातन धरम, उसकी ऐसी की तैसी करके रख दी। शुरू से ही - राजा भरत ने अपने (नालायक़) बेटों को राजगद्दी नहीं दी - सड़क पर से उठाकर एक क़ाबिल लड़के को गद्दी दे दी। आगे उसी वंश में धृतराष्ट्र महाराज ने उस गद्दी की ऐसी की तैसी करके रख दी। बुद्ध ने बड़ी मिहनत की - इंडिया के लोगों ने उनकी भी खटिया खड़ी कर दी। आज चीन-जापान बग़ैरह न होते तो बुद्ध का कोई नामलेवा न होता। बड़ी कोशिश की चाणक्य और चंद्रगुप्त ने। सौ बरस के अंदर सब मटियामेट। शंकराचार्य ने क्या-क्या नहीं किया। फिर प्रेत डाल पर जा लटका - और अब चार प्रेत लटके हुए हैं चार दिशाओं में - विक्रमादित्य का मुँह चिढ़ाते हुए। हम 700 वर्षों तक जम कर लतियाए गए - बेटी-रोटी की गयी। लेकिन हमारी दुम को सीधी न होना था, न हुई। हम स्वतन्त्र हुए। साठ बरस बीते न बीते, हमने अपनी स्वतंत्रता की ...के रख दी। आरक्षण हुआ, कर दी ऐसी की तैसी। विश्वविद्यालय बने, कर दी ऐसी की तैसी। मिड डे मील प्रोग्राम बना,कर दी ऐसी की तैसी। कहते हैं (मालूम नहीं झूठ है कि सच) , फ़िराक़ ने किसी मज़लिश में एक कविता पढ़ी थी - तर्ज़ था "माँ ..... के रख दी। किसी से सुन लीजिएगा। अच्छी कविता है। थोड़ी वल्गर है। लेकिन फ़िराक़ तो फ़िराक़ थे - ठोस लिखते थे। (हरिवंश राय) बच्चन की लिखी "बुद्ध और नाचघर" पढ़ें। बहुत कुछ साफ़ दिखने लगेगा।
--------------------------------
मैंने झाँक कर देखा तो पाया कि नेताजी लंबे-लंबे डग लेते हुए, इधर-से-उधर और उधर-से-इधर गस्त सा लगा रहे थे, बेचैन थे, बड़बड़ा रहे थे। बोल रहे थे - यह साला गुंडों का देश है, गुंडों का। इतिहास गवाह है। सारे राजे गुंडे थे। छीना-झपटी, मार-काट, लूट-खसोट। हर राजा अश्वमेध का सपना पालता था। ...में गू नहीं, इलाक़े भर के सुअरों को न्योता। हून आये, पठान आये, तरह-तरह के मुसलमान आये। गुंडों के ऊपर गुंडों ने चढ़ाई की। गुंडे हारे, गुंडे जीते। जनता को क्या? रंग कुछ भी हो, धरम कुछ भी हो, गुंडे तो गुंडे होते हैं। पहले ठाकुर माँ की ऐसी तैसी करते रहे, अब खान करते हैं।फिर अंगरेज आये। गुंडों ने गुंडों को आपस में लड़ाया। फिर महागुंडा होकर बैठ गया। फिर जैसे-तैसे देश स्वतंत्र हुआ, पर स्वतंत्र होते ही गुंडों के हाथों पड़ गया। प्रजातंत्र घंटातंत्र। काहे की प्रजा, काहे का एलेक्सन। सब गुंडा गर्दी है। ... जब देश के भाग्य में यही लिखा है, तो मैंने भी अपने बाहुबली लगा रखे हैं।हम भी देखेंगे किसकी  .. में कितना दम है.

अकस्मात उनका ध्यान दरवाज़े की तरफ़ पलट गया। मुझे वहाँ खड़ा देखकर बोले, जाओ अंदर, कब से खड़े हो। इस देश में साला किसी का खड़ा नहीं होता, और सब के सब उल्लुओं की तरह हाथ जोड़े खड़े रहते हैं।

--------------------
मेरे गांव में एक अंधी बुढ़िया का बेटा अपनी पत्नी और 13-14 साल की बेटी को माँ की निगरानी में छोड़कर दिल्ली कमाने गया। वह हर महीने मनीऑर्डर से पॉँच सौ रूपये भेजता था। बुढ़िया पैसे लेती थी और डाकिये को मनीऑर्डर के साथ आया सन्देश पढ़ने कहती थी। डाकिया सन्देश पढ़ते-पढ़ते उसमें यह भी जोड़ देता था कि डाकिये को सौ रूपये दे देना। बुढ़िया डाकिये को सौ रुपये दे देती थी। आठ-दस महीने तक यह चलता रहा, फिर दो-तीन महीनों के लिए मनीऑर्डर आना बंद हो गया। अकस्मात एक दिन डाकिया बुढ़िया के दरवाज़े पर मनीऑर्डर देने आया। इस बार, जैसा कि डाकिये ने बतलाया, दिल्ली से एक हज़ार रुपये आये थे। डाकिये ने पढ़कर सुनाया कि कुछ क़िल्लत थी इसीलिए कुछ दिनों तक पैसे नहीं भेज पाया। और हाँ, बिटिया तो बड़ी हो गयी होगी। जो पैसे भेज रहा हूँ, उसी को दे-दिवाकर, आरजू मिन्नत कर, डाकिये को बिटिया ब्याह देना। शायद वह मान जायेगा। में शादी में नहीं सकूँगा। समझो कि कुछ दिक्कतें आन पड़ी हैं। तीन-चार महीने बाद आऊंगा।

फिर बुढ़िया ने अपनी पोती के हाथ डाकिये से पीले करवा दिए। पीछे पता चला कि यह सब डाकिये की चालाकी थी।

अब लगता है हमारे धर्मगुरु लोग भी डाकिये की तरह हैं।
------------------------------
आज भी, सूरज के उगते-उगते, मैं अपनी आदत के मुताबिक़, नहा-धोकर, नेताजी के बंगले पर चाय-विमर्श  में भाग लेने पहुंच गया। नेताजी भी नहा-धोकर अपनी कुर्सी पर थे, पर बेजार  हँस रहे थे - समझिये लोटपोट को छोड़कर सबकुछ हो रहे थे। मैं चकित बैठा रहा। वह कोई पॉँच मिनट तक हँसते ही रहे। जब हँसी का वेग कुछ घटा, तो टूटती हँसी से ओतप्रोत भाषा में बोले, अरे कुछ सुना? वो, क्या कहते हैं, ओबामा की बेटी ढाबे में काम करती है। हमने तो एमेले होकर भी अपने छह बच्चों को बड़े-बड़े पोस्ट पर बैठाया। तेरा बेटा भी भुसगोल था, देखो, मंत्री जी को कह-सुन कर मैंने उसे भी कॉलेज में, क्या कहते हैं, प्रोफ़ेसर लगाया। बस तेरी ख़ातिर। तुम मेरी बड़ी भक्ति करते हो। और ये ओबामा ? प्रेजिडेंट है, अमेरिका का। एक बेटी को सेट नहीं कर सका। काहे का प्रेजिडेंट ? निकम्मा। और वह फिर हँसने लगे।
------------------------------
राजनीति और ईमानदारी परस्पर-विरोधी हैं। राजनीति ईमानदार हो ही नहीं सकती, और ईमानदारी राजनीति कर ही नहीं सकती। राजनीति वह सौदेबाजी है जिसमें समर्थन के लिए तरफ़दारी की जाती है और तरफ़दारी के लिए समर्थन मिलता है। ईमानदारी का मतलब ही होता है तरफ़दारी नहीं करना। इसलिए ईमानदारी का समर्थन कोई क्यों करे। हम बात-चीत में ईमानदार राजनीतिज्ञ का चर्चा करते हैं। यह उतना ही अर्थपूर्ण है जितना यह कहना कि इस बाँझ के तीन बच्चे हैं जिनमें से सबसे बड़ा लड़का बी-एस-सी कर रहा है।    
------------------------------
समाधि के पहले का अनुभव? हमारे गाँव की परिधि के बाहर कोई एक किलोमीटर दूर, खेतों के बीच, एक छोटी सी कुटी-जैसी थी, जिसकी चारों और झाड़ियाँ-ही-झाड़ियाँ थीं। उसमें एक बहुत बूढ़ा साधु रहता था, जिसे लोग काशीनाथ बाबा कहते थे। अगल-बगल के  गांवों  के लोग प्रायः (लेकिन शायद रोज़ नहीं) बाबा को कुछ खाने के लिए दे जाते थे और शायद इसीलिए बाबा ज़िंदा थे। बाबा बहुत कम बोलते और मिलते-जुलते थे।

मैं अक्सर बाबा से मिलने जाता था और पोटली में कुछ खाने के लिए ले जाता था। बाबा खाना ले लेते थे, लेकिन बातें नहीं करते थे। में उनसे अक्सर पूछता था कि बाबा, यह समाधि क्या होती है। बाबा प्रायः चुप रहते थे। एक-दो बार उन्होंने चलते-चलते कह दिया था कि कभी बताएँगे। वह कोई रुचि नहीं लेते थे, अतः उनके पास अधिक देर बैठना संभव नहीं था। उनके चेहरे पर साफ़ लिखा रहता था - मिल तो लिए, खाना भी दे दिया, अब जाते क्यों नहीं हो?

लेकिन उस दिन कुछ अजूबा हुआ जब खाना लेकर बाबा बोले कि, बैठो। में बैठ गया। सामने एक लकड़ी के कुंदे पर बाबा भी बैठ गए। वह एक-दो मिनट चुप रहे, फिर बोले - तुम समाधि के बारे में पूछते थे न। यह परसों की बात है, तुम कल आये नहीं, अन्यथा तुम्हें कल ही बतला देता। मैं (बाबा) परसों सबेरे ध्यान में बैठा था, कि लगा में एक नीले अनंत सागर के तल पर उठता, कुछ ऊपर उठता, एक ढेव सा हूँ। फिर लगा, मेरे नीचे कोई तल नहीं है, और मैं  अपनी चारों तरफ़ के पानी में घुल रहा हूँ - घुल गया। इसके बाद क्या हुआ, मुझे याद नहीं। फिर काफ़ी देर गए मुझे होश आया। दिन के करीब दस बजे होंगे। सोचा, तुम आओगे तो तुम्हें आते ही बता दूँगा। लेकिन तुम तो कल आये ही नहीं।

बाबा फिर मौन हो गए। कुछ मिनटों के बाद एकाएक बोले, अब जाओ। मैं कुटी से बाहर निकल गया। यह घटना कोई 45 साल पहले की है।      
---------------------------------
तब हम बच्चे थे, कोई 9-10 साल के। दीपावली थी। हम, दोस्तों को एक मज़े की सूझ दिमाग में आई। एक कुत्ते को रोटी देकर, थोड़ा प्यार दिखाकर बैठाया और उसकी दुम में कई क्रैकर बाँध दिए। फिर आग लगा दी। पहला क्रैकर फूटा तो कुत्ता सरपट भागा। लेकिन क्रेकर एक के बाद एक फूटते रहे। कुत्ता व्याकुल, डरा भागता रहा। हम तालियाँ बजाते रहे। यह ग़लत था लेकिन बचपनी में आकर किया। अब देखता हूँ, ये राजनीति के लोग हमें रोटी का एक टुकड़ा और थोड़ा सा नक़ली प्यार देकर, पीठ थपथपाकर, हमारी पूँछ में क्रैकर बाँधते हैं और माचिस मार देते हैं। हम भागते रहते हैं। वे मज़ा लेते हैं।
----------------------------------------
कृष्ण-सुदामा आज भी हैं
महीने भर काम चलता रहा। परसों काम पूरा हो गया, कल ही नेताजी को जानकारी दे दी, आज आप लोगों को दे रहा हूँ।
कोई डेढ़ महीने पहले की बात है। मैं चेहरे पर मुर्दनी लिए नेता जी के चौपाल वाले हॉल मैं बैठा था। गोष्ठी संपन्न हो चुकी थी, लोग जा चुके थे। नेताजी का पिछलग्गू होने के नाते मैं हॉल में ही रुका रहा था क्योंकि नेताजी हॉल से बाहर नहीं निकले थे। कुछ-एक मिनट के बाद मैं नेताजी के साथ हॉल से बाहर निकला, और हम पोर्टिको की तरफ़ जाने लगे। चलते-चलते, मुझे बहुत उदास देखकर, नेताजी ने कारण पूछ लिया। मैंने अपने खंडहर मकान और आने वाली बरसात से डर की बात नेताजी को बतला दी। नेताजी ने सुना और अपने ख़ास अंदाज़ में बोले, चलो इसे भी देख लेंगे।
कोई एक सप्ताह बाद, विना मेरी जानकारी के ही मेरे मकान की मरम्मत शुरू हो गयी। मुझे कुछ पूछा तक नहीं गया और एक महीने में काम पूरा। हालाँकि मैं रोज़ ही नेताजी के यहाँ जाता था, लेकिन मकान मरम्मत के बावत कभी कोई बात ही नहीं हुई। परसों रात एक मोटा-सा आदमी मेरे पास आया, जिसने अपना परिचय भूरेलाल कांट्रेक्टर कह कर दिया मुझे कह गया कि काम पूरा होने की बात नेताजी को बतला दूँ।
अब आज आपको बतला दूँ कि मैं नेताजी के यहाँ कोई भुने चावल या चिउड़े की पोटली लेकर नहीं गया था।हाँ, नेताजी के लिए भक्ति तो मेरे दिलोदिमाग़ में ही नहीं, लहू के हर कतरे में है। कृष्ण भुने चावल-चिउड़े पर रीझ गए थे, हमारे नेताजी तो उनसे भी आगे निकले, केवल भक्तिभाव या चमचागीरी पर रीझ गए। जय हो।
---------------------------------------------
उपलब्धि:  मैं हाबड़ा से गौहाटी रहा था। हाबड़ा में ट्रेन में मेरे सामने के बर्थ पर एक अघोर आकर बैठ गए, उनका रिजर्वेसन था। मेरे हाथों में एक किताब थी जिसमें दस उपनिषदों का मूल एवं अंग्रजी में भाष्य था। मैं चुपचाप वही पढ़ता रहा। रात के दस बज गए और खुली खिड़कियों से पीड़ादायक ठंढी हवा आने लगी। हम नीचे के बर्थ पर थे। मैंने अपनी तरफ़ की खिड़की तो बंद कर ली थी, लेकिन अघोर के बर्थ की खिड़की खुली थी। अघोर खुले बदन ख़ुश थे, लेकिन मैं बहुत चिंतित था कि मेरी रात कैसे कटेगी। मैं अघोर को कुछ कहना नहीं चाहता था।


अघोर मेरी चिंता को भाँफ गए। उन्होंने अपनी खिड़की बंद कर ली। फिर कुछ देर बाद उसने बातचीत शुरू की, पूछा कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। उन्होंने आश्चर्य भी प्रकट किया कि क्या आज के ज़माने में भी कुछ लोग यात्रा में उपनिषद पढ़ते है। मैं प्रकृतिस्थ हुआ और उनसे बातें करने लगा। अघोर को मैंने काफ़ी पढ़ा-लिखा और समझदार पाया।

सुबह हम गौहाटी पहुंचने ही वाले थे। बहुत सारी बातें हम रात में ही कर चुके थे, लेकिन मेरे मन में एक सवाल रह ही गया था। सोचा, पूछ ही लूं। मैंने पूछा कि सुनते हैं अघोरों को बहुत उपलब्धियाँ होती हैं, वे क्या हैं? इसपर अघोर मुस्कुराये, और बोले कि कहीं कोई उपलब्धि नहीं है, सब शून्य है। इस पर मैंने पूछा कि फिर आप हमारी दुनियां में क्यों नहीं लौट आते। अघोर एक मिनट चुप रहे फिर उन्होंने मुझसे कहा कि ठीक से अपने जीवन का सिंहावलोकन करके उन्हें बताऊँ कि सारे जीवन में मेरी क्या उपलब्धि है। कुछ देर के बाद मैंने रिपोर्ट किया कि मेरी कोई उपलब्धि नहीं है। इसपर अघोर हंसने लगे बोले, तो तुम्हीं बताओ, मैं क्या पाने के लिये तुम्हारी दुनियां में जाऊँ? देखो, वहाँ भी कुछ नहीं है, यहाँ भी कुछ नहीं है, कहीं कुछ नहीं है, यही जानना उपलब्धि है।  
--------------------------------------------------------------
कहते हैं, एक आदमी, अपनी पीठ पर भारी-भरकम केले के थम्भ (स्तम्भ) लादे, थका, पसीने से लथपथ, हाँफता हुआ,  भगवान  बुद्ध से मिलने आया। उसने भगवान बुद्ध से अपने कल्याण  का उपाय बतलाने के लिए आग्रह किया। भगवान बुद्ध ने कहा कि वह तो ठीक है, वह उसे कल्याण का रास्ता बताएँगे। लेकिन पहले वह व्यक्ति यह तो बताये कि वह अपनी पीठ पर केले के थम्भ क्यों लादे है। उस व्यक्ति ने खुलासा किया कि जब वह भगवान से मिलने रहा था तो रास्ते में एक नदी मिली, पर उसे पार करने के लिए कोई नाव बग़ैरह नहीं थी। नदी के किनारे बहुत सारे केले के पेड़ थे। बस, उसने कुछ पेंड़ काटे और उनकी मदद से नदी पार की। अब, जिन केले के थंभों ने उसकी इतनी मदद की, उनको छोड़कर आगे बढ़ना अकृतज्ञता होती। अतः उसने थंभों को पीठ पर लादा और भगवान से मिलने को आगे बढ़ा। थंभ भारी हैं, उन्हें पीठ पर लाद कर चलना आसान नहीं, लेकिन अकृतज्ञता तो अपराध है। अपराध करते हुए वह भगवान के पास किस मुँह से आता। 

उसकी बात सुनकर और कृतज्ञता की भावना को समझ कर भगवान बुद्ध हँसने लगे। फिर बोले, अगर विना समझे नैतिकता को पीठ पर लादे रहोगे तो तुम्हारा कल्याण संभव ही नहीं है। नैतिकता को समझो, उसका कल्याणप्राप्ति से और व्यर्थ श्रम, धीमी चाल बग़ैरह से क्या संबंध है उसे समझो। तभी कल्याण संभव है। नैतिकता को विना समझे केवल पीठ पर लादे रहोगे तो कल्याण संभव नहीं। 
----------------------------------------
मातृदिवस पर माँ ने अपने प्रिय बेटे को सफल जीवन के लिए चार उपदेश दिए: (1) जिस तरह मैंने तुम्हें प्यार किया, तुम अपने बच्चों को प्यार देना - वही तुम्हारे भविष्य हैं, (2) अपनी पत्नी की बातें सुनना, उसका कहा मानना - वह तुम्हारा वर्तमान है, (3) मेरी चिंता करना और ही उलट कर देखना - मैं तुम्हारा अतीत हूँ, और (4) क़ानून के अंदर चलना - सास-ससुर इन-लॉज़ होते हैं।
-----------------------------------------
जैसे अलग-अलग द्रवों (लिक्विड्स) की पिच्छिलता (फ्लुइडिटी) अलग-अलग होती है, उसी तरह वाह्य परिस्थितियों और अंदरूनी (शारीरिक  मानसिक) परिस्थितियों की पिच्छिलताएँ अलग-अलग होती हैं। वाह्य परिस्थितियों की तुलना में संस्कार कम पिच्छिल होते हैं। इसी कमी को पूरा करने के लिए निर्णायक बुद्धि एवं स्वतंत्र इच्छाशक्ति आयी। फलतः वाह्य परिस्थितियों एवं संस्कार के सामंजस्य के लिए मूल्यांकननिर्णायक बुद्धि एवं स्वतंत्र इच्छाशक्ति का उपयोग होता है। क्रमविकास पूर्णतः निश्चय (चयन की संभवता से हीन, डिटर्मिनिस्टिक) नहीं है पूर्णतः रैंडम। संभवताएँ हैं और चुनाव  एवं स्वतंत्र इच्छाशक्ति का उपयोग आवश्यक है। इनके उपयोग से हमें उन संस्कारों से मुक्ति मिल सकती है जो व्यक्तिसमाज और  वाह्य परिस्थितियों के सामंजस्य में रुकावट डालते हैं।  
-----------------------------------------------
प्रिय और आदरणीया भारत माता,
बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुम्हें एक पत्र लिखूं और कुछ पूछूँ, लेकिन तुम्हारा पता ही मालूम नहीं था। फिर एक सज्जन ने बताया कि फ़ेसबुक पर लिख डालो, भारत-माता फेसबुक से ज़रूर ही ताल्लुक़ात रखती होंगी। उन्हें मिल जायेगा। सो फ़ेसबुक पर लिख रहा हूँ। अगर तुम सही समझो, ख़ुद लिखना, नहीं तो अपने किसी फेसबुकिये बेटे/बेटी को कहना कि वह तुम्हारा उत्तर फेसबुक के ज़रिये से मुझ तक पंहुचा दे।
माता, मेरी जन्मदात्री मां का तो तभी इंतकाल हो गया जब में पालने में था - कहने भर को - वैसे मैं एक टूटी खटिया पर पड़ा-पड़ा दूध के लिए रिरियाया करता था और, भला हो मेरी चाची का कि उसने मुझे मरने नहीं दिया। सुखंडी, अनीमिया, बारह-तरह की बीमारियों एवं उपेक्षा के बीच मैं बड़ा होता गया। माता, मुझे याद है - हर साल हमारे हमउम्र बच्चे 15 अगस्त को भारत-माता की जय चिल्लाते हुए, हाथ में तिरंगा लिए, इधर-उधर भागते थे। मैं, सोचता था, किसको पुकारते हैं वे? कौन है भारत माता? कैसी है वह? क्या भारत-माता का चेहरा मेरी ज़न्नतनशीना माँ से मिलता होगा? मैं मिलूंगा तो क्या भारत माता मुझे पहचानेगी? क्या मेरी माँ ने भारत माता को मेरे बारे में बताया होगा? नहीं, तो फिर कैसे पहचानेगी वह मुझे? माता, मैंने अपनी माँ को नहीं देखा कभी, ना ही तुम्हें देखा है, केवल सुना है तुम दोनों के बारे में। कैसी हो तुम?
बचपन में मुझे हमउम्र बच्चों ने बतलाया कि तुम सुजला, सुफला, मलयजशीतला हो।पानी तो ठीक है माता, वही पीकर बहुधा भूख मिटाता था, उसी से पेट की जलन कम होती थी, पर सुफला किसे कहते हैं, माता? मेरे हिस्से में तो हमेशा सड़े फल आते थे - फेंकने के बजाय मुझे मिल जाते थे। आम की मीठी गुठलियाँ मैं घंटों चाटा करता था। चाची भुक्खड़ कहकर लतियाती-गरियाती थी। माता, तुमने कभी एक बिन-सड़ा आम मुझे क्यों नहीं दिया? मेरी अपनी माँ मर गयी थी, लेकिन तुम तो थी, माता। और मलयजशीतला? जेठ की दुपहरी की लू, पूस की पछुवा, सब झेला मैंने नंगे बदन। इसीलिए न माता, कि मेरी अपनी माँ ने मुझे छोड़ दिया था?
उन दिनों रेडियो में एक गाना आता था - मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे। कौन हैं ये तेरे लाल? मैं तो ठीकरा हूँ। क्या तेरे लाल वे हैं जिनके गाल सेव की तरह लाल हैं, जो स्कूल आते हैं वातानुकूलित कार से, जिनका सारा स्कूल वातानुकूलित है, जो फेल होकर भी किसी कंपनी के सी-इ-ओ होंगे। जो इंजिनियर, डॉक्टर के बेटे हैं। जो आगे इंग्लैंड अमेरिका में पढ़ेंगे। माता, मेरे तबक़े के बच्चे स्कूल भी जाते हैं तो खिचड़ी खाने के लिए। भूखे रहने से बेहतर कि पढ़ने के बहाने स्कूल जाओ, खिचड़ी तो मिलेगी। हम लाल कैसे हो सकते हैं माता? हम तो ठीकरे हैं, जिनका चेहरा भूख और धूप से काला और चीमड़ हो गया है। जिनकी पीठ पेट की भूख के चलते झुक गयी है। जिनके हाथ-पाँव हड्डियों जैसे सख़्त और खुरदरे हैं। जिनकी ऑंखें धँस गयीं हैं। जो मिमियाते हैं, बोलते नहीं। क्या ऐसों को लाल कहा जाता है? हम ठीकरे हैं, माता, ठीकरे।
क्या न कि कहते हैं - शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीं, फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीं - लेकिन अपनी रातें तो घुप स्याह होती हैं, डरावनी - कहीं कोई दिया नहीं - ऊमस भरी, सड़े नाले के गंध से ओतप्रोत हवा से लदी - स्लम में जो रहता हूँ। अट्टालिकाओं में तो तुम्हारे लाल रहते हैं माता, मैं तो एक ठीकरा हूँ।
आर्मी में जाना चाहा था। लेकिन शरीर ने धोखा दिया। मेरे जैसे सड़ियल नौजवान आर्मी में नहीं चुने जाते। काश, मेरा सेलेक्सन हो जाता तो सरहद पर मरने वाले 18 जवानों में मैं भी एक होता। तुम नहीं आयी, तो मैं ही चला आता तुम्हारे पास। देखता, तुम कैसी हो। भगवान ने मुझे वह मौक़ा भी नहीं दिया। मैं बहुत बदक़िस्मत हूँ न, माता !
क्या-क्या लिखूँ? कितना लिखूँ? कम में ही अधिक समझना।
तुम्हारा अभागा बेटा
----------------------------------------------------------------------------------------------------