गुरुवार, 28 जुलाई 2016

फुग्गे



मेरे मोहल्ले में एक छोटा सा बच्चा रहता था। बहुत चंचल, बहुत प्यारा, बहुत मासूम। चहकता रहता था। उससे मेरी मुलाक़ात अक़्सर होती थी, सामने के पार्क में, जहां मैं हर-रोज़ तो नहीं, शाम को अक्सर जाया करता था। वह बच्चा हर घड़ी उछलता कूदता रहता था। मुश्किल से कभी पकड़ा जाता तो दो छन बात करना भी उसे भारी पड़ता था, कहता, अंकल अब जाता हूँ, वो देखो, चार कबूतर जमीन पर उतर चुके हैं।उसकी शरारत देखने के लिए मैं उसे छोड़ दिया करता था। 

उसे फुग्गों से खेलना बहुत अच्छा लगता था। रंग-बिरंगे फुग्गे। बड़े-छोटे फुग्गे। दिल-जैसे फुग्गे, अंजीर-जैसे फुग्गे, घीया-जैसे फुग्गे, बड़े ग्लोब-जैसे फुग्गे। अगर किसी को उससे बात करनी हो तो चंद बिना-फुलाये फुग्गे लेकर पहुँच जाये पार्क में, और एक फुग्गे को मुँह से फुलाना शुरू कर दे। वह न जाने कहाँ छुपा रहता था कि फुग्गा फूला नहीं और वह हाज़िर।सारे फुग्गे फुलवा कर ही दम मारता, और फिर फुग्गे उड़ाने में मस्त। दुनियाँ से कुछ लेना-देना नहीं। सिर्फ़ वह, और उसके रंग-बिरंगे फुग्गे। कभी-कभी किसी झाड़ी से टकराकर कोई फुग्गा फूट जाता तो बड़ा मायूस होता, जैसे सारी दुनियाँ ही लुट गयी हो। 
  
इधर कोई एक महीने से अब मैं पार्क की ओर रुख़ नहीं करता। जब जाया करता था, तो कई दिनों से उसे पार्क में खेलते नहीं देखा। रोज़-रोज़ अपने अनफूले फुग्गे लिए पार्क से लौट आया करता था। कई शाम यूँ-ही गुजर गए तो मैंने एक बुजुर्ग़ से पूछ ही लिया कि वह बच्चा पार्क में क्यों नहीं दिखता, उसके मां-बाप उसको साथ लिये कहीं चले गए हैं क्या? बुजुर्ग़ का चेहरा ग़मगीन हो गया; वह कुछ देर चुप रहा, फिर ऐसे बोला कि उसकी सांसें अंदर-अंदर कुछ समेट रहीं हों  - आप नहीं जानते? पाँच-छः दिनों पहले शाम में वह फुग्गे उछालता उड़ाता उस झाड़ी के पास चला गया। काल ले गया उसे वहाँ। काट लिया काली नागिन ने। पाँच मिनट में सब-कुछ ख़त्म। बुजुर्ग़ ने एक घुटी-घुटी आह भरी और उलटे मुड़ वहाँ से खिसक गया। 

मेरी जेब मैं बहुत-सारे रंग-बिरंगे अनफूले फुग्गे थे। मैंने उन्हें जेब से निकाल कर वहीं पार्क में फेंक दिया। अब मैं पार्क की ओर रुख़ नहीं करता। लगता है, अगर मैं पार्क में गया तो वे अनफूले फुग्गे उछल कर मेरी गोद में आ बैठेगें और ज़िद करने लगेंगे कि मैं उन सब को फुलाकर हवा में उड़ा दूँ।