सोमवार, 6 अगस्त 2018

Stray writings-1

सच्चे गुरु का घिसा-पिटा टेक 
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रिटायर होने के बाद तीन साल से दिल्ली में हूँ, भाड़ तक नहीं झोंकता| सिर्फ़ आटा गीला कर रहा हूँ| नतीज़तन मैं महसूस करने लगा हूँ कि मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ| मालूम नहीं कब बुलावा आ जाये और हाथ पसारे कूच कर जाऊँ| खेद है कि अपन ने जतन से चादर न ओढ़ी, जहाँ मौक़ा मिला, चादर ओढ़ कर घी पिया| चादर तो इतनी मैली कर ली है कि सौ टन साबुन खाकर भी उजली नहीं होने की| यह बात जग-ज़ाहिर है, बीवी-बच्चे भी जानते हैं| मैं भी जानता हूँ कि लाख खिलाओ-पिलाओ, रत्नाकर का साथ कोई नहीं देनेवाला| आज मरा-मरा करने का जुग भी नहीं है| लोग कहेंगे वाल्मीकि वाला स्टाइल मार रहा है| राम-राम कहने में भी ख़तरा-ही-ख़तरा है| कोई कहेगा बीजेपी का भक्त है, कोई कहेगा, राम-राम, इसने तो हद कर दी, सत्तर चूहे खा कर बैठा है| हज़ करने जा नहीं सकता, हिन्दू हूँ| साँसत में जान है|

पोथी पढ़-पढ़ कर थक चुका हूँ, पंडित हो जाने की गफ़लत पाले हुए हूँ| पढ़ने-लिखने से ऊब चुका हूँ| न्हाये-धोये मन का मैल थोड़े ही साफ़ होता है| साँसों से सड़ी मछली की भभ्भक आती है| प्रेम का ढाई अच्छर कभी पढ़ नहीं सका| किसी कोर्स में नहीं था| प्रेम की सही उमर स्कूल कॉलेज में गुजारी| क़िताबें पढ़ीं| हीरा जनम अमोल गँवाया कौड़ी की डिग्री के लिए| हमारे ज़माने में भी प्रेम बाड़ी में नहीं उपजता था, उसमे साग-बैंगन और भिंडी उपजते थे| गाँव और शहर इतने छोटे थे कि नींबू-धनिया भी नहीं मिलता था, प्रेमिका कहाँ मिलती! और किसी कोने में होती भी होगी, तो एक अनार सौ बीमार| अपना चांस नहीं था|
लेकिन अब लौं नसानी अब ना नसैहों| पिछले कई महीनों से मंदिर जाता हूँ| वहाँ एक बाबाजी प्रवचन देते हैं| प्रकांड पंडित हैं - प्रभु भजन और प्रातः प्रवचन के सिवा और कुछ नहीं करते| उन्हें पूरा भरोसा है कि भगवान भाव के भूखे होते हैं, भाषा के नहीं| संस्कृत हिंदी वग़ैरह तो भाषाएँ हैं - इसमें क्या ग़लत क्या सही| सही संस्कृत में ही अगर कह दिया जाये कि रामचन्द्र तीन ही भाई थे, चार नहीं, तो भाषा की शुद्धता के बावज़ूद यह ग़लत ही होगा| हृदय सही होना चाहिए, असली भक्त भाषा पर ध्यान नहीं देते| ऐसा न होता तो कबीरदास किस बूते पर संत हो जाते| मंदिर के बाबाजी भाव माँगते हैं और तभी किसी को भाव देते हैं| भाषा के मामले में वह क्या कबीर, क्या दादू , सबके कान काटते हैं| बाबाजी सिद्धपुरुष हैं| बरसों पहले की बात है| वह भूले-भटके कहीं से दिल्ली आ गए थे| संतों का उद्गम नहीं पूछते| वे तो अपना असली नांव-गांव छोड़कर सन्यास लेते हैं, अपना नया नाम रख लेते हैं| उन्हें सपना आया कि अमुक पीपल के पेड़ के नीचे डेरा डाल दो| फिर वहीँ आपरूपी मूर्तियां आ गयीं, एक शिवलिंग भी उठ खड़ा हुआ| बम-बम की चिल्लाहट सुनकर लोग भागे नहीं, पीपल के नीचे आ खड़े रहने लगे| बाबाजी उन्हें आशीर्वाद देने लगे| बाबाजी ने मंतर मारा तो एक मंदिर जैसा भवन भी बन गया| थोड़ा और बन जाये तो सिद्धपीठ बन जायेगा| दिल्ली में गाँठ के पूरों की कमी नहीं है|
मेरी भक्ति बाबाजी को जँच गयी है| एक दिन बोले, अब आप दीक्षा ले लें| मैं कई दीक्षांत समारोहों में भाग ले चुका हूँ| बीए, एमए, एमआरपी, पीएचडी के दीक्षांत समारोहों में अपनी डिग्रियाँ ले चुका हूँ| विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष और संकायाध्यक्ष भी रहा हूँ, अनेक वार गाउन पहन चुका हूँ और दीक्षा तथा दीक्षांत समारोहों पर आस्था खो चुका हूँ| बाबाजी कपूर हैं, गोरे-चिट्टे, चन्दन-चर्चित| मैं हींग हूँ| मुझमें सुगंध आना असंभव है| अलबत्ता, मेरी सोहबत से बाबाजी पर विष का असर नहीं होगा - उनका कलेवर चन्दन-चर्चित रहता है| वह तो विष पीकर भी पचा लेंगे, मीरा की तरह नहीं तो शिव जी की तरह| वैसे वह भंग का सेवन नियमित रूप से करते हैं और गाँजे का सेवन अनियमित रूप से| लेक़िन हर सत्र में शंकर जी की अग्रपूजा अवश्य करते हैं|
बाबाजी सद्गुरु की बात बहुत करते हैं| कहते हैं कि अगर सद्गुरु और गोविन्द दोनों सामने आ जाएँ तो सद्गुरु को पहले प्रणाम करना, गोविन्द को प्रतीक्षा करने देना| रूठ कर जाते हैं तो जाएँ बला से| सद्गुरु ऐसे मन्त्र जानते हैं कि उनके पाठ से गोविन्द को नंगे पाँव - पाँव पयादे - दौड़ कर तुम्हारे पास आना होगा, उन्हें भागे रास्ता नहीं मिलेगा| भगवान तो मन्त्र के पगहे में बँधे हैं| मन्त्र असली चीज़ है, भगवान तो भक्तों, ख़ास कर बाबाजी जैसे सद्गुरु, की मुठ्ठी में हैं| दुर्वासा जी सद्गुरु थे| कुंती को ऐसा मंतर बताया कि क्या सूर्य, क्या इंद्र, क्या वायुदेव, क्या अश्विनीकुमार| इनकी क्या गिनती, जब धर्मराज अधर्म - परस्त्रीगमन - करने के लिए विवश हो गए| यह तो कुंती की कृपा या दया कहिए - बह्मा, विष्णु, महेश को विवश नहीं किया| मन्त्रों में बहुत शक्ति होती है, सद्गुरु की अनुकम्पा होनी चाहिए| सही मन्त्र जपोगे तो चाहे जिसे पुकारो, जब पुकारो जहाँ पुकारो, रात हो या दिन, मंदिर हो या वीरान बगीचे का खंडहर, औरत हो या मर्द, भूत हो या भगवान, वो सात ताले तोड़, सात समंदर फांद, फ़ौरन हाज़िर होगा| मन्त्र है कि ठट्ठा| गुरुमुख होकर देख लो| अपने मरे ही सरग दीखता है|
यह सब सुनकर मुझे बड़ा डर लगता है| मेरे ऊपर सचमुच ही शैतान का साया है| मेरे जेहन में कितने सारे नाम आने लगते हैं - आसाराम बापू, गुरमीत सिंह राम रहीम, रामपाल, आचार्य रजनीश, दाती महाराज, राधे माँ, सच्चिदानंद गिरि, स्वामी ओमजी, निर्मल बाबा, इच्छाधारी बाबा, स्वामी असीमानंद, नारायण साईं, आचार्य खुशी मुनि, बृहस्पति गिरि, ॐ नमः शिवाय बाबा, मलखान सिंह, परमहंस नित्यानंद - और कितने सारे| बाबाओं का नाम सुनकर उबकाई आने लगती है|
हो सकता है कि कोई सद्गुरु सचमुच ही हो| हो सकता है कि पारस नाम और गुणों वाला पत्थर होता हो| हो सकता है कि नागमणि सचमुच होती हो| लेक़िन ये सारी चीज़ें किम्वदन्तियाँ भी हो सकती हैं - कहानियों का सच| वास्तविक जीवन का सत्य यही है कि मेहनत और लगन का पसीना पारस होता है; अपनी बुद्धि की रौशनी नागमणि का काम करती है| दोस्ती, भाईचारा, परिवार के सदस्यों पर प्रेम और उनकी वक़्त-ए-ज़रूरत पर मदद अमृत का काम करते है और अपना चिंतन, आत्म-विश्लेषण और आत्म-संयम सद्गुरु का काम करते है| बुद्ध ने कहा था - आत्मदीपो भव; अपने को जलाओ और उस प्रकाश में आगे बढ़ो| बाक़ी सब कुछ संदिग्ध है, ख़तरों से भरा है| ना जानें किस भेस में आसाराम मिल जाये|






आधी पत्नी की कहानी
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उसका नाम प्रज्ञा है और वह एक स्कूल मास्टर की बेटी है | मास्टर साहब ने उसका नाम बहुत सोच-समझ कर रखा था| कहते हैं यथा नामस्तथा गुणः| हालाँकि एक बहुत प्रतिभाशाली कवि (काका हाथरसी) ने अपनी कविता "नाम बड़े - दर्शन छोटे" में दिखाया है कि नाम और गुण का कोई ताल्लुक़ नहीं है | जेएस मिल ने भी कहा है कि व्यक्तिवाची नाम गुण सूचित नहीं करते| मास्टर साहब हिंदी के आला दर्जे के विद्वान थे इसलिए काका हाथरसी जैसे विदूषक कवि की कविता को गंभीरता से लेने में उनकी हेठी होती थी| बची जेएस मिल की बात| सो मिल साहब हिंदी में तो लिखते नहीं थे | मास्टर साहब मानते थे "यन्न भारते तन्न भारते"| जो ज्ञान कहीं भी है वह हिंदी में भी है और जो ज्ञान हिंदी में उपलब्ध नहीं है वह कहीं उपलब्ध नहीं है| अतः मिल को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी| उनका वश चलता तो वह प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और हरिवंश राय बच्चन की क़िताबों के ज़रिये गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान और यांत्रिकी पढ़वाते| लेक़िन उनकी चलती नहीं थी|
सो मास्टर साहब ने अपनी बेटी का नाम प्रज्ञा इसलिए रखा था कि बुद्धि किसी न किसी दिन ख़ुद चलकर आएगी और उनकी बेटी को बुद्धिमती बना जाएगी, विदुषी बना जाएगी | इस दृढ़ विश्वास के बाद उन्होंने बेटी को स्कूल भेजना या घर पर पढ़ाना आवश्यक नहीं समझा| बेचारी प्रज्ञा अनपढ़ रह गई| फिर भी उसे अपने पिता पर पूरा भरोसा था और वह ईमानदारी के साथ मानती थी कि स्त्री जाति में - चाहे वह कमला हो कि विमला, लक्ष्मी हो या दुर्गा - उससे ज़्यादा समझदार कोई नहीं हो सकती| बची मर्दों की बात| तो मास्टर साहब को छोड़ कर और सभी मर्द बुद्धू होते हैं - प्रत्यक्षे किं प्रमाणं|
लेकिन प्रज्ञा की माँ मास्टर साहब की तरह अतिशिक्षित नहीं थी| वह ख़ुद अनपढ़ थी और इसका उन्हें गर्व था | मास्टर साहब के लाख प्रयास के बावजूद ताजिंदगी वह अपना हस्ताक्षर नहीं कर सकीं, और अपनी इस विशेषता को वह अपनी प्रतिभा एवं सतीत्व का सबूत मानती रहीं | कहती थी - औरत का पढ़ना-लिखना उसे चरित्रहीनता की सरहद पर ले जाकर छोड़ देता है| अगल-बग़ल के परिवारों से कई लड़कियाँ स्कूल-कॉलेज जाती थीं और उनकी चरित्रहीनता के किस्से (सत्य या कल्पित) उन्हें ज़ुबानी याद थे | अतः अपनी बेटी/बेटियों को स्कूल भेजकर वह उन्हें चरित्रहीनता की दहलीज़ पर ले जाकर छोड़ देने के पक्ष में नहीं थी| मिला जुला कर, पुत्री-शिक्षा के मामले में वह मास्टर साहब की अनुयायी थी| अतः प्रज्ञा की पढ़ाई-लिखाई का प्रश्न ही नहीं उठता था| यह बात आलहदा थी कि जब उनके बेटे की शादी के पैग़ाम आने लगे तो मास्टर साहब (मय श्रीमती जी के) दुल्हन के दो गुणों की राग अलापने लगे - सुशिक्षिता और अर्थकरी (प्रचुर दहेज़ लाने वाली)| उन्होने साफ कहा - सरस्वती और लक्ष्मी के मुद्दे पर कोई बहस नहीं - हम बहू के रूप-सौंदर्य को ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं समझते, कौन कोठे पर बिठाना है? काली-कलूटी और यहाँ तक कि अक्ष्णा काणः, पादेन खञ्जः, पाणिना कुन्ठः चलेगी|
प्रज्ञा की माँ के अनुसार बेटियों को गृहकार्य में निपुण होना चाहिए | गृहकार्य मुख्यतः पाँच होते हैं - (1 ) झाड़ू-बुहारू करना और चौका-आँगन लीपना (2) बर्तन व कपड़े धोना (3) रसोई करना, (4) बच्चे संभालना, और (5) अचार डालना, बड़ी-बचके तैयार करना, इत्यादि| ये कार्य सैद्धांतिक नहीं होते - इनमें कुशलता किसी क़िताब के पढ़ने से नहीं हासिल होती | ये कलाएँ मनोयोग पूर्वक करने से - करते रहने से - आती हैं| अतः प्रज्ञा की माँ ने प्रज्ञा को (जो सबसे बड़ी बेटी थी) इन गृहकार्यों में दक्ष बनाने के लिए व्यावहारिक शिक्षा देनी शुरू कर दी| सबेरे उठकर झाड़ू-बुहारू करना और चौका लीपना, बर्तन व कपड़े धोना तथा बच्चों को संभालना ज़्यादा शुरुआती शिक्षा थी | प्रज्ञा के चार भाई बहन उससे छोटे थे | उन पर अपना प्रभुत्व पाकर प्रज्ञा फूली न समाई| तीन-चार वर्ष लगे और एक तरफ़ तो प्रज्ञा इन कार्यों में पूर्णरूपेण प्रशिक्षित हो गयी और दूसरी तरफ़ उसकी दो छोटी बहनें प्रज्ञा की कक्षा में आने के लायक़ हो गयी| अतः प्रज्ञा को प्रमोशन मिल गया | वह रसोई करने, अचार डालने, बड़ी-बचके बनाने इत्यादि कार्यों में प्रशिक्षण पाने लगी | धीरे-धीरे माँ का रोल केवल प्रशिक्षिका का रह गया | प्रशिक्षण देने के अतिरिक्त सुबह देर तक सोना, पान-जर्दा खाकर पड़ोसिनों से गप्पें लड़ाना, पड़ोसियों के वारे में सूचना एकत्र करना और उनकी समीक्षा करना इत्यादि ऊँचे स्तर के काम उनके ज़िम्मे रह गए|
यहाँ पर एक बात उल्लेखनीय है | आपने बया चिड़िये के खोंते (नीड) को बहुधा ताड़ के पेड़ पर पत्तों से लटकता देखा होगा| इस को बनाने की कला बहुधा माँ-बाप से सीखी जाती है क्योंकि बया झुण्ड में रहने वाली चिड़िया है| अलग़-अलग़ खोतों में कुछ अंतर जरूर होता है क्योंकि यह अनुभव और परिपक्वता पर आधारित है लेक़िन मुख्य स्थापत्य एक ही रहता है| इसी तर्ज़ पर प्रज्ञा ने बया की तरह सब कुछ सीखा| जो उसकी माँ करती थी, वह सारा काम - खाना बनाने से अचार डालने तक - उसी तरह करती थी| वह किसी भी तरह के नवीकरण (innovation) के पक्ष में नहीं थी| इस कार्य में कोई रिस्क नहीं था - सब कुछ कालपरीक्षित (time tested) था| यह सब कहने का यह अर्थ नहीं कि प्रज्ञा मानव रोबो (human robot) थी, पूरी तरह से प्रोग्राम्ड| वह मानवी थी और एक भली लड़की थी|
बेटी की बाढ़| प्रज्ञा पन्द्रह वर्ष की हुई और मास्टर साहब उसके हाथ पीले करने की सोचने लगे| यह वाजिब भी था | गृहकार्य में कुशलता हासिल होने से प्रज्ञा में एक अच्छी पत्नी के तीन गुण स्वतः आ गए थे,लेकिन बचे तीन नहीं आ पाए| कहा गया है (गरुड पुराण, पूर्व खण्ड, आचार काण्ड) - "कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी,भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा । धर्मानुकूला क्षमया धरित्री ,भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा ॥" उसमें तीन गुणों का सर्वथा अभाव था - मंत्री सम्बन्धी, रम्भा सम्बन्धी और अनुकूलता| इसका मुख्य कारण यह था कि पहले तो ये गुण उसकी प्रशिक्षिका में ही नहीं थे और दूसरे कि इन गुणों के लिए जिस प्रज्ञा की आवश्यकता होती है वह बेचारी प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं है था | सात वर्षों तक अनवरत चौका चूल्हा करके वह दासी रूप में निपुण हो गयी थी| उसने घर का काम-काज करते हुए अपने चार छोटे भाई-बहनों को संभाला था और इस अनुभव ने उसे धरती की तरह सहनशील बना दिया था | वह घर भर के सारे लोगों की मनपसंद सब्जियाँ बनाती थी और सबको खिलाकर खुद तीसरे पहर खाती थी - कुछ न बचे तो ख़ुद सूखी रोटी या छूछे भात में नमक-पानी मिलाकर खा लेती थी - सारे बच्चों को माँ की तरह खिलाती-पिलाती थी| सब मिलाकर वह आदर्श पत्नी होने की आधी योग्यता रखती थी|
मास्टर साहब के इलाके मैं आदर्श वर ढूंढ़ना आसान काम नहीं था | आदर्श वर आदर्श पति भी होता है| कहा गया है (कामन्दकनीतिशास्त्रम्)- "कार्येषु योगी करणेषु दक्षः रूपे च कृष्णः क्षमया तु रामः । भोज्येषु तृप्तः सखदुःखमित्रम् षट्कर्मयुक्तः खलु धर्मनाथः ॥" ऐसे आदर्श वर का दहेज़ तो दुर्धर्ष होगा| मास्टर साहब की गिनती विपन्न लोगों में तो नहीं थी, पर वह संपन्न भी नहीं थे| एक पलड़े पर उन्होंने यथायोग्य धन एवं और तरह-तरह के वंचनापूर्ण प्रलोभनों को रखा और दूसरे पलड़े पर गुण समेत भावी वर को | कांटे ने बतलाया कि इतने में एक पढ़ने-लिखने में ठीक-ठाक पर असुंदर, दरिद्र, दीन लड़का ही मिल सकता था | कहा गया है - सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते - यानि अगर पैसा कम लगे तो अन्य गुणों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है | कांचन बचा तो सभी गुण हैं | इस तर्क का सहारा लेकर मास्टर साहब ने प्रज्ञा के वर का जुगाड़ कर लिया |
जल्द ही प्रज्ञा का विवाह संपन्न हुआ| मास्टर साहब ने अपनी औकात के हिसाब से ठीक-ठाक ही खर्च किया लेक़िन प्रज्ञा की ससुराल की तरफ़ से पूरी विपन्नता का प्रदर्शन हुआ| और तो और, वर के भी कपड़े फटीचर वाले थे| प्रज्ञा को गहने बग़ैरह तो नहीं ही पड़े| वर भी सूरत-शकल से असुंदर था| ख़ैर, जो हुआ सो हुआ| प्रज्ञा बिदा होकर ससुराल पहुँची| उसके सारे सपने टूट कर बिखर गए| एक जीर्ण-शीर्ण, टूटे छप्परों वाला मकान| तीन कमरे विना किवाड़ों के, एक अदद रसोईघर, उपलों पर चलने वाला चूल्हा | घर में शय्या के नाम पर कोई चौकी-खटिया नहीं| खर-पात (पुआल) का बिछावन, पुआल की आँटी का तकिया| बिछावन पर चादर पड़ने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था | टॉयलेट नदारद| पानी के लिए खारे जल से भरा कुआँ| आपने अगर कभी हिंदी फ़िल्म 'तीसरी क़सम' देखी है तो याद कीजिये वह दृश्य - जहाँ हिरामन हीरा बाई को बैलगाड़ी में बिठाकर ले जा रहा है और गाड़ी के पीछे-पीछे बच्चे नाचते-कूदते 'लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनियाँ' गाते चलते हैं| कच्ची सड़क के दोनों और झोपड़ियों, टूटे-फूटे मकानात, की याद कीजिये| प्रज्ञा के जीवन में यह सब ससुराल आते ही एक हकीक़त हो गया| लेक़िन इस विपन्नता में एक ही चीज खुशग़वार थी - प्रज्ञा को सास-ससुर भले मिले थे|
लेक़िन प्रज्ञा के भाग्य में और दुख लिखा था| कहते हैं टूट टाट घर टपकत, खटियो टूट. पिय के बांह उसीसवां, सुख कै लूट! अगर औरत को प्यार करनेवाला - साथ देनेवाला - पति मिले तो वह अभावों को झेल जाती है| प्रज्ञा का दुर्भाग्य यहीं था| जब प्रज्ञा की शादी तय हुई तो कोई दहेज़ नहीं दिया गया था - एक वचन दिया गया था कि मास्टर साहब अपने दामाद को दो वर्षों तक एमए में पढ़ने का ख़र्च देंगे| वह इसके लिए सक्षम थे | लड़का दरिद्र पर महत्वाकांक्षी था - सोचता था कि अगर वह एमए कर लेगा - और अगर थोड़ी आर्थिक सहायता मिले तो अच्छा परीक्षाफल लाएगा - तो उसे कोई-न-कोई नौकरी तुरंत मिल जाएगी और उसका बेड़ा पार लग जाएगा| किन्तु विवाह होते ही मास्टर साहब पूरी तरह बदल गए| लड़के के ज़िम्मे ग़रीबी तो पहले से थी - पर कहीं अन्यत्र कुछ दहेज़ लेकर अपनी पढ़ाई पूरी करने का अवसर था और प्रवंचना की कोफ़्त नहीं थी| वह प्रज्ञा के सामने ही मास्टर साहब को (उनकी गैरमौज़ूदगी में) गाली दिया करता था| लेक़िन प्रज्ञा के दिमाग़ में अपने माता-पिता की महानता यंत्रस्थ (हार्ड वायर्ड) थी| वह अपने माता-पिता की वादाफरामोशी और पति के टूटते सपनों एवं प्रवंचना के कोफ़्त को नहीं समझ सकती थी| उसने एक वार भी नहीं माना कि उसके पिता ने उसके पति को धोखा दिया था | इसका फल यह हुआ कि उसके पति ने प्रज्ञा को माता-पिता के पक्ष का समझना शुरू कर दिया| प्रज्ञा को मानसिक और शारीरिक यातना दी जाने लगी| उसके बाद न कहानी बदली, न प्रज्ञा बदली, न उसका पति बदला, न इसके द्वारा प्रज्ञा को दी जाने वाली शारीरिक और मानसिक यंत्रणा बदली| बेचारी प्रज्ञा अपनी हार्ड वायर्ड धारणाओं, नहीं बदलने की अवचेतनात्मक ज़िद, अपने पिता के कमीनेपन और पति के आक्रोश एवं पाशविकता का शिकार होती रही|
एक नयी दुर्घटना ने अतिरिक्त विपत्ति का आह्वान किया| प्रज्ञा के पति ने जैसे तैसे एमए किया और नौकरी की तलाश शुरू की, पर कुछ महीनों में ही टीबी का शिकार हो गया | बीमारी बढ़ती गयी और लगने लगा कि प्रज्ञा के भाग्य में अपमान और ग़रीबी के साथ वैधव्य भी लिखा है| इस संकट में भी परिवार का कोई आदमी उन्हें देखने या सहानुभूति दिखाने नहीं आया| और तो और, प्रज्ञा के पिता भी अपनी बेटी या दामाद की ख़बर लेने नहीं आए| बहाना तो यह था कि ऐसे बदतमीज़ दामाद को बचा कर क्या होगा| लेक़िन आंतरिक बात यह थी कि कहीं कुछ आर्थिक मदद करनी न पड़ जाये| एक बात और थी| प्रज्ञा का वैधव्य मास्टर साहब के परिवार के लिए एक वरदान साबित होता | उन्हें सारी जिंदगी के लिए एक कर्मठ, कुशल, सहनशील और विश्वासपात्र दासी मिल जाती जो दो जून रूखा-सूखा खाकर, विना पगार लिए अपनी सेवाएँ देती रहती| गाँवों में ऐसे सैकड़ों उदाहरण पड़े हैं|
लेक़िन होता वही है जो मंज़ूरेखुदा होता है| प्रज्ञा का पति दो वर्षों की बीमारी भोग कर, टिकटिकाकर, ठीक हो गया| इस अनुभव ने उसे तीन चीज़ें सिखाईं जो उसके स्वभाव में समा गई| पहली तो यह कि वह ज़ल्द मरने नहीं आया है, दूसरी यह कि सारे संबंध झूठे हैं, तीसरी यह कि उसने अपने बूते पर - कठिन मिहनत से - आगे बढ़ना है | वह एक तरह से सनकी (एक्सेंट्रिक) हो गया| वह सारी दुनियाँ को छोड़कर, सारी भावनाओं से परे - अपने लक्ष्य के ऊपर समर्पित हो गया | पत्नी रहने के बावजूद वह भावनात्मक रूप से उससे अलग़ हो गया| बच्चे हुए, लेक़िन वह भावनात्मक रूप से उनसे जुड़ नहीं पाया | दोस्त थे, परिवार के लोग थे, समाज के लोग थे, उनसे मिलता जुलता भी था, बातें भी करता था, लेक़िन केवल सतही तौर पर| हँसता भी था तो औरों को दिखाने या मात्र उनका साथ देने| वह पानी में रहकर भी पुरइन के पत्ते की तरह रहता था - स्नेहहीन, भावनाहीन| जैसे बतख़ के पीठ पर पानी नहीं टिकता, उसी तरह वह भीड़ में रहकर भी अकेला होकर अपने शोध की समस्याओं पर गंभीर रूप से सोचते हुए तन्मय हो जा सकता था| इन गुणों या दुर्गुणों के चलते अपनी चुनी हुई दिशा में उसकी ख़ूब उन्नति हुई - आर्थिक सम्पन्नता मिली, समाज में सम्मान मिला| लेक़िन वह पति और पिता के रूप में पूर्णतः विफल रहा| वह इन सारी बातों को समझता था लेक़िन उसे समझने वाला कोई नहीं था| वह बोलते हुए भी मौन रहता था और मौन रहकर भी कुछ कहता था| "मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन। आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ।" बातचीत में वह कभी-कभी खुल जाता है| कहता है - मैंने सँड़सी से अपने दिल को दबाये रखा तो लोहू के कतरे सादे कागज़ पर गिरते रहे, बेतरतीब फैलते रहे | वे सूखे तो न जाने कैसे-कैसे आकार लेते गए | चाहो तो उन्हें पसंद करो, चाहो तो नापसंद करो| वे अर्थपूर्ण भी हैं और अर्थहीन भी|
इन सारी वाक़यात के बीच प्रज्ञा अपने बच्चों को पाल कर बड़ा करती रही| उसे आर्थिक समस्या नहीं थी - उसका पति घर चलाने के लिए उसे पर्याप्त पैसे देता था और कभी हिसाब नहीं माँगता था| पैसे में उसके पति को न कोई दिलचस्पी थी और न उसे अर्थाभाव था | इन मामलों में प्रज्ञा सचमुच में मालकिन थी | लेक़िन प्रज्ञा को पति का प्रेम, दो स्नेहपूर्ण बोल, सम्मान और सहयोग कभी नहीं मिला| इन आयामों में प्रज्ञा की दुनियाँ सूनी थी| कभी किसी सामाजिक पार्टी में जाती तो पति को साथ ले जाती थी - लेक़िन पति महोदय केवल शरीर से जाते थे और मानसिक रूप से अनुपस्थित रहते थे | हम शुरू में ही कह आये हैं - प्रज्ञा कभी मंत्री, रंभा या अनुकूला नहीं बन सकी, वह दासी, माता और धरित्री ही रह गयी | फिर एक दिन आया कि उसके पति रिटायर्ड हो गए और इस शहर में आकर सपत्नीक बस गए|
मैं साल में एक या दो वार प्रज्ञा से मिलने जाता हूँ | इसी शहर के एक दूर दराज़ कोने में एक खोली में रहती है और सुबह उठकर चौका-बर्तन करना शुरू कर देती है - बाज़ार जाकर राशन लाती है, सब्ज़ी लाती है और पतिदेव को जिमाती है| प्रज्ञा के पति महोदय अंगिका की एक कहावत को चरितार्थ करते हैं - सुगरॅ के गू न बोरसीं न करसीं| मतलब किसी काम के नहीं हैं | बातें करने में माहिर हैं| तीन बेटे थे - जो सबसे अधिक पढ़ा-लिखा, सहृदय और कमाऊ था वह अल्लाह का प्यारा हो गया| बाक़ी दो अपने भोजन, गुह्य-गोपन और दंशनिवारण के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते, हालाँकि वे हृदयहीन नहीं है | पर सभी जानते हैं कि सहृदयता का कोई आर्थिक महत्त्व नहीं होता है| एक बेटी है - ब्याहता| दामाद सर्वगुणनिधान हैं| किसी तरह जी रही है|
कहते हैं, बुढ़ापे में घर का काम-काज बहू संभाल लेती है | जब प्रज्ञा बहू बनकर अपनी ससुराल गयी थी तो उसने अपनी सास को चौके-बर्तन और रसोई से निवृत्त कर दिया था | लेक़िन प्रज्ञा के भाग्य में यह नहीं लिखा था | उसने सात बरस की उमर से चौका-बर्तन करना शुरू किया और अब सत्तर बरस की उमर में भी वही कर रही है| शायद मरेगी भी तो अपना बनाया खाना खाकर |

यह प्रज्ञा की कहानी है - आधी पत्नी की कहानी - आधी औरत की कहानी|

सत्यमेव जयते
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लोगों को अक्सर कहते सुना है - सत्यमेव जयते | लेकिन लोगों को अक्सर झूठ बोलते देखा-सुना है | तो क्या प्रायः लोग हारने के लिए सत्य बोलते हैं? युधिष्ठिर महाराज तो जीतने के लिए झूठ बोले - सत्य पर टिके रहते तो हार जाते| झूठ बोले तो जीते |
'सत्यमेव जयते' सत्य भी है और असत्य भी | लेकिन दोनों बातें कैसे हो सकती हैं?
हाँ, हो सकती हैं| दोनों बातें सत्य हो सकती हैं और असत्य भी | कारण यह है कि 'सत्य' के कई अर्थ होते हैं और 'जयते' के भी | एक तरह का अर्थ लें तो सत्यमेव जयते अटल सत्य है और दूसरा अर्थ लें तो इसके सत्य होने पर भरोसा नहीं किया जा सकता |
आइये, हम सत्य के विभिन्न अर्थों के ऊपर गौर करें |
1. अस्तित्वात्मक सत्य (Ontological truth): प्रकृति के अपने नियम हैं (हम यहाँ इस विषय पर नहीं उलझेंगे कि वे नियम प्रकृति के मौलिक स्वभाव यानि स्व + भाव, being itself, में हैं या भगवान ने उन्हें बना कर प्रकृति को लागू करने को कहा है)| ये नियम अटल हैं| इनमें कोई अपवाद नहीं होता | अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभाशुभम् | हर कारण कार्य में परिणत होता है और हर कार्य का कारण होता है - मात्रा में बराबर - यहाँ कोई बेईमानी नहीं चलती - कोई डंडी नहीं मार सकता | Energy और work done बराबर होते हैं - conservation होता है| प्रकृति में न कुछ घटता है न बढ़ता है, केवल इधर से उधर होता है, रूप बदलता है - essence या सत्व बदलता नहीं| सत्व सत्य है - दोनों ही सत् से सम्बंधित हैं|
इस अस्तित्वात्मक सत्य के लिए न आदमी (या और किसी जीव-जंतु) का होना आवश्यक है, न ज्ञान का, न बोलने की क्षमता का और न बोलने का, न सुनाने, सुनने, सुनने-सुनाने वाले का | प्रलय हो और आदमी का नामोनिशान नहीं हो - न बोलने वाला हो न सुनने वाला हो - तब भी यह सत्य कायम रहता है - इसकी हमेशा विजय होती है क्योंकि इसकी हार हो ही नहीं सकती - यह प्रकृति का स्वभाव है| सत्यमेव जयते | एकदम सही | कहने की ज़रूरत ही नहीं है|
2. ज्ञानात्मक सत्य (Epistemological truth) : अस्तित्वात्मक सत्य के लिए ज्ञाता का होना आवश्यक नहीं| किन्तु ज्ञानात्मक सत्य के लिए ज्ञाता का होना आवश्यक है | कोई प्रत्यक्ष भाव से, अनुमान से, किसी के बतलाने से कुछ जाने| किताब पढ़ कर जाने| सपने में जाने - लेक़िन जाने ज़रूर| ध्यान दें, ज्ञाता सचमुच में अस्तित्वात्मक सत्य को जाने यह ज़रूरी नहीं है| लेकिन यह ज़रूरी है कि ज्ञाता जो कुछ जाने उसे (गलत या सही) अस्तित्वात्मक सत्य माने, उस पर विश्वास करे| गैलिलिओ, कोपरनिकस और केप्लर से पहले के लोग जानते थे, विश्वास करते थे, कहते थे, पढ़ते थे, पढ़ाते थे कि सूरज धरती की परिक्रमा करता है| वह अस्तित्वात्मक सत्य नहीं था, लेक़िन ज्ञानात्मक सत्य था और डंके की चोट पर था | सारे लोग झूठ नहीं बोलते थे - वे बदमाश और मक्कार नहीं थे - ईमानदार लोग थे - किन्तु अस्तित्वात्मक सत्य को नहीं जानते थे| डाल्टन बोले कि परमाणु को तोड़ा नहीं जा सकता | क्या वह झूठ बोलते थे ? नहीं, वह यही जानते थे और इसकी सत्यता पर पूरा विश्वास करते थे | उन्हें यह अस्तित्वात्मक सत्य मालूम नहीं था कि परमाणु टूटते हैं, तोड़े जा सकते हैं | तो वह ज्ञानात्मक सत्य बोल रहे थे जो अस्तित्वात्मक सत्य नहीं था | आज भी हम प्रकृति का सारा रहस्य नहीं जानते हैं - हमारा सारा ज्ञानात्मक सत्य निश्चय ही अस्तित्वात्मक सत्य नहीं है - विज्ञानं की दुनियाँ में हर रोज़ उठापटक होती है - सत्य झूठ बन जाता है | ज्ञानात्मक सत्य अस्तित्वात्मक असत्य हो जाता है; ज्ञानात्मक सत्य रोज़ हारता है और हारने वाला धूल झाड़कर, हँसता हुआ खड़ा हो जाता है | इस हारे सत्य की जग़ह क़िताबों में होती है, हम उसी को पढ़ते-पढ़ाते हैं, उसी के बूते पर विद्वान कहलाते हैं, रोज़ी-रोटी कमाते हैं - घर बनवाते हैं, ज़मीन ख़रीदते हैं - बच्चों को शिक्षा दिलाते हैं - और समाज में प्रतिष्ठा पाते हैं | कहाँ है सत्यमेव जयते? दिखाइए, ज़रा हम भी देखें|
3. प्राक्कल्पनात्मक सत्य (Hypothetical truth): बहुधा हम कुछ बातों को सच मान बैठे हैं| गणित में हम अक्सर ऐसा करते हैं | कुछ पूर्वमान्यताओं (axioms) को मानने के बाद बहुत सारे सत्य निकलने लगते हैं और हम तर्क के द्वारा प्रमाणित कर देते हैं कि वे सत्य हैं| यूक्लिड की ज्यामिति और अरस्तू का तर्कशास्त्र इसके ज़ोरदार उदाहरण हैं| जब रेखा की कोई चौड़ाई नहीं होती तो किसी वृत्त-क्षेत्र को दो हिस्से में बाँटा जा सकता है| जब त्रिभुज समतल पर हो तो उनके कोणों का योग 180 डिग्री होगा ही| लेक़िन लोगों ने देखा कि कहीं-कहीं ऐसे सत्य बड़ी समस्याएँ पैदा कर देते हैं और एक बड़े झूठ को पालते हैं | बर्ट्रांड रसल ने देखा कि हज़्जाम गणित को झूठ बना देता है (Russell's paradox)| रसल (Russell) ने दिखाया है अगर एक परिकल्पना सच्ची हो और दूसरी झूठी तो बहुधा निष्कर्ष में सत्य का आभास होने लगता है|
4. मिथकात्मक सत्य (Mythological truth): हर माइथोलॉजी में ऐसी बातें हैं - महाभारत को व्यास ने लिखा और जो लिखा सच लिखा, सच के सिवा कुछ नहीं लिखा | लव-कुश ने सारी रामायण गाकर रामचंद्र को सुना दी| वाल्मीकि ऋषि बनने के पहले दस्यु थे और बाद में मरा मरा जप कर महर्षि हो गए| दूसरी तरफ़, चालीस दिन तक रेगिस्तान में रात भर मन्ना गिरते रहे | नदी ने अपने को दो हिस्सों में कर लिया और फ़ौज़ को राह दी | सूरज और चाँद तब तक आसमान में रुके रहे जब तक दुश्मन का ख़ात्मा नहीं हो गया| भगवान ने कहा मैं बोलता जाता हूँ तू लिखता जा | ये सारी बातें सच हैं लेक़िन ये मिथकात्मक सत्य हैं | कुछ लोग ऐसे सत्य को सपनों में देखते हैं जैसे रामानुजन गणित के सत्य देखा करते थे| कुछ लोग खुली आँखों से देखते हैं - मैं कहता आँखन देखी| कुछ समाधि लगने पर देखते हैं| इन सत्यों को जानने वाले लोग धुरंधर हैं - वे सारी दुनियाँ को दिशा दिखा रहे हैं | मुझे रास्ते में एक पंडित जी मिले जो सरपट अपने घर की ओर भागे जा रहे थे| मैंने रोकना चाहा तो चलते-चलते बोले - अभी मत रोको, कुण्डलिनी में प्राण का प्रवेश होने ही वाला है - डरता हूँ कि कहीं सड़क पर ही समाधि न लग जाये |
5. तथ्यात्मक और व्यावहारिक सत्य (Pragmatic truth): तथ्य जीवन की असलियत और ऋजुता से भरे होते हैं| समाज सुचारु रूप से चले, लोग अपने-अपने काम करें, सहयोग करें, समाज में बदअमनी और बदमिज़ाजी न फैले, लोग निर्भय होकर जियें, कमायें-खायें, लोगों की इज़्जत-आबरू पर हमले न हों, विकास हो, न्याय का राज्य हो - इसके लिए कुछ ऐसी बातों को भी सत्य मानने की आवश्यकता होती है, जिनका सत्य न मिथकों में प्रतिपादित हुआ है, न वे तर्कगम्य हैं, न ही उनकी अस्तित्वात्मक या ज्ञानात्मक सत्यता प्रमाणित की जा सकती है| लेकिन ऐसे सत्य समाज के लिए उपयोगी हैं| सामाजिक उपयोगिता ही उन्हें सत्य का दर्जा देती है|
6. ऐतिहासिक सत्य (Historical truth): इतिहास इतिवृत्त है - और यह बहुधा वृत्तांतों का विवरण होता है और प्रायः लिखित होता है| यह अभिलेखों और रोज़नामचों पर भी आश्रित होता है| यह एक मानी हुई बात है कि हालाँकि इतिहास सत्य घटनाओं का विवरण है, फिर भी इसमें पक्षपात होता है | कहते हैं कि विजेता का इतिहास विजित के इतिहास से अलग़ होता है| समय गुज़रता जाता है और विजेता का इतिहास सत्य होता जाता है| कुछ लोग महाभारत को इतिहास जैसा ही मानते हैं | अगर यह ठीक है तो एक बड़ा प्रश्न उठता है कि धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में से क़रीब एक दर्ज़न पुत्रों के नाम नकारात्मक और विकृतिसूचक क्यों हैं? कोई माँ-बाप अपने बच्चों का नाम नकारात्मक रखना नहीं चाहता, ऊपर से वे राजकुमार थे | एक ही बेटी थी - नाम था दुःशला| राजा की बेटी को कोई ढंग का नाम नहीं मिला - न उर्मिला, न विमला, न चकोरी, न उत्तमा, न कमला और ऐसा ही कोई नाम | हद हो गयी| फिर क्या ये नाम सही (factual) हैं? लेक़िन अगर मैं कहूँ कि व्यास (या जिस किसी ने महाभारत का यह हिस्सा लिखा) ज़्यादती कर रहे थे तो सारे समझदार लोग नाराज़ हो जायेंगे | अतः यह सत्य है कि दुर्योधन की अकेली लाड़ली बहन का नाम दुःशला ही था | व्यास सत्यवादी थे|
इसी तरह का सत्य बाबरनामे में है | अकबरनामे की तो बात ही न कीजिये| तुज़ुक-ए-ज़हाँगीरी भी पढ़ लीजिए - इतिहास में और बहुत किताबें हैं | सब सत्य जान जायेंगे| इनसे भी बढ़कर जेम्स मिल की लिखी क़िताब ब्रिटिश भारत का इतिहास (The History of British India) है जिसको आधार बनाकर सारे विद्वान लोगों ने भारत का इतिहास लिखा| इस क़िताब में मिल साहब ने हिन्दू संस्कृति के सारे सत्य - हिन्दुओं की असभ्यता से लेकर क्या कुछ नहीं - दुनियाँ वालों के सामने रखे | भारत स्वतंत्र हुआ | पंडित जवाहर लाल नेहरू इतिहास बनाते भी थे, लिखते भी थे, लिखवाते भी थे| नतीज़तन, आज़ादी की लड़ाई और लड़ाकों के सारे सत्य रघुपति राघव राजा राम कर दिए गए | इस तरह के सत्य को ऐतिहासिक सत्य कहते हैं|

अब आइये, 'जयते' पर भी तस्करा कर लें| जयते का सीधा अर्थ होता है 'जीतता है' या 'जीत जाता है'| ध्यान दें - 'जयति' नहीं वरन 'जयते' | अंग्रेजी में कहें तो the truth prevails (upon)| सत्य किसके ऊपर विजय पाता है?
जहाँ तक अस्तित्वात्मक सत्य की बात है, सत्य के हारने या जीतने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता - सत्य के सिवा कुछ हो ही नहीं सकता, घट ही नहीं सकता| प्रकृति सत्य के सिवा और कुछ घटने ही नहीं देगी| तो 'सत्यमेव जयते' vacuous है, tautology है | केवल सत्य ही घटता है और जो घटता है वह सत्य है क्योंकि प्रकृति ने उसे घटने दिया - इसलिए कि उसका घटना प्रकृति को स्वीकार था, प्रकृति के नियमों के तहत संभव था |
तो शायद 'सत्यमेव जयते' में' हम सत्य को ज्ञानात्मक, प्राक्कल्पनात्मक, मिथकात्मक, तथ्यात्मक या इतिहासात्मक मानते हैं | छिपे-छिपे यह भी मानते हैं कि (थोड़ी देर के लिए ही सही), सत्य हार भी सकता है| लेक़िन अंत में सत्य अवश्य जीतेगा |
जीतने वाला चलता है, चल निकलता है | इसलिए बहुधा चल निकलने वाली बात सत्य हो जाती है | survive कर गया तो fittest है क्योंकि fittest नहीं होता तो survive कैसे करता ? कहते हैं 'bad money drives out good'. नक़ली सिक्के असली सिक्के को निकाल बाहर कर देते हैं|
बात केवल सिक्के की ही नहीं है| जो चालू होता है वह चलता है और भले सच्चे को निकाल बाहर करता है| चलती कौड़ी चलती रहती है | फिर धीरे-धीरे वही सच हो जाती है|
हमारे विद्वान भाई लोग कहते हैं कि संस्कृत हमारी मूलभाषा है औरआज की लगभग सारी प्रादेशिक भाषाएँ (हिंदी समेत) संस्कृत के अपभ्रंश शब्दों से भरी पड़ी हैं; अग्नि आग हो गयी, पानीय पानी हो गया, हस्त हाथ हो गया, शिर सिर या सर हो गया, इत्यादि| लेक़िन अपभ्रंश होकर - भ्रष्ट होकर, गिर कर - भाषाएँ चल निकलीं, और संस्कृत मर गयी या हिचकियाँ ले रही है - सत्यमेव जयते गा रही है|
वेदों को सत्य का सागर कहते हैं - वहाँ जो है वह सत्य है और किसी असत्य को वेदों में कोई ज़गह नहीं मिली है | इसीलिए वेद खूब चल रहे हैं और किसी भी विषय में एमए या पीएचडी करते-करते लोग चारों वेदों के ज्ञाता हो जाते हैं| सत्यमेव जयते|
देश स्वतंत्र होने को था और भावी प्रधान मंत्री के चुनाव की बात आयी | पटेल जी को सोलह में बारह या तेरह वोट मिले - बाक़ी लोग आये ही नहीं या नोटा दबा गए | लेक़िन नेहरू जी अड़ गए - मेरी बात नहीं मानी तो अड़ंगा लगाऊँगा - बनूँगा तो प्रधान मंत्री नहीं तो कुछ नहीं| वरउँ शम्भु न तो रहउँ कुँवारी| गाँधी जी बोले - वल्लभ, तू ही छोड़ दे - इसकी शादी हो जाने दे - इसके पेट में कई भावी प्रधान मंत्री हैं, देश की सोच, पद और आदमी (पादमी) की न सोच | पटेल ने कहा - गाँधी जी, आप तो सत्य के पुजारी हैं और जानते हैं कि मैं मर्द हूँ, मेरे पेट में केवल अँतड़ियाँ (guts) हैं, बच्चे नहीं| फिर सत्य की जीत हुई - सत्यमेव जयते|
हाँ, सत्यमेव जयते| प्रेम से बोलिये - वृन्दावन विहारी लाल की जय |
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आदिशक्ति की उपासना  
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मौका मिले तो एक बार देवी-सप्तशती पढ़िए - उस अध्याय को पढ़िए जहाँ यह लिखा है - या देवी सर्वभूतेषु ..... ध्यान दीजिये, उस चरित्र की देवता सरस्वती है, और वह सरस्वती की प्रीति के लिए विनियुक्त होता है| देवी विष्णुमाया है और सभी जीवों में चेतना, बुद्धि, निद्रा, क्षुधा, छाया, शक्ति, तृष्णा, क्षान्ति, जाति (जन्म), लज्जा, शांति, श्रद्धा, कांति, लक्ष्मी, वृत्ति (जीविका), स्मृति, दया, तुष्टि, मातृ (सर्जनशक्ति), भ्रान्ति, और व्याप्ति के रूपों में स्थित है|
जब यह है ही तो वह देवी असुरों में भी बुद्धि, शांति, लज्जा, दया, तुष्टि, और क्षान्ति के रूपों में व्याप्त है | फिर वह असुरों को यह बुद्धि दे कि वे देवताओं पर अत्याचार न करके, दया करें, अपने कुकर्मों से लज्जित हों, शांति से काम लें, अपने धन से संतुष्ट रहें, बर्दाश्त करना सीखें, देवताओं की जीविका (वृत्ति) न छीनें | असुरों से युद्ध करके उन्हें मारने की क्या आवश्यकता है? उन्हें सुधार दें|
लेक़िन नहीं | देवी चाहती है (चरित्र-2) कि देवता प्रयास करें, एकजुट हों, अपनी सारी शक्तियों को एकत्रित करें, एकता की भावना को जगाएँ, अपने तेज और व्यक्तिगत स्वार्थों का त्याग सामाजिक हित के लिए करें| तब देवी का, महाशक्ति का, आविर्भाव होगा और तभी असुरों का नाश होगा |
                                                          
कुछ ऐसी ही बात देवी के प्रथम चरित्र में भी है| भगवान विष्णु सोये हुए हैं और मधु-कैटभ ब्रह्मा जी को खा जाने को उतारू हैं| मज़ेदार बात तो यह है कि ब्रह्मा जी (जो सारी सृष्टि के प्रवर्तक होने वाले हैं) और मधु-कैटभ भी श्री विष्णु से ही प्रकट हुए हैं - एक विष्णु की नाभि से उत्पन्न पंकज से और दूसरे विष्णु के कानों से उत्पन्न मल से | डरे हुए ब्रह्मा जी ने देवी की स्तुति की, मधु-कैटभ को मोहित करने की तथा विष्णु को जगाने की प्रार्थना की ताकि विष्णु मधु-कैटभ को मार डालें |
इसकी क्या आवश्यकता थी? जो देवी भगवान विष्णु को सुला-जगा सकती है और अदम्य पराक्रमी योद्धा मधु-कैटभ को आत्मविनाश का वरदान माँगने के लिए मोहित कर सकती है, वह मधु-कैटभ को बलहीन भी कर सकती है या उनकी बुद्धि को मोहित करने के बदले प्रकाशित भी कर सकती है कि वे ब्रह्मा को खाएँ नहीं, उन्हें सृष्टि-रचना में मदद करें| विष्णु आराम से सोते रहें|
लेक़िन नहीं | विष्णु का जगना पुरुषार्थ का जगना था, चैतन्य का जगना था| जड़ प्रकृति से ब्रह्मा जी शरीर तो बना सकते थे, लेक़िन उनमें प्राण या जीवन नहीं दे सकते थे| इसके लिए विष्णु का जगना आवश्यक था | मधु-कैटभ खाना जानते थे, बनाना नहीं जानते थे, बचाना और बढ़ाना नहीं जानते थे | वे दोनों सृष्टिकर्त्ता को ही खा जाना चाहते थे, मूल को ही निग़ल जाना चाहते थे|
यह कहानी क्या दिखाना चाहती है? आपके पास साधन है, पूँजी है, बल है, लेक़िन बल पूँजी को - बीज को - रचनात्मकता (creativity) को खाकर पुष्ट होना चाहता है और पुरूषार्थ सोया पड़ा है | ऐसे में विकास संभव नहीं | अतः उस ध्वंसात्मिका प्रवृत्ति को, अंधी भूख को, मारिये जो पूँजी तथा रचनात्मकता को खा जाने के लिए उतावली है| उत्साह को, पुरुषार्थ को, रक्षणात्मिका बुद्धि को जगाइए | मोहनिद्रा से बाहर आइये, जागिये, जगाइये - उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधयत (कठोपनिषद्) |
कहानियाँ कोई भी कह सकता है, अंग्रेजी में, हिंदी में, फ्रेंच में, जर्मन में, ग्रीक में, लैटिन में या संस्कृत में भी | कहानियों और भाषा मात्र से शास्त्र नहीं बनता - शास्त्र की शक्ति उसकी प्रेरणाशक्ति से बनती है| देवी का उपर्युक्त आख्यान एकजुट होकर प्रयास करने की प्रेरणा देता है, शंख बजाने, उपवास रखने और ढोल पीटने की नहीं; शक्ति पूजा के बाद उनकी मूर्ति के साथ ही उनसे उपदिष्ट कर्त्तव्य का विसर्जन करने के लिए नहीं |
काश, युगों की देवी आराधना के बाद भी हम उनके तत्व को समझ पाते |
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विष्णु भगवान की कहानी - नारद की जुबानी
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कुछ साल पहले  जब नारद जी विष्णु भगवान के घर पर उनसे मिले तो भगवान ने पूछा - कहो नारद, कहाँ का चक्कर लगा कर आ रहे हो ?
नारद : और कहाँ से आयें प्रभु, भारत से आ रहा हूँ |
भगवान : वहां अपना मंदिर बन गया नारद ? कैसा बना है ? हमारा गृहवास समारोह कब तक हो जायेगा?
नारद : कहाँ प्रभु, अभी तक तो नींव भी नहीं पड़ी |
भगवान : क्यों ? चार साल लगा दिए, अभी तक नींव भी नहीं पड़ी ? क्या कर रहे हैं वे लोग ?
नारद : प्रभु, आप आदमी की समस्या नहीं समझते | केंकड़े उनसे बेहतर हैं| कोई आदमी थोड़ा सा आगे बढ़ा नहीं, सात विरोधी उसकी टांग खींच कर उसे पुरानी जग़ह ला खड़ा करते हैं | आदमी आगे बढ़े भी तो कैसे ?
भगवान : तुम वार-वार आदमी शब्द का प्रयोग कर रहे हो, नारद| क्या भारत के लोग अब मानव नहीं रहे या तुम्हारी भाषा बिगड़ चुकी है ?
नारद : क्षमा, भगवन | भारत में घूमते-फिरते रहने के कारण मैं अब पूरी तरह से समझ गया हूँ कि शब्दों के प्रयोग में हमें संस्कृति-निरपेक्ष होना चाहिए| वैसे भी, वहाँ मनु महाराज की बहुत छीछालेदर हो चुकी है | मैं मानव शब्द का प्रयोग करके मनुवादी नहीं कहलाना चाहता | लोग बड़ी बेईज्ज़ती करते हैं | इसीलिए मैं अब आदमी शब्द का इश्तेमाल करने लगा हूँ | यह निरापद है| वैसे भी मुझे बहुत वार भारत जाना है|
भगवान : अच्छा, जो मन आये, बोलो | लेक़िन यह तो बताओ कि मंदिर कब तक बन जायेगा ? मैं बैकुंठ में रहते-रहते बोर हो गया हूँ|
नारद : देखिये भगवन, अपने लोगों को और तीन-चार टर्म तो देने ही होंगे | जब अदना-से ताजमहल के तैयार होने में तीस साल लगे, तो आपका मंदिर बीस साल से कम क्या लेगा ?
भगवान : लेक़िन कल तो हमारे पास मय दानव और विश्वकर्मा जी दोनों आये थे | कह रहे कि मैं उन्हें आज्ञा दूँ तो वे पूरा मंदिर दो महीने में बना देंगे| मैं भी सोच रहा था कि इन्हीं दोनों को ठेका क्यों न दे दिया जाये | मुझे थोड़ी जल्दी है नारद, बैकुंठ में जग़ह की बड़ी क़िल्लत हो गयी है |
नारद: प्रभु, भारत के लोगों को एक मौक़ा तो दें| ये मय और विश्वकर्मा अगर मंदिर बनायेंगे तो वह इम्पोर्टेड तकनीक से बनायेंगे| अभी भारत में 'मेक इन इंडिया' का प्रचलन है| सांसदगण शायद ही मय और विश्वकर्मा को मंदिर बनाने दें | आप अपने ही लोगों से झमेला मोल लेना क्यों चाहते हैं? तत्काल की समस्या को हल करने के लिए आप बैकुंठ का ही नवीकरण क्यों नहीं कर लेते हैं ?
विष्णु भगवान अभी कुछ बोल भी नहीं पाए थे कि लक्ष्मी जी ने मय और विश्वकर्मा का ध्यान किया| वे पलक झपकते हाज़िर हो गए | भगवान कुछ समझ पायें, इसके पहले लक्ष्मी ने आदेश दिया - मय जी और विश्वकर्मा जी, बैकुंठ का नवीकरण शुरू करें | धरती पर घपला-ही-घपला चल रहा है | शायद घर वहाँ कभी न बन सके|
लक्ष्मी जी के तेवर देख कर नारद जी डर गये और अंतर्धान हो गये |
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विष्णु भगवान की कहानी - नारद की जुबानी (एपिसोड - २)
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बैकुंठ के नवीकरण के लिए जैसे ही लक्ष्मी जी की आज्ञा मिली, मय और विश्वकर्मा, तीन दिनों के अंदर-अंदर, अपना-अपना डिज़ाइन और एस्टीमेट जमा कर गए | दोनों के डिज़ाइन मूलतः एक-ही थे - ज़्यादा काम तो रिपेयर वर्क था - लेक़िन उनके एस्टीमेट में १:३ का अनुपात था | मय के एस्टीमेट बहुत कम थे | लक्ष्मी जी ने भगवान से मशवरा किया | भगवान ने बड़ी बेतक़ल्लुफी से राय दी कि मय और विश्वकर्मा से ही पूछ लिया जाये | अतः लक्ष्मी जी ने दोनों का ध्यान किया और दोनों भगवान के दरबार में हाज़िर हो गए | इसी वक़्त नारद जी वीणा बजाते हरिगुण गाते वहाँ प्रकट हो गए | अब उन्हीं की जुबानी सुनिए |


लक्ष्मी जी: मय जी और विश्वकर्मा जी | हमने आपकी डिज़ाइनें देखीं | दोनों तक़रीबन एक-सी हैं और होनी भी चाहिए| लेक़िन आपलोगों के एस्टीमेट में बड़ा फ़र्क है | इसका क्या कारण है?


मय दानव : देवी, आप हमारे वंश की बेटी हैं और भगवान दामाद हैं | हम दानव अब उतने संपन्न नहीं रहे जितना पहले हुआ करते थे | नहीं, तो हम बैकुंठ का नवीकरण विना कोई एस्टीमेट दिए, अपने पैसे से कर देते | बेटी-दामाद का घर रिपेयर करने के लिए पैसा चार्ज नहीं करते | अतः हमने वही एस्टीमेट दिया है जो रॉक-बॉटम पर है | अगर विश्वकर्मा जी के एस्टीमेट हमारे एस्टीमेट से कम हैं तो या तो उनसे जोड़-घटाव में भूल हुई है, या वह इंद्र महाराज से सब्सिडाइज़्ड रेट पर सामान लेंगे या फिर मिलावट करेंगे, दिल्ली-बाज़ार से ख़रीदा नक़ली सामान लगायेंगे | तीसरी संभावना ज़्यादा है| विश्वकर्मा जी देवता हैं - भोले-भाले हैं, ज़्यादा तिकड़म नहीं समझते, लेक़िन उनके भक्तगण बड़े तिकड़मी हैं | वे धेले-भर का प्रसाद चढ़ाकर और कुछ स्तोत्र सुनाकर विश्वकर्मा जी को प्रसन्न कर लेंगे | सप्लाई टेंडर ले लेंगे और नक़ली सामान चेंप देंगे | सारी रसीदों पर 'बिका हुआ माल वापस नहीं होगा" लिखा रहेगा और सारा दोष विश्वकर्मा का होगा | बाकी आप विश्वकर्मा जी को ही पूछ लें |


लक्ष्मी जी ने विश्वकर्मा की और देखा|


विश्वकर्मा: देवी, हमारे एस्टीमेट मय जी के एस्टीमेट से कम नहीं हो सकते अतः मय जी की बातों में कोई दम नहीं है | हमारे एस्टीमेट ज़्यादा इसलिए होंगे कि हम जीएसटी देते हैं | मय जी का सामान पाताल से आएगा जिसपर कोई जीएसटी नहीं लगता | लेक़िन मानवों और देवताओं के बीच हुए अनुबंध की तहत स्वर्ग और बैकुंठ आदि लोकों के निर्माण कार्य के लिए सारा सामान भारत से ही ख़रीदा जा सकता है | हम अनुबंध तथा क़ानून की अवहेलना नहीं कर सकते | इसलिये हमारे एस्टीमेट ज़्यादा हो सकते हैं, कम नहीं | कई और बातें हैं | भारत में सामान के मूल्य निरंतर बढ़ते रहते हैं- कॉस्ट-इसकलेशन होता रहता है | वहाँ दैत्यों का शासन नहीं है जो इतना चुस्त-दुरुस्त हो कि आज हेराफेरी की और कल बेड़ा ग़र्क| पाताल में तो लोग होर्डिंग तथा ब्लैकमार्केटिंग करने पर मृत्युदंड पाते हैं - सप्ताह भर में फ़ैसला हो जाता है क्योंकि पाताल में न डिमॉक्रेसी है न विभिन्न स्तर के न्यायालय| वहाँ तो ग़लत करने वाले के पक्ष से मुक़दमा लड़ने वाले वक़ील तक को सज़ा हो जाती है | चारों और भय व्याप्त है और लोग मट्ठा भी फूँक-फूँक कर पीते हैं | भारत में वह साँसत की जिंदगी नहीं है | लोग स्वतंत्र हैं और बोलने तथा आलोचना करने से डरते नहीं | लोग अपने अपने धर्म का पालन करते हैं और सारे दूकानदार गौमाता को रोटी खिलाकर ही ख़ुद खाते हैं | बची थोड़े अधिक दाम की बात | तो देवी, आपको क्या कमी है | बैकुण्ठ की छोड़िये | भारत के आपके एक-एक मंदिर में हज़ारों ख़रबों का सोना पड़ा है | उनसे हज़ारों स्वर्ग और सैकड़ों बैकुण्ठ बनाये जा सकते हैं | अतः आप थोड़े से अधिक एस्टीमेट से घबड़ाकर मय जी को ठेका मत दें | लोग कहेंगे कि बैकुण्ठ का रिपेयर दैत्य कर रहे हैं | कुछ लोग यह भी कहेंगे कि लक्ष्मी जी ने अपने पीहर वालों का पक्ष लिया है | कुछ लोग तो यहाँ तक चले जायेंगे कि अब बैकुण्ठ में भगवान की नहीं, लक्ष्मी की चलती है | भारत के सारे टुटपुँजिए अखबारों को बेसिरपैर की बातें फैलाने का मौक़ा मिल जायेगा | विरोधी राजनीतिकर्ताओं को भी मसाला मिल जायेगा | बैकुण्ठ के नवीकरण पर राजनीति न करवाइये | बाकी तो आप ख़ुद समझदार हैं |


मय दानव कुछ कहना चाहते थे, लेक़िन लक्ष्मी जी ने इशारे से उन्हें रोक दिया | फिर बोली - कल दोनों जने दस बजे सुबह दरबार में आइये | वे दोनों क्षण भर में ग़ायब हो गए |


लक्ष्मी जी नारद की ओर मुड़ीं और बोली - देखो नारद, ये बातें कॉन्फिडेंटिअल हैं | तुम्हारी बुरी आदत है कि तुम धरती पर जाकर सारी बातें जिस-तिस को सुनाते रहते हो - वह भी अपनी तरफ़ से नमक-मिर्च लगाकर | आज की बातें किसी से मत कहना | अब जाओ | हमारे प्रभु के आराम करने का वक़्त हो चला है |


लेक़िन नारद जी अपनी आदत से बाज क्यों आते?

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विष्णु भगवान की कहानी - नारद की जुबानी (एपिसोड - ३) 
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पृथ्वी पर आकर, लक्ष्मी जी के मना करने के बावज़ूद, नारद ने कुछ गिने-चुने सेठों को बैकुंठ के नवीकरण और मय तथा विश्वकर्मा के ठेका लेने की पूरी कहानी बतला ही दी| इसके बाद नारद जी अलकापुरी की और जाने की सोचने लगे|

सेठ मनसुखलाल स्थापत्यकर्म में प्रयुक्त होने वाले सामानों के सबसे बड़े थोक व्यापारी थे| इस धंधे में उनका एकाधिकार-सा था| वह नारद जी को विदा करके सीधे अपने आवास के पूजागृह में घुसे और अपने सभी इष्ट देवताओं की चिरौरी करने लगे कि वे विश्वकर्मा से कहें कि वह बैकुंठ के नवीकरण में लगनेवाले सामान सीधे मनसुखलाल की दूकान से ही खरीदें| इसका पहला तात्कालिक फल यह हुआ कि बात देवताओं के ज़रिये इंद्र तक पहुँच गयी | दूसरा फल यह हुआ कि सेठ जी ने स्थापत्यकर्म में प्रयुक्त होने वाले सारे सामानों को तहखानों में रखवा दिया तथा उनके दाम दुगुने कर दिए | दाम बढ़ने की बात मिनटों में सारे भारत में फैल गयी और देश भर में उन सामानों के भाव तीन से चार गुने तक बढ़ गए | आपूर्ति पर पूर्ण नियंत्रण हो गया | भारत के सारे शहरों में मकान बनाने का काम रुक-सा गया | तैयार मकानों के दाम पाँच गुने तक बढ़ गए| कंस्ट्रक्शन कंपनियों के शेयर के मूल्य छलाँग लेकर बढ़ने लगे | सारा कुछ तीन घंटे में हो गया | आर्थिक जगत में मानो भूचाल आ गया |


अमरावती में इंद्र इस बात पर बेहद चिंतित हो गए कि लक्ष्मी जी ने मय दानव को फिर कल आने को क्यों कहा | कौन नहीं जानता कि सस्ता रोये बार-बार, मँहगा रोये एक बार| सस्ता काम करने के नाम पर ये दानव फिर अपने धंधे फैलाना चाहते हैं | आज बैकुण्ठ का ठेका ले रहे हैं, कल यमराज से मिलकर नरक रिपेयर करने का ठेका लेंगे, फिर भुवः लोक, स्वः लोक, सत्य लोक, ब्रह्मलोक, शिव लोक वग़ैरह का ठेका लेंगे| इन दानवों की पहुँच हर जग़ह है | आज लक्ष्मी को बेटी बना कर काम निकाल रहे हैं, कल पार्वती को हिमालय की पुत्री होने के नाते बेटी बनायेंगे, परसों शची को अपने वंश की बेटी कह कर अपने पक्ष में करेंगे | ये हर जगह बेटीवाद फैलायेंगे, जो निपोटिज़्म का ही एक रूप है |


उन्होंने एक सेविका को भेज कर शची को, जो लंच लेने के बाद एक झपकी ले रही थी, तुरंत बुलवाया और स्थिति की गंभीरता समझायी| फिर उन्होंने शची को कहा कि वह बैकुण्ठ की तरफ़ तुरंत रवाना हो और शाम ढलते-ढलते वह लक्ष्मी को समझा आये कि किसी हालत में मय दानव को ठेका नहीं देना है| ज़रूरत पड़े तो अपने देवर (विष्णु भगवान) को भी समझाये कि लक्ष्मी के ऊपर सारी ज़िम्मेदारी डालकर,आँखें बंद करके शेषशय्या पर पड़े रहने से दुनियाँ नहीं चलती | दानव छद्मवेश में स्वर्ग में घुसना चाहते हैं और अगर वह देवताओं का भला चाहते हैं तो किसी हालत में मय दानव को बैकुण्ठ नवीकरण का ठेका न दें|


शची को यह सब अच्छा नहीं लगा, लेक़िन उन्होंने मातलि (इंद्र के रथ के सारथि) को बुलाया और, एक अच्छी पत्नी की तरह, रथ पर बैठ कर बैकुण्ठ की और चल पड़ीं| उस समय अपराह्न के दो बज रहे थे |

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विष्णु भगवान की कहानी - नारद की जुबानी (एपिसोड - ४)
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अपराह्न के लगभग ढाई बजे महारानी शची बैकुंठ पहुँची और लक्ष्मी जी के भवन में प्रवेश किया | शची के असमय आने के कारण लक्ष्मी जी थोड़ा चौंकी लेक़िन इस आश्चर्य भाव को उन्होंने अपने चेहरे पर आने नहीं दिया | शची की आवभगत की, उन्हें सोफे पर बैठाया और झटपट रूह-अफ़ज़ा के दो गिलास बनाये| शची को एक गिलास पेश कर वह बग़ल में बैठ गयीं | कुशल क्षेम पूछने के बाद उन्होंने शची के तशरीफ़ लाने का कारण पूछा | शची ने विना किसी लाग-लपेट के सीधी भाषा में बातचीत शुरू की |
शची: लक्ष्मी, मैं तुम्हारे जेठ देवराज इंद्र के द्वारा भेजी गयी यहाँ आयी हूँ | उन्हें विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि बैकुण्ठ के नवीकरण के सन्दर्भ में कल मय दानव एवं विश्वकर्मा जी दोनों को तुमने बुलाया है | देवराज को यह भी मालूम है कि मय जी के एस्टीमेट की तुलना में विश्वकर्मा जी का एस्टीमेट काफ़ी ज़्यादा है | इसके बावज़ूद तुमने दोनों को कल बुलाया है| इससे तुम्हारी मनसा साफ़ ज़ाहिर होती है कि तुम काम का एक, शायद बड़ा, हिस्सा मय को देने वाली हो और बचा हिस्सा, कॉन्सोलेशन या तुष्टीकरण के तौर पर, विश्वकर्मा जी को देनेवाली हो| देवराज इंद्र दैत्यों को मिलने वाले इस मौक़े को गहरी राजनीतिक चाल की पृष्ठभूमि समझते हैं | उन्होंने साफ़ कहा है कि जब लक्ष्मी के पास अकूत सम्पत्ति है तो थोड़ा-सा पैसा बचाने के लिए वह दानवों को क्यों प्रश्रय दे रही है| समझदार व्यक्ति को हर कार्य के केवल आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक, सामरिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू पर भी विचार करना चाहिए| संक्षेप में देवराज चाहते हैं कि तुम कोई बहाना बना कर मय दानव को चलता करो और पूरा नवीकरण कार्य विश्वकर्मा जी को करने दो|
लक्ष्मी: सुनो दीदी, तुम्हें बतला दूँ कि विश्वकर्मा जी का एस्टीमेट मय जी के एस्टीमेट से तीन गुना ज़्यादा है | मैंने अपने सूत्रों से इसका कारण जानना चाहा| मुझे ज्ञात हुआ कि एस्टीमेट के स्वीकृत होने के बाद जो पैसा मिलेगा उसके तीन बराबर हिस्से होंगे | एक हिस्सा तो विश्वकर्मा जी को कच्चे बिल का भुगतान करने के लिए मिलेगा| इसमें उन्हें कुछ नहीं बचेगा| घाटा हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं | उनकी पत्नी के सारे गहने, जो वह मायके से लायी थी, इसी तरह के घाटों को पूरा करने में बिके हैं| दूसरा हिस्सा दूकानदार का होगा | यह भारत में निजी पूँजी को बढ़ावा देने, औद्योगीकरण करने, विकास की गति को तेज़ करने, राष्ट्रीय आय को बढ़ाने इत्यादि के नाम पर जायज़ माना जाता है| तीसरा हिस्सा राजनीतिकर्ताओं के लिए होगा, जिसका कोई हिसाब नहीं होता | इसका एक हिस्सा राजनीतिकर्ताओं के सुख-मौज़, सैर-सपाटे, रंगीन होटलों में टिकने, मत ख़रीदने इत्यादि के काम आता है| दूसरा बड़ा हिस्सा नेताओं की व्यक्तिगत संपत्ति को बढ़ाने के काम आता है | अब तुम्हीं बतलाओ - कि क्या विश्वकर्मा जी को ठेका देना पुण्यभूमि भारतवर्ष में कदाचार और विश्वकर्मा जी की पत्नी के ऊपर संभावित अत्याचार नहीं होगा ?
दूसरी बात भी साफ़ सुन लो, बुरा नहीं मानना| जब तुम्हारे देवर जी (विष्णु भगवान) की शादी मुझसे तय हुई थी, तो मेरे पिता जी ने दूल्हा-वरन के वक़्त इनके हाथो में कौस्तुभ मणि रख दी थी| वह मणि इतनी वहुमूल्य थी कि उसके जोड़ की कोई दूसरी मणि थी ही नहीं, न होगी| उसी वक़्त सारे देवता चौंक गए थे | फिर शादी के बाद मैं जब ससुराल आयी तो मेरे पिता जी ने हज़ार से ऊपर बड़े ट्रक भेजे थे जो सोने और रत्नों से लदे थे | इस संपत्ति को देखकर कुबेर जी भी अचंभित हो गए थे और उन्होंने मुझे संपत्ति का पर्याय कहा था | तभी से लोगों में यह बात फैल गयी कि मैं संपत्ति की देवी हूँ |
अब तुम्हीं सोचो,दीदी | जब सारे लोग संपत्ति की लालसा से मेरी पूजा करने लगे तो मैं उदार ह्रदय से उनकी मनोकामना कैसे पूरा नहीं करती | यह सब सदियों होता रहा | लेक़िन अगर आय न हो तो व्यय करने से धन घटेगा ही | हमारे पीहर में भी सब-कुछ ठीक-ठाक नहीं चला | देवासुर संग्राम कई हुए| हर संग्राम में दानव हारे - चाहे जिस तिकड़म के चलते हारे हों | अधिक बोलना जेठ जी और तुम्हारे देवर जी पर भी आक्षेप होगा| अतः अब पीहर से भी संपत्ति आते रहने की गुंजाइश नहीं है| मेरी जमा पूँजी चुक गयी है | इसीलिए तो बैकुंठ का रिपेयर करवा रही हूँ, नया महल नहीं बनवा रही हूँ| इसमें अगर मय दानव सस्ते में रिपेयर कर देते हैं तो मैं विश्वकर्मा जी को ठेका देकर पामाल क्यों हो जाऊँ? झूठी शान के लिए जान क्यों दूँ?
लक्ष्मी जी व्यथा-कथा सुनकर शची की आँखों में आँसू आ गए | लेक़िन उन्होंने धीरज से काम लिया और बोली | सुन बहना, बुरा न मानो तो एक तरीका बतलाती हूँ, पर किसी से कहना नहीं | मेरा कुछ धन कुबेर जी के पास रखा है, और कुछ मेरा स्त्रीधन है| कुबेर जी से हमारा धन का लेन-देन चलता है| मैं पैसों का इंतजाम कर दूँगी| मन में आये लौटाना, मन में न आये तो बड़ी बहन का दिया उपहार मानकर रखे रहना | देवर जी से भी नहीं कहना | यह बात हमारे-तुम्हारे बीच रही | नारद जी से थोड़ा बच कर रहना | वह उड़ती चिड़िया के परों में हल्दी लगा सकते हैं| कल मय दानव को किसी बहाने टरका देना और विश्वकर्मा जी को ठेका दे देना | पैसे की चिंता मत करना, और अपनी दीदी पर भरोसा रखना |
महारानी शची के सुझाव और आवश्यक आर्थिक सहायता की पेशकश ने लक्ष्मी जी की उलझनों को एकबारगी सुलझा दिया | लेक़िन मय दानव को टरकाने का कोई समुचित तरीका उनकी ज़ेहन में तत्काल नहीं आया | अतः वह स्पष्ट बोली : दीदी, आपने जैसा कहा वैसा ही करुँगी लेक़िन यह समझ में नहीं आता कि किस बहाने मय जी की डिजाइन को असंतोषजनक करार किया जाये | वह सुन्दर भी है और बेहद सस्ती भी | ऊपर से मय जी हमारी बिरादरी के भी हैं |
शची: देख लक्ष्मी, इस के मुताल्लिक़ तो देवर जी से ही बात करनी होगी | वह तिकड़मियों के सरताज़ हैं | चलो उन्हीं से बातें करते हैं |
अपने कमरे में भगवान विष्णु अकेले बैठे थे| वह मय और विश्वकर्मा के एस्टिमेट्स, नारद का पदार्पण, सारी बातों का इंद्र तक पहुँचना और फलतः शची का असमय लक्ष्मी से मिलने आना, उनकी लम्बी गुफ़्तगू, और फिर दोनों का उनसे मिलने आने की सूचना - इन सारी घटनाओं के तार जोड़कर मामले को पूरी तरह समझ रहे थे और मय को टरकाने का समुचित बहाना भी ढूंढ़ चुके थे | अतएव वह मुस्कुरा रहे थे |
महारानी शची और लक्ष्मी ने उनके कमरे में प्रवेश किया तो वह उठ खड़े हुए | उन्होंने भाभी को प्रणाम किया, उन्हें बैठाया, कुशल क्षेम पूछा, भाई साहब के वारे में पूछा | इस सौजन्य के बाद शची ने उनके सामने लक्ष्मी की समस्या रखी |
शची : देवर जी, आप तो जानते ही हैं कि बैकुण्ठ के नवीकरण के लिए मय दानव का एस्टीमेट/डिज़ाइन सुन्दर भी है और सस्ता भी | लेक़िन लक्ष्मी चाहती है कि ठेका विश्वकर्मा जी को मिले क्योंकि उसका सम्बन्ध भारत के विकास से है, जहाँ हमारे असंख्य भक्त रहते हैं | मय दानव को ठेका देने से पाताल को लाभ होगा जहाँ हमारे भक्त प्रायः नहीं के बराबर हैं | इसी सम्बन्ध में हम दोनों बहनें आपसे कोई उपाय पूछने आयी हैं कि कल मय दानव को क्या कहा जाये |
विष्णु : भाभी जी, मुझे इस बात की खुशी है कि आप दोनों बहनें अपने कुल के कल्याण की भावना से ऊपर उठ कर मानव कल्याण और भक्तों के कल्याण के बारे में सोचने लगी हैं | आपने उपाय पूछा है कि सस्ता और बढ़िया होने के बाद भी मय दानव की डिजाइन को कैसे छाँट बाहर किया जाये और पक्षपात करने की बदनामी भी न हो | इसके लिए मय दानव की बनायी सारी इमारतों और नगरों का इतिहास देखें | पता चलेगा कि वे किसी न किसी वज़ह से कलह, युद्ध और अशांति से सम्बंधित रही हैं | शायद इसका कारण डिज़ाइनों में आध्यात्मिकता तथा आस्था का अभाव एवं वास्तुशास्त्र के नियमों का उल्लंघन है| दानव इस तर्क से सहमत नहीं होंगे पर हम देवता हैं और इन बातों का ध्यान रखते हैं | हमारे लिए बाहरी सुंदरता, मज़बूती और किफ़ायती होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि संस्कृतिपूर्ण होना और शुभ होना| अतः कल लक्ष्मी जी इन्हीं आधारों पर मय दानव की डिजाइन को छाँट बाहर करे और घोषणा करे कि विश्वकर्मा जी की डिज़ाइन स्वीकृत हुई |
भगवान के बतलाये उपाय सचमुच काबिलेतारीफ़ थे| शची जी अमरावती लौट गयी और लक्ष्मी जी ने चैन की साँस ली |


अगले दिन लक्ष्मी जी ने अपना निर्णय सुना दिया और विश्वकर्मा जी प्रफुल्लित मन से घर लौटे| एक बार फिर दानवों की हार हुई और मानवतावाद ने भाई-भतीजावाद (बेटीवाद) और तकनीकीवाद पर संयुक्त विजय पायी |
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विष्णु भगवान की कहानी - नारद की जुबानी (एपिसोड - ५ )
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घर लौटकर विश्वकर्मा जी अभी मध्याह्न भोजन कर ही रहे थे कि उनके मोबाईल पर इंटरनेट बैंकिंग के मैसेज आने लगे - और दस मिनट के अंदर उनके खाते में वह पूरी रक़म आ गयी जो बैकुण्ठ नवीकरण प्रॉजेक्ट के लिए एस्टीमेट में दी गयी थी | रक़म अलग़-अलग़ खातों से आयी थी किन्तु सारे ट्रांजेक्शन के नोट में एक ही बात लिखी थी - 'फ़ॉर बैकुण्ठा प्रॉजेक्ट"| यह कोई ऐसी बात नहीं थी जिस पर सोच-विचार किया जाये |

शाम के चार बजते-बजते विश्वकर्मा जी सेठ मनसुखलाल की दूकान पर पहुँचे और उन्होंने सामान की पूरी लिस्ट सेठ को पकड़ा दी | घंटे भर में सेठ ने कच्ची रसीद बनाकर विश्वकर्मा जी के सामने रख दी | विश्वकर्मा जी ने रसीद का मुआइना किया - पर बिल के टोटल देखकर उनके हाथों के तोते उड़ गए | कुल रक़म उनके एस्टीमेट की रक़म की लगभग तिगुनी थी|

विश्वकर्मा जी ने इसका कारण पूछा तो सेठ जी उन्हें समझाने लगे | उनका एस्टीमेट सप्ताह भर पहले के बाज़ार भाव पर था किन्तु आज का बिल आज के बाज़ार भाव पर है| अगर वह आज ही ऑर्डर न दे डालें तो कल का क्या पता | बाज़ार में आग लगी हुई है - माल उपलब्ध नहीं है - मांग बेतरीका बढ़ी हुई है | समझदारी इसी में है कि विश्वकर्मा जी अभी-अभी ऑर्डर कर दें | आगे दाम घटने की कोई सम्भावना नहीं है क्योंकि जनरल एलेक्सन माथे पर है|

मरता क्या नहीं करता | विश्वकर्मा जी मन ही मन अपने भाग्य को दोष देने लगे और मरी आवाज़ में बोले - चलिए सेठ जी, पहली किश्त में सामान का चौथा हिस्सा बैकुण्ठ भिजवा दिया जाये| बाक़ी हम काम आगे बढ़ने पर बतलायेंगे | आपके बिल का भुगतान हम सामान पहुँचने के बाद इंटरनेट बैंकिंग से कर देंगे |

बैकुंठ के नवीकरण का काम शुरू तो बड़े जोर-शोर से हुआ किन्तु ज़ल्द ही सामान की कमी की वज़ह से रुक गया | विश्वकर्मा जी पैसों का जुगाड़ करने के लिये हर दरवाज़ा खटखटा आये, पर पैसों का इन्तजाम नहीं कर पाए | पत्नी के पास इतने गहने नहीं बचे थे कि उन्हें बेच कर वह सामान के अगली किश्त का आर्डर दे आते | शर्म के मारे लक्ष्मी जी और विष्णु जी से मुँह छुपाने लगे | उनका रक्तचाप बहुत अधिक रहने लगा| भूख भी नहीं लगती थी | कुछ चिड़चिड़े भी हो गए|
तीन बरसों तक जब बैकुण्ठ के नवीकरण का कार्य आगे नहीं बढ़ा तो एक दिन लक्ष्मी जी ने उन्हें दरबार में बुलाया | वह समय पर आये लेक़िन बहुत उदास थे| लक्ष्मी जी ने विश्वकर्मा जी के अलावा सभी लोगों को अपना-अपना घर जाने के लिए कहा | जब दरबार में केवल श्री भगवान, लक्ष्मी जी और विश्वकर्मा जी रहे तो लक्ष्मी जी ने नवीकरण कार्य के तीन वर्ष रुक जाने के कारणों की तहक़ीक़ात की | विश्वकर्मा जी ने अपनी विकट समस्या को श्री भगवान और लक्ष्मी जी के सामने रखा | ग़नीमत थी कि अपनी कथा कहते-कहते वह रोये नहीं |
समस्या को समझकर विष्णु भगवान तो मौन रह गए पर लक्ष्मी जी उबल पड़ीं | उन्होंने चिल्लाकर अपनी दासी को पुकारा और एक लोटा गंगाजल लाने को कहा | आनन-फ़ानन दासी गंगाजल भरा लोटा ले आयी | श्री भगवान और विश्वकर्मा जी भौंचक्के लक्ष्मी का तमतमाया चेहरा देखते रहे|
लक्ष्मी जी ने एक चुल्लू जल अपने माथे पर छिड़का और फिर अपने दाहिने हाथ में एक चुल्लू जल लेकर खड़ी हो गयी और ऊँची आवाज़ में बोली |
"मैं सागर की पुत्री और भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी दसों दिशाओं, भगवान विष्णु और श्री विश्वकर्मा को साक्षी रख कर भारत वासियों को यह भयानक शाप देती हूँ कि उनकी आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक उन्नति कभी नहीं होगी - उनके यहाँ दरिद्रता, अपवित्रता, अस्वस्थता, झूठ, मक्कारी और आपसी द्वेष का बोलबाला रहेगा, वे मानसिक रूप से विदेशियों का दासत्व करेंगे और उनके मरने के बाद यमराज उन्हें नरक में ज़गह देने में भी नाक-भौं सिकोड़ेंगे | मेरा यह शाप अटल होगा और किसी तपस्या या किसी के वरदान से प्रभावित नहीं होगा |"
फिर वह विश्वकर्मा जी की ओर मुड़कर बोली - विश्वकर्मा जी, अपना घर जाइये और इस नवीकरण दुर्घटना को भूल जाइये |
तभी से भारत में आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक उन्नति नहीं हो रही है - वहाँ दरिद्रता, अपवित्रता, अस्वस्थता, झूठ, मक्कारी और आपसी द्वेष का बोलबाला रहता है, भारतीय लोग आर्थिक व मानसिक रूप से विदेशियों का दासत्व करते हैं और विकास के सारे प्रयास असफल होते हैं | नेतागण स्वभावतः अपराधी और टुच्ची प्रवृत्ति वाले होते हैं, वैज्ञानिकगण नया अनुसन्धान नहीं कर पाते हैं, बुद्धिजीवी चाटुकार और ठग होते हैं, पंडित धर्मध्वजी होते है, व्यापारी ठग होते हैं, पढ़े-लिखे नौजवान नाकारे होते है, साधारण जनता अंधभक्त होती है और भूखों मरती है| लक्ष्मी जी का शाप अटल है और कोई लाख पूजा-पाठ करे, भारत की दुर्दशा का कोई इलाज़ नहीं है|
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मास्टर साहब
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मास्टर साहब | लम्बा-चकला कुछ-कुछ सांवला शरीर| ख़द्दर की धोती और सफ़ेद कुरता| पैरों में अब-फटी तब-फटी चप्पलें| मुँह में पान और चेहरे पर बेहद महीन मुस्कान| उनके काले, छोटे-छोटे घुंघराले बाल और ओठों पर मुस्कान वो समां बांधते कि लगता था उन्हें वह ज्ञान प्राप्त हो गया हो जो बुद्ध को भी नहीं मिला| बोलते बहुत कम थे| बुद्ध की तरह बहुधा मौन रहने (मय घुंघराले बाल और मसृण मुस्कान) के बावजूद यदि अब तक सारे लोग उन्हें पूजने नहीं लगे थे और केवल सम्मान दे कर चुप हो जाते थे, तो यह लोगों में गुणग्राहकता का अभाव परिलक्षित करता था, न कि मास्टर साहब में गुणों का अभाव | इसीलिए तो किसी कवि ने लिखा है - गुन ना हिरानो गुनगाहक हिरानो हैं|
मास्टर साहब हिंदी पढ़ाते थे | हिंदी पढ़ाने के कारण कविता-कहानी और लेख लिखने का उनका अधिकार स्वयंसिद्ध था | उन्होंने बहुत लिखा, पर अपनी कविता, कहानियों व लेखों को कभी किसी पत्रिका में छपने नहीं भेजा | उनका मानना था कि जब हंस के समकक्ष की पत्रिकाओं के संपादक-गण समय की मार खाकर बगुले हो गए और नीर-क्षीर विवेक की वजाये मछलियाँ पकड़ने लगे हैं, तो किसी पत्रिका में अपने काव्य-कृतित्व को भेजना सरस्वती का अपमान करना है| एक कारण और था| वह डरते थे कि कहीं उनकी अमूल्य रचना को संपादक-गण अपने नाम छाप कर लब्धप्रतिष्ठ लेखक न बन बैठें| जब तुलसीदास जैसे लोग दूसरों की कविता को जस-का-तस (लेक़िन अवधी में अनुवाद करके) अपना कहने से बाज नहीं आते तो इन छुटभैये संपादकों का क्या भरोसा| प्राक्कथन में 'नानापुराण निगमागमसम्मतं यत् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि' लिख कर हमारा सारा लिखा-पढ़ा अपने नाम छपा लेंगे| प्रकाशकों को भी विद्यार्थियों के लिए कुंजियां छापने से फ़ुर्सत नहीं है|
जब समय की मार खाकर उनका लिखा साहित्य पांडुलिपियों में बदलने लगा (कागज़ पीले पड़ने लगे और लिखावट धूमिल होने लगी) तो उन्होंने ख़ुद प्रकाशकों से मिलना शुरू किया| प्रकाशक अच्छी तरह जानते थे कि जिस दुनियाँ में निराला, दिनकर, और महादेवी वर्मा की किताबें नहीं बिकती, रैकों पर धूल खाती रहती हैं - वहाँ मास्टर साहब के कविता-संकलन को कौन खरीदेगा| इन बड़े कवियों व लेखकों की कुछ किताबें भी तब बिकतीं हैं जब वे किसी कोर्स में हों| फिर पूरी क़िताब प्रायः कोर्स में नहीं रहती| लोग खाते भी हैं तो चावल, दाल, रोटी, सब्जी, पापड़, अचार खाते हैं| सब्ज़ी कितनी भी अच्छी बनी हो, कौन सिरफिरा केवल सब्ज़ी खायेगा? उसी तरह किसी कोर्स में पृथ्वीराज रासो से लेकर धूमिल और दुष्यंत कुमार तक की रचनाएँ छिटपुट कर रखनी पड़ती है| बात संतुलित आहार की है - आहार पेट के लिए हो या दिमाग़ के लिए|
बात यहीं तक रहे तो हलक से नीचे उतार लें| लेक़िन बात आगे बढ़ जाती है जब इन बड़े लेखकों की भाषा पर ध्यान दें| प्रसाद तो हिंदी के नाम पर संस्कृत लिखते रहे| महादेवी वर्मा और दिनकर ने भी कोई कम कमाल नहीं किया है| पहले शब्दकोष कंठस्थ करो तब इनकी कविता पढ़ो| बेचारा विद्यार्थी क्या करे - साल भर का कोर्स, दर्ज़न भर पेपर| शब्दकोष रटने लगे तो हो गया| कुंजी की मदद के सिवा और क्या हो सकता है? और इन मास्टरों की बदमाशी तो देखिये - ख़ुद कुंजी लिखे बैठे हैं और किसी अन्य लेखक की लिखी कुंजी पढ़ो तो मुँह बिचकाते हैं|
अंत में मास्टर साहब इस बात पर राज़ी हो गए कि विना उनके पैसा लगाए उनकी चुनिंदा कविताओं, कहानियों और लेखों का संग्रह छप जायेगा, पर बदले में तीन कुंजियां लिखनी होंगी जिनकी बिक्री से प्राप्त आय में मास्टर साहब कोई हिस्सा नहीं मांगेंगे | दोनों तरफ़ से छूट - और बात जम गयी| नतीज़तन, छह महीने में उनके तीन अदद संकलन और छह अदद कुंजियां बाज़ार में आ गयीं| मास्टर साहब निहाल हो गए, उनकी मुस्कान कुछ ज़्यादा चौड़ी हो गयी, और वे पत्तों में बाँधकर पान की गिलौरियां साथ रखने की जग़ह पॉकेट में छोटी-सी पानडिब्बी रखने लगे|
जब आम के दाम नहीं आये तो मास्टर साहब ने गुठलियों से फ़ायदा उठाने की सम्भवताओं पर सोचना शुरू कर दिया | भगवान के रहम-ओ-करम से उनके चार-बेटे और तीन बेटियाँ थीं| सबसे बड़ी लड़की उस दहलीज़ पर पाँव रख चुकी थी जिस पर बेटी के पाँव को देखकर मास्टर साहब जैसे बाप कभी तो अपनी जमा पूँजी को देखते हैं, ज़माने पर राज करती पैसे की भूख को देखते हैं, और कभी बेटी की बाढ़ देखते हैं| बेटियाँ अक्सर घास-फूस जैसी होती हैं, बेटों के बीच या बदले उसी तरह आ जाती हैं जैसे गुलाबों की क्यारी में खर-पतवार और घास-फूस| वे गुलाबों की बढ़त रोकती हैं| गुलाबों को काटा-छाँटा जाता है, उनके लिए खाद-पानी की व्यवस्था की जाती है, उन्हें कीड़ों से बचाया जाता है, ताकि वे स्वस्थ रहें, उनपर अच्छे फूल आयें | लेक़िन खर-पतवार के लिए क्या करना - उन्हें तो उखाड़ कर फेंकना है| बेटी भी दूसरे की थाती संपत्ति होती होती है, मौका मिलते ही उखाड़ फेंकने के लिए - जिसको उसके हाथ पीले करना कहते हैं| इस तर्क का आश्रय लेकर उन्होंने बेटियों को स्कूल भेजने या घर पर पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता नहीं समझी थी, हाँ वे साक्षर थीं और वर्णों तथा मात्राओं को जोड़-जाड़ कर ग़लत-सही पढ़-लिख लेती थीं | बेटियों की इतनी शिक्षा ही उन्हें विद्वत्तमा बनाने के लिए काफ़ी थी और मास्टर साहब को पूरा विश्वास था कि आज भी हिंदुस्तान में कालिदासों की कमी नहीं है जो समय की मार पड़ने पर ऊँट को उष्ट्र कहना सीख लेंगे और उनकी बोली में विशिष्टता आ जाएगी |
तो मास्टर साहब ने अपनी बड़ी बेटी के लिए वर ढूंढना शुरू करवाया| स्कूल में पढ़ाते थे, उन्हें इतना अवकाश नहीं था कि ख़ुद लम्बी दौड़ का दौरा करते| लेक़िन उनके परिजन बहुत थे| इक्का-दुक्का करके बहुतों से मिले और उन्हें बतला दिया कि बड़ी बेटी के लिए कोई वर ढूंढें| लड़का पढ़ा-लिखा हो, लड़के को अपना घर-द्वार हो, थोड़ी ज़मीन-जग़ह हो, देखने-सुनने में ठीक-ठाक हो, उम्र लड़की के अनुरूप हो, और सबसे ज़्यादा अहम बात यह कि लड़के के माँ-बाप अधिक दहेज न माँगते हों| अगर आदर्श विवाह के पक्ष में हो तो सोने में सुगंध | इधर से लड़की का गुणगान करें, परिवार का गुणगान करें, बतलायें कि लड़की के पिता कुलीन हैं, हिंदी के उद्भट विद्वान हैं, मिसाल के तौर पर उनकी लिखी किताबें देखिये, ये रहा कविताओं का संग्रह, ये रहा कहानियों का संकलन, वो रही लेखों की पुस्तक, ये रहे आलोचना के ग्रन्थ| वे विष्णु प्रभाकर, ममता कालिया, राजेंद्र यादव और बीसियों ऐसे छंटे हुए साहित्यिकों, कवियों और लेखकों के ज़िगरी दोस्त रहे हैं| एक दूसरे के यहाँ आना-जाना है| हाल में ही बच्चन जी शहर में आये थे, तो मास्टर साहब को ढूंढा - बोले कि नाम तो बहुत सुना है, उनकी कविताएँ बहुत पढ़ी हैं, उनसे प्रभावित भी हुआ हूँ, लेक़िन सम्मुख होने का सौभाग्य नहीं मिला| अब इस शहर में आ गया हूँ तो विना मिले लौट नहीं सकता| आख़िर बच्चन जी मास्टर साहब से मिलने स्कूल चले आये| स्कूल का प्रिंसिपल अवाक्| बोला कि हम तो जानते ही नहीं थे कि मास्टर साहब गुदड़ी में छुपे लाल हैं| इनके चलते स्कूल का नाम रौशन हो गया, नहीं तो बच्चन जी हमारे स्कूल में आते - वो भी विना बुलाये| वे भी धन्य हैं, मास्टर साहब भी धन्य हैं जिनके चलते हमारे स्कूल के शिक्षक, बच्चे और उनके अभिभावक भी धन्य, कृतकृत्य हुए| हालाँकि मास्टर साहब की क़िताबों से बाद कही बातें सरासर झूठी थीं - लेक़िन उनकी मान्यता थी कि विवाह के लिये बोला गया झूठ असत्य नहीं कहलाता है, वह परमार्थ में होने के कारण कतई दोषपूर्ण नहीं होता|
ठगना, झूठ-सच कह कर अपना उल्लू सीधा करना, एक कला है और हर कला की तरह यह भी सृजन या सर्जन की मौलिक क्षमता की एक बेहतरीन अभिव्यक्ति है | इस कला की अनन्य विशेषता है कि अगर कोई ठगे नहीं तो वह निश्चय ही किसी से ठगा जायेगा| अगर कोई ठगे जाने से बचना चाहता है तो वह फ़ौरन से पेश्तर किसी को ठगने निकल पड़े | सो मास्टर साहब के परिजन सत्तू बाँधकर ठगने निकल पड़े| कहते हैं, जो खटखटाता है उसके लिए खुलता भी है और जो ढूँढता है उसे मिलता भी है| ग़रज़ यह कि झूठे वादे करके, 'वचने का दरिद्रता' का एक उम्दा प्रयोग करते हुए, मास्टर साहब ने अपनी बड़ी बेटी के लिए एक वर का जुगाड़ कर ही लिया

मास्टर साहब एक देहाती और ग़रीब परिवेश में जन्मे और पले-बढ़े थे| उनके पिता का देहान्त तभी हो गया था जब वह बच्चे थे| कोई भाई बहन भी न था| अतः मास्टर साहब का बचपन बेवा और बेजुबान माँ तथा हृदयहीन चाचा-चाची की देखरेख में बीता था| उनके चचेरे भाई पूरी तरह से निकम्मे थे, पर मास्टर साहब समझदार और कुशाग्रबुद्धि थे | ग़रीबी और बेबसी जीने के बहुत सारे असरदार गुर सिखला देती है| मास्टर साहब ने कच्ची उमर में ही उन गुरों को सीख लिया | अतः अपने चाचा के द्वारा पैदा की गयी तमाम अड़चनों को फांदते व परीक्षाएँ पास करते हुए वह हिंदी में एमए हो गए| हिंदी भाषा और साहित्य पर उनकी अच्छी पकड़ थी| फिर अपनी योग्यता, भाग्य तथा संभवतः किसी स्वजन (जो राजनीतिक रूप से प्रभावशाली थे) के सिफ़ारिश से सरकारी स्कूल में शिक्षक हो गए| अपने गंभीर स्वभाव और सापेक्षिक विद्वत्ता के चलते वह इलाक़े में प्रतिष्ठित व्यक्ति भी हो गए|
मास्टर साहब दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती तीनों के निष्पक्ष उपासक थे | सरस्वती की कृपा तो उनके ऊपर सहज थी| उसी कृपा की बदौलत वह एमए थे, शिक्षक थे और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अच्छा कमा लेते थे | लेक़िन अकेली सरस्वती तो सब कामनाओं को पूरा नहीं कर सकती | सरस्वती अपने तईं लक्ष्मी और दुर्गा का मनुहार भले कर सकती है लेकिन दूसरों के विभागों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती| सिफ़ारिश कर दे सकती है, पर प्रार्थी को दौड़-भाग तो ख़ुद करनी होगी| इस बात को मास्टर साहब अच्छी तरह समझते थे|
मास्टर साहब तहेदिल से चाहते थे कि पूरे गाँव और संभव हो तो पूरे इलाक़े में उनकी धाक जमे, उनका वर्चस्व क़ायम हो, उनकी तूती बोले| यह धाक सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा तीनों के महकमों में हो | सरस्वती के महकमे में तो उन्होंने अपनी धाक अपने बल-बूते पर जमा ली थी, लेक़िन और दो महकमों में उनके किये कुछ होने वाला न था | नतीज़तन, दुर्गा के महकमे में धाक जमाने के लिए उन्होंने अपने मूर्ख और उजड्ड चचेरे भाई को चुना | उसने किसी ग़रीब बेबस आदमी का दिन-दहाड़े क़त्ल कर दिया | मुक़दमा चला, पर दुर्गा माता की कृपा | कुछ-कुछ कृपा लक्ष्मी माता की भी हुई| मास्टर साहब ने खूब पैरवी भिड़ाई, गाँव के लोगों ने मक़तूल के परिवार को समझाया बुझाया (या डराया धमकाया) | गवाहों को भी समझाया बुझाया| मास्टर साहब ने आदर्श भाईचारे की बेहतरीन मिसाल पेश की| मुक़दमा ख़त्म हुआ और क़ातिल बाइज्ज़त घर आया | मास्टर साहब का वर्चस्व दुर्गा माता के महकमे में भी स्थापित हो गया| तभी से मास्टर साहब पढ़ने लिखने वालों की तुलना में शोहदों की ज़्यादा इज्ज़त करने लगे | लोग भी मानने लगे कि मास्टर साहब से टक्कर लेना महँगा पड़ सकता है|
मास्टर साहब ने जल्द ही समझ लिया कि बटाईगीरी पर स्थापित वर्चस्व दोषपूर्ण और क्षणभंगुर होता है | अतः उन्होंने अपने पुत्रों को शोहदागीरी की तरफ़ आगे बढ़ाया| अपराधी होने के लिए शोहदागीरी आवश्यक सोपान है| इसकी व्यवस्था मास्टर साहब ने कर दी| आगे की बात तो व्यक्ति की योग्यता और सूझबूझ पर आश्रित है|
कहते हैं, आदमी प्रकृति (nature) और पालन-पोषण (narture) दोनों से बनता है| मास्टर साहब के बड़े पुत्र ने सरस्वती और लक्ष्मी की पूजा को श्रेयस्कर समझा| वह पढ़ने-लिखने में भी अच्छा निकला और चार-सौ-बीसी में भी| लेक़िन उसकी रुचि शुद्ध शोहदागीरी में नहीं थी | उसके इस व्यवहार से मास्टर साहब उससे रुष्ट रहने लगे | मास्टर साहब ख़ुद एमए थे, और क़ाबिल थे, अतः वह किसी के एमए होने से प्रभावित नहीं होते थे| बड़े पुत्र ने पैसा पकड़ना शुरू कर दिया और पिता की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया | कहा भी गया है - किं तया क्रियते धेन्वा या न सूते न दुग्धदा | जो गाय न बछड़ा जने न दूध दे उसका क्या करना| बड़े बेटे ने न दबदबा बढ़ाया न पैसा दिया, तो उसका क्या करना | मास्टर साहब ने 'सुधरा तो पूत और बिगड़ा तो मूत' की कहावत पर अमल करते हुए बड़े बेटे को पूत की श्रेणी से हटाकर मूत की श्रेणी में रख दिया | बड़े बेटे ने इस नवीन श्रेणीकरण का सहर्ष स्वागत किया और पिताश्री का सम्मान करते हुए अपनी दुनियाँ अलग बसा ली|
लेक़िन मास्टर साहब के दो और बेटे अपने बड़े भाई की तरह बेलौस नहीं निकले| उन्होंने सरस्वती की वंदना में अधिक समय जाया करने की ज़गह दुर्गा और लक्ष्मी पूजा पर अधिक ज़ोर दिया | उनके मार-पीट, चोरी-डकैती, ठगी और बदजुबानी के किस्से घर-घर में मशहूर हो गए और ऐसा लगने लगा कि निकट भविष्य में माँ अपने रोते बच्चों को यह कह कर चुप कराएगी कि बेटे चुप हो जा नहीं तो फलनवाँ आ जायेगा |
मास्टर साहब के गुलाबों (बेटों) की कहानी कहने की रौ में बहकर हम खर-पतवार (बेटियों) को भूल आए | लेक़िन खर-पतवार भी पौधे हैं - जीव हैं - और उनको सर्वथा भूल जाना उनके प्रति अन्याय होगा| हम कह चुके हैं कि उनकी बड़ी बेटी के लिए वर मिल गया था| आगे उसका विवाह भी हो गया और वह ससुराल में सास-ससुर की सेवा में तल्लीन हो गयी | वैसे वह बहुत समझदार थी - अतिशयोक्ति की अनुमति दें तो वह बुद्धि का पर्याय थी, पर उसकी बुद्धि का बड़ा हिस्सा सरस्वती के लॉकर में बंद था और, एहतियातन, लॉकर की चाबी मास्टर साहब ने अपने पास रख ली थी |
मास्टर साहब की दूसरी बेटी लक्ष्मीरूपा थी | मास्टर साहब ने उसे भी फ़ौरन हाथ पीले करवा कर ठिकाने लगाया| दुर्भाग्य से इस धरती पर से उसका दाना-पानी जल्द ही उठ गया | वह लक्ष्मीरूपा जरूर थी, लेक़िन इसके बावजूद कुछ देकर नहीं गयी | उसके चार छोटे-छोटे बच्चे जान भी नहीं पाए कि माँ किसको कहते हैं | उन्हें अपनाने वाला कोई नहीं था | मास्टर साहब ने बेटी का ब्याह सर पर से अपना बोझ उतारने के लिए किया था | वही बोझ अब चार गुना होकर उनके सर पर आने को था | लेक़िन मास्टर साहब ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं गुलाबों की क्यारियों में उन बच्चों के लिए कोई ज़गह नहीं थी | वे चारों बच्चे बनफूल बन गए |
मास्टर साहब की तीसरी बेटी दुर्गारूपा थी | उसकी शादी मास्टर साहब ने ऐसे घर में की जो देवी की महिमा के पूरे जानकार नहीं थे | जब दुर्गा के सामने चण्ड-मुण्ड और शुम्भ-निशुंभ जैसे प्रतापी वीर नहीं टिक पाये तो साधारण मनुष्य क्या खाकर टिकते | वर्ष-दो-वर्ष भी नहीं गुजरे कि पति समेत सारे ससुराल वालों ने घुटने टेक दिए | इसीलिए मास्टर साहब अपनी छोटी बेटी से बहुत प्रसन्न रहते थे | यह बेटी उनकी एकमात्र बेटी थी जिसने उनका मान बढ़ाया था |
यही सही जग़ह है जहाँ मास्टर साहब के चौथे बेटे को ठिकाने लगा दिया जाये | उसने अपने सबसे बड़े भाई के यहाँ रहकर, भाभी का पीर बावर्ची भिश्ती खर बनकर, बीए किया और बड़ी बहन के यहाँ रह कर आगे की शिक्षा पायी | सौभाग्यवश उसे एक नौकरी मिल गयी और उसकी जीविका का इंतजाम हो गया | लेकिन चूँकि उसने मास्टर साहब के रौब-दाब में कोई इज़ाफ़ा नहीं किया, न पैसा दिया इसलिए मास्टर साहब की नज़र में वह अपने सबसे बड़े भाई वाली श्रेणी में ही था |
इस विषयान्तर के बाद हम अब मुख्य धारा में लौट चलें |
मास्टर साहब और उनके मँझले दोनों बेटे जिस राह पर आगे बढ़े उसे वाममार्ग कहते हैं | वाममार्ग सद्योफलवती पूजा होती है | पंचमकार से की जाने वाली पूजा तुरत रंग लाती है| लेकिन इस मार्ग की कई कठिनाइयाँ हैं| अव्वल कठिनाई तो यह है कि इसकी सिद्धि के लिए अपने प्रियपात्र का वलिदान करना होता है| इसकी दूसरी कठिनाई है कि इस पूजा में कोई खोट हो तो वह साधक को ले डूबती है | इसीलिए वाममार्ग में चलने वाले साधक को तलवार की धार पर चलना होता है | इस मार्ग में बहुत अँधेरा व अंधेर है| इसमें साधक को तामसी शक्तियों से रोज़ रु-ब-रु होना पड़ता है| दूसरी तरफ़, दक्षिण मार्ग धीमा मार्ग है - मन आये करिये, न मन आये मत करिये | मन आये फल, फूल, खीर चढ़ाइये और मन न आये तो सूखा प्रणाम करके रास्ता पकड़िए | पूजा में खोट की संभावना हो तो क्षमा मांग लीजिये| सब माफ़|
मास्टर साहब ने यह तो सही समझा कि वाममार्ग की पूजा सद्योफलदायिनी होती है लेकिन इस पूजा में हो सकने वाले ख़तरों का उन्हें ज्ञान नहीं था| वह खेल-खेल में तामसी शक्तियों का आह्वान तो कर बैठे लेकिन वे तामसी शक्तियाँ क्या मांगेंगी इसका अनुमान न कर सके| उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि तामसी शक्तियाँ भला करें न करें, बुरा तो लगे-हाथ कर बैठती हैं|
मास्टर साहब और उनके मँझले बेटे जितेन्द्रिय नहीं थे, इस लिए वाममार्गी पूजा कर सकने में सक्षम नहीं थे | पर वे इस रास्ते पर आगे बढ़ गए | इसका फल तुरंत मिला | घर में डकैती हुई - अपना अच्छा-भला घर बेच कर शहर से भागना पड़ा, घर के बच्चों की जानें गयीं, ज़मीन-ज़गह बिकी, ख़ुद मास्टर साहब को हवालात में रहना पड़ा, और पुलिस वालों ने उन्हें नसीहत दी | मास्टर साहब ने अपनी मट्टी-पलीद करवा ली | फिर भी, उनके चेहरे पर शिकन नहीं आयी | वह वाममार्गी पूजा के लिए कृतसंकल्प थे |
समय किसी के लिए नहीं रुकता - उम्र बढ़ती ही चली जाती है| समय ने मास्टर साहब को नौकरी से रिटायर कर दिया | लेक़िन वाममार्ग के भूतों ने उन्हें नहीं छोड़ा| वह अपना पेंशन, अपनी शांति, अपनी प्रतिष्ठा, अपने स्वास्थ्य की परवाह किये विना भूतों की उपासना करते रहे और अपनी बेबसी पर रोते रहे| उन्हें अपनी दवा तक के पैसे नहीं जुटते थे, लेक़िन भूतों के लिए मुर्ग-मुसल्लम का इंतज़ाम करना पड़ता था उनकी पत्नी भी, साथ-साथ  जीने-मरने की प्रतिज्ञा के बावजूद, उन्हें अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार चुकी थी, अतः मास्टर साहब की रेगिस्तानी सफ़र में नख़लिस्तान बन कर नहीं आ सकती थी| उनके दुर्भाग्य का अंत उनकी दयनीय मृत्यु के साथ आया और वह भूतों के चंगुल से हमेशा के लिए मुक्त हो गये |


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बुद्ध और बुध्धू
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चौंकिए मत ज़नाब, बुद्ध और बुध्धू में ज़्यादा फ़र्क नहीं है|
लेक़िन आप बिफ़रने से बाज थोड़े ही आयेंगे | कहेंगे - क्या बात है - यह सरफिरा क्या ऊल-ज़लूल लिख रहा है - कहाँ महात्मा बुद्ध और कहाँ एक नाचीज़, गँवार, उल्लू का पट्ठा, बछिया का ताऊ, बिन सींग का बैल | राजा भोज और भजुआ तेली से भी ऊपर की तुलना | श्री राम श्री राम| इसने तो हद कर दी| सठिया गया है |
हाँ साहब, गौतम बड़े दुखी थे| राजकुमार थे, धन-संपत्ति थी, नौकर-चाकर थे, उम्दा महल में रहते थे, भोली-भाली एक अदद बीवी थी जो गौतम पर जान छिड़कती थी| एक प्यारा-सा बच्चा था - राहुल (पप्पू-सा प्यारा) | लेक़िन गौतम रोते रहते थे | ऐसे में कोई क्या कहे! ज़ाहिर है, ख़ब्ती थे| कभी भूखे न रहे थे, किसी ने उनके दिल में अपमान की छुरी नहीं भोंकी थी, किसी ने बेवज़ह दुरदुराया न था, किसी ने उनका मख़ौल नहीं उड़ाया था, किसी ने सरे-आम उनकी इज़्जत-आबरू के चीथड़े नहीं उछाले थे| अतः दुखी थे | वे फटेहाली चाहते थे और उन्हें मिल नहीं रही थी| आदमी को उसकी चाही चीज़, माँगी मुराद, न मिले तो दुखी होना लाज़िमी है| यदपीच्छति तन्न लभति इति दुःखम् |
यशोधरा अच्छी-भली औरत थी, विचारशील, विवेकशील, कुलीन, सुन्दर, और पूरी तरह गौतम के लिए समर्पित | गौतम ने ख़ुद को यशोधरा की झोली में दानस्वरूप डाल दिया था| वे ख़ुद अपने आप के नहीं, यशोधरा के थे|
क़िस्सा कुछ यूँ है कि गौतम के युवराज होने का समारोह मनाया जा रहा था| इस अवसर पर गौतम दिनभर दान देते रहे - जो याचक आया, खाली हाथ नहीं गया| शाम हो गयी और दान का कार्यक्रम समापन होने ही वाला था, कि एक ख़ूबसूरत लड़की अपना आँचल फैलाये कुछ माँगने चली आयी| गौतम ने आगे-पीछे दायें-बायें हर तरफ़ देखा| दान करने को कुछ नहीं दिखा और लड़की सामने आँचल फैलाये खड़ी थी| अब गौतम क्या करें| उन्होंने कहा - बाले, अब तो कुछ नहीं बचा है देने को, क्या दूँ? लड़की ने कहा - कैसे नहीं बचा कुछ? आप तो हो| और गौतम मुस्कुराये| बोले - जा, मैं ख़ुद को दान करता हूँ तेरे लिए | तो गौतम यशोधरा के हो गए |
समय बीतता गया और गौतम उत्तरोत्तर अधिक दुखी होते गए| जिसके करम में ही दुख लिखा हो उसे कौन सुखी बनाये| अपने नन्हें पप्पू (राहुल) और सोने-सी पवित्र पत्नी को सोता छोड़कर गौतम भाग खड़े हुए - बुद्ध बनने के लिए | जब वे ख़ुद अपने थे ही नहीं - अपने को राज़ी-ख़ुशी यशोधरा के लिए दान कर चुके थे - तो उन्हें पगहा तोड़कर भागने का क्या अधिकार था ?
यह बात गौतम को बड़ी देर में समझ आयी| जब आयी तो चल पड़े यशोधरा से भीख माँगने| मुझे ख़ुद मुझी को लौटा दे यशोधरा | बुद्ध की झोली में गौतम लौटा दे - कृपा कर | और यशोधरा ने लौटाया - सूद-समेत | ख़ुद को भी और अपने पप्पू को भी बुद्ध की झोली में डाल दिया| बुद्धत्व तो यशोधरा को मिलना चाहिए | बुद्ध तो जीवन भर हिसाब-क़िताब करते रहे |
लेकिन बुद्ध यशोधरा का बुद्धत्व नहीं समझ सके| वे सुजाता की खीर का स्वाद जानते थे, लेकिन यशोधरा की पीर को नहीं पहचान पाए | और यशोधरा गाती रही - वो हैं ऐसे बुध्धू ना समझे रे प्यार |

किसका पैसा कहाँ रहता है 
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ग़रीबों का पैसा ज़ेब में रहता है, उनसे अधिक संपन्न लोगों का पैसा आलमारी में रहता है, उनसे भी अधिक संपन्न लोगों का पैसा बैंक में रहता है, उनसे भी अधिक संपन्न लोगों का पैसा शेयर मार्केट में लगा रहता है, उनसे भी अधिक संपन्न लोगों का पैसा स्विस बैंक में रहता है| यहाँ तक पैसा नाम और व्यक्ति से जुड़ा होता है| इन लोगों से भी अधिक धनी लोगों का पैसा दूसरों के नाम रहता है और मात्र इशारे से चलता-फिरता और काम करता है| ऐसे लोग पैसा छूकर हाथ गंदा नहीं करते|


जो लोग कसरत करते रहते हैं उनकी शारीरिक शक्ति बरक़रार रहती है, जो दौड़ते रहते हैं वे दौड़ सकते हैं, जो पैसा जमा करते रहते हैं उनका पैसा ही पैसा कमाने लगता है| उसी तरह जो पढ़ते व लिखते रहते हैं वे बहुत तेज़ी से पढ़ सकते हैं, समझ सकते हैं, लिख सकते हैं|

पिछले चालीस-पचास साल में मेरा एक दिन भी (स्वस्थ रहते) शायद ही गया हो जब मैंने कुछ पढ़ा नहीं या कुछ (गंभीर रूप से) सोचा नहीं| शायद ही कोई सप्ताह ऐसा गया हो जिसमें मैंने कुछ लिखा नहीं| मैं 68 साल का हूँ, तीन वर्षों से रिटायर्ड जीवन जी रहा हूँ लेकिन पढ़ता-सोचता-लिखता रहता हूँ| कहते हैं, चोर चोरी छोड़ भी दे तब भी हेराफ़ेरी करना नहीं छोड़ता| मेरी वही हालत है|

मैंने देखा कि आज-कल बच्चों-बच्चों के हाथ में एंड्राइड मोबाइल है, वे आपस में फ़ोटो और लाइक क्लिक और इमोजी का आदान-प्रदान करते रहते हैं, बहुत एक्टिव हैं| उनके बीच ऐसा कोई नहीं जो उन्हें मानसिक और बौद्धिक क़वायद करना सिखलाये| हमारे जैसे बूढ़े लोग इन बच्चों से सम्पर्क करने में अपनी हेठी समझते हैं| वैसे अधिकतर बूढ़े लोग ख़ुद चुक गए हैं, कुछ लिख सकने की स्थिति में नहीं हैं| शायद उन्होंने पढ़ना-लिखना भी दशाब्दियों (decades) पहले छोड़ दिया है| चूँकि वे बच्चों को कुछ दे सकने की स्थिति में नहीं हैं, अतः बच्चों से बात करने में कतराते हैं|

मटरग़श्ती करने (आवारा घूमने), भटकने, जाने और चलने में क्या फ़र्क है? जब उद्देश्य या मंज़िल परिभाषित हो तो उस मंज़िल की तरफ़ चलना 'जाना' कहलाता है; उस मंज़िल की विपरीत दिशा में चलना 'भागना' कहलाता है| जब आदमी को मंज़िल का पता नहीं रहता या उसे सही रास्ते का ज्ञान नहीं रहता तो उसका चलना 'भटकना' कहा जाता है| निरुद्देश्य चलना 'मटरग़श्ती करना' कहलाता है|

मुझे दुख है कि हमारे प्रायः बच्चे या तो भटकते रहते हैं, या मटरग़श्ती करते रहते हैं| ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बूढ़े-बुजुर्ग़ उन्हें उदेश्य या मंज़िल नहीं दिखा पाते| वे अपनी अक्षमता को बच्चों के माथे मढ़कर, उन्हें बिगड़ा हुआ कह कर, अपना पल्ला झाड़ लेते हैं| यह (बड़े-बूढ़ों का) अपने कर्त्तव्यों से भागना है|

तो मैंने सोचा कि मैं अपने बच्चों से बातें करूँगा| फ़ेसबुक के ज़रिये बातें करूँगा| मेरी आदत अंग्रेज़ी में लिखने की है| मेरी हिंदी उतनी अच्छी नहीं है कि मैं अपने सारे कथ्य हिंदी में उड़ेल सकूँ| लेक़िन मेरे प्रायः बच्चे हिंदी में ही पढ़ना चाहते हैं| इसके लिए मुझे ख़ुद को बदलना पड़ा और मैं हिंदी में लिखने लगा|

उड़िया (भाषा) में एक गाना है जिसका अर्थ है - अपने मन की बहुत व्यथाएँ, अपने मन की बहुत कथाएँ, कहना चाहता हूँ किंतु कह नहीं पाता, फिर भी कुछ कहे विना रह नहीं पाता|

यही कथा, यही व्यथा जितना लिख पाता हूँ, लिख जाता हूँ| क्या पता, प्यार की शम्मां जले ना जले

शाही मनोग्रंथि
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मनोविज्ञान में मनोग्रंथि अवचेतन में घुसी हुई उन भावनाओं, यादगारों, नज़रियों और कामनाओं को कहते हैं जो किसी विषय में व्यक्ति को ऐसा व्यवहार करने के लिए लाचार कर देती हैं कि वे सुसुप्त कामनाएँ पूरी हों| इन मनोग्रंथियों का उल्लेख कार्ल युंग और सिग्मंड फ़्रायड ने खुल कर किया है| ये मनोग्रंथियाँ कुछ व्यक्तियों में पायी जा सकती हैं, लेकिन कभी-कभी यह पूरे समाज को ग्रस सकती हैं| सामाजिक स्तर पर इनका होना यह बतलाता है कि वह समाज पुश्त-दर-पुश्त, लम्बे समय - शताब्दियों - से उन प्रतिकूल परिस्थितियों में जीता रहा है, जिसमें इच्छाओं का दमन और ग़लत आदर्शों का प्रभुत्व एक आम बात हो| ये मनोग्रंथियाँ हमें इस तरह ग्रस लेती हैं कि हम सही आदर्शों एवं कर्त्तव्यों को दरकिनार कर देते हैं और इन मनोग्रंथियों के ग़ुलाम बन कर रह जाते हैं|
इन मनोग्रंथियों की लम्बी सूची है जिनमें कुछ-एक हैं: एडोनिस मनोग्रंथि; एंटिगोन मनोग्रंथि; अग्रज मनोग्रंथि; डॉन जुवान मनोग्रंथि; ग्रिसेल्डा मनोग्रंथि; हीरो मनोग्रंथि; केन मनोग्रंथि; सिंड्रेला मनोग्रंथि; पिता मनोग्रंथि; ईश्वर मनोग्रंथि; लोलिता मनोग्रंथि; शहीद मनोग्रंथि; इडिपस मनोग्रंथि; मसीहा मनोग्रंथि; नेपोलियन मनोग्रंथि बग़ैरह (पूरी जानकारी के लिए विकिपीडिया देखें)|
भारत में शाही मनोग्रंथि से ग्रस्त लोग भरे पड़े हैं| यह मनोग्रंथि ज़मींदाराना या बाबू-साहेब मनोग्रंथि भी कही जा सकती है| इस मनोग्रंथि का विकास हमारे हज़ारों वर्षों की ग़ुलामी का फल है जिसमें हमारा समाज सामंतों के आगे हाथ जोड़े खड़ा रहता था, अन्यायी सामंतों के गुण गाने के लिए मज़बूर था, उनके टुकड़ों पर पलता था, उनकी सनक को पूरा करता था| सामंत को दिखावे, फ़िज़ूलख़र्ची, मूल्यवान वस्त्रों इत्यादि का बहुत शौक़ होता था |
मानव मात्र में (पशुओं में भी) अपने से ऊपर वाले का अनुकरण करने की प्रवृत्ति पायी जाती है| इसलिए छिपे-छिपे ही सही, हर आदमी की तमन्ना होती थी कि अगर मौका मिले तो शाही व्यवहार किया जाये| लेकिन यह तमन्ना पूरी न हो सकने के कारण अंतर्मन में घुसकर मनोग्रंथि बन गयी| यह एक व्यक्ति के साथ नहीं, पूरे समाज के साथ हुआ|
इन्हीं कारणों से जब किसी व्यक्ति को कोई पद मिलता है - चाहे वह बड़ा भाई हो, मुखिया हो, पंच हो, स्कूल में हेडमास्टर हो, विभागाध्यक्ष हो, प्रिंसिपल हो, बैंक अधिकारी हो, मैनेज़र हो, वाइस-चाँसलर हो, एमपी हो, एमएलए हो, मंत्री हो, वह मौक़ा मिलते ही शाह हो जाता है| वह चाहता है कि लोग उसके इर्द-गिर्द हाथ जोड़े खड़े रहें, बात-बात पर उसकी प्रशंसा करें, उसके किसी काम में नुक्श न निकालें, आलोचना न करें| साथ ही, वह अपने कर्त्तव्यों को भूल जाता है और केवल दिखावा करने लगता है| इतना ही नहीं, जो व्यक्ति आज तक तलवे चाटता रहा हो, पर उसे ओहदा मिल जाये तो वह भी अपनी पुरानी दुर्दशा को याद करके सहृदय नहीं होता, वरन शाह हो जाता है और वही करने लगता है जो पहले उसे कतई पसंद नहीं था लेक़िन वह मज़बूर था|

On the Lordship Complex
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In psychology, a complex is a core pattern of emotions, memories, perceptions, and wishes in the personal unconscious organized around a common theme. Primarily a psychoanalytic term, it is found extensively in the works of Carl Jung and Sigmund Freud. A complex may sometimes be occurring to a few individuals, but at the others, it may be observed at a mass level, which is due to the generations of a particular people living in similar circumstances. In that case, it is more or less a Jungian archetypal characteristic of that particular people.
Complexes are very important. Jung writes: “Complexes can have us. The existence of complexes throws serious doubt on the naive assumption of the unity of consciousness, which is equated with 'psyche,' and on the supremacy of the will. Every constellation of a complex postulates a disturbed state of consciousness. The unity of consciousness is disrupted and the intentions of the will are impeded or made impossible. Even memory is often noticeably affected, as we have seen. The complex must therefore be a psychic factor which, in terms of energy, possesses a value that sometimes exceeds that of our conscious intentions, otherwise such disruptions of the conscious order would not be possible at all. And in fact, an active complex puts us momentarily under a state of duress, of compulsive thinking and acting, for which under certain conditions the only appropriate term would be the judicial concept of diminished responsibility.” [Jung, C.F. (1969). The Structure and Dynamics of the Psyche. Collected Works. 8. Princeton, N.J.: Princeton University Press.].
The list of such complexes is quite long. Some of them are: Adonis complex; Antigone complex; Brother complex; Don Juan complex; Griselda complex; Clytemnestra complex; Hero complex; Laius complex; Jehovah complex; Cain complex; Cinderella complex; Cleopatra complex; Diana complex; Father complex; God complex; Jonah complex; Inferiority complex; Jocasta complex; Medea complex; Medusa complex; Lolita complex; Oedipus complex; Madonna–whore complex; Martyr complex; Messianic/Messiah complex; Sister complex; Superiority complex; Orestes complex; Phaedra complex; Superman complex; Napoleon complex; Electra complex; Ophelia complex, etc. (see Wikipedia).
In India, the ‘Lordship Complex’ is more or less archetypal. A ‘lord’ refers to a feudal lord and that is why the lordship complex may also be translated as the ‘zamindar sahib complex’ or ‘Babu Saheb complex.’ This complex is repressed in an individual only as long as he does not have an authority. As soon as he gets an authority (legal, administrative, organizational, social, religious, academic or whatsoever), this complex becomes manifest and overpowering such that the person sets his duties aside (as an authority he exhibits a diminished responsibility, i.e. his sense of duty is compromised) and he starts behaving like a lord. The main symptoms are: (1) the others around him – the underdogs – should stand with folded hands waiting for the order of the lord; (2) he is beyond wrong and right – he always thinks right; (3) all others around him should praise him for whatever he does and be ready to perform clapping and applauding; (4) his sense of justice cannot be criticized or challenged; (5) he needs no advice that does not assuage his views; (6) his indulgence in a vain and wasteful consumption – pomp and show – is fully justifiable and only becoming of his status; (7) approaching him personally is his grace to the underdog and the latter should often wait on to visit him or to entertain him. There are other characteristics that reinforce the major symptoms mentioned above and may be case-specific.
At home, elder brothers (especially if he is much older than the younger brothers) often exhibit such symptoms. At educational institutions professors, heads of the department, deans, and Vice-Chancellors almost invariably suffer from this complex. At the administrative offices, almost all officers suffer from this complex. In politics, MPs, MLAs, Ministers, etc suffer from this complex.
The ‘Lordship Complex’ also has its corollary complex that may be called a ‘pet dog complex.’ This complex lies in wagging the tail and assuming the role of an underdog faced with a ‘lord’ mentioned in the ‘lord complex.’
The main reason for the evolution of this archetypal psyche or complex is our living under the lords for several millennia. We wanted to be like a lord (the instinct of imitating the powerful) but the desire remained suppressed generation after generation. In our mythology, it is said that Lakshman wanted to be an elder brother (which was fulfilled when he became Balaram, the elder brother of Krishna). This suppressed desire is so deep-rooted (in deep psyche or unconscious) that it comes to the surface whenever favorable conditions prevail.




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दान की महिमा - लेकिन दान भी विवेक के साथ, आँखें मूँद कर नहीं
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हमारे शास्त्रों में दान की बड़ी महिमा बतायी है, पर दान करते समय किन बातों पर ग़ौर किया जाय, इसके बारे में भी बतलाया है|
दान की बड़ाई करते हुए कहा गया है: 
१. ----------
चारित्रं चिनुते तनोति विनयं ज्ञानं नयत्युन्नतिं
पुष्णाति प्रशमं तपः प्रबलयत्युल्लासयत्यागमम् ।
पुण्यं कन्दलयत्यघं दलयति स्वर्गं ददाति क्रमात्
निर्वाणश्रियमातनोति निहितं पात्रे पवित्रं धनम् ॥
मतलब है: (सु) पात्र में रखा हुआ (दिया हुआ) धन चरित्र बनाता है, विनय फैलाता है, ज्ञान की उन्नति करता है, प्रशम को पुष्ट करता है, तप को प्रबल बनाता है, वेद के ज्ञान को उल्लासित करता है, पुण्य का फल देता है, पाप का नाश करता है, स्वर्ग दिलाता है, और क्रमशः निर्वाण की शोभा दिलाता है ।
२. .......
सुपात्रदानात् च भवेत् धनाढ्यो
धनप्रभावेण करोति पुण्यम् ।
पुण्यप्रभावात् सुरलोकवासी
पुनर्धनाढ्यः पुनरेव भोगी ॥
सुपात्र को दान देने से, इन्सान धनवान बनता है; (फिर) धन के प्रभाव से पुण्यकर्म करता है; पुण्य के प्रभाव से उसे स्वर्ग प्राप्त होता है; और फिर से धनवान और फिर से सुख-भोग प्राप्त करता है ।
३. लेक़िन सभी दान अच्छे फल नहीं देते|
कुपात्र दानात् च भवेत् दरिद्रो
दारिद्र्य दोषेण करोति पापम् ।
पापप्रभावात् नरकं प्रयाति
पुनर्दरिद्रः पुनरेव पापी ॥
कुपात्र को दान देने से दरिद्री बनता है । दारिद्र्य दोष से पाप होता है । पाप के प्रभाव से नरक में जाता है; फिर से दरिद्री और फिर से पाप होता है ।
४. ......
मायाहंङ्कार लज्जाभिः प्रत्युपक्रिययाऽथवा ।
यत्किञ्चिद्दीयते दानं न तध्दर्मस्य साधकम् ॥
माया से, अहंकार से, लज्जा से या बदला लेने की भावना से जो कुछ भी दान दिया जाता है, उस दान से धर्म नहीं साधा जाता ।
५. अयाचित (विना माँगे) दिया हुआ दान उत्तम होता है, पर याचित (माँगा हुआ) दान मध्यम श्रेणी का होता है|
उत्तमोऽप्रार्थितो दत्ते मध्यमः प्रार्थितः पुनः ।
याचकै र्याच्यमानोऽपि दत्ते न त्वधमाधमः ॥
उत्तम (मनुष्य) मांगे बगैर देता है, मध्यम मांगने के बाद देता है; पर, अधम में अधम तो याचकों के मांगने पर भी नहीं देता ।
दान करें, पर सोच समझ कर करें| दान करने में भी विवेक की आवश्यकता है|
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कर, मूल्य, दान और अपरिहार्य विमोचन
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समाज में संसाधनों (resources) का वितरण (distribution) चार रूपों में होता है (१) कर, (२) मूल्य, (३) दान, और (४) अपरिहार्य विमोचन (unavoidable passage).
१. कर के पीछे प्रायः डर छिपा रहता है| कर का न देना अनपेक्षित दिक्क़तों का आह्वान है क्योंकि यह सत्ता को दी गयी चुनौती है|

२. मूल्य के बदले बांछित वस्तु या सेवा की प्राप्ति होती है, इसमें डर नहीं, वरन सहमति होती है|
३. दान में कोमल भावनाएँ होतीं हैं, कर्त्तव्य-बोध होता है, प्रत्युपकार की लालसा नहीं होती|
४. अपरिहार्य विमोचन में प्राकृतिक विवशता होती है; डर, सहमति, कोमल भावना या कर्त्तव्य-बोध नहीं होता| जब कोई व्यक्ति मरता है तो उसका सारा धन किसी दूसरे का हो जाता है क्योंकि ऐसा होना अपरिहार्य है|
इन चारों रूपों से वितरित संसाधनों का एक सामाजिक प्रभाव होता है, समाज की धृति पर, स्थिति पर, कार्य-कुशलता पर, विकास पर, और न्याय पर| अगर वितरण समाज के लिए लाभकारक है तो वह उत्तम है, चाहे वह कर के द्वारा, मूल्य के द्वारा, दान के द्वारा या अपरिहार्य विमोचन के द्वारा हुआ हो| लेक़िन अगर वितरण का प्रभाव (चाहे वह किसी माध्यम से हुआ हो) समाज के लिए हानिकारक हो तो वह अशुभ है|
अतः कर, मूल्य, दान या अपरिहार्य विमोचन अपने आप में न अच्छे होते हैं, न बुरे| अच्छाई या बुराई का निर्णय उनके सामाजिक प्रभावों से होता है|
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क्या विद्या सबसे बड़ा धन है? अगर हाँ, तो किसके लिए?
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हमें बचपन से ही मालूम है कि विद्या सबसे बड़ा धन है| विद्वान को राजा से भी बड़ा कहा गया है - स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान् सर्वत्र पूज्यते (राजा की पूजा तो अपने देश में ही होती है लेकिन विद्वान् की पूजा हर ज़गह होती है)| यह दीगर बात है कि उस ज़माने में ब्राह्मण विद्वान होते थे और हर कहानी में वे दरिद्र नहीं तो ग़रीब जरूर होते थे| अश्वत्थामा दूध पीने के लिए छटपटाता था, और द्रोण आँसू पीकर छटपटाते थे| एक गाय माँगने द्रुपद के यहाँ चले गए थे, और अपमान का विष पीकर ख़ाली हाथ घर लौट आये थे| इसमें क्या शंका कि द्रुपद ने द्रोण जैसे विद्वान ब्राह्मण की पूजा की| लेकिन जब उसी द्रोण ने भीष्म के घर नौकरी कर ली, तो द्रुपद को नाकों चने चबाने के लिए मज़बूर कर दिया|

न चौरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी । व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् | चोर चुरा नहीं सकते, राजा छीन नहीं सकता, भाई बाँट नहीं सकते और ढोने की भी ज़रूरत नहीं| और मज़ा तो यह कि जितना ख़र्च करो, बढ़ेगी, ज़रा भी नहीं घटेगी| तभी तो विद्या सब धनों से बड़ा धन है|

हमारे गांव के पंडित मूलनाथ त्रिपाठी जी ब्राह्मण थे अतः विद्वान भी थे और ग़रीब भी| उनके दो बेटों में, सुधाकर त्रिपाठी पढ़-लिख गए, पर दिवाकर त्रिपाठी पढ़ने के वजाये ताश खेलने, गाँजा पीने, और तिकड़म बैठाने में माहिर निकले| सुधाकर त्रिपाठी विद्वान होने की वज़ह से एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी पा गए; सुबह-ओ-शाम ट्यूशन करके कुछ अतिरिक्त आय का इंतजाम भी कर लेते थे| इधर दिवाकर ने जुए के जीते पैसे से कुछ ज़मीन ख़रीद ली और कुछ पूँजी लगाकर एक दूकान भी कर ली| दूकान में प्रत्यक्षतः चावल, दाल, आटा बिकता था और परोक्षतः गाँजा| दिवाकर का कुछ धन लहना पर भी चलता था| फलतः दिवाकर संपन्न हो गया, उसका घर भी पक्का हो गया| दूसरी तरफ़ सुधाकर त्रिपाठी झोपड़ी में रह कर सुबह-शाम सरस्वती और लक्ष्मी बंदन करते रहे और दिवाकर की चरित्रहीनता पर खीजते रहे|

भगवान की मर्जी कुछ ऐसी हुई कि दोनों भाई, सुधाकर और दिवाकर, एक बारात में गए| लौटते वक़्त बस उलट गयी| कुछ लोग बचे, घायल हुए पर पाँच लोग मर गए| मरने वालों में सुधाकर और दिवाकर दोनों भाई थे| उनके घर में कुहराम मच गया| ख़ैर, जो हुआ सो हुआ| श्राद्ध संपन्न हुआ|

सुधाकर जी विद्या छोड़कर और कुछ जमा नहीं कर पाए थे| बच्चे छोटे-छोटे थे| लेकिन दिवाकर का घर भी बड़ा था, दूकान भी चलती रही| ज़मीन से खाने लायक़ अनाज़ आ ही जाता था| बच्चे छोटे-छोटे थे लेकिन दिवाकर की पत्नी ने दूकान, लहना और पूरा घर संभाल लिया| सुधाकर जी की पत्नी ने उनका रसोई-बर्तन, झाड़ू-बुहारू सब संभाल लिया; वैसे वह और उसके बच्चे अपनी झोपड़ी में ही रहते थे| लाख कहने पर भी वह देवर के मकान में रहने नहीं आयी|

न चौरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी | पक्का| लेकिन सुधाकर के मरते ही सारी विद्या उन्हीं के साथ चली गयी| पत्नी और बच्चों के लिए कुछ नहीं छोड़ सके| दिवाकर ज़मीन, घर, दूकान और लहने पर लगी पूँजी अपने बीबी-बच्चों के लिए छोड़ गया|

इसीलिए कौटिल्य ने लिखा था - अर्थकरी च विद्या (अर्थागमो नित्यमरोगिता च प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च । वशश्च पुत्रोऽर्थकरी च विद्या षड्जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥)| जो विद्या भौतिक धन न दे सके वह निरर्थक है| मैं भी कहना चाहूँगा - अजागलस्तनस्येवा विद्यार्थागमनिष्फला (जो विद्या धन न दे सके वह बकरी के गले में लटके स्तनों की तरह निष्फल है)|

दरिद्रता विद्वत्ता में दाग़ लगाती है| कृष्ण अगर सुदामा के पैर धोकर उन्हें यूँ ही लौटा देते, या द्रुपद द्रोण को एक दुधारू गाय दे देते तो आज हम दूसरी कहानियाँ सुनते|
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क्या हमारे शास्त्र हमें उलझाते नहीं हैं ?
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आप नीचे लिखे शास्त्रीय नीति-उपदेशों पर एक नज़र दें|

(१). भाग्यं फलति सर्वत्र न विद्या न च पौरुषं (भाग्य ही घटित होता है, विद्या या पौरुष - प्रयत्न और मेहनत - किसी काम में नहीं आते)| 
(२). उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी दैवं हि दैवमिति कापुरुषाः वदन्ति (उद्योगी, प्रयास करने वाले व्यक्ति की ही उन्नति होती है, केवल नक्कारे ही भाग्य-भाग्य चिल्लाते हैं)| 
(३). कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः (कर्म करना तुम्हारे वश में है, उसका फल कतई नहीं)
(४). अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभाशुभम् (किये हुए कर्म - शुभ हों या अशुभ - भोगने ही पड़ेंगे)| 
(५). अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच (मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत कर)

ऊपर (१) मैं भाग्य सब-कुछ है प्रयत्न कुछ नहीं; (२) में प्रयत्न सब-कुछ है, भाग्य बकवास है; (३) में हम कर्म करते रहें - फल मिले न मिले इसकी चिंता छोड़ दें; (४) में कर्म का फल मिलेगा ही, और (५) में वे आपको माफ़ कर देंगे, कुकर्मों का फल नहीं भोगने देंगे|

आप ही बतलाइये, बेचारा आदमी किसके ऊपर विश्वास करे? अपनी बुद्धि लगाइये, अपने विवेक से काम कीजिये| शास्त्रों में बहुत मिलावट है - इसमें आधा तेल है और आधा पानी है| नक्क़ालों से सावधान| अपने माल की हिफाज़त आप करें| पीछे न लटकें| ओके टाटा| फिर मिलेंगे|
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कर्म, भाग्य और प्रारब्ध
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कर्म: कर्म किसी व्यक्ति के द्वारा सम्पादित उन शारीरिक, मानसिक व अनजाने में अंजाम दी गयी चेष्टाओं व क्रियाओं का नाम है जो व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक या परिवेशीय स्थितियों को बदलते हैं (expressly effective) या बदल सकते (potential) है| कर्म का सोद्देश्य (purposeful) या स्वैच्छिक (willful) होना आवश्यक नहीं है| हर कर्म का फल होता है जो तत्काल या कुछ समय के बाद, अकेले-अकेले या अन्य प्रभावों से जुटकर समाज एवं परिवेश पर घटित होता है| यह फल मुख्यतः करने वाले व्यक्ति को मिले यह ज़रुरी नहीं है, लेक़िन यह समाज और परिवेश को ज़रूर मिलता है| कृष्ण ने कहा था - अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभाशुभं| लेक़िन ध्यातव्य है - केन भोक्तव्यं? क्या केवल करने वाला व्यक्ति भोगेगा? नहीं| अवश्यमेव भोक्तव्यं - समाजेन परिवेशन च| मैं आम के पेड़ लगाऊँ तो मैं फल भी खाऊँ यह आवश्यक नहीं है| मैं चुपके-चुपके आपके घर में आग लगा दूँ तो आवश्यक नहीं कि मेरा घर भी जले| लेक़िन समाज में किसी का घर ज़रूर जलेगा| आज काश्मीर की समस्या मुँह बाये खड़ी है और हमारे जवानों को रोज़ छिट-पुट निग़ल रही है| क्या हमारे जवानों के कर्म ऐसे हैं कि वे गोलियाँ खाकर मरें?
भाग्य: भाग्य उन परिस्थितियों का नाम है जो किसी व्यक्ति को विना किये मिलता है| व्यक्ति को समाज के दिए हुए परिवेश में जीना पड़ता है| किसी व्यक्ति के किये हुए कर्म समाज में दूसरे व्यक्तियों का भाग्य बनाते हैं| एक धनी व्यक्ति के बच्चे जन्म लेते ही (या जन्म लेने के पहले भी) संपन्न और सुविधा-युक्त हो जाते है| ग़रीब माँ के पेट में पलता गर्भ भी कुपोषण का शिकार हो जाता है| नाक़ाबिल नर्सों व डॉक्टरों की ग़लतियों से कितने ही बच्चे मर जाते हैं या अपंग हो जाते हैं| समाज ही व्यक्ति का भाग्य लिखता है| जिस समाज में अधिकतर लोग अच्छे हैं, कर्मठ हैं, विचारवान हैं, सहृदय हैं, उसमें रहने वाले व्यक्ति का भाग्य अच्छा होता है| शास्त्रों में अच्छा कर्म करने की बात इसलिए की गयी है कि अगर बहुत लोग अच्छा कर्म करेंगे तो सबका भाग्य अच्छा होगा| एक अच्छे समाज में लावारिश, विकलांग, अपाहिज़ और कर्म कर सकने में अक्षम व्यक्ति भी जी सकेगा| महिलाएँ निरापद होकर आ-जा सकेंगी| आँख लगते ही डिब्बा गोल नहीं होगा| एक थका-मांदा आदमी प्लेटफॉर्म पर सो गया और अपनी गठरी की हिफ़ाज़त अपने-आप नहीं कर पाया| अगर उसका भाग्य अच्छा है (दूसरे लोग चोरी-चकारी नहीं करते) तो उसकी गठरी, उसके हिफ़ाज़त न कर सकने के बावज़ूद, सही-सलामत रहेगी| आज इंग्लैंड-अमेरिका के लोगों का भाग्य अच्छा चल है| कुछ दश-शताब्दियों (millennia) पहले भारत में भी लोगों का भाग्य अच्छा हुआ करता था| सन १९४३ में बंगाल में लाखों लोग भूखे मर गए, हालाँकि सरकारी गोदाम में अन्न भरा पड़ा था| अंग्रेजों और उनके पिठठू भारतीय कर्मचारियों के कर्म लाखों निर्दोष लोगों के भाग्य (मौत) बन गए| लाइनमैन या स्टेशन-मास्टर की लापरवाही से हुई दुर्घटनाएँ कितने ही यात्रियों और उनके परिवार के सदस्यों के भाग्य बदल चुकी हैं|
प्रारब्ध: फिर भी, आदमी के हाथ में सब कुछ नहीं होता| प्रकृति आदमी के हित अनहित की चिंता किये विना अपना काम करती है| कर्म और भाग्य के नियम मूलतः समष्टि के नियम हैं जो पूर्ण रूप से व्यष्टि का निर्णय नहीं करते| एक आकस्मिक अनियमता (randomness) प्रकृति का स्वभाव है| यही प्रारब्ध है| इसपर किसी का वश नहीं चलता| यह अज्ञेय है|
तो आइये, हम कर्म करें, समाज का भाग्य बनाएँ|
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आराध्या त्रिदेवियों की पूजा
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हमारी सभ्यता में तीन महादेवियों की पूजा होती है, दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती|

दुर्गा शक्ति - शारीरिक पूँजी (endosomatic capital) का प्रतीक है - हम देवी-सप्तशती में पढ़ते है किस तरह उन्होंने विष्णु को मधु-कैटभ से युद्ध करवा कर, उन्हें मरवा कर सृष्टि (सृष्टि-कर्त्ता ब्रह्मा) की रक्षा की, किस तरह युद्ध में महिषासुर को मारा, किस तरह शुम्भ-निशुम्भ का वध किया| हम यह भी पढ़ते हैं कि शक्तिरूपा दुर्गा कैसे सभी देवताओं की मिली-जुली शक्तियों का प्रतीक थी, सामाजिक एकता का प्रतीक थी जिसने अन्याय के विरोध में हथियार उठाया था|
लक्ष्मी शक्ति भौतिक पूँजी (exosomatic capital) का प्रतीक है, धन-धान्य, ज़ेवरात, रुपया-पैसा का प्रतीक है| शारीरिक शक्ति के द्वारा जीव-जन्तुओं और दानव-मानव दुश्मनों से लड़ा जा सकता है, किन्तु भूख से, ग़रीबी से लड़ने के लिए लक्ष्मी की कृपा चाहिए|
सरस्वती बौद्धिक पूँजी (intellectual/cultural capital) का प्रतीक है| यह हमें ज्ञान देती है, शारीरिक पूँजी और भौतिक पूँजी को सही तरीक़े से इश्तेमाल करने का गुर सिखलाती है| अगर यह गुर न आये तो शारीरिक एवं भौतिक पूँजी का सही-सही उपयोग नहीं किया जा सकता| सरस्वती हमें अज्ञान से, भ्रम से, दुराग्रह से, मूर्खता से लड़ने की शक्ति देती है|
अकेले-अकेले ये शक्तियाँ काम नहीं करतीं | इसीलिए हम देखते हैं कि इनकी पूजा साथ-साथ होती है - यह स्वास्थ्य, सम्पत्ति और ज्ञान की एकजुट पूजा है|
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तन्हाई में बढ़े हाथों की कहानी 
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बहुत बार हाथ बढ़ाये | हर बार मेरे हाथों को बयार ने चूमा और कहा कि ऐ नादान इंसान, करना ही है तो हवाओं से मुहब्बत कर| वो तुम्हें हर घड़ी साथ देगी, मरते दम तक साथ देगी और तेरे मरने के बाद भी तेरी याद में रोएगी|

मेरे बढ़े हाथों को रौशनी ने सहलाया और कहा कि ऐ नेक बन्दे - देखना ही है तो मेरी ओर देख| मैं फूलों में रंग भरती हूँ। मैं पौ फटने के साथ ही तुम्हे जगा दिया करुँगी - तेरे साथ मीठी-मीठी बातें करुँगी, तुझे मुस्कराने के पहले शरमाने वाली कलियों के बीच ले जाऊँगी, तुम्हें चिड़ियों के गाने सुनवाऊँगी|

मेरे बढ़े हाथों को सुबह के कोहरे ने हौले-हौले छुआ और कहा कि ऐ दोस्त, मेरे साथ चल| मैं तुझे उन वादियों में ले चलूँगा जहाँ तेरे और मेरे सिवा कोई और नहीं होगा| ओ दुनियाँ की रुखाई और बेरुख़ी से घायल दोस्त, मेरी आँखों की ओर देख, इसमें तेरे लिए कितनी नमी है, कितनी हमदर्दी है|

मेरे बढ़े हाथों को देखकर शबनम रो पड़ी और कहा कि ऐ भोले आशिक़, मेरी ओर देख| वैसे तो में तेरी आँखों में हूँ, लेकिन जब आँखें मेरा बोझ ढो नहीं पाती तो मैं कोपलों पर बिखर जाती हूँ| मैं बिखरी हुई जज़्बात हूँ, मेरे दोस्त, मुझमें यादों के मोती छुपे हैं| मेरे क़रीब आओ और उन मोतियों का नूर देखो, ख़ुद-ब-ख़ुद सारे दर्द फ़ना हो जायेंगे|

मेरे बढ़े हाथों को चाँदनी ने आहिस्ता-आहिस्ता छुआ और कहा कि पगले ..
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हमारे बुद्धिजीवी 
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यह दुखपूर्ण बात है और चिंता का विषय है कि वर्तमान पीढ़ी के बुद्धिजीवी (intelligentsia), ख़ास करके शिक्षण में कार्यरत बुद्धिजीवी, केवल अभिधा समझते हैं, पर लक्षणा और व्यंजना नहीं समझते| पिछले सात दशकों में जो विज्ञानं पढ़ने के लिए आधाधापी हुई, शायद यह उसी का फल है, या फिर शिक्षा-क्षेत्र को चारागाह बना डालने की नीति का यह परिणाम है कि 'मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति' की उक्ति चरितार्थ हो रही है| यह विडंबना है कि एक तरफ़ तो so-called शिक्षितों की संख्या बढ़ रही है, दूसरी तरफ़ भाषा ने अपनी सम्प्रेषण-शक्ति का दो-बटा-तीन हिस्सा खो दिया है| ध्यातव्य है कि विचारों की भाषा बहुतायत में लक्षणा और व्यंजना होती है न कि अभिधा| अभिधा का क्षेत्र इन्द्रिय-गम्य जगत है, जब कि विचारों की दुनियाँ बुद्धि-गम्य होती है, इन्द्रिय-गम्य नहीं| अतः लक्षणा और व्यंजना को नहीं समझ पाना और साथ-ही बुद्धिजीवी रहना विरोधाभास (oxymoron) है| ज़ाहिर है कि तथा-कथित बुद्धिजीवियों में अधिकतर समय-जीवी, लगान-जीवी, भ्रम-जीवी, श्रमजीवी या विद्याप्रमाणपत्र-जीवी हैं|

यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि समय-जीवी वे हैं जो इसलिए तनख़्वाह पाते हैं कि वे कुछ करें या न करें, चाहे उनकी कार्यक्षमता धेले-भर न हो, लेक़िन वे (किसी संस्था को) अपना समय देते हैं| वे time servers हैं|  लगान-जीवी वे हैं जो इसलिए तनख़्वाह पाते हैं कि संस्था (किसी भी कारण से) उन्हें नियुक्त कर बैठी है और उनको हटा पाना संभव नहीं है| भ्रमजीवी वे हैं जो इसलिए तनख़्वाह पाते हैं कि वे इस भरम को सफलता-पूर्वक फैला चुके हैं कि संस्था (या समाज) उन्हें क़ाबिल समझती है, हालाँकि वे पूरे गोबर-गणेश हैं| श्रम-जीवी वे हैं जो अनुमांसपेशी-गत (infra-muscular) श्रम करते हैं (जैसे क़िताब में लिखी बातों को ब्लैकबोर्ड पर लिखना, सरसरी निग़ाह डालकर कॉपियां जाँचना, बग़ैरह)| विद्याप्रमाणपत्र-जीवी वे हैं जिन्हें तनख़्वाह इसलिए मिलती है कि उनके पास विद्या पाने का मान्य प्रमाणपत्र होता है (चाहे विद्या हो, न हो)|

अर्थशास्त्र में एक बड़े काम का विचारबिंदु या कॉन्सेप्ट (concept) है जिसे Leontief Paradox में स्थापित किया गया| श्रम और श्रमिक में फ़र्क है| श्रमिकों की संख्या अधिक भी हो तब भी अगर उनकी कार्यक्षमता कम है तो सफल श्रम कम ही होगा, अतः अनेक श्रमिक भी कम उत्पादन करेंगे| यही बात भारत में लागू है| तथाकथित बुद्धिजीवियों की संख्या तो बड़ी है, लेकिन उनकी कार्यक्षमता बहुत घटिया है| हमारे विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय अनवरत तथाकथित बुद्धिजीवियों की संख्या को बढ़ा रहे हैं और ऐसे बुद्धिजीवियों की बुद्धि अक़्सर चारागाह में घास चरती रहती है| इसीलिए तो उन्होंने चरवाहा विश्वविद्यालय की स्थापना की बात की थी और ढोरों के लिए चारे की व्यवस्था करने का प्रयास किया था| लेकिन कोई क्या करे! आदमी प्रयास करता है - फल देने वाला तो ईश्वर है (Man proposes, God disposes)|
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जहाँगीर ने बकरी तक को इंसाफ़ दिया
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झूठ या सच - कहते हैं कि उन दिनों जहाँगीर के सच्चे इंसाफ की धूम मची हुई थी|

एक ग़रीब बूढ़ी बकरी ने किसी इंसान को मनाकर अपने लिए घंटा बजवाया| मुख्य-द्वार पर खड़े दरवानों को समझा-बुझा कर किसी तरह बकरी बादशाह के सामने पेश हुई|

बादशाह बकरी को न्यायार्थी देखकर हँसे और उस पर किये गए अन्याय के बारे में पूछा| बकरी ने शिकायत की कि जहाँपनाह, उसकी जवान और ब्याहता बेटी को कुछ आदमी जबरदस्ती उठा ले गए हैं - मालूम नहीं उसके साथ क्या सुलूक़ करेंगे| वह ज़्यादा चिंतित इसलिए भी है कि उसकी बेटी पेट से है - कहीं बेचारे बच्चे न मारे जाएँ|

बादशाह ने कहा कि पहले अपने दामाद को हाज़िर करो| दामाद तक ख़बर पहुंचाई गई| बेचारा भागा-भागा दरबार में हाज़िर हुआ|

बादशाह ने बकरे (दामाद) को पूछा - अबे, तू अपनी बीबी को मैके में छोड़ कर कहाँ मटरगश्ती कर रहा था? बेचारे बकरे ने बतलाया कि हुज़ूर, मैं भी अगल-बग़ल में घास चर रहा था| मेरी बीबी को उठाने वाले आठ आदमी थे| उनके आगे मेरी क्या चलती|

बादशाह ने फ़रमाया - ओ, बकरे - आठ सिपाहियों को साथ ले और अपनी बीबी को ढूँढ ला| उसकी भी सुन लूँ कि उसके ऊपर क्या गुज़री| विना उसके बयान के मुक़दमा कमज़ोर पड़ेगा|

बकरा सिपाहियों के साथ अपनी बकरी को ढूँढने बाहर निकला| बाहर निकलते ही सिपाहियों ने बकरे की सुरक्षा को मद्दे-नज़र रखते हुए उसे अपने पेट में रख लिया| फिर वे बकरी को ढूँढने लगे| उन्हें ज़ल्द ही पता लगा कि बकरी तो मर चुकी है|

एक महीना बाद, बादशाह को बकरी की याद आयी| उन्होंने सिपाहियों को बुलाया और तहक़ीक़ात की| सिपाहियों ने बतलाया कि हुज़ूर बकरा तो उसी रात मालूम नहीं कहाँ भाग गया| लगता है, बकरी को अगवा करने में उसका भी हाथ था| बकरी मर चुकी है - क्या मालूम कि उसकी जुबाँ को बंद रखने के लिए बकरे ने उसका क़त्ल कर दिया हो और डर कर रफ़ूचक्कर हो गया हो|

बादशाह बकरे पर आग-बबूला हो गए| उन्होंने कहा - जहाँगीर का सच्चा इंसाफ़ - ख़ून का बदला ख़ून| सिपाहियों, बकरे को ढूँढो, और जहाँ भी मिले, उसे मार कर खा जाओ|

फिर बादशाह ने बूढ़ी बकरी को बुलाया और कहा कि हमारे सिपाहियों ने रिपोर्ट दिया है कि तेरा दामाद तेरी बेटी को अगवा करने में हमराज़ था और असलियत खुल जाने के डर से उसने तुम्हारी बेटी के साथ नापाक़ हरक़तों के करने के बाद (जिसका पूरा ब्यौरा रिपोर्ट में है) उसका क़त्ल कर दिया| तेरे दामाद को सजाएमौत दी गयी| जा, जश्न मना और सबसे कह कि जहाँगीर के दरबार में ख़रा इंसाफ़ होता है|
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जहाँगीर का इंसाफ़ 
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झूठ या सच मालूम नहीं - कहते हैं कि जहाँगीर (बादशाह) के मन में आया कि वह अपना नाम उन बादशाहों की लिस्ट में ले आये जो न्याय करने के लिए मशहूर हैं (जैसे विक्रमादित्य)| 
जहांगीर ने अपनी मंशा अपने मंत्रियों को बतलायी| सबने एकमत उत्तर दिया कि यह करने की क्या ज़रूरत है - न्याय देने के लिए तो न्याय-विभाग है ही, सबकुछ ठीक-ठाक चल ही रहा है - फिर ये सरदर्द लेने के लिए जहाँपनाह क्यों उतावले हैं? कोई शिकायत हो तो बतलायें - शिकायत दूर की जाएगी| लेकिन जहाँगीर नहीं माना|

बेचारी नूरजहाँ ने भी बहुत समझाया| कहा कि हुज़ूर तो सारी सल्तनत मुझे देकर, थोड़ी कबाब और एक अद्धे बोतल शराब पर ख़ुश थे, अब क्या हो गया जो आपके सर पर विक्रमादित्य बनने का भूत सवार हो गया है? हुज़ूर कहें तो शराब अद्धे की वजाये पूरी बोतल या दो बोतलें कर दी जाये| लेकिन जहाँगीर नहीं माना|

जहाँगीर के हुक़्म के मुताबिक़ क़िले के मुख्य द्वार पर एक सोने का बड़ा-सा घंटा लटका दिया गया| न्याय माँगने वाले इस घंटे को बजाते, और रात हो कि दिन, ज़हाँगीर उसे अंदर बुला लेते, उसकी सुनते और जो सही होता वह फ़ैसला कर देते| फ़ैसले की तामील होती और हर शिकायती को इंसाफ़ मिल जाता| अब जहाँगीर ख़ुश था - लेकिन राज-कर्मचारियों पर बोझ बहुत बढ़ गया| वज़ह यह कि पूरे दिन-रात में पचासों वार घंटा बजता था|

तंग आकर राज-कर्मचारियों ने नूरजहाँ से इस समस्या का हल माँगा| नूरजहाँ ने कहा कि घंटे के पास पाँच मुस्टंडे सिपाहियों को बैठा दो| आज्ञा दो कि जो घंटा बजाने आयें उन्हें घंटे तक पहुंचने के पहले ही बेरहमी से पीट डालें| न घंटा बजेगा और न बादशाह तक बात पहुँचेगी| कर्मचारियों ने तुरंत ही इस सलाह को कारगर किया| घंटा बजना बंद हो गया|

जब पूरे रात-दिन घंटा नहीं बजा तो जहाँगीर कुछ हैरान हो गया| उसने नूरजहाँ से पूछा - क्यों बेग़म, यह घंटा क्यों नहीं बज रहा है? नूरजहाँ तो उत्तर लिए बैठी थी| कहा, कि हुज़ूर के इंसाफ ने इतनी धूम मचाई कि डर के मारे लोगों ने अन्याय करना ही छोड़ दिया| सब तरफ़ अमन-चैन है| जब कोई शिकायत ही नहीं रही तो कोई घंटा क्यों बजाये| अब हुज़ूर अपने पुराने ढ़र्रे पर आ जाएँ, क़बाब और शराब न जानें कब से हुज़ूर की ख़िदमत करने के लिए इंतज़ार में हैं|

ज़हाँगीर निहाल हो गया| लेकिन दरबारी लोग पूछ बैठे - अब उस घंटे का क्या करें, जहाँपनाह? जहाँगीर ने हुक्म दिया - घंटे को काट-कूट कर तुम लोग आपस में बराबर-बराबर बाँट लो| दरबारियों ने हुक़्म की तामील की|

इसीलिए न्याय पाने के वास्ते अगर एक जमाना लगे और न्यायार्थी के पैर के जूते घिस जाएँ, वकीलों की फ़ीस दे-दे कर उसकी ज़मीन-ज़ायदाद बिक जाये और ज़ोरू के गले का मंगलसूत्र तक गिरबी रख दिया जाये - तो लोग ख़ुद-ब-ख़ुद न्याय माँगने नहीं आयेंगे| इंसाफ करने का यह तरीका बहुत क़ामयाब रहा है|
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धर्मो रक्षति रक्षितः 
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अपने एक अज़ीज़ दोस्त ने एक बड़ा अहम सवाल पूछा है: "धर्म हमारी रक्षा करता है या हम धर्म की रक्षा करते हैं?". मैं कोई ज्ञानी आदमी नहीं हूँ - लेकिन अपनी मति के अनुसार जो सोचता हूँ वह नीचे लिख रहा हूँ| आप भी सोचिये|

पहली बात: धर्म कहते किसे हैं? धर्म उन सारे विचारों और कर्तव्यों/कार्यों का समवाय (organic whole) है जिससे समाज को सामंजस्य (balance) , स्थिरता (stability) , कुशलता (efficiency) ,विकास (development) और न्याय (justice) मिलते हैं| इन चीज़ों के तीन पहलू हैं - भौतिक (फिजिकल और मटेरियल), बौद्धिक (इंटेलेक्टुअल) और पराबौद्धिक या आध्यात्मिक (स्पिरिचुअल)| धर्म इस समन्वय को कहते हैं|

धर्म के इतने व्यापक रूप को समझना बहुत कठिन है| इसलिए व्यवहारिकता के लिए चार उपदेश हैं| (१) देखो, आदर्श लोगों ने क्या किया है| आदर्श लोग अधिक सुलझे, दूरदृष्टि वाले, भले और समाज के हितचिंतक होते हैं| भरसक, उनका अनुगमन करो| (२) देखो, पढ़ो, चिंतन करो कि शास्त्रों में क्या लिखा है| उनके सार को समझो, सीठी को मत पकड़ो, और उन्हें अपने जीवन में लाओ| (३) कोई नहीं जानता कि तुम्हारे सोचने और करने का असर समाज के हित में होगा कि नहीं - वे समाज के सामंजस्य, स्थिरता, कुशलता, विकास और न्याय के अनुकूल होंगे या प्रतिकूल| अंतिम फल तुम्हारे हाथ में नहीं है| लेकिन भावनाओं को, नीयत को, पवित्र रखो| नीयत महत्वपूर्ण है| (४) विवेकवती आस्था रखो - आस्था सही कर्तव्य के विवेचन और ज्ञान के लिए मददगार है| लेक़िन आस्था का अर्थ अंधभक्ति नहीं है| आस्था को विवेक से विहीन मत करो| आस्थाहीन विवेक मूलहीन है और विवेकहीन आस्था बाँझ होती है| ऊपर के तीनों (आदर्श लोगों का अनुकरण, शास्त्रों का अनुशीलन और नीयत की अच्छाई) व्यवहारों को विवेक से परिमार्जित करो, क्योंकि उन तीनों में विरोध या विरोधभास हो सकता है|

दूसरी बात: धर्म की रक्षा कैसे होती है, इसकी रक्षा कौन करता है, और धर्म पर ख़तरा कब होता है, किसके चलते होता है? धर्म की रक्षा समर्थ और विवेकवान व्यक्तियों के द्वारा होती है, उनके आचरणों से होती है| असमर्थ जनता समर्थ और विवेकवान व्यक्ति को समर्थन देकर और उनका अनुकरण कर के धर्म की रक्षा में मदद कर सकती है, साथ ही जनता को समर्थ लेक़िन अविवेकी व्यक्तियों को समर्थन देने और अनुकरण करने से विमुख होना पड़ेगा|

धर्म पर ख़तरा तब आता है जब सामर्थ्यवान लोग अविवेकी होते हैं और समाज के इतर व्यक्ति, स्वार्थ, अंधभक्ति या अदूरदर्शिता के कारण, उनका समर्थन, सम्पोषण और अनुकरण करके उन्हें और मज़बूत बनाते हैं|

तीसरी बात: धर्म रक्षा कैसे करता है - किसकी रक्षा करता है? धर्म पहले तो अपना कार्य करता है - समाज को सामंजस्य, स्थिरता, कुशलता, और विकास प्रदान करता है, और साथ ही साथ न्याय देकर व्यक्ति की रक्षा करता है, उसे समाज के सामंजस्य, स्थिरता, कुशलता और विकास में भागीदार बनाता है|

इसीलिए कहा गया है - धर्मो रक्षति रक्षितः| यह हर व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह धर्म की रक्षा में सहयोग दे - आस्था और विवेक को साथ लेकर चले| यह ख़ास कर सामर्थ्यवान व्यक्ति के लिए अनिवार्य कर्त्तव्य है|
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रामकथा - एक अलग़ नज़रिया
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इस छोटे-से लेख के ज़रिये मैं आपके सामने एक नया नज़रिया पेश करना चाहता हूँ| इसके ताल्लुक़ात रामचंद्र एवं रामायण से हैं (और वाल्मीकि रामायण पर आश्रित है - श्रीमद वाल्मीकीय रामायण, गीता प्रेस, गोरखपुर)|
माना जाता है कि सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था| जब रामचंद्र के राज्याभिषेक की बात तय हो गयी तो मंथरा ने कैकेयी के कान भरे - कैकेयी को भड़काया| अच्छी-भली कैकेयी मंथरा की बातों में आ गयी और रामचंद्र के लिए वनवास और भरत के लिए राज्य मांगने लगी|
अब देखें कि वनवास मिलने पर, वन जाने के पहले, जब रामचंद्र कौसल्या से मिलने जाते हैं और वनगमन की बात बतलाते हैं तो कौसल्या क्या कहती है|
"पति की ओर से मुझे सदा अत्यंत तिरस्कार अथवा कड़ी फटकार ही मिली है, कभी प्यार और सम्मान नहीं प्राप्त हुआ है| मैं कैकेयी की दासियों के बराबर अथवा उनसे भी गयी-बीती समझी जाती हूँ| जो कोई मेरी सेवा में रहता या मेरा अनुसरण करता है, वह भी कैकेयी के बेटे को देखकर चुप हो जाता है, मुझसे बात नहीं करता|" [भाग 1, पृष्ठ 239, श्लोक 42-43, अयोध्या कांड, सर्ग 20]
फिर देखें कि जब भरत रामचंद्र को लौटाने जंगल जाते है, अपनी माँ कैकेयी को कोसते हैं, तो रामचंद्र भरत को क्या कहते हैं|
"भाई, आज से बहुत पहले की बात है - पिताजी का जब तुम्हारी माताजी के साथ विवाह हुआ था, तभी उन्होने - शुल्क के तौर पर - तुम्हारे नाना से कैकेयी के पुत्र को राज्य देने की उत्तम शर्त कर ली थी" [भाग 1, पृष्ठ 446, श्लोक 3, अयोध्या कांड, सर्ग 107].
अगर इन बातों को माना जाये तो मंथरा को दासी होने के कारण केवल स्केपगोट बनाया गया| रामचंद्र को राज्य नहीं देने की मंशा पुरानी थी| भरत उतने भोले और भले नहीं थे जितना उन्हें दिखाया गया है| अगर ये बातें सच नहीं हैं तो कौसल्या और राम कहानियाँ गढ़ रहे थे या फ़िर वाल्मीकि ने ग़लत लिखा है| कौसल्या या राम कहनियाँ गढ़ते थे - यह मानना थोड़ा अखरता है|
ध्यातव्य है कि वाल्मीकि रामायण ही सबसे पुराना और प्रतिष्ठित ग्रन्थ माना गया है - बाकी रामायण उसी पर आश्रित हैं|
फिर देखिये|
भरत ने रामचंद्र को अयोध्या लौटा लाने की बहुत कोशिशें की लेकिन रामचंद्र ने नहीं माना| तब भरत ने अपनी झोली से एक जोड़ी सुवर्णभूषित पादुकाएँ निकाली और कहा|
"आर्य, ये तो सुवर्णभूषित पादुकाएँ आपके चरणों में अर्पित हैं, आप इनपर अपने चरण रखें| ये ही सम्पूर्ण जगत के योगक्षेम का निर्वाह करेंगी| तब महातेजस्वी पुरुषसिंह श्रीराम ने उन पादुकाओं पर चढ़कर उन्हें फिर अलग कर दिया और महात्मा भरत को सौंप दिया|" [भाग 1, पृष्ठ 458, श्लोक 21-22, अयोध्या कांड, सर्ग 112].
क्या ऐसा नहीं लगता है कि भरत का रामचंद्र से मिलना अच्छी तरह से सोचा समझा था न कि भावनापूर्ण? सारे विकल्प विना सोचे ऐसे खड़ाऊँ साथ लेकर कौन मिलने जायेगा?
यह एक अलहदा बात है कि वाल्मीकि रामायण में बहुत-कुछ प्रक्षिप्त है| मान्यता के अनुसार, वाल्मीकि रामायण बुद्ध के ऐतिहासिक काल से बहुत पहले लिखी गयी, लेकिन हम देखते हैं कि वाल्मीकि रामायण में बुद्ध का ज़िक्र आता है - देखिये भाग 1, अयोध्या कांड, सर्ग 109, श्लोक 34, पृष्ठ 451. सोचिए उन पंडितों की बुद्धि की - जो इतना भी नहीं समझते थे कि प्रक्षेप करने में क्या सावधानी रखनी थी - ज़ाहिर है कि उनकी अक़्ल घास चरने गयी थी|

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उसने सोचा कि रावण ही बना जाये
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तुलसी-कृत रामायण पढ़ कर उसके मन में रावण बनने की इच्छा जाग गयी| रावण बनने के बड़े फ़ायदे हैं| ऐश-मौज़ की जिंदगी| बीवियां एक चाहो हज़ार राज़ी| सोने का घर| अपना बाग-बगीचा जहाँ अशोक के ही नहीं, कलमी आम के पेड़ भी हों| और अंत में भगवान के हाथों मौत - यानि सारे पाप करके भी मुक्ति - पढ़ा-लिखा ख़ाक नहीं, रिज़ल्ट फर्स्ट डिवीज़न, बोर्ड में टॉप पोज़ीशन| बड़े-बड़े ऋषि-मुनि ताकते रह गए| अरे ऋषि-मुनियों, तपस्या से कुछ नहीं मिलने का - कुछ जुगाड़ बैठाओ| क्या मज़े थे रावण जी के!
इधर बेचारे रामचंद्र की देखिये| सबके प्यारे राजदुलारे, जनता की आँखों के तारे| राजतिलक की बात चली तो बेबस वन की ओर सिधारे| राम बिचारे| और जंगल जाकर भी चैन नहीं| एक जोड़ी खड़ाऊँ थी पैरों में| पैरों में रहती तो काँटों से बचते| सो भरत जी माँग लाये| भाई हो तो ऐसा| राज प्राइम मिनिस्टर करे, राष्ट्र के मालिक प्रेसिडेंट| तभी तो उनकी वैल्यू नहीं है| यह संविधान भरत जी का बनवाया है|
अस्तु, वे फल-मूल खाकर जीवन बिता रहे थे कि सीता की चोरी हो गयी| भालू-बंदरों के सिवा मदद करने वाला कोई नहीं| एक-से एक ऋषि-मुनि थे जिनकी जिह्वा पर शाप था - इंद्र को देने के लिए, विष्णु को देने के लिए,सीता को चुराने वाले को देने नहीं| सर्वज्ञानी थे - सीता को कौन ले गया , कहाँ ले गया इसका पता नहीं लगा सकते थे| बंदरों ने पता लगा लिया, ऋषि-मुनि फ़ेल| क़िताबों को रटने से क्या होता है? ग़रज़ यह कि ऋषि-मुनि राम के किसी काम नहीं आये|
सीता का पता लगाया गया| बानर-भालुओं की सेना बनी| भरत जी अयोध्या में राज करते रहे खड़ाऊँ की ओट से| उनका गुप्तचर विभाग दारू पीकर ख़र्राटे लेता था, अतः भरत जी ने नहीं जाना कि राम पर क्या विपदा आयी| पीछे जाना, जब हनुमान जी पहाड़ लेकर उड़ते दिखे| एक तीर में हनुमान जी धराशायी| भरत जी के वाणों में बड़ा ज़ोर था| हनुमान पर ज़ोर दिखला गए| सारी बातें जानकर भी अपनी सेना को नहीं कहा कि राम की मदद करने को कूच करो| राम-सीता लक्ष्मण पर विपदा है तो वे समाधान ढूंढें - अपन तो सुबह-शाम राम की खड़ाऊँ में पॉलिश कर ही रहे हैं| भाई हो तो ऐसा|
युद्ध हुआ, रावण मरा, राम जीते, सीता मिली, अयोध्या लौटे| रामराज्य की स्थापना हुई - धोबी नाराज़| बोला - सीता का नाम लिस्ट में नहीं| अहल्या, दौपदी, तारा, कुंती मंदोदरी तथा | पंचकन्या स्मरेत नित्यं महापातक नाशनम| धोबीजी के समय में लिस्ट में तीन ही नाम थे - अहल्या, तारा और मंदोदरी| दो पोस्ट द्वापर युग के लिए रिज़र्व थे| तो धोबी अपनी बीवी पर बिफ़र गया और नतीज़तन सीता को जंगल भेज दिया गया| झगड़ा धोबी-धोबन का, सीता को बनवास|
बड़ी मुश्किल से सीता दो बच्चों को पाल कर जंगल से लौटी तो सब-कुछ हो-हवाकर धरती में समा गयी| आगे दुर्वाशा जी की कृपा, लक्ष्मण जी ने सरयू में डूब कर प्राण त्यागे| रामचंद्र जी जिंदगी से तंग हो गए थे| वे भी परम धाम को सिधार गए| सीता गयी पाताल - राम गए आकाश|
तो तुलसी-कृत रामायण पढ़ कर उसने सोचा, रावण बनने में ही फ़ायदा है| सारे भारत को लंका बना देना है - सोने की लंका| यहाँ रावण राज करेगा, अपने पूरे ख़ानदान के साथ| जीते रहे तो मौज़ करेंगे, मरे तो मुक्ति मिलेगी| दोनों हाथों में लडडू|


दुराचार का अर्थशास्त्र
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आप हज़ारों लोगों को पूछ लें - बड़ा सा सर्वे कर लें - कि कितने लोग दुराचार को पसंद करते हैं और उसको बढ़ावा देना चाहेंगे - तो आप पाएँगे कि दुराचार को न तो कोई पसंद करता है और न ही बढ़ावा देना चाहता है| फिर भी, दुराचार होता क्यों है और लगातार बढ़ क्यों रहा है ? जिसके पक्ष में कोई नहीं हो, जिसको कोई मदद करना नहीं चाहता, सारा समाज, सारे धर्म, जिसके ख़िलाफ़ हों, जिसे अपनाने को, जिसकी तरफ़दारी करने को कोई राज़ी नहीं हो - वह लावारिश दुराचार पनपता कैसे है, फैलता कैसे है और सदाचार को दबा क्यों देता है? जिसका कोई नहीं होता उसकी रक्षा ईश्वर करते हैं - जाको राखे साइयाँ मार सकै ना कोय, बाल न बाँका कर सकै जो जग बैरी होय - तो क्या ईश्वर दुराचार के पक्षपाती हैं ? वही दुराचार को जन्माते-पोषते हैं?

आप किसी बाग में चले जाएँ, किसी खेत में चले जाएँ| अगर माली/किसान सतत प्रयत्नशील न रहे तो घास-फूस (weeds) इतना बढ़ जायेंगे कि अभिलषित पौधों को दबा कर मार देंगे| अभिलषित पौधे काफी कमज़ोर पड़ते हैं घास-फूस के मुक़ाबले में| तो क्या प्रकृति घास-फूस के पक्ष में है?

दिया - बत्ती (कैंडल) जल कर देर-सबेर बुझ जाते है| अँधेरे को कोई बुलाता नहीं, उसे कोई तेल नहीं चाहिए - उसे आप कुछ देर के लिए दूर ज़रूर कर सकते हैं, लेक़िन वह लौट के ख़ुद-व्-ख़ुद आ जायेगा| उसे आपकी मदद नहीं चाहिए| आप प्रकाश को मदद करें - उसके जीने के लिए तेल डालते रहें| तो क्या अंधकार ही सनातन है? वही अज (जो कभी पैदा नहीं हुआ) है, अजन्मा है, शाश्वत है, सनातन है| उसे आप मार नहीं सकते, कुछ दूर, कुछ देर, हटा ज़रूर सकते हैं| तो क्या प्रकृति अंधकार के पक्ष में है? क्या अंधकार ही प्रकृति है और प्रकाश क्षणिक विकृति?

फिज़िक्स में एक नियम है जिसे थर्मोडायनामिक्स के दूसरे नियम के नाम से जाना जाता है| इस नियम के अनुसार किसी भी बंद (closed) सिस्टम का - जिसे नवीकृत करने के लिए बाहर से रसद न आती हो - विघटन बढ़ता ही रहता है - the entropy of a closed system must always increase - तो क्या विघटन और मृत्यु ही चिरंतन सत्य हैं?

तो क्या अनाचार, कदाचार, दुराचार, घास-फूस, अंधकार, विघटन और मृत्यु ही चिरंतन सत्य हैं और सदाचार, ग़ुलाब, गेंहू, प्रकाश, संघटन, संगठन, और जीवन वे मरगिल्ले बच्चे हैं जिन्हें दवा के भरोसे ही जिन्दा रखा जा सकता है? या अंदर में छुपा कोई और गहरा सत्य है?

जीवन के लिए तीन चीजों का एक साथ होना आवश्यक है क्योकि एक के लिए दूसरी का होना आवश्यक है| ये तीन चीजें हैं: (१) न्यूक्लाइक एसिड,(२) एमिनो एसिड, और (३) लिपिड। इन तीनों का एक साथ होना जीवन को शुरू करता है| यह संयोग अनायास हो गया और जीवन की शुरुआत हो गयी| जीवन के तीन अति महत्वपूर्ण गुण हैं - ख़ुद को अपने माहौल से जोड़ लेने की प्रवृत्ति, खुद को अपने-आप व्यवस्थित करने की प्रवृत्ति और अपने को कॉपी करके अपने जैसा एक नया दूसरा बनाने की प्रवृत्ति| इन तीनों के चलते जीवन की धारा बह निकली| नक़ल करने में कभी कभी ग़लतियाँ हो जाती थी| यह ग़लत कॉपियां बहुधा मर जाती थी लेकिन कुछ एक जी भी जाती थी| ये ग़लत कॉपियां फिर बहुधा अपनी जैसी नई कॉपियां बनाती थीं और कुछ ग़लतियाँ भी हो जाती थी| इन कॉपियों और ग़लत कॉपियों ने नवीनता दी, बहुरूपता को सिरजा| जीवन चक्र आगे बढ़ता रहा|

यहाँ अब तीन बातों पर ध्यान देना आवश्यक है| पहली तो यह कि जीवन अपने आप में एक विरल (rare) संयोग था, और दूसरी यह की कॉपी करने में ग़लतियों का हो जाना विरल घटना है और तीसरी कि एक ग़लत कॉपी का जी सकना विरल घटना है| तीन विरल घटनाओं का संयोग अति-विरल है| जीवन अति-विरल है और इसीलिए जीवन की नज़रों में यह महत्वपूर्ण है|

इस अति-विरल और महत्वपूर्ण जीवन को आधार देना बहुत महत्वपूर्ण है - ख़ास करके उन नज़रों में जो जीते हैं| प्रकृति की नज़रों में किसी का कोई ख़ास महत्त्व नहीं है - उसके लिए मरने या जीने में कोई ख़ास फ़र्क नहीं है| ये मात्र घटनाएँ हैं|

धीरे-धीरे मानव-समाज का विकास हुआ| मानव को व्यक्ति बनने में बहुत समय लगा, एक बहते-से सामाजिक सोते का एक सदस्य होने की घटना पहले घटी| नदी के पानी की एक बून्द तब तक बून्द नहीं बनती जब तक वह सोते से, प्रवाहमान जलराशि से, अलग़ न कर दी जाये| व्यवस्था की नज़र से व्यक्ति के एक individual body होने का महत्व उतना ही है जितना सेल के लिए फैटी लिपिड की दीवार|

जीवन के निर्वाह के लिए अनाज़ बड़े फ़ायदे की चीज़ साबित हुई| तो अनाज़ की खेती महत्वपूर्ण हो गयी| किसानों ने घास-फूस निकालना शुरू कर दिया| उन्होंने यह जानना मुनासिब नहीं समझा कि आख़िर प्रकृति को घास-फूस से इतनी मुहब्बत क्यों है? प्रकृति विभिन्नता क्यों माँगती है? उसे मोनोकल्चर क्यों पसंद नहीं है?

समझौता, विकृति, विसंगति और रिसाव
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सभी जीव - पेड़-पौधे, कीट-पतंग, पशु-पक्षी और ख़ास कर मानव - हमेशा प्रतिकूल परिस्थितियों में जीने के लिए जद्दोजहद करते रहते हैं| वे सक्रिय रूप से अपनी परिस्थितियों को अपने अनुकूल करने के लिए जी-तोड़ प्रयास करते हैं, किन्तु वे ऐसा कर सकने में हमेशा क़ामयाब नहीं होते|

क़ामयाबी के लिए अक्सर ख़ुद अपने को तब्दील करना लाज़िमी और मुनासिब होता है| यह तब्दीली चार तरह की होती है (१) समझौता, (२) विकृति, (३) विसंगति, और (४) रिसाव|

समझौता: इंसान अपनी ज़रूरतों में कटौती करके, ग़ैर-ज़रूरी तमन्नाओं को परे ढकेल करके, अपने सपनों को सीमित करके जीना सीख लेता है| वह अपने जीवन के दायरे को छोटा कर लेता है| धीरे-धीरे यह उसकी आदत बन जाती है और वह अपने तंग दायरे में जीते हुए भी ख़ुश रहने लगता है| अभाव उसे कचोटता नहीं है| आप शहरों में जाकर देखें - हज़ारों लोग स्लम में रहते हैं और मज़े में रहते हैं| खाने की थाली पर मक्खियॉं भिनभिनाती रहती है और खानेवाले एक हाथ से मक्खियों को उड़ाते रहते हैं और दूसरे हाथ से खाना खाते रहते हैं|

विकृति: लेक़िन इंसान का पूरा वजूद समझौता नहीं कर सकता| उनका व्यक्तित्व केवल सिकुड़ता ही नहीं, टेढ़ा-मेढ़ा भी हो जाता है| उसके आदर्श के कुछ स्तम्भ गिर जाते हैं और उनकी जगह ऐसी बैसाखियाँ लग जातीं हैं जो ख़ुद उसकी नज़र में, सार्वजनिक तौर पर, ग़लत होतीं हैं लेकिन व्यक्तिगत तौर पर उन्हें अपनाने में वह दो बार नहीं सोचता| उसकी कथनी और करनी में, उसकी जानकारी के बावजूद तफ़र्का रहने लगता है| कोई न देखे तो कुछ चुरा लेने में उसे कोई हिचक नहीं होती| घूस देकर काम करवा लेने में उसे कोई आपत्ति नहीं होती| अगर पकड़े जाने की संभावना ज्यादा न हो तो घूस लेने में उसे कोई ग्लानि नहीं होती|

विसंगति: व्यक्ति के विचारों में परस्पर-विरोधी धारणाएँ भर जाती हैं| वह कभी नहीं देखता कि एक जैसी स्थितियों में ही वह कभी यह बात कहता है और कभी वह बात कहता है जबकि दोनों बातें परस्पर-विरोधी हैं| ऐसा वह जान-बूझ कर नहीं कहता या न ऐसा कहने में उसकी कोई चाल होती है| अगर उसे यह विसंगति दिखाई जाये तो वह गुस्सा हो जाता है|

रिसाव: ऐसा व्यक्ति विचारों को वर्गीकृत नहीं करता वरन उन्हें गड्डमगड्ड कर देता है| उसके सोचने में सफ़ाई नहीं होती| एक विषय के विचार दूसरे विषय के विचारों में मिल कर कीचड़-सा पैदा कर देते हैं|

हम बहुधा इन समस्याओं के लिए व्यक्ति को दोषी ठहराते हैं किन्तु उन परिस्थतियों को नज़र-अंदाज़ करते हैं जिनके चलते किसी का व्यक्तित्व भुने पापड़ जैसा हो जाता है जो किसी समतल सतह पर ठीक से बैठ ही नहीं सकता है और बेहद भुरभुरा (brittle) होता है|

कैथार्सिस
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अंग्रेज़ी में एक बड़ा ही उम्दा शब्द है कैथार्सिस (catharsis). हिंदी में इसे रेचन या विरेचन कह सकते हैं| उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति अपच (indigestion) से पीड़ित हो जाता है तो पेट में पड़े विकृत और अपाच्य भोजनांश को उल्टी (vomiting) या पाखाने के द्वारा - किसी शारीरिक क्रिया या दवा देकर - निकाल दिया जाता है| इसे विरेचन कहते हैं| इसके बाद आदमी हल्का महसूस करता है - बेचैनी बहुत घट जाती है|

यह बात मानसिक तौर पर भी सही है| जब आदमी का मन दुख, कड़वाहट, वितृष्णा, वग़ैरह विकारों से भर जाता है तो रोने, चिल्लाने, तोड़-फोड़ करने, गरियाने वग़ैरह से ये विकार निकल जाते हैं| मनोवैज्ञानिक लोग इस तरह इलाज़ करते हैं|

भारत की बहुसंख्यक जनता असफलता, ग़रीबी, अराजकता, वग़ैरह से त्रस्त है और इसका मूल कारण जानने के बावजूद कुछ कर सकने में असमर्थ है| सारा अन्याय देखने-सहने के बावजूद जनता क़ानून को अपने हाथों में नहीं ले सकती| उदाहरण के लिए अत्यधिक रोष के बावज़ूद कोई भी व्यक्ति आज आगे बढ़कर ब्रजेश ठाकुर (मुज़फ़्फ़रपुर शेल्टर होम केस) को कुछ नहीं कह सकता| कोई कुछ कहे तो यह क़ानून के ख़िलाफ़ होगा| क़ानून ब्रजेश को बचाएगा, पुलिस ब्रजेश के पक्ष में होगी| ऐसी घटनाएँ रोज़ होतीं हैं|

जनमानस आक्रोशों से भरता रहता है लेक़िन आक्रोशों को निकालने का कोई रास्ता नहीं मिलता| आकुलता मानसिक बीमारी बन जाती है और वे बहाने ढूढ़ने लगती है जहाँ व्यक्तिगत ख़तरा कम हो और मन की भड़ास निकाली जा सके|

व्यक्ति के चार संरक्षक (shield) होते हैं (१) भीड़, (२) धर्म , (३) धन, और (४) क़ानून (क़ानून की क़िताबों में लिखित या सामाजिक प्रचलन)| जिन उपद्रवों को व्यक्ति अकेले नहीं कर सकता है उसे वह भीड़ में बेहिचक कर डालता है| भीड़ पकड़े जाने और दंडनीय होने की सम्भवता (probability) को बहुत कम कर देती है, व्यक्तिगत जबावदेही को कम कर देती है| भीड़ sense of guilt या अपराधी होने के संज्ञान को कम कर देती है| धर्म अपनी आड़ में अपराधों पर पर्दा डालता है या उसका विवेकीकरण करता है| और धन तो किसी भी पाप को दबाने-छिपाने की शक्ति रखता है| राजनीति की अँगुली पकड़ कर कोई कुछ भी कर सकता है|

आक्रोश निकालने के लिए जनता इन चारों का सहारा लेती है और कुछ-से-कुछ करती रहती है| यह फेसबुक भी कैथार्सिस में मदद करती है - आपने देखा है ? कितनी गाली-गलौच होती है इसके ऊपर| सब कुछ गंधाने लगता है - पढ़े-लिखे लोग भी ऐसी भाषा का इश्तेमाल करते हैं कि गांव के छंटे शोहदे दाँतों तले अँगुली दबा लें| यह कैथार्सिस है|

लिंचिंग होती है, तोड़-फोड़ होती है - छुट्टी मनाने और आवारागर्दी के लिए भारत बंद होता है - और क्या-क्या नहीं होता है कैथार्सिस के लिए! यह नहीं हो तो सत्ता हिल जाएगी| जब से भारत स्वतंत्र हुआ है सरकारें कैथार्सिस में मौन सहमति देती रही हैं क्योंकि उनके पास मूलभूत समस्याओं से निपटने का न इरादा है न सामर्थ्य| तो इशारों में कहती है - अपना इलाज़ ख़ुद कर लो भैय्यो| नाचो-उछलो, कूदो, चिल्लाओ, तोड़ो, गरिआओ, रोवो और अपना आक्रोश निकाल कर, अपने आँसू पोंछ कर ख़ुद चुप हो जाओ|

भारत का राजनीतिक अर्थशास्त्र
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स्वतंत्रता प्राप्ति (१९४७) के बाद भारत के रसूख़दार लोगों की एक गुप्त बैठक हुई| इसमें बड़े पूँजीपति, राजनेता, भूमिपति और बुद्धिजीवी लोग शामिल थे| ध्यान रहे कि इनमें आम जनता की तरफ़दारी करने वाला कोई नहीं था| मुद्दा था कि अब जब अंग्रेज चले गए और सारा-का-सारा भारत हमारा है तो स्वतंत्रता के फ़ायदों (fall out) को आपस में कैसे बाँटा जाये|

स्वतंत्रता संग्राम में जमींदारी के ख़िलाफ़ बहुत बातें बकी गयी थीं अतः बड़े ज़मीन के मालिक शंकित थे कि शायद अब वे देहातों के राजा नहीं रह पायेंगे| लेक़िन उनके हाथों में बहुत वोट थे| उनको ख़ुश रखना लाज़िमी था| तो उन्हें यह आश्वासन मिला कि हालाँकि सरकार ज़मीन को ग़रीबों में बाँटने की बातें तो धुऑंधार करेगी, लेक़िन हक़ीक़त में कुछ नहीं करेगी| आप निश्चिन्त रहें और हमें वोट दिलवाते रहें| साथ-ही-साथ राजनीति में भी आ जाएँ ताकि जनता पर पकड़ मज़बूत रहे| ऐसा ही हुआ| ज़मीन बाँटने का ज़िम्मा विनोबा जी को दे दिया गया - वे शांति और स्वेच्छा से ज़मीन बँटवाते रहे - सर्वोदय करते रहे और समय आने पर ख़ुद अस्त हो गए| इस पर नागार्जुन ने बड़ी अच्छी कविता लिखी थी "सर्वोदय के नटवरलाल"|

पूँजीपतियों के हाथ में उद्योगों का उपभोक्ता सेक्टर आया| बेसिक उद्योगों को सरकार ने अपने पास रखा, सार्वजनिक (सरकारी) पैसे का निवेश (इन्वेस्टमेंट) किया, घाटे पर चलाया, ताकि पूँजीपतियों को कम लागत पर उत्पादन करने में सुविधा हो| उपभोक्ता सेक्टर में दाम तय करने की स्वतंत्रता दी गयी| मनमाना दाम, सस्ती लागत ने उनके मुनाफ़े को बढ़ाया| मुनाफ़े का एक हिस्सा राजनीतिज्ञों को मिला, स्विस बैंकों में पैसा गया, इलेक्शन में ख़ूब ख़र्च किया गया| दूसरी तरफ़ खुले पूँजीवाद में घुस सकने की चुपचाप तैयारी हुई| सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ सोसायटी का मुखौटा लगाकर पूँजीवाद के लिए तैयारी की गयी| लुटेरों को मालामाल करने के लिए बैंकों का बड़े पैमाने पर राष्ट्रीयकरण हुआ| बैंकों में NPA बेताहाशा बढ़े| पूँजीपति और नेतागण सब खा-पी गए| अब माल्या कह रहा है की बेटी दो तो बारात लेकर आऊं|

बुद्धिजीवियों में कुछ तो सरकार में ही थे - ख़ूब घूस लिया, ख़ूब चाँदी काटी| दूसरे शिक्षा में थे - सरकार की बड़ाई में ख़ूब लिखा - खूब गाना गाया| जो सच नहीं था उसे सच दिखाया - और सच को बख़ूबी परदे में रखा| जो पत्रकारिता में थे उन्होंने भी ख़ूब गाना गाया| आख़िर पत्रकारिता भी तो उद्योगपतियों ने ही चला रखा है|

सबको मिला - केवल जनता लुटी| उनकी ग़रीबी हटाते रहो - उनको रोज़गार दिलाते रहो|

यह भारत के राजनीतिक अर्थशास्त्र की संक्षिप्त कहानी है| बाक़ी तो आप पर्दे पर देख ही रहे हैं|

Is Political Science a 'Science'?
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Political science, most importantly, studies human beings and that too at a collective level.

Human beings have brains and the brain is as yet only poorly understood and hence perception, interpretation, projection, comprehension, extrapolation, pattern recognition, creativity, decision-making, emotions, etc are as yet poorly understood. Everything is physical (a brain is a physical device) yet so complex that it is only poorly understood. Then how can one understand the actions of men?

A further difficulty is added on account of being a science of collectives. It may be (theoretically as of now) possible to understand individual brains and their functions, but it is difficult to understand how aggregation takes place. The process of aggregation may be different in different cases and it is not easy to say something about the collective on the basis of individuals. No statistical method is as yet invented for all sorts of aggregation problems.

There are novelties also. What is the science of novelties? We do not know as yet.

Then, there is deep camouflaging. There is lying. There are strategies.

There are off-the-equilibrium or far-from-equilibrium events. There are butterfly effects. There is fuzziness. There are possibilities and probabilities. And so many other types of complexities.

The present-day scientific methods that are very effective in dealing with the problems of physics, etc are totally inadequate for dealing with the problems of social sciences in general and the political science in particular.

Game theory was developed to deal with some problems in such subjects. But game theory is unduly complicated even for simple problems.

The Tragedy of Social Sciences: Mathematics (which is the art and science of drawing inferences - including statistics which deals with inductive inferences) and sciences (physical) grew hand in hand with each other. A great majority of physicists were mathematicians (logicians), too. However, social scientists are mostly non-mathematicians and have to apply the logic which is developed mostly for physical sciences. This is a mismatch and thus a tragedy. Even game theory was developed by a mathematician (John von Neumann) and only mathematicians are handling it appropriately. Other methodological developments also brought about by mathematicians and computer scientists, and social scientists are often innocent of them. Science is what scientists do. Social sciences are what social scientists do. And the limitations of the scientists become the limitations of the science.

Some problems that are challenging even for physics: Physics is perhaps most perfect among all sciences. However, its abilities become very limited in climate studies. They predict, but with what sort of accuracy? Given the clouds and winds and the surface of the earth, can a physicist predict with any respectable accuracy the site at which a thunderbolt would strike with a charge exceeding any given potency? I read a report on the physics of lightning (Physics Reports 534(2014):147-241, authored by JR Dwyer and MA Uman) and could guess about the complexity of the problem and the issues in prediction.

Take another case. Imagine a river is flowing slowly (can be measured) and a light but a sizeable object is floating over it. The strong breeze (39-49 kms/h on the Beaufort scale) is blowing against (a range of angle may be given) the current of the flow of the river. All the quantities in this example are crisply measurable. Can a physicist write down the trajectory of the object over the river water that would take place for the next 5 minutes? Or given the trajectory of the last 10 minutes, is it possible to predict (with respectable accuracy) the trajectory for the next 5 minutes to come?

Or take a candle lit in an open air in the night. A light breeze is blowing. What will be the sequence of shapes (can be described at any moment by the values of its outline on the cartesian coordinates) of the flame for the next two minutes?

The political climate of any country is more complicated than the scenario depicted above. Then, under these conditions, expecting from political science a law or theory that we obtain from physics, etc is too much of optimism.

Not that political science is not a science, but it is a very complex science that has not been equipped with methodological tools that are appropriate for dealing with the problems.

वेदांत ज्ञान
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विवेकानंद जी विदेश से लौटे थे और बंगाल में व्याप्त दुर्भिक्ष-पीड़ितों की मदद करने में जुटे थे| उन्हीं दिनों कुछ महापंडित उनसे वेदांत पर बहस करने उनके पास आये| लेक़िन वेदांत पर बात करने के बजाय विवेकानंद जी भुखमरी और मौत की बात करने लगे और विह्वल होकर रोने लगे|

महापंडित लोग विवेकानंद जी पर हँसने लगे और बोले कि विवेकानंद जी हम तो आपको ज्ञानी समझ कर कुछ सीखने आये थे| आप तो महा अज्ञानी निकले - मरने पर क्यों रोना ? आत्मा तो अमर है| वह वस्त्र की तरह शरीर बदलता है| इसमें रोने और दुखी होने का क्या तुक है? सो, विवेकानंद जी, आप वेदांती नहीं हैं, ख़ुद माया मोह में लिपटे हैं| आपसे हम क्या सीखेंगे!

विवेकानंद जी ने अपना सोंटा उठाया और मुख्य महापंडित को पीट डाला| सभी पंडित लोग हाय तौबा करने लगे और विवेकानंद जी को गरियाने लगे - उठ कर भागने लगे|

विवेकानंद जी ने पूछा - तुम लोग तो सच्चे वेदांती हो न ? फिर कहा, रुक जाओ, भागो मत| मैं तुम्हें ज़ल्द ही समझा दूंगा कि शरीर माया है, दुःख-सुख भ्रम हैं, आत्मा अमर है, चोट खाकर रोना अज्ञान है, पाखंड है| मैं सारा वेदांत तुम्हें मिनटों में समझा दे रहा हूँ|

महापंडित लोग क्यों रुकते| सब भाग खड़े हुए|

हिन्दू जाति के काहिल होने की सबसे बड़ी निशानी जातिवाद है| समाज जातियों में बंटा है और बच्चा जन्म लेते ही एक ख़ास जाति में गिर पड़ता है| दिनकर जी ने लिखा था -

मैं कहता हूँ और विधाता नर को मुट्ठी में भरकर
कहीं छींट दे ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है
नीचे है क्यारियाँ बनी तो बीज कहाँ जा सकता है! (रश्मिरथी)

उपनाम (surname) कहने भर को उप-नाम है, वास्तव में समाज के लिए यही मुख्य नाम है| प्रथम नाम तो कहने के लिए प्रथम है| हम समाज में मिश्रा जी, सिंह साहेब, गुप्ता जी, यादव जी वग़ैरह उपनामों से ही जाने जाते हैं| प्रथम नाम निरर्थक है (J.S. Mill ने कहा था - Proper names are non-connotative). राजीव तो गांधी हो सकता है, मिश्रा हो सकता है, दास हो सकता है, गुप्ता हो सकता है, यादव हो सकता है, श्रीवास्तव हो सकता है| इसमें राजीव का कोई सामाजिक महत्त्व नहीं है, लेकिन मिश्रा और यादव में फ़र्क है| The surname is connotative, यह वहुधा जाति का परिचायक और निर्णायक है|

M.N. Srinivas ने sanskritaization की बात की है| इसके तहत समाज की निचली तह के लोग ऊपरी तह के लोगों के रस्म-ओ-रिवाज़ एवं rituals को अपना कर अपने को प्रतिष्ठित करते हैं| यह नाम और उपनाम के साथ भी हुआ है| कुछ राय सिंह बन गए, कुछ यादव बन गए| गोप और अहीर भारी संख्या में यादव बने| मिस्त्री शर्मा बने, नाऊ ठाकुर बने, इत्यादि| जो लोग अंग्रेजों के क़रीब होकर sanskritized होना चाहते थे वे ठाकुर से टैगोर, बंद्योपाध्याय से बनर्जी, और चट्टोपाध्याय से चटर्जी बने|

गुण और कर्म के हिसाब से व्यक्ति का वर्गीकरण श्रमसाध्य है, इसमें काम करना होगा, मिहनत करनी होगी, निर्णय करना होगा, रिस्क लेना होगा| इसमें समय भी अधिक लगेगा और यह लागत के ख़याल से महँगा भी पड़ेगा| सबसे सस्ता और आसान होगा कि उपनाम से प्राप्त इनफार्मेशन को उपयोग में लाया जाये| श्रमसाध्य और महँगे तरीक़े की जग़ह सस्ते नियम - थंब रूल (thumb rule) को अपनाया जाये| हिन्दू समाज ने यही करना शुरू किया|

धीरे-धीरे वर्णसंकरता बढ़ी, ऊँची जातियों के लोग भ्रष्ट हुए और नीची जातियों में प्रतिभाशाली बच्चे जन्मे| मैंने कहीं और लिखा था -

तब से भला आदमी

जितना रहता है पानी के अंदर

उतना ही रहता है पानी के बाहर

चित भी उसकी और पट भी उसका

जीते, तो आपका; हारे, तो खिसका ।

...

तभी से बब्बन सिंह फाड़ रहे ग़रीबों की छाती,

या, उस बेबस मजदूरन की साड़ी

जो करती खेत में काम, लेकर दिहाड़ी ।

...

तभी से हर भला आदमी

यूँ बैठा खाता है,

अनाज़ किसी और से पैदा करवाता है,

सुबहोशाम बस नाक भर दबाता है,

महरी से जूठे पत्तल उठवाकर,

या फिर रात में पैर दबवाकर ।

धीरे-धीरे surname या उपनाम के thumb रूल ने काम करना छोड़ दिया| वे चलते चलते घिस गए और उनका मुलम्मा उतर गया| लेक़िन हिन्दू जाति न केवल उन्हें अपनाये हुए है (बंदरिया की तरह जो मरे हुए बच्चे को भी छाती से चिपकाये उछलती-कूदती रहती है), उन्हें ठोस बना रही है, reinforce कर रही है|