बुधवार, 20 अक्तूबर 2021

अर्थ का अर्थ

संस्कृत या हिंदी का शब्द 'अर्थ' बहु-आयामी है। अर्थ का एक तात्पर्य है समानवाचकता। जैसे वह्नि का अर्थ है आग। वह्नि और आग दोनों शब्द मोटा-मोटी एक ही चीज या सबस्टैंस को सूचित करते हैं। अर्थ का दूसरा तात्पर्य है वे साधन जो जीवनयापन,, सामाजिकता और कामनाओं की पूर्ति इत्यादि के लिए प्रयुक्त होते हैं। धन इसका पर्यायवाची है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चतुष्क में अर्थ का यही तात्पर्य है। इस श्लोक को देखिए:

 यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बांधवाः। यस्यार्थाः स पुमान् लोके यस्यार्थाः स च पंडितः। 

 इस श्लोक का तात्पर्य है कि साधन-संपन्नता ही worth देती है। वहीं मित्र बनाती है, बंधु बनाती है, पुरुष (पुरुषार्थी) बनाती है, पंडित बनाती है। अर्थ का एक तात्पर्य उद्देश्य और कामना भी है। इस श्लोक को देखिए:  

अर्थार्थी जीवलोकोऽयं श्मशानमपि सेवते। त्यक्त्वा जनयितारं स्वं निस्वं गच्छति दूरतः।। 

 पुरुष का प्रथम उद्देश्य अर्थोपार्जन है। अर्थ धन के रूप में कामनाओं का साधक होता हैं। अपनी निजी कामनाओं का, परिवार की कामनाओं का, बांधवों, कुटुम्बियों और मित्रों की कामनाओं का, मददगारों और सेवकों की कामनाओं का। इतना ही नहीं, धर्म भी अर्थजन्य है। कौटिल्य ने कहा है - सुखस्य मूलंं धर्मः, धर्मस्य मूलं अर्थः।  

एक बहुचर्चित शब्द है परमार्थ। परमार्थ यानी the ultimate meaning, the highest meaning, the subtle and most substantive meaning, the essential meaning. इस परमार्थ के लिए ही कहा गया है: वृक्ष कबहुं नहिं फल भखै, नदी न संचै नीर। परमारथ के कारनें साधुन धरा सरीर।। मतलब कि परमार्थ का तात्पर्य है समाजसेवा। निस्वार्थ समाजसेवा। पेड़ की तरह। फल देते रहेंगे, सींचने वाले को भी, नहीं सींचने वाले को भी। गंगा की तरह, पूजा करने वाले को भी, प्रदूषण करने वाले को भी। समाज के सुचारु रूप से चलने के लिए परमार्थ आवश्यक है। 

परमार्थ ही public goods और social capital का निर्माण और संवहन करता है। इसी के संपोषण के दायित्व को पूरा करना देवऋण से मुक्ति दिलाता है। जिस देश की जनता, समृद्ध वर्ग, अधिकारी गण, और सरकार व नेतागण public goods और social capital के निर्माण व रख-रखाव में बेईमानी करते हैं वह देश नरक में तब्दील हो जाता है। परमार्थ के संपोषण, संरक्षण और संपादन में ढिलाई ही नरक की निर्मात्री है। इसी की रक्षा धर्म है। इसी को अस्त-व्यस्त करना पाप है। परमार्थ की भावना से प्रथमतया स्वार्थ और द्वितीयतया अहंकार का प्रत्याहार मोक्ष का द्वार है।  

उपर्युक्त विवेचन अर्थ के तात्पर्य पर चिंतन है। यह अर्थ के आयामों पर चिंतन है।