गुरुवार, 12 सितंबर 2019

आधी पत्नी की कहानी

उसका नाम प्रज्ञा है और वह एक स्कूल मास्टर की बेटी है | मास्टर साहब ने उसका नाम बहुत सोच-समझ कर रखा था| कहते हैं यथा नामस्तथा गुणः| हालाँकि एक बहुत प्रतिभाशाली कवि (काका हाथरसी) ने अपनी कविता "नाम बड़े - दर्शन छोटे" में दिखाया है कि नाम और गुण का कोई ताल्लुक़ नहीं है | जेएस मिल ने भी कहा है कि व्यक्तिवाची नाम गुण सूचित नहीं करते| मास्टर साहब हिंदी के आला दर्जे के विद्वान थे इसलिए काका हाथरसी जैसे विदूषक कवि की कविता को गंभीरता से लेने में उनकी हेठी होती थी| बची जेएस मिल की बात| सो मिल साहब हिंदी में तो लिखते नहीं थे | मास्टर साहब मानते थे "यन्न भारते तन्न भारते"| जो ज्ञान कहीं भी है वह हिंदी में भी है और जो ज्ञान हिंदी में उपलब्ध नहीं है वह कहीं उपलब्ध नहीं है| अतः मिल को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी| उनका वश चलता तो वह प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और हरिवंश राय बच्चन की क़िताबों के ज़रिये गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान और यांत्रिकी पढ़वाते| लेक़िन उनकी चलती नहीं थी|
सो मास्टर साहब ने अपनी बेटी का नाम प्रज्ञा इसलिए रखा था कि बुद्धि किसी न किसी दिन ख़ुद चलकर आएगी और उनकी बेटी को बुद्धिमती बना जाएगी, विदुषी बना जाएगी | इस दृढ़ विश्वास के बाद उन्होंने बेटी को स्कूल भेजना या घर पर पढ़ाना आवश्यक नहीं समझा| बेचारी प्रज्ञा अनपढ़ रह गई| फिर भी उसे अपने पिता पर पूरा भरोसा था और वह ईमानदारी के साथ मानती थी कि स्त्री जाति में - चाहे वह कमला हो कि विमला, लक्ष्मी हो या दुर्गा - उसकी मां से ज़्यादा समझदार कोई नहीं हो सकती| बची मर्दों की बात| तो मास्टर साहब को छोड़ कर और सभी मर्द बुद्धू होते हैं - प्रत्यक्षे किं प्रमाणं|
लेकिन प्रज्ञा की माँ मास्टर साहब की तरह अतिशिक्षित नहीं थी| वह ख़ुद अनपढ़ थी और इसका उन्हें गर्व था| मास्टर साहब के लाख प्रयासों के बावजूद ताजिंदगी वह अपना हस्ताक्षर नहीं कर सकीं, और अपनी इस विशेषता को वह अपनी प्रतिभा एवं सतीत्व का सबूत मानती रहीं | कहती थी - औरत का पढ़ना-लिखना उसे चरित्रहीनता की सरहद पर ले जाकर छोड़ देता है| अगल-बग़ल के परिवारों से कई लड़कियाँ स्कूल-कॉलेज जाती थीं और उनकी चरित्रहीनता के किस्से (सत्य या कल्पित) उन्हें ज़ुबानी याद थे | अतः अपनी बेटी/बेटियों को स्कूल भेजकर वह उन्हें चरित्रहीनता की दहलीज़ पर ले जाकर छोड़ देने के पक्ष में नहीं थी| मिला जुला कर, पुत्री-शिक्षा के मामले में वह मास्टर साहब की अनुयायिनी थी। अतः प्रज्ञा की पढ़ाई-लिखाई का प्रश्न ही नहीं उठता था| यह बात आलहदा थी कि जब उनके बेटे की शादी के पैग़ाम आने लगे तो मास्टर साहब (मय श्रीमती जी के) दुल्हन के दो गुणों के राग अलापने लगे - सुशिक्षिता और अर्थकरी (प्रचुर दहेज़ लाने वाली)| उन्होने साफ कहा - सरस्वती और लक्ष्मी के मुद्दों पर कोई बहस नहीं - हम बहू के रूप-सौंदर्य को ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं समझते, कौन कोठे पर बिठाना है? काली-कलूटी और यहाँ तक कि अक्ष्णा काणः, पादेन खञ्जः, पाणिना कुन्ठः चलेगी|
प्रज्ञा की माँ के अनुसार बेटियों को गृहकार्य में निपुण होना चाहिए | गृहकार्य मुख्यतः पाँच होते हैं - (1 ) झाड़ू-बुहारू करना और चौका-आँगन लीपना (2) बर्तन व कपड़े धोना (3) रसोई करना, (4) बच्चे संभालना, और (5) अचार डालना, बड़ी-बचके तैयार करना, इत्यादि| ये कार्य सैद्धांतिक नहीं होते - इनमें कुशलता किसी क़िताब के पढ़ने से नहीं हासिल होती | ये कलाएँ मनोयोग पूर्वक करने से - करते रहने से - आती हैं| अतः प्रज्ञा की माँ ने प्रज्ञा को (जो सबसे बड़ी बेटी थी) इन गृहकार्यों में दक्ष बनाने के लिए व्यावहारिक शिक्षा देनी शुरू कर दी| सबेरे उठकर झाड़ू-बुहारू करना और चौका लीपना, बर्तन व कपड़े धोना तथा बच्चों को संभालना ज़्यादा शुरुआती शिक्षा थी | प्रज्ञा के चार भाई बहन उससे छोटे थे | उन पर अपना प्रभुत्व पाकर प्रज्ञा फूली न समाई| तीन-चार वर्ष लगे और एक तरफ़ तो प्रज्ञा इन कार्यों में पूर्णरूपेण प्रशिक्षित हो गयी और दूसरी तरफ़ उसकी दो छोटी बहनें प्रज्ञा की कक्षा में आने के लायक़ हो गयी | अतः प्रज्ञा को प्रमोशन मिल गया | वह रसोई करने, अचार डालने, बड़ी-बचके बनाने इत्यादि कार्यों में प्रशिक्षण पाने लगी | धीरे-धीरे माँ का रोल केवल प्रशिक्षिका का रह गया | प्रशिक्षण देने के अतिरिक्त सुबह देर तक सोना, पान-ज़र्दा खाकर पड़ोसिनों से गप्पें लड़ाना, पड़ोसियों के बारे में सूचना एकत्र करना और उनकी समीक्षा करना इत्यादि ऊँचे स्तर के काम उनके ज़िम्मे रह गए|
यहाँ पर एक बात उल्लेखनीय है | आपने बया चिड़िये के खोंते (नीड) को बहुधा ताड़ के पेड़ पर पत्तों से लटकता देखा होगा| इस को बनाने की कला बहुधा माँ-बाप से सीखी जाती है क्योंकि बया झुण्ड में रहने वाली चिड़िया है| अलग़-अलग़ खोतों में कुछ अंतर जरूर होता है क्योंकि यह अनुभव और परिपक्वता पर आधारित है लेक़िन मुख्य स्थापत्य एक ही रहता है| इसी तर्ज़ पर प्रज्ञा ने बया की तरह सब कुछ सीखा| जो उसकी माँ करती थी, वह सारा काम - खाना बनाने से अचार डालने तक - उसी तरह करती थी| वह किसी भी तरह के नवीकरण (innovation) के पक्ष में नहीं थी | इस कार्य में कोई रिस्क नहीं था - सब कुछ कालपरीक्षित (time tested) था| यह सब कहने का यह अर्थ नहीं कि प्रज्ञा मानव रोबो (human robot) थी, पूरी तरह से प्रोग्राम्ड| वह मानवी थी और एक भली लड़की थी|
बेटी की बाढ़| प्रज्ञा पन्द्रह वर्ष की हुई और मास्टर साहब उसके हाथ पीले करने की सोचने लगे| यह वाजिब भी था | गृहकार्य में कुशलता हासिल होने से प्रज्ञा में एक अच्छी पत्नी के तीन गुण स्वतः आ गए थे,लेकिन बचे तीन नहीं आ पाए| कहा गया है (गरुड पुराण, पूर्व खण्ड, आचार काण्ड) - "कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी,भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा । धर्मानुकूला क्षमया धरित्री ,भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा ॥" उसमें तीन गुणों का सर्वथा अभाव था - मंत्री सम्बन्धी, रम्भा सम्बन्धी और अनुकूलता| इसका मुख्य कारण यह था कि पहले तो ये गुण उसकी प्रशिक्षिका में ही नहीं थे | स्त्री के चरित्र के मामले में प्रज्ञा की माता जी के विचार बहुत मौलिक थे | उनके विचार में पत्नी का अपने पति से शारीरिक सम्बन्ध भी एक क़िस्म की चरित्रहीनता है| अतः अच्छी पत्नी ऐसा कुछ न करे कि पति भी उसकी तरफ़ आकर्षित हो| पति अगर ज़बरन कुछ कर ही बैठे तो बेचारी स्त्री क्या कर सकती है - सिवा इसके कि स्नान करके तुलसी के चौरे पर जल चढ़ा दे| इस सीख के बाद तो अप्सराएँ भी सन्यास ले लेंगी - कोई अदना लड़की तो रम्भा बनने की दिशा में एक डेग भी आगे नहीं बढ़ सकती है| और भी दूसरे गुणों के लिए जिस प्रज्ञा की आवश्यकता होती है वह बेचारी प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं था |सात वर्षों तक अनवरत चौका चूल्हा करके वह दासी रूप में निपुण हो गयी थी| उसने घर का काम-काज करते हुए अपने चार छोटे भाई-बहनों को संभाला था और इस अनुभव ने उसे धरती की तरह सहनशील बना दिया था | वह घर भर के सारे लोगों की मनपसंद सब्जियाँ बनाती थी और सबको खिलाकर खुद तीसरे पहर खाती थी - कुछ न बचे तो ख़ुद सूखी रोटी या छूछे भात में नमक-पानी मिलाकर खा लेती थी - सारे बच्चों को माँ की तरह खिलाती-पिलाती थी| सब मिलाकर वह आदर्श पत्नी होने की आधी योग्यता रखती थी|
मास्टर साहब के इलाके मैं आदर्श वर ढूंढ़ना आसान काम नहीं था | आदर्श वर आदर्श पति भी होता है| कहा गया है (कामन्दकनीतिशास्त्रम्)- "कार्येषु योगी करणेषु दक्षः रूपे च कृष्णः क्षमया तु रामः । भोज्येषु तृप्तः सुखदुःखमित्रम् षट्कर्मयुक्तः खलु धर्मनाथः ॥" ऐसे आदर्श वर का दहेज़ तो दुर्धर्ष होगा| मास्टर साहब की गिनती विपन्न लोगों में तो नहीं थी, पर वह संपन्न भी नहीं थे| एक पलड़े पर उन्होंने यथायोग्य धन एवं और तरह-तरह के वंचनापूर्ण प्रलोभनों को रखा और दूसरे पलड़े पर गुण समेत भावी वर को | कांटे ने बतलाया कि इतने में एक पढ़ने-लिखने में ठीक-ठाक पर असुंदर, दरिद्र, दीन लड़का ही मिल सकता था | कहा गया है - सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते - यानि अगर पैसा कम लगे तो अन्य गुणों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है | कांचन बचा तो सभी गुण हैं | इस तर्क का सहारा लेकर मास्टर साहब ने प्रज्ञा के वर का जुगाड़ कर लिया |
जल्द ही प्रज्ञा का विवाह संपन्न हुआ| मास्टर साहब ने अपनी औकात के हिसाब से ठीक-ठाक ही खर्च किया लेक़िन प्रज्ञा की ससुराल की तरफ़ से पूरी विपन्नता का प्रदर्शन हुआ| और तो और, वर के कपड़े भी फटीचर वाले थे| प्रज्ञा को गहने बग़ैरह तो नहीं ही पड़े| वर शकल-सूरत से भी असुंदर था| ख़ैर, जो हुआ सो हुआ| प्रज्ञा बिदा होकर ससुराल पहुँची| उसके सारे सपने टूट कर बिखर गए| एक जीर्ण-शीर्ण, टूटे छप्परों वाला मकान| तीन कमरे विना किवाड़ों के, एक अदद रसोईघर, उपलों पर चलने वाला चूल्हा | घर में शय्या के नाम पर कोई चौकी-खटिया नहीं| खर-पात (पुआल) का बिछावन, पुआल की आँटी का तकिया| बिछावन पर चादर पड़ने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था | टॉयलेट नदारद| पानी के लिए खारे जल से भरा कुआँ| आपने अगर कभी हिंदी फ़िल्म 'तीसरी क़सम' देखी है तो याद कीजिये वह दृश्य - जहाँ हिरामन हीरा बाई को बैलगाड़ी में बिठाकर ले जा रहा है और गाड़ी के पीछे-पीछे बच्चे नाचते-कूदते 'लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनियाँ' गाते चलते हैं| कच्ची सड़क के दोनों ओर झोपड़ियों, टूटे-फूटे मकानात, की याद कीजिये| प्रज्ञा के जीवन में यह सब ससुराल आते ही एक हकीक़त हो गया| लेक़िन इस विपन्नता में एक ही चीज खुशग़वार थी - प्रज्ञा को सास-ससुर भले मिले थे|
लेक़िन प्रज्ञा के भाग्य में और दुख लिखा था| कहते हैं टूट टाट घर टपकत, खटियो टूट. पिय के बांह उसीसवां, सुख कै लूट! अगर औरत को प्यार करनेवाला - साथ देनेवाला - पति मिले तो वह अभावों को झेल जाती है| प्रज्ञा का दुर्भाग्य यहीं था| जब प्रज्ञा की शादी तय हुई तो कोई दहेज़ नहीं दिया गया था - एक वचन दिया गया था कि मास्टर साहब अपने दामाद को दो वर्षों तक एमए में पढ़ने का ख़र्च देंगे| वह इसके लिए सक्षम थे | लड़का दरिद्र पर महत्वाकांक्षी था - सोचता था कि अगर वह एमए कर लेगा - और अगर थोड़ी आर्थिक सहायता मिले तो अच्छा परीक्षाफल लाएगा - तो उसे कोई-न-कोई नौकरी तुरंत मिल जाएगी और उसका बेड़ा पार लग जाएगा| किन्तु विवाह होते ही मास्टर साहब पूरी तरह बदल गए| लड़के के ज़िम्मे ग़रीबी तो पहले से थी - पर कहीं अन्यत्र कुछ दहेज़ लेकर अपनी पढ़ाई पूरी करने का अवसर था और प्रवंचना की कोफ़्त नहीं थी| अब उसे इन अंतिम दो दुर्भाग्यपूर्ण मानसिक तनावों ने ग्रस लिया| वह प्रज्ञा के सामने ही मास्टर साहब को (उनकी गैरमौज़ूदगी में) गाली दिया करता था| लेक़िन प्रज्ञा के दिमाग़ में अपने माता-पिता की महानता यंत्रस्थ (हार्ड वायर्ड) थी| वह अपने माता-पिता की वादाफरामोशी और पति के टूटते सपनों एवं प्रवंचना के कोफ़्त को नहीं समझ सकती थी| उसने एक बार भी नहीं माना कि उसके पिता ने उसके पति को धोखा दिया था | इसका फल यह हुआ कि उसके पति ने प्रज्ञा को माता-पिता के पक्षपात का दोषी समझना शुरू कर दिया| प्रज्ञा को मानसिक और शारीरिक यातना दी जाने लगी| उसके बाद न कहानी बदली, न प्रज्ञा बदली, न उसका पति बदला, न इसके द्वारा प्रज्ञा को दी जाने वाली शारीरिक और मानसिक यंत्रणा बदली| बेचारी प्रज्ञा अपनी हार्ड वायर्ड धारणाओं, नहीं बदलने की अवचेतनात्मक ज़िद, अपने पिता के कमीनेपन और पति के आक्रोश एवं पाशविकता का शिकार होती रही|
एक नयी दुर्घटना ने अतिरिक्त विपत्ति का आह्वान किया| प्रज्ञा के पति ने जैसे तैसे एमए किया और नौकरी की तलाश शुरू की, पर कुछ महीनों में ही टीबी का शिकार हो गया | वह एमए की पढ़ाई के वक़्त गन्दी, अँधेरी,सीलन-भरी कोठरी में रहने, अनवरत कुपोषण और अधिक श्रम का परिणाम हो सकता था| बीमारी बढ़ती गयी और लगने लगा कि प्रज्ञा के भाग्य में अपमान और ग़रीबी के साथ वैधव्य भी लिखा है| इस संकट में भी परिवार का कोई आदमी उन्हें देखने या सहानुभूति दिखाने नहीं आया| और तो और, प्रज्ञा के पिता भी अपनी बेटी या दामाद की ख़बर लेने नहीं आए| बहाना तो यह था कि ऐसे बदतमीज़ दामाद को बचा कर क्या होगा| लेक़िन आंतरिक बात यह थी कि कहीं कुछ आर्थिक मदद करनी न पड़ जाये| एक बात और थी| प्रज्ञा का वैधव्य मास्टर साहब के परिवार के लिए एक वरदान साबित होता | उन्हें सारी जिंदगी के लिए एक कर्मठ, कुशल, सहनशील और विश्वासपात्र दासी मिल जाती जो दो जून रूखा-सूखा खाकर, विना पगार लिए अपनी सेवाएँ देती रहती| गाँवों में ऐसे सैकड़ों उदाहरण पड़े हैं|
लेक़िन होता वही है जो मंज़ूरेखुदा होता है| प्रज्ञा का पति दो वर्षों की बीमारी भोग कर, टिकटिकाकर, ठीक हो गया| इस अनुभव ने उसे तीन चीज़ें सिखाईं जो उसके स्वभाव में समा गई| पहली तो यह कि वह ज़ल्द मरने नहीं आया है, दूसरी यह कि सारे संबंध झूठे हैं, तीसरी यह कि उसने अपने बूते पर - कठिन मिहनत से - आगे बढ़ना है| वह एक तरह से सनकी (एक्सेंट्रिक) हो गया| वह सारी दुनियाँ को छोड़कर, सारी भावनाओं से परे - अपने लक्ष्य के ऊपर समर्पित हो गया - कुछ वैसे ही जैसे सौप्तिक कांड में अश्वत्थामा ने शंकर जी को संतुष्ट करने के लिए अपने शरीर की यज्ञाहुति की थी | पत्नी रहने के बावजूद वह भावनात्मक रूप से उससे अलग़ हो गया| बच्चे हुए, लेक़िन वह भावनात्मक रूप से उनसे जुड़ नहीं पाया | दोस्त थे, परिवार के लोग थे, समाज के लोग थे, उनसे मिलता जुलता भी था, बातें भी करता था, लेक़िन केवल सतही तौर पर| हँसता भी था तो औरों को दिखाने या मात्र उनका साथ देने| वह पानी में रहकर भी पुरइन के पत्ते की तरह रहता था - स्नेहहीन, भावनाहीन| जैसे बतख़ के पीठ पर पानी नहीं टिकता, उसी तरह वह भीड़ में रहकर भी अकेला होकर अपने शोध की समस्याओं पर गंभीर रूप से सोचते हुए तन्मय हो जा सकता था| इन गुणों या दुर्गुणों के चलते अपनी चुनी हुई दिशा में उसकी ख़ूब उन्नति हुई - आर्थिक सम्पन्नता मिली, समाज में सम्मान मिला| लेक़िन वह पति और पिता के रूप में पूर्णतः विफल रहा| वह इन सारी बातों को समझता था लेक़िन उसे समझने वाला कोई नहीं था| वह बोलते हुए भी मौन रहता था और मौन रहकर भी कुछ कहता था| "मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन। आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ।" बातचीत में वह कभी-कभी खुल जाता है| कहता है - मैंने सँड़सी से अपने दिल को दबाये रखा तो लोहू के कतरे सादे कागज़ पर गिरते रहे, बेतरतीब फैलते रहे | वे सूखे तो न जाने कैसे-कैसे आकार लेते गए | चाहो तो उन्हें पसंद करो, चाहो तो नापसंद करो| वे अर्थपूर्ण भी हैं और अर्थहीन भी|
इन सारे वाक़यात के बीच प्रज्ञा अपने बच्चों को पाल कर बड़ा करती रही| सभी बच्चे एक विघटित और कलहपूर्ण घरेलू वातावरण में - नासमझ पर स्नेहमयी माँ के आँचल और समझदार किन्तु निस्पृह पिता की उपेक्षा के साये में - बड़े हुए और वे जो हो सकते थे, नहीं हो सके| प्रज्ञा को आर्थिक समस्या नहीं थी - उसका पति घर चलाने के लिए उसे पर्याप्त पैसे देता था और कभी हिसाब नहीं माँगता था| पैसे में उसके पति को न कोई दिलचस्पी थी और न उसे अर्थाभाव था | इन मामलों में प्रज्ञा सचमुच में मालकिन थी | लेक़िन प्रज्ञा को पति का प्रेम, दो स्नेहपूर्ण बोल, सम्मान और सहयोग कभी नहीं मिला| इन आयामों में प्रज्ञा की दुनियाँ सूनी थी| कभी किसी सामाजिक पार्टी में जाती तो पति को साथ ले जाती थी - लेक़िन पति महोदय केवल शरीर से जाते थे और मानसिक रूप से अनुपस्थित रहते थे | हम शुरू में ही कह आये हैं - प्रज्ञा कभी मंत्री, रंभा या अनुकूला नहीं बन सकी, वह दासी, माता और धरित्री ही रह गयी | फिर एक दिन आया कि उसके पति रिटायर्ड हो गए और इस शहर में आकर सपत्नीक बस गए|
मैं साल में एक या दो बार प्रज्ञा से मिलने जाता हूँ | इसी शहर के एक दूर दराज़ कोने में एक खोली में रहती है और सुबह उठकर चौका-बर्तन करना शुरू कर देती है - बाज़ार जाकर राशन लाती है, सब्ज़ी लाती है और पतिदेव को जिमाती है| प्रज्ञा के पति महोदय अंगिका की एक कहावत को चरितार्थ करते हैं - सुगरॅ के गू न बोरसीं न करसीं| मतलब किसी काम के नहीं हैं | बातें करने में माहिर हैं| तीन बेटे थे - जो सबसे अधिक पढ़ा-लिखा, सहृदय और कमाऊ था वह अल्लाह को प्यारा हो गया| प्रज्ञा के पति उस बेटे की फोटो को अपने काम करने की टेबल के सामने रखते हैं और उनकी आँखों से आँसू और कलम से वैचारिक निबंध निकलते रहते हैं| मालूम नहीं कि यह दुख के चलते, विवशता के चलते या अपराध-बोध के चलते होता है| बाक़ी दो बेटे अपने भोजन, गुह्य-गोपन और दंशनिवारण के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते, हालाँकि वे हृदयहीन नहीं है | पर सभी जानते हैं कि सहृदयता का कोई आर्थिक महत्त्व नहीं होता है| एक बेटी है - ब्याहता| दामाद सर्वगुणनिधान हैं| किसी तरह जी रही है|
कहते हैं, बुढ़ापे में घर का काम-काज बहू संभाल लेती है | जब प्रज्ञा बहू बनकर अपनी ससुराल गयी थी तो उसने अपनी सास को चौके-बर्तन और रसोई से निवृत्त कर दिया था | लेक़िन प्रज्ञा के भाग्य में यह नहीं लिखा था | उसने सात बरस की उमर से चौका-बर्तन करना शुरू किया और अब सत्तर बरस की उमर में भी वही कर रही है| शायद मरेगी भी तो अपना बनाया खाना खाकर |
यह प्रज्ञा की कहानी है - आधी पत्नी की कहानी - आधी औरत की कहानी|

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