सोमवार, 19 अगस्त 2019

विवेकशील हिंदुत्व (रैशनल हिंदुत्व - Rational Hindutva)

हिंदुत्व की धारणा चार वैचारिक स्तम्भों पर खड़ी है: (१) राष्ट्रीय एकता, (२) व्यक्तिवाद के ऊपर उठकर सामाजिक कल्याण की भावना की वरीयता, (३) ऐहिक (मैटेरियल) , बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल) तथा आध्यात्मिक (स्पिरिचुअल) तत्वों का सामंजस्य, और (४) भारतीय संस्कृति और मूल्यों पर आधारित जीवन दर्शन|
राष्ट्रीय एकता की धारणा यह विश्वास है कि उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में अरुणाचल, नागालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक भारत एक राष्ट्र है, एक सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक इकाई है, इसके कल्याण और सरोकार समन्वित है, इनपर ख़तरा समन्वित है और इसकी एकता की रक्षा राष्ट्रीय कर्त्तव्य है| सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, आचारपरता और भाषाओं की विविधता के बावजूद भारत एक राष्ट्र है| विभिन्न प्रांतों में इसका विभाजन केवल व्यवस्थापकीय सुविधा के लिए है जिससे राष्ट्रीय अछुण्णता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता|
विवेकशील हिंदुत्व की धारणा सामाजिक कल्याण को पहले दर्जे पर रखती है और व्यक्तिगत कल्याण को इसका मातहत समझती है| इसका एकसूत्री वर्णन करते हुए कौटिल्य कहते हैं कि कुल की रक्षा के लिए व्यक्ति को छोड़ दे, गांव की रक्षा के लिए कुल को छोड़ दे, इलाक़े की रक्षा के लिए गांव को छोड़ दे और आत्मा की रक्षा (आध्यात्मिकता) के लिए पार्थिव (भौतिक, materialistic, ऐहिक, worldly) स्वार्थों को छोड़ दे| संक्षेप में, कौटिल्य कहते हैं कि संहति (समुदाय, समाज) के हित में व्यक्तिगत स्वार्थ को छोड़ दे| भारतीय धर्म, नैतिकता, कर्त्तव्य और अधिकारों की विवेचना, राजनीतिक धारणाएँ, मूल्य और मानदंड, सभी कुछ सामाजिक कल्याण की वरीयता पर आधारित है| व्यक्तिगत स्वाथों के आपसी टकराव की उलझी हुई गुत्थी केवल सामाजिक कल्याण के दर्शन से सुलझाई जा सकती है|
आधुनिक भारतीय शिक्षा और चिंतन पर पश्चिम (विदेशों) में विकसित व्यक्तिवाद का बहुत असर पड़ा है| इस आयातित (aquired) व्यक्तिवाद का भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक आस्थाओं के साथ समन्वय नहीं हो सका| इसलिए व्यक्तिवाद पर आधारित आधुनिकतावाद और भारतीय रगों में बसी संस्कृति के बीच टकराव शुरू हुआ| इस टकराव से एक सामाजिक और बौद्धिक धुंध पूरे जनमानस पर छा गया और हम कर्त्तव्य विमुख होते गए| आधुनिक काल में ऐसा कोई दार्शनिक भारत में नहीं हुआ जो इस टकराव को सहयोगिता में बदल दे जिससे सामाजिक/बौद्धिक धुंध साफ हो जाये| विवेकशील हिंदुत्व की धारणा इसी धुंध को साफ करने के लिए है, आधुनिकता और भारतीय संस्कृति में सामंजस्य स्थापित करने के लिए है| इसके तहत हम आधुनिक होते हुए भी अपनी संस्कृति को कायम रख सकते हैं| जापान ने इसे कर दिखाया है, हम भारतीय भी कर सकते हैं|

शनिवार, 17 अगस्त 2019

सुप्रभातम् (Good Morning)

आजकल सुप्रभातं (Good Morning) अक्सर किसी दूसरे व्यक्ति को सम्मान देने, उससे सामाजिक संपर्क बनाने या बनाये रखने, या केवल औपचारिकता का निर्वाह करने के लिए किया जाता है| यह एक अच्छा व्यवहार है| अक्सर यह अपने लिए नहीं होता | लेक़िन भारतीय संस्कृति में सुप्रभातं सबेरे उठकर पूजनीय व पुण्यश्लोक व्यक्तियों एवं देवताओं का स्मरण कर के दिनचर्या शुरू करने के लिए किया जाता है| यह शय्या पर ही, सोने की समाप्ति पर उठने के बाद, किया जाता है| इसमें पहले करदर्शन, तब धरती से क्षमा याचना, फिर त्रिदेवों व नवनक्षत्रों को नमस्कार, आदिऋषियों का स्मरण, सभी भुवनों, भूलोक, समुद्र, पर्वतों, महानदियों, स्मरणीय पुरों, महादेवियों, स्मरणीय महापुरुषों, आदि का आदर और उनकी अभ्यर्थना की जाती है | इससे हमारी संस्कृति की याददास्त नयी हो जाती है जो दिनभर हमें अच्छे कर्मो में प्रवृत्ति और बुरे कामों से निवृत्ति के लिए प्रोत्साहित करती है|
१. करदर्शन
कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।
करमूले तु गौरी च प्रभाते करदर्शनम् ॥ १॥
२. पृथ्वीमाता से क्षमा प्रार्थना
समुद्रवसने देवी पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥ २॥
नमोऽस्तु प्रियदत्तायै तुभ्यं देवि वसुन्धरे ।
त्वं माता सर्वलोकानां पादन्यासं क्षमस्व मे ॥ ३॥
३. त्रिदेवों और नवग्रहों से अपनी मंगल कामना
ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च ।
गुरुश्च शुक्रः शनि-राहु-केतवः कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ४॥
४. आदिऋषियों और सातों लोकों, पर्वतों, नदियों से अपनी मंगल कामना
सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनो-ऽप्यासुरि-पिङ्गलौ च ।
सप्तस्वराः सप्त रसातलानि कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ५॥
सप्तार्णवाः सप्त-कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीप-वनानि सप्त ।
भूरादिकृत्वा भुवनानि सप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ६॥
पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः स्पर्शी च वायुर्ज्वलनं च तेजः ।
नभः सशब्दं महता सहैव कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥ ७॥
महेन्द्रो मलयः सह्यो देवतात्मा हिमालयः ।
ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिश्चारावलि-स्तथा ॥ ८॥
गङ्गा सिन्धुश्च कावेरी यमुना च सरस्वती ।
रेवा महानदी गोदा ब्रह्मपुत्रा पुनातु माम् ॥ ९॥
५. महानगरों की प्रार्थना
अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ची अवन्तिका ।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥ १०॥
प्रयागं पाटलीपुत्रं विजयानगरं पुरीम् ।
इन्द्रप्रस्थं गयां चैव प्रत्यूषे प्रत्यहं स्मरेत् ॥ ११॥
६. महादेवियों का स्मरण
अरुन्धत्यनुसूया च सावित्री जानकी सती ।
तेजस्विनी च पाञ्चाली वन्दनीया निरन्तरम् ॥ १२॥
७. महान पुरुषोंका स्मरण
वैन्यं पृथुं हैहयमर्जुनं च शाकुन्तलेयं भरतं नलं च ।
रामं च यो वै स्मरति प्रभाते तस्यार्थलभो विजयश्च हस्ते ॥ १३॥
दध्यङ् मनुर्भृगुरसौ हरिपूर्वचन्द्रो भीष्मार्जुन-ध्रुव-वशिष्ट-शुकादयश्च ।
प्रह्लाद-नारद-भगीरथ-विश्वकर्म-वाल्मीकयोत्र चिरचिन्त्यशुभाभिधानाः ॥ १४॥
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांश्च विभीषणः ।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ॥ १५॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम् ।
जीवेत् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः ॥ १६॥
पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको युधिष्ठिरः ।
पुण्यश्लोको विदेहश्च पुण्यश्लोको जनार्दनः ॥ १७॥
८. फल वर्णन
इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च तद्वत् ।
दुःस्वप्ननाशस्त्विह सुप्रभातं भवेच्च नित्यं भगवत्प्रसादात् ॥ १८॥
प्रतीकों की व्याख्या
करदर्शन में लक्ष्मी भौतिक धन संपत्ति और गात्रसौष्ठव का प्रतीक है, सरस्वती बुद्धि, ज्ञान और विचारसौष्ठव का प्रतीक है तथा गौरी प्राणशक्ति, साहस, बल तथा व्यवस्था का प्रतीक है| हाथ (कर) प्रयास करने एवं कौशल के प्रतीक हैं, कार्यान्वयन के प्रतीक हैं |
पृथिवी विश्वम्भरा है, वसुंधरा है, सर्वंसहा है, माता है| त्रिदेव उत्पत्ति, स्थिति एवं सृजनात्मक विघटन (creative destruction) के प्रतीक हैं और सभी गृह पृथ्वी पर जीवन के नियंता हैं|
सम्पूर्ण प्रकृति को प्रणाम करने के बाद हम वातावरण और मानव पर आते हैं| ऋषियों और सातों लोकों, पर्वतों, नदियों से अपनी मंगल कामना करते हैं| फिर मानव सभ्यता के केंद्र नगरों को प्रणाम करते हैं, महापुरुषों एवं महादेवियों को प्रणाम करते हैं| राजा नल और युधिष्ठिर को याद करते हुए व्यसनों और उनके फल तथा बुरे दिनों को याद करते हैं तथा यह भी सीखते हैं कि विपत्ति में भी साहस और उद्योग को नहीं छोड़ते |

हमारे वेद शास्त्र

आज सभी (चारों) वेद लिखित रूप में उपलब्ध हैं और बहुत शास्त्र ग्रन्थ भी उपलब्ध हैं | लेक़िन एक इशारा भी है - ये पूर्ण नहीं हैं, आधे-अधूरे हैं| उदाहरण के लिए महाभारत ग्रन्थ साठ लाख श्लोकों का बना जिसमें केवल एक लाख श्लोकों की संहिता मानवों के लिए उपलब्ध हुई (देखिये, महाभारत, स्वर्गारोहण पर्व)| मैंने दो सौ से अधिक उपनिषदों के होने की बात पढ़ी है, लेक़िन केवल 108 को देख सका हूँ | विनोबाजी ने (परशुराम के) समुद्रोपनिषद का उल्लेख किया है, पर मुझे अब तक देखने में नहीं आया है|
हम अभी तक इंडस लिपि (हरप्पा और उससे प्राचीन सभ्यता) को डिसायफर नहीं कर पाए हैं|
वेद व शास्त्र अधिकतर श्रुति और स्मृति में आते हैं| तक्षशिला विश्वविद्यालय के अवशेष भर बच रहे हैं, किताबें लुप्त हो गयीं, जला दी गयीं, विद्वान मर-मरा गए| श्रुति-स्मृति नष्ट हो गयी| उपलब्ध शास्त्रों में बहुत सारे ग्रंथों का उल्लेख है, पर वे आज अनुपलब्ध हैं|
देश स्वतंत्र हुआ| किन्तु परतंत्र भारत में संस्कृत पर जितना शोध हुआ था, स्वतंत्र भारत में उतना भी न हो सका | संस्कृत पूजा कराने की भाषा बनकर रह गयी, इसे धर्म के साथ जोड़ दिया गया (वही हालत उर्दू, फ़ारसी की भी हुई)| हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया गया और सोचा गया कि प्रेमचंद और सुमित्रानंदन पंत के साहित्य के जरिये रोबोटिक्स पढ़ाया जा सकता है अतः अँगरेज़ी को फ़ौरन से पेश्तर हंकाल बाहर करना उत्तम होगा | केवल हिंदी पढ़े हुए व्यक्तियों का समाज अछरकट्टू ही रह सकता है|
वेद निस्सीम है, अपौरुषेय हैं, स्फोट के प्रकाश से प्रकाशित हुए हैं| उन्हें कर्मकांड और धर्म से बांधना आत्मघाती भूल है| आज धरती पर जितने शास्त्र हैं, सब वेद के अंग हैं, आने वाले शास्त्र भी वेद के ही अंग हैं| जहाँ भी स्फोट के प्रकाश से प्रकृति के नियम दिखने लगते हैं, वह वेद का अंग है| भाषा कोई भी हो, लिपि कोई भी हो, ऋषि कोई भी चिंतक हो, वेद को उससे कोई लेना देना नहीं है | उगते सूरज के किरणों की भाषा क्या है? उफनते सागर की भाषा क्या है ? चक्रवात और बिजली कौंधने की भाषा क्या है ?

[अपौरुषेय - विचार और उनकी अभिव्यक्ति पौरुषेय (personal, dependent on the personal constitution, traits, circumstances, idiosyncrasies) हो सकती है और अपौरुषेय (impersonal, independent of the personal constitution, traits, circumstances, idiosyncrasies) हो सकती है| वैज्ञानिकों को जो प्रकृति के नियमों का आभास होता है वह अपौरुषेय होता है | विचारों की दुनियाँ में एक स्फोट होता है और वैज्ञानिक का मन एक विचित्र प्रकाश में नहा जाता है, उसे प्रकृति के किसी नियम का revelation हो जाता है, वह अनजाने में मुस्कुराने लगता है (हृष्यामि च मुहुर्मुहुः in Gita)| यह अनुभव व्यक्तिगत कल्पना नहीं वरन सत्य का आभास है| यह व्यक्तिसापेक्ष नहीं होता, व्यक्तिनिरपेक्ष होता है| यही ज्ञान अपौरुषेय कहलाता है| इस अपौरुषेय ज्ञान की अनुभूति कभी-कभी सुनाई देती सी लगती है (श्रुति); कभी दिखाई देती है (अर्जुन के द्वारा देखा हुआ विराट रूप); कभी स्पर्श की हुई सी लगती है; कभी पहले देखी-सी लगती है (Déjà vu; Clairvoyance)|]

वेदों के चार स्तर: वेदों के चार स्तर (layers) बताये गए हैं (१) संहिता (२) ब्राह्मण (३) आरण्यक, और (४) उपनिषद|
संहिता सिद्धांत पक्ष (Principles) को प्रतिपादित करती है, ब्राह्मण प्रयोगात्मक विधि (प्रैक्टिकल) को, आरण्यक गहन चिंतन (deep meditation) को और उपनिषद अनेकत्व में एकत्व देखने (generalization) को|
दुर्भाग्यवश आरण्यक का अर्थ वन, जंगल, वानप्रस्थ आश्रम से सम्बंधित कर दिया गया है| मेरे विचार में आरण्यक का सम्बन्ध अरण्य (जंगल) से नहीं होकर अरणि से है जिसका संकेत आत्मचिंतन (deep meditation) से है जैसे आत्मानं अरणिं कृत्वा प्रणवश्चोत्तरारणिं| ज्ञान निर्मथनाभ्यसात पाशं दहति पण्डितः (कैवल्योपनिषद -११)| गहन चिंतन अनेकत्व से एकत्व की तरफ़ ले जाता है| यही विज्ञान की प्रकृति है|
देवताओं की स्तुति एवं अभ्यर्थना (संहिता) यज्ञ/पूजन की विधि और मन्त्र (ब्राह्मण), विधियों एवं मन्त्रों पर चिंतन (आरण्यक) तथा अध्यात्मचिंतन (उपनिषद) वेदों का समग्र रूप नहीं है| समग्र वेद जितने ऐहिक (worldly) हैं उतने ही पारलौकिक (other-worldly) भी हैं|
वेदों के स्तरों को आश्रम से तथा वयस (उम्र) से जोड़ना अनावश्यक और भ्रमकारक है (संहिता को ब्रह्मचर्य आश्रम (२५ वर्ष की उम्र तक), ब्राह्मण को गृहस्थाश्रम (२५-५० वर्ष की उम्र), आरण्यक को वानप्रस्थ आश्रम (५०-७५ वर्ष की उम्र) और उपनिषदों को सन्यास आश्रम (७५- उम्र) से जोड़ना) | आदिशंकराचार्य ने इन आश्रमों का पालन कब किया? अतः बात सिद्धांतों के जानने, उनके प्रयोगविधि का अभ्यास करने, गहन चिंतन करने और अनेकत्व में एकत्व देख सकने की है| इनका वर्णाश्रम धर्म या उम्र से कोई सम्बन्ध नहीं है|

युद्ध के प्रकार

युद्ध के अनेक प्रकार हैं जिसमें एक शाखा है राजनीतिक युद्ध| राजनीतिक युद्ध के पाँच मुख्य प्रकार हैं| (१) शीतयुद्ध, (२) कूटयुद्ध, (३) गृहयुद्ध, (४) सैन्ययुद्ध, और (५) विश्वयुद्ध| किसी भी राष्ट्र के देशभक्त इन युद्धों में दुश्मनों और दोस्तों की सही पहचान करते हैं, दोस्तों की मदद करते हैं, दुश्मनों के फेंके फंदों से अपने को बचाते हैं, दुश्मनों का मुक़ाबला करते हैं, दुश्मनों से अपने नागरिकों एवं संपत्ति को बचाते हैं, सजग रहते हैं, अनुशासित (disciplined) रहते हैं|
सेना सात तरह की होती है: (१) तैनात शस्त्रधारी सेना, (२) आरक्षित शस्त्रधारी सेना, (३) सहायक सेना, (४) कूटसेना, (५) प्रशासकीय सेना, (६) व्यवस्थापक सेना, और (७) जनसेना | पहली तीन तरह की सेना (जो प्रायः यूनिफार्म में रहती है और खुले रूप में शस्त्र रखती है) सरहद पर या उसके इर्द-गिर्द होती है और स्पष्ट रूप से लड़ाई लड़ती है| कूटसेना राष्ट्र के अंदर भी छिपी रहती है, मित्रदेशों में छिपी रहती है और शत्रुदेशों में भी छिपी रहती है| यह सेना साधारणतः शस्त्रों का इश्तेमाल नहीं करती, पर कूटनीति की वाहक होती है| प्रशासकीय तथा व्यवस्थापक सेना राष्ट्र की व्यवस्था को चाक-चौबन्द रखती है, अव्यवस्था और अराजकता पर नियंत्रण रखती है, पहली चार तरह की सेना को सुविधाएँ मुहैय्या करवाती है, यातायात और सम्प्रेषण तंत्र को क्षतिग्रस्त होने से बचाती है, नागरिकों के असंतुष्ट और विद्रोही होने पर रोकथाम करती है| जनसेना उपर्युक्त पहली छः तरह की सेना को हर तरह की सहायता और सुविधा प्रदान करती है, अराजकता नहीं होने देती है, यातायात और सम्प्रेषण तंत्र को टूटने से बचाती है, उत्पादक शक्तियों को क्षतिग्रस्त होने से बचाती है, अफ़वाहों से बचती है, अफ़वाहों को फैलने-फैलाने से रोकती है, एकता को टूटने से बचाती है, आपसी कलहों को हवा देने से बचती है, नागरिक कर्तव्यों को सजग और समर्पित होकर निभाती है| कूटयुद्ध में दुश्मन सबसे पहले जनसेना पर हमला करके उसे कमज़ोर बनाता है, उसके बाद व्यवस्थापक तथा प्रशासकीय सेना पर छिपे (प्रच्छन्न) हमले करता है|
हर नागरिक किसी न किसी तरह राष्ट्र की सेना का एक अंग है| सेना के जवान केवल शस्त्रास्त्रधारी ही नहीं हैं, अपितु जनता भी है जिसके हाथों में कोई बंदूक नहीं होती|

अभिनय, मुखौटा, पाखंड, प्रदर्शन, दम्भ और जीवन

भीष्म से बड़ा ब्रह्मचारी शायद ही पैदा हुआ हो, उनके ब्रह्मचर्य व्रत पर ऋषियों की रूह काँप जाती थी, लेक़िन उन्होंने कभी औरतों का हमबिस्तर होकर अपने ब्रह्मचर्य को जाँचने की आवश्यकता नहीं समझी, न ही इसपर कोई लेक्चर दिया और न क़िताब लिखी| उन्हें अपने ब्रह्मचर्य के प्रदर्शन की ज़रूरत नहीं थी|
चाणक्य से बड़ा राष्ट्रवादी, ज़िद्दी, त्यागी और राजनीति का पंडित नहीं हुआ, पर उन्होंने कभी त्यागी या राष्ट्रवादी होने का दम नहीं भरा| उन्होंने राष्ट्र को एक सूत्र में जोड़ा और इसके लिए हर तरह का ख़तरा मोल लिया, यहाँ तक कि अपने लिए कौटिल्य नाम को स्वीकार किया, बदनामी मोल ली| उन्होंने अपने को संत दिखाने की आवश्यकता नहीं समझी|
दधीचि से बड़ा कोई दानी नहीं हुआ| राजा बलि, हरिश्चंद्र वग़ैरह दधीचि के सामने पानी भरेंगे| देव शिल्पी विश्वकर्मा ने दधीचि की हड्डियों से देवराज इंद्र के लिए वज्र नामक अस्त्र का निर्माण किया जिससे वृत्रासुर का संहार हुआ| दधीचि ने कोई नाटक-नौटंकी नहीं किया|
नारद से बड़ा कोई विद्वान नहीं था, पर उन्होंने (छान्दोग्य उपनिषद में उल्लेख है) कभी ज्ञानी होने का दम्भ नहीं किया| नारद का सम्मान सभी करते थे, राक्षस, दैत्य, देवता, ऋषि, मानव, नाग, किन्नर, सभी| वह अभिमानी नहीं थे|
भगवान बुद्ध से बड़ा शांत, अहिंसाव्रती और करुणापूर्ण कोई मानव नहीं हुआ, पर उन्होंने कोई पाखंड नहीं किया| श्री रामकृष्ण परमहंस से बड़ा सारे धर्मों को समानदृष्टि से देखने वाला कोई नहीं हुआ, पर उन्होंने इसका कोई दिखावा नहीं किया|
अभिनेता (खलनायक) प्राण का अभिनय इतना प्रभावशाली था कि जनमानस में उनके दुष्ट होने की छवि अत्यंत गहरी थी| वास्तविक जीवन में वह निहायत भले आदमी थे|
धारावाहिक (रामानंद सागर) रामायण में राम और सीता के अभिनय करने वाले अरुण गोविल और दीपिका जनमानस में ऐसे वसे कि उनका आगे का अभिनय किसी ने स्वीकार ही नहीं किया| वे राम सीता बन कर मिट गए|
निकोलो मैकियावली जैसा ईमानदार दार्शनिक अपनी ईमानदार और खरी क़िताब द प्रिंस (The Prince) के चलते बदनाम हो गया; गाँधी अपने द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ (The Story of My Experiments with Truth) लिखकर नाम कमा गए| तभी तो मैकियावली ने लिखा था -“Everyone sees what you seem to be, few know what you really are; and those few do not dare take a stand against the general opinion.” और भी “The vulgar crowd always is taken by appearances, and the world consists chiefly of the vulgar.” खद्दर चद्दर सब कोई देखे, मन के तिकड़म जाने कौन | नाटकबाज़ी की दुनियाँ में छलियों को पहचाने कौन||
अभिनय, मुखौटा, पाखंड, प्रदर्शन और दम्भ सत्य नहीं हैं और इनका आचरण सत्य के साथ प्रयोग नहीं, राजनीति में सत्याभासी छल-छद्म का प्रयोग है| इनकी सीमा राजनीतिक रंगमंच तक ही सीमित रखना लाभप्रद और स्वास्थ्यप्रद है| स्टेज के बाहर गोविल को राम मानना, दीपिका को सीता मानना, अरविन्द त्रिवेदी को रावण और मुकेश रावल को विभीषण मानकर उनसे नफ़रत करना, गाँधी को महान चतुर और समर्पित राजनीतिज्ञ के बदले संत महात्मा मानना नासमझी के सिवा और क्या है?

सत्य के अर्थ और प्रकार

सत्य के नाम पर कई चीजें चलती हैं और इस शब्द का प्रयोग करनेवाले बहुधा यह नहीं बतलाते कि कि वे इसका प्रयोग किस अर्थ में कर रहे हैं| सत्य शब्द का प्रयोग निम्नलिखित अर्थों में होता है:
१. ऋतार्थक सत्य (Ontological Truth): प्रकृति में जो जैसा है वह स्थिति| इसको वस्तुस्थिति सत्य भी कह सकते हैं| दूसरी भाषा में यह फ़ैक्ट (Fact) है| इस सत्य के लिए जानना या कहना आवश्यक नहीं है| कल्पना कीजिये - आज इस दुनियाँ में कोई व्यक्ति या जीव न रहे, कोई देखने-सुनने-कहने वाला न रहे, तब भी प्रकृति में कुछ रहेगा, होता रहेगा| यह ऋत सत्य है| प्रकृति (और परब्रह्म, अगर आप परब्रह्म और प्रकृति को अलग मानते हैं तो) ऋत सत्य है, परिवर्तन और विकृति उसका स्वभाव है| इस सत्य के लिए मानव, ज्ञाता, वक्ता, श्रोता वग़ैरह का होना ज़रूरी नहीं है|
२. ज्ञानार्थक सत्य (Epistemological Truth): जब जीव रहते हैं (मानव रहता है) तो ऋत का संज्ञान होता है, ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ऋत की अनुभूति होती है, ऋत का एक नक़्शा चेतना पर बनता है| ज्ञानार्थक सत्य व्यक्तिगत होता है| इसके लिए किसी अन्य व्यक्ति का होना आवश्यक नहीं है| ध्यातव्य है कि नक़्शा एक छाया है और यह ऋत का पूर्णतः प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, केवल अंशतः प्रतिनिधित्व करता है| ज्ञानेन्द्रियों की अपनी सीमाएँ हैं| दूर की चीज़ें छोटी लगती हैं, छोटी होती नहीं हैं; आकाश क्षितिज पर धरती से मिलता-सा दिखता है, मिलता नहीं है| मनुष्य कुछ चीज़ों को देख, सुन या सूंघ नहीं सकता पर दूसरे जानवर उसे महसूस करते हैं| चिंतन और अनुमान इस संज्ञान, ज्ञानार्थक सत्य, को ऋत के क़रीब लाने में सहायक होते हैं लेक़िन वे हमेशा सफल हों यह आवश्यक नहीं है| ऋतार्थक और ज्ञानार्थक सत्य में दूरी रह ही जाती है, भ्रम हो ही जाता है| ज्ञान की सीमा है, ज्ञाता की सीमा है किन्तु ऋत निस्सीम है| फिर भी, जीवन को इसी सीमा में रहना होगा, कोई विकल्प नहीं है|
३. अभिव्यक्त सत्य (Expressed Truth): जब ज्ञानार्थक सत्य कर्मेन्द्रियों द्वारा प्रकाशित होता है - कि दूसरे भी उसे जानें - तो यह अभिव्यक्त सत्य है| यह सत्य इशारों, इंगितों, आकृतियों, हाव-भाव, वाणी, लेखन आदि से संचारित होता है| अभिव्यक्त सत्य सप्रयास (intended, volitional) या अप्रयास (unintended, autonomous) हो सकता है| ज्ञानार्थक सत्य व्यक्तिगत होता है, किन्तु अभिव्यक्त सत्य सामाजिक हो जाता है| यह अभिव्यक्त सत्य सीमित होता है| कर्मेन्द्रियों की सीमा, शब्दों की सीमा, इंगितों की सीमा, लेखन की सीमा इत्यादि अभिव्यक्त सत्य को ज्ञानार्थक सत्य से दूर करती हैं| यहीं वर्णनातीत की, अकथनीय, इत्यादि की बात आती है| जब जानबूझ कर किसी उद्देश्य से ज्ञानार्थक सत्य और अभिव्यक्त सत्य में दूरी पैदा की जाती है तो इसे झूठ, धोखा, छल, प्रवंचना, पाखंड कहते हैं|
४. सैद्धांतिक या प्रारूपात्मक सत्य (Axiomatic Truth): जब कुछ मान्यताओं को स्वीकार कर लिया जाता है तो उन मान्यताओं के अनुरूप अनेक बातों का निगमन होता है और उन्हें सत्य माना जाता है| गणित के सत्य सैद्धांतिक होते हैं| इस तरह के सत्य की सीमा उनके आधारभूत सिद्धान्तों के सत्य और उनकी सीमाओं पर निर्भर करती है| अगर आधारभूत मान्यताएँ बदल जाएँ तो सारे प्रारूपात्मक सत्य धराशायी हो जाते हैं| शास्त्र बहुधा इसी तरह के सत्य को प्रतिपादित करते हैं| सैद्धांतिक या प्रारूपात्मक सत्य हमेशा अभिव्यक्त सत्य होते हैं, लेकिन अभिव्यक्त सत्य का सैद्धांतिक या प्रारूपात्मक सत्य होना आवश्यक नहीं है|
५. पारम्परिक सत्य (Conventional Truth): हर समाज की अपनी परंपरा होती है, संस्कृति होती है, मिथक होते हैं, रूढ़ि होती है| इनको सत्य माना जाता है, इसमें समाज का विश्वास स्थापित होता है| इनके सत्य का प्रमाण इनका पारम्परिक होना या शास्त्रों में लिखा होना है| सिवा मिथक या शास्त्रों के प्रमाण के यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि ब्रह्मा के चार मुँह हैं, ब्राह्मण का जन्म विराट पुरुष के मुँह से हुआ, या मूसा (Moses) के सामने भगवान (Yahweh) झाड़ी की आग के रूप में प्रकट हुए थे| धर्मग्रन्थ इस तरह के पारम्परिक सत्यों की खान हैं| राजनीति भी इस तरह के सत्यों को सुस्थापित (reinforce) करती है, या उनकी बखिया उधेड़ती है, नए सत्यों को स्थापित करती है| भारत की स्वतंत्रता के लिए की गयी लड़ाई में और उसके बाद भी बहुत से ऐसे सत्यों की स्थापना हुई|
६. प्रासंगिक सत्य (Incidental and Contextual Truth): मैंने (सच या झूठ) आपसे कहा, और आपने मेरा विश्वास करके वही बात किसी अन्य को कही| आपने तो सच ही कहा लेकिन आपके कहे का सच होना मेरे कहे के सच होने पर निर्भर है| मेरी बात झूठ थी, आपने सत्य बोलते हुए भी झूठ बोला या झूठ बोलते हुए भी सत्य कहा| अफ़वाहों में ऐसे ही सत्य और झूठ होते हैं| इसका विवेचन प्रसंग पर निर्भर करता है|
७. व्यावहारिक सत्य (Practical Truth): आपने पूछा - कैसे हैं? मैंने उत्तर दिया - ठीक-ठाक हूँ| यह केवल फॉर्मेलिटी है, व्यावहारिक सत्य है क्योंकि सत्य जानने के लिए आपने पूछा नहीं था और आते-जाते में आपको अपनी सारी बातें बतला नहीं सकता, अपना दुखड़ा रो नहीं सकता| सामाजिकता से बंधा हूँ|
८. आचरणीय सत्य (Moral or Pragmatic Truth): समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए, उसके विकास और कल्याण के लिए,दुराचार का शमन करने के लिए, कमज़ोरों को न्याय और सुरक्षा देने के लिए कुछ नियमों, आचारसंहिताओं और कानूनों का बनाया जाना आवश्यक है| इसके लिए कुछ आस्थाओं का सृजन भी ज़रूरी है| तमाम धर्म ऐसी आस्थाओं का, विश्वासों का, कल्पनाओं का, काल्पनिक सत्ताओं एवं अस्तित्वों का, धारणाओं का सृजन करते हैं और उन्हें सत्य मानते हैं| आचरणीय सत्य ऋत नहीं हैं, पर उनकी सामाजिक उपयोगिता है| स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, पिछले जन्म के कर्म इत्यादि की धारणा और उनके अस्तित्व का सत्य आचरणीय सत्य के मूलभूत स्तंभ हैं| इस तरह के सत्य का मूल आधार सामाजिक उपयोगिता (Pragmatism) है जहाँ सत्य उपादेयता और अपने वांछित प्रभावों के कारण स्थापित होता है|
९. तर्कातीत सत्य (Extralogical Truth): कभी-कभी सत्य के नाम पर ऐसी बातें कही जाती हैं जो अपनी तार्किक रचना की बदौलत असत्य साबित की ही नहीं जा सके और इसीलिए अकाट्य हो जाती हैं| उदाहरण के लिए 'सब कुछ समय पर होता है' तर्कातीत सत्य है क्योकि अगर कुछ हुआ तो उसके होने का समय आ गया था और कुछ नहीं हुआ तो उसके होने का समय नहीं आया है| दोनों हालत में 'सब कुछ समय पर होता है' सत्य साबित होता है क्योंकि इसे अपनी रचना के चलते झुठलाया नहीं जा सकता| ऐसे non-falsifiable कथन तर्कातीत होते हैं| भाग्य की परिकल्पना भी इसी श्रेणी में आती है| कुछ हुआ तो भाग्यवश और न हुआ तो भाग्यवश| भाग्य अदृष्ट होता है और इसका कार्य-कारण सम्बन्ध भी स्थापित नहीं किया जा सकता| अतः भाग्य की महत्ता मानने के सिवा कोई चारा नहीं और इस तर्कातीत कथन को सत्य कथन मान लिया जाता है|
१०. सामाजिक सत्य (Social Truth): जब कोई वक्तव्य समाज के अधिकतर लोगों व स्थानों पर और प्रायः सही होता है (किन्तु उसके कुछ-एक अपवाद पाये जाते हैं) तो उसे सामाजिक सत्य का दर्ज़ा मिलता है| इनकी प्रकृति इन्हें ऊँचे दर्ज़े की सम्भवता (likelihood) प्रदान करती है जिसके 'विपरीत वक्तव्य' (contrary) के सही होने की सम्भवता बहुत कम होती है| उदाहारण के लिए अगर कोई गाड़ी अक्सर लेट आती है तो 'फलानी गाड़ी लेट आती है' को सत्य मानकर हम उसपर विश्वास करते हैं और तदनुरूप कार्य भी करते हैं| सामाजिक सत्य गणितीय सत्य की तरह सौ प्रतिशत सत्य नहीं होता|

राखी

'क्या तेरा कोई भाई नहीं है, शीतल? कभी कोई तुमसे राखी बंधवाने नहीं आता'?, पड़ोसन उर्मिला ने शीतल से पूछा| शीतल चुप रह गयी, सूनी-सूनी ख़ुश्क आँखों के साथ|

मन ही मन शीतल कहने लगी - 'हैं क्यों नहीं, तीन-तीन हैं, एक बड़ा भाई और दो छोटे भाई| बड़ा सूरत में रहता है, सुना है बड़ा बिज़नेसमैन है, हवेली जैसा घर है, मोटर है, नौकर हैं - बहुत सम्पत्ति है उसे| भाभी भी सुन्दर मिली है, दो प्यारे-प्यारे बच्चे भी हैं|' उसे छुट्टी ही नहीं मिलती है बिज़नेस से| ससुराल तक साल में एक ही वार जाता है, वो भी जब भाभी बहुत ज़िद करती है|

मँझला भाई विदेश में जाकर बस गया, बहुत बड़ा इंजीनियर है| वह तो माँ-बाप को देखने नहीं लौटा, मेरे पास क्यों आएगा राखी बँधवाने!

छोटा भाई प्रोफ़ेसर है, पढ़ता लिखता रहता है| उसे ककहरा और पहाड़े मैंने ही पढ़ाये थे| आगे पढ़ने में बहुत तेज़ निकला|

अच्छा है, राखी बँधवाने कोई नहीं आता| कोई आएगा तो मेरी ग़रीबी पर उसे तरस आएगा| कहाँ बैठाऊंगी? मेरी खोली में एक ही कमरा है| उसी में हम चार जने रहते हैं, फ़र्श पर बिछावन लगा है| पति लकवा-ग्रसित है| बेटी पड़ोसिनों के बरतन माँज कर कुछ कमा लेती है| मैं दिनभर कपड़े सीती हूँ तो पेट चलता है| मन्नू स्कूल तो जाता है, लेक़िन खिचड़ी खाने| वह पढ़ेगा नहीं| थोड़ा बड़ा होगा तो कोई काम पकड़ लेगा| भगवान ने मुँह दिया है तो आहार भी देगा|

एक राखी पाँच रूपये की आती है| अगर तीनों भाई एक साथ आ जाएँ तो! मानो उनके बच्चे भी बुआ से मिलने आ जाएँ तो?

नहीं, वे नहीं आयेंगे| अच्छा है कि नहीं आयेंगे| मेरी हालत देखकर दुखी ही होंगे| जहाँ हैं, रहें, सुखी रहें|

शीतल दरवाज़े पर खड़ी कुछ देर सोचती रही|

फिर वह झपट कर कमरे के अंदर चली गयी| बोबिन से एक टुकड़ा धागा तोड़ा और उसे कोने में रखे कृष्ण की मूर्ति की कलाई में लपेट दिया|

बोली, कोई नहीं आया, न आये| तू तो है किशन| तुझे तो मुझको बहन कहने में शरम नहीं आएगी?

शीतल की ख़ुश्क आँखे गीली हो गयी थीं|