गुरुवार, 12 सितंबर 2019

बैकुंठ का नवीकरण

कुछ साल पहले जब नारद जी विष्णु भगवान के घर पर उनसे मिले तो भगवान ने पूछा - कहो नारद, कहाँ का चक्कर लगा कर आ रहे हो ?
नारद : और कहाँ से आयें प्रभु, भारत से आ रहा हूँ |
भगवान : वहां अपना मंदिर बन गया नारद ? कैसा बना है ? हमारा गृहवास समारोह कब तक हो जायेगा?
नारद : कहाँ प्रभु, अभी तक तो नींव भी नहीं पड़ी |
भगवान : क्यों ? चार साल लगा दिए, अभी तक नींव भी नहीं पड़ी ? क्या कर रहे हैं वे लोग ?
नारद : प्रभु, आप आदमी की समस्या नहीं समझते | केंकड़े उनसे बेहतर हैं| कोई आदमी थोड़ा सा आगे बढ़ा नहीं, सात विरोधी उसकी टांग खींच कर उसे पुरानी जग़ह ला खड़ा करते हैं | आदमी आगे बढ़े भी तो कैसे ?
भगवान : तुम वार-वार आदमी शब्द का प्रयोग कर रहे हो, नारद| क्या भारत के लोग अब मानव नहीं रहे या तुम्हारी भाषा बिगड़ चुकी है ?
नारद : क्षमा, भगवन | भारत में घूमते-फिरते रहने के कारण मैं अब पूरी तरह से समझ गया हूँ कि शब्दों के प्रयोग में हमें संस्कृति-निरपेक्ष होना चाहिए| वैसे भी, वहाँ मनु महाराज की बहुत छीछालेदर हो चुकी है | मैं मानव शब्द का प्रयोग करके मनुवादी नहीं कहलाना चाहता | लोग बड़ी बेईज्ज़ती करते हैं | इसीलिए मैं अब आदमी शब्द का इश्तेमाल करने लगा हूँ | यह निरापद है| वैसे भी मुझे बहुत वार भारत जाना है|
भगवान : अच्छा, जो मन आये, बोलो | लेक़िन यह तो बताओ कि मंदिर कब तक बन जायेगा ? मैं बैकुंठ में रहते-रहते बोर हो गया हूँ|
नारद : देखिये भगवन, अपने लोगों को और तीन-चार टर्म तो देने ही होंगे | जब अदना-से ताजमहल के तैयार होने में तीस साल लगे, तो आपका मंदिर बीस साल से कम क्या लेगा ?
भगवान : लेक़िन कल तो हमारे पास मय दानव और विश्वकर्मा जी दोनों आये थे | कह रहे कि मैं उन्हें आज्ञा दूँ तो वे पूरा मंदिर दो महीने में बना देंगे| मैं भी सोच रहा था कि इन्हीं दोनों को ठेका क्यों न दे दिया जाये | मुझे थोड़ी जल्दी है नारद, बैकुंठ में जग़ह की बड़ी क़िल्लत हो गयी है |
नारद: प्रभु, भारत के लोगों को एक मौक़ा तो दें| ये मय और विश्वकर्मा अगर मंदिर बनायेंगे तो वह इम्पोर्टेड तकनीक से बनायेंगे | अभी भारत में 'मेक इन इंडिया' का प्रचलन है| सांसदगण शायद ही मय और विश्वकर्मा को मंदिर बनाने दें | आप अपने ही लोगों से झमेला मोल लेना क्यों चाहते हैं? तत्काल की समस्या को हल करने के लिए आप बैकुंठ का ही नवीकरण क्यों नहीं कर लेते हैं ?
विष्णु भगवान अभी कुछ बोल भी नहीं पाए थे कि लक्ष्मी जी ने मय और विश्वकर्मा का ध्यान किया| वे पलक झपकते हाज़िर हो गए | भगवान कुछ समझ पायें, इसके पहले लक्ष्मी ने आदेश दिया - मय जी और विश्वकर्मा जी, बैकुंठ का नवीकरण शुरू करें | धरती पर घपला-ही-घपला चल रहा है | शायद घर वहाँ कभी न बन सके|
लक्ष्मी जी के तेवर देख कर नारद जी डर गये और अंतर्धान हो गये |
******************************************************
बैकुंठ के नवीकरण के लिए जैसे ही लक्ष्मी जी की आज्ञा मिली, मय और विश्वकर्मा, तीन दिनों के अंदर-अंदर, अपना-अपना डिज़ाइन और एस्टीमेट जमा कर गए | दोनों के डिज़ाइन मूलतः एक-ही थे - ज़्यादा काम तो रिपेयर वर्क था - लेक़िन उनके एस्टीमेट में १:३ का अनुपात था | मय के एस्टीमेट बहुत कम थे | लक्ष्मी जी ने भगवान से मशवरा किया | भगवान ने बड़ी बेतक़ल्लुफी से राय दी कि मय और विश्वकर्मा से ही पूछ लिया जाये | अतः लक्ष्मी जी ने दोनों का ध्यान किया और दोनों भगवान के दरबार में हाज़िर हो गए | इसी वक़्त नारद जी वीणा बजाते हरिगुण गाते वहाँ प्रकट हो गए | अब उन्हीं की जुबानी सुनिए |

लक्ष्मी जी: मय जी और विश्वकर्मा जी | हमने आपकी डिज़ाइनें देखीं | दोनों तक़रीबन एक-सी हैं और होनी भी चाहिए| लेक़िन आपलोगों के एस्टीमेट में बड़ा फ़र्क है | इसका क्या कारण है?
मय दानव : देवी, आप हमारे वंश की बेटी हैं और भगवान दामाद हैं | हम दानव अब उतने संपन्न नहीं रहे जितना पहले हुआ करते थे | नहीं, तो हम बैकुंठ का नवीकरण विना कोई एस्टीमेट दिए, अपने पैसे से कर देते | बेटी-दामाद का घर रिपेयर करने के लिए पैसा चार्ज नहीं करते | अतः हमने वही एस्टीमेट दिया है जो रॉक-बॉटम पर है | अगर विश्वकर्मा जी के एस्टीमेट हमारे एस्टीमेट से कम हैं तो या तो उनसे जोड़-घटाव में भूल हुई है, या वह इंद्र महाराज से सब्सिडाइज़्ड रेट पर सामान लेंगे या फिर मिलावट करेंगे, दिल्ली-बाज़ार से ख़रीदा नक़ली सामान लगायेंगे | तीसरी संभावना ज़्यादा है| विश्वकर्मा जी देवता हैं - भोले-भाले हैं, ज़्यादा तिकड़म नहीं समझते, लेक़िन उनके भक्तगण बड़े तिकड़मी हैं | वे धेले-भर का प्रसाद चढ़ाकर और कुछ स्तोत्र सुनाकर विश्वकर्मा जी को प्रसन्न कर लेंगे | सप्लाई टेंडर ले लेंगे और नक़ली सामान चेंप देंगे | सारी रसीदों पर 'बिका हुआ माल वापस नहीं होगा" लिखा रहेगा और सारा दोष विश्वकर्मा का होगा | बाकी आप विश्वकर्मा जी को ही पूछ लें |
लक्ष्मी जी ने विश्वकर्मा की और देखा|
विश्वकर्मा: देवी, हमारे एस्टीमेट मय जी के एस्टीमेट से कम नहीं हो सकते अतः मय जी की बातों में कोई दम नहीं है | हमारे एस्टीमेट ज़्यादा इसलिए होंगे कि हम जीएसटी देते हैं | मय जी का सामान पाताल से आएगा जिसपर कोई जीएसटी नहीं लगता | लेक़िन मानवों और देवताओं के बीच हुए अनुबंध की तहत स्वर्ग और बैकुंठ आदि लोकों के निर्माण कार्य के लिए सारा सामान भारत से ही ख़रीदा जा सकता है | हम अनुबंध तथा क़ानून की अवहेलना नहीं कर सकते | इसलिये हमारे एस्टीमेट ज़्यादा हो सकते हैं, कम नहीं | कई और बातें हैं | भारत में सामान के मूल्य निरंतर बढ़ते रहते हैं- कॉस्ट-इसकलेशन होता रहता है | वहाँ दैत्यों का शासन नहीं है जो इतना चुस्त-दुरुस्त हो कि आज हेराफेरी की और कल बेड़ा ग़र्क| पाताल में तो लोग होर्डिंग तथा ब्लैकमार्केटिंग करने पर मृत्युदंड पाते हैं - सप्ताह भर में फ़ैसला हो जाता है क्योंकि पाताल में न डिमॉक्रेसी है न विभिन्न स्तर के न्यायालय| वहाँ तो ग़लत करने वाले के पक्ष से मुक़दमा लड़ने वाले वक़ील तक को सज़ा हो जाती है | चारों और भय व्याप्त है और लोग मट्ठा भी फूँक-फूँक कर पीते हैं | भारत में वह साँसत की जिंदगी नहीं है | लोग स्वतंत्र हैं और बोलने तथा आलोचना करने से डरते नहीं | लोग अपने अपने धर्म का पालन करते हैं और सारे दूकानदार गौमाता को रोटी खिलाकर ही ख़ुद खाते हैं | बची थोड़े अधिक दाम की बात | तो देवी, आपको क्या कमी है | बैकुण्ठ की छोड़िये | भारत के आपके एक-एक मंदिर में हज़ारों ख़रबों का सोना पड़ा है | उनसे हज़ारों स्वर्ग और सैकड़ों बैकुण्ठ बनाये जा सकते हैं | अतः आप थोड़े से अधिक एस्टीमेट से घबड़ाकर मय जी को ठेका मत दें | लोग कहेंगे कि बैकुण्ठ का रिपेयर दैत्य कर रहे हैं | कुछ लोग यह भी कहेंगे कि लक्ष्मी जी ने अपने पीहर वालों का पक्ष लिया है | कुछ लोग तो यहाँ तक चले जायेंगे कि अब बैकुण्ठ में भगवान की नहीं, लक्ष्मी की चलती है | भारत के सारे टुटपुँजिए अखबारों को बेसिरपैर की बातें फैलाने का मौक़ा मिल जायेगा | विरोधी राजनीतिकर्ताओं को भी मसाला मिल जायेगा | बैकुण्ठ के नवीकरण पर राजनीति न करवाइये | बाकी तो आप ख़ुद समझदार हैं |
मय दानव कुछ कहना चाहते थे, लेक़िन लक्ष्मी जी ने इशारे से उन्हें रोक दिया | फिर बोली - कल दोनों जने दस बजे सुबह दरबार में आइये | वे दोनों क्षण भर में ग़ायब हो गए |
लक्ष्मी जी नारद की ओर मुड़ीं और बोली - देखो नारद, ये बातें कॉन्फिडेंटिअल हैं | तुम्हारी बुरी आदत है कि तुम धरती पर जाकर सारी बातें जिस-तिस को सुनाते रहते हो - वह भी अपनी तरफ़ से नमक-मिर्च लगाकर | आज की बातें किसी से मत कहना | अब जाओ | हमारे प्रभु के आराम करने का वक़्त हो चला है |
लेक़िन नारद जी अपनी आदत से बाज क्यों आते?
*******************************************************************
पृथ्वी पर आकर, लक्ष्मी जी के मना करने के बावज़ूद, नारद ने कुछ गिने-चुने सेठों को बैकुंठ के नवीकरण और मय तथा विश्वकर्मा के ठेका लेने की पूरी कहानी बतला ही दी| इसके बाद नारद जी अलकापुरी की और जाने की सोचने लगे|

सेठ मनसुखलाल स्थापत्यकर्म में प्रयुक्त होने वाले सामानों के सबसे बड़े थोक व्यापारी थे| इस धंधे में उनका एकाधिकार-सा था| वह नारद जी को विदा करके सीधे अपने आवास के पूजागृह में घुसे और अपने सभी इष्ट देवताओं की चिरौरी करने लगे कि वे विश्वकर्मा से कहें कि वह बैकुंठ के नवीकरण में लगनेवाले सामान सीधे मनसुखलाल की दूकान से ही खरीदें| इसका पहला तात्कालिक फल यह हुआ कि बात देवताओं के ज़रिये इंद्र तक पहुँच गयी | दूसरा फल यह हुआ कि सेठ जी ने स्थापत्यकर्म में प्रयुक्त होने वाले सारे सामानों को तहखानों में रखवा दिया तथा उनके दाम दुगुने कर दिए | दाम बढ़ने की बात मिनटों में सारे भारत में फैल गयी और देश भर में उन सामानों के भाव तीन से चार गुने तक बढ़ गए | आपूर्ति पर पूर्ण नियंत्रण हो गया | भारत के सारे शहरों में मकान बनाने का काम रुक-सा गया | तैयार मकानों के दाम पाँच गुने तक बढ़ गए| कंस्ट्रक्शन कंपनियों के शेयर के मूल्य छलाँग लेकर बढ़ने लगे | सारा कुछ तीन घंटे में हो गया | आर्थिक जगत में मानो भूचाल आ गया |
अमरावती में इंद्र इस बात पर बेहद चिंतित हो गए कि लक्ष्मी जी ने मय दानव को फिर कल आने को क्यों कहा | कौन नहीं जानता कि सस्ता रोये बार-बार, मँहगा रोये एक बार| सस्ता काम करने के नाम पर ये दानव फिर अपने धंधे फैलाना चाहते हैं | आज बैकुण्ठ का ठेका ले रहे हैं, कल यमराज से मिलकर नरक रिपेयर करने का ठेका लेंगे, फिर भुवः लोक, स्वः लोक, सत्य लोक, ब्रह्मलोक, शिव लोक वग़ैरह का ठेका लेंगे| इन दानवों की पहुँच हर जग़ह है | आज लक्ष्मी को बेटी बना कर काम निकाल रहे हैं, कल पार्वती को हिमालय की पुत्री होने के नाते बेटी बनायेंगे, परसों शची को अपने वंश की बेटी कह कर अपने पक्ष में करेंगे | ये हर जगह बेटीवाद फैलायेंगे, जो निपोटिज़्म का ही एक रूप है |
उन्होंने एक सेविका को भेज कर शची को, जो लंच लेने के बाद एक झपकी ले रही थी, तुरंत बुलवाया और स्थिति की गंभीरता समझायी| फिर उन्होंने शची को कहा कि वह बैकुण्ठ की तरफ़ तुरंत रवाना हो और शाम ढलते-ढलते वह लक्ष्मी को समझा आये कि किसी हालत में मय दानव को ठेका नहीं देना है| ज़रूरत पड़े तो अपने देवर (विष्णु भगवान) को भी समझाये कि लक्ष्मी के ऊपर सारी ज़िम्मेदारी डालकर,आँखें बंद करके शेषशय्या पर पड़े रहने से दुनियाँ नहीं चलती | दानव छद्मवेश में स्वर्ग में घुसना चाहते हैं और अगर वह देवताओं का भला चाहते हैं तो किसी हालत में मय दानव को बैकुण्ठ नवीकरण का ठेका न दें |
शची को यह सब अच्छा नहीं लगा, लेक़िन उन्होंने मातलि (इंद्र के रथ के सारथि) को बुलाया और, एक अच्छी पत्नी की तरह, रथ पर बैठ कर बैकुण्ठ की और चल पड़ीं| उस समय अपराह्न के दो बज रहे थे |
********************************************************
अपराह्न के लगभग ढाई बजे महारानी शची बैकुंठ पहुँची और लक्ष्मी जी के भवन में प्रवेश किया | शची के असमय आने के कारण लक्ष्मी जी थोड़ा चौंकी लेक़िन इस आश्चर्य भाव को उन्होंने अपने चेहरे पर आने नहीं दिया | शची की आवभगत की, उन्हें सोफे पर बैठाया और झटपट रूह-अफ़ज़ा के दो गिलास बनाये| शची को एक गिलास पेश कर वह बग़ल में बैठ गयीं | कुशल क्षेम पूछने के बाद उन्होंने शची के तशरीफ़ लाने का कारण पूछा | शची ने विना किसी लाग-लपेट के सीधी भाषा में बातचीत शुरू की |

शची: लक्ष्मी, मैं तुम्हारे जेठ देवराज इंद्र के द्वारा भेजी गयी यहाँ आयी हूँ | उन्हें विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि बैकुण्ठ के नवीकरण के सन्दर्भ में कल मय दानव एवं विश्वकर्मा जी दोनों को तुमने बुलाया है | देवराज को यह भी मालूम है कि मय जी के एस्टीमेट की तुलना में विश्वकर्मा जी का एस्टीमेट काफ़ी ज़्यादा है | इसके बावज़ूद तुमने दोनों को कल बुलाया है| इससे तुम्हारी मनसा साफ़ ज़ाहिर होती है कि तुम काम का एक, शायद बड़ा, हिस्सा मय को देने वाली हो और बचा हिस्सा, कॉन्सोलेशन या तुष्टीकरण के तौर पर, विश्वकर्मा जी को देनेवाली हो| देवराज इंद्र दैत्यों को मिलने वाले इस मौक़े को गहरी राजनीतिक चाल की पृष्ठभूमि समझते हैं | उन्होंने साफ़ कहा है कि जब लक्ष्मी के पास अकूत सम्पत्ति है तो थोड़ा-सा पैसा बचाने के लिए वह दानवों को क्यों प्रश्रय दे रही है| समझदार व्यक्ति को हर कार्य के केवल आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक, सामरिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू पर भी विचार करना चाहिए| संक्षेप में देवराज चाहते हैं कि तुम कोई बहाना बना कर मय दानव को चलता करो और पूरा नवीकरण कार्य विश्वकर्मा जी को करने दो|
लक्ष्मी: सुनो दीदी, तुम्हें बतला दूँ कि विश्वकर्मा जी का एस्टीमेट मय जी के एस्टीमेट से तीन गुना ज़्यादा है | मैंने अपने सूत्रों से इसका कारण जानना चाहा| मुझे ज्ञात हुआ कि एस्टीमेट के स्वीकृत होने के बाद जो पैसा मिलेगा उसके तीन बराबर हिस्से होंगे | एक हिस्सा तो विश्वकर्मा जी को कच्चे बिल का भुगतान करने के लिए मिलेगा| इसमें उन्हें कुछ नहीं बचेगा| घाटा हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं | उनकी पत्नी के सारे गहने, जो वह मायके से लायी थी, इसी तरह के घाटों को पूरा करने में बिके हैं| दूसरा हिस्सा दूकानदार का होगा | यह भारत में निजी पूँजी को बढ़ावा देने, औद्योगीकरण करने, विकास की गति को तेज़ करने, राष्ट्रीय आय को बढ़ाने इत्यादि के नाम पर जायज़ माना जाता है| तीसरा हिस्सा राजनीतिकर्ताओं के लिए होगा, जिसका कोई हिसाब नहीं होता | इसका एक हिस्सा राजनीतिकर्ताओं के सुख-मौज़, सैर-सपाटे, रंगीन होटलों में टिकने, मत ख़रीदने इत्यादि के काम आता है| दूसरा बड़ा हिस्सा नेताओं की व्यक्तिगत संपत्ति को बढ़ाने के काम आता है | अब तुम्हीं बतलाओ - कि क्या विश्वकर्मा जी को ठेका देना पुण्यभूमि भारतवर्ष में कदाचार और विश्वकर्मा जी की पत्नी के ऊपर संभावित अत्याचार नहीं होगा ?
दूसरी बात भी साफ़ सुन लो, बुरा नहीं मानना| जब तुम्हारे देवर जी (विष्णु भगवान) की शादी मुझसे तय हुई थी, तो मेरे पिता जी ने दूल्हा-वरन के वक़्त इनके हाथो में कौस्तुभ मणि रख दी थी| वह मणि इतनी वहुमूल्य थी कि उसके जोड़ की कोई दूसरी मणि थी ही नहीं, न होगी| उसी वक़्त सारे देवता चौंक गए थे | फिर शादी के बाद मैं जब ससुराल आयी तो मेरे पिता जी ने हज़ार से ऊपर बड़े ट्रक भेजे थे जो सोने और रत्नों से लदे थे | इस संपत्ति को देखकर कुबेर जी भी अचंभित हो गए थे और उन्होंने मुझे संपत्ति का पर्याय कहा था | तभी से लोगों में यह बात फैल गयी कि मैं संपत्ति की देवी हूँ |
अब तुम्हीं सोचो,दीदी | जब सारे लोग संपत्ति की लालसा से मेरी पूजा करने लगे तो मैं उदार ह्रदय से उनकी मनोकामना कैसे पूरा नहीं करती | यह सब सदियों होता रहा | लेक़िन अगर आय न हो तो व्यय करने से धन घटेगा ही | हमारे पीहर में भी सब-कुछ ठीक-ठाक नहीं चला | देवासुर संग्राम कई हुए| हर संग्राम में दानव हारे - चाहे जिस तिकड़म के चलते हारे हों | अधिक बोलना जेठ जी और तुम्हारे देवर जी पर भी आक्षेप होगा| अतः अब पीहर से भी संपत्ति आते रहने की गुंजाइश नहीं है| मेरी जमा पूँजी चुक गयी है | इसीलिए तो बैकुंठ का रिपेयर करवा रही हूँ, नया महल नहीं बनवा रही हूँ| इसमें अगर मय दानव सस्ते में रिपेयर कर देते हैं तो मैं विश्वकर्मा जी को ठेका देकर पामाल क्यों हो जाऊँ? झूठी शान के लिए जान क्यों दूँ?
लक्ष्मी जी व्यथा-कथा सुनकर शची की आँखों में आँसू आ गए | लेक़िन उन्होंने धीरज से काम लिया और बोली | सुन बहना, बुरा न मानो तो एक तरीका बतलाती हूँ, पर किसी से कहना नहीं | मेरा कुछ धन कुबेर जी के पास रखा है, और कुछ मेरा स्त्रीधन है| कुबेर जी से हमारा धन का लेन-देन चलता है| मैं पैसों का इंतजाम कर दूँगी| मन में आये लौटाना, मन में न आये तो बड़ी बहन का दिया उपहार मानकर रखे रहना | देवर जी से भी नहीं कहना | यह बात हमारे-तुम्हारे बीच रही | नारद जी से थोड़ा बच कर रहना | वह उड़ती चिड़िया के परों में हल्दी लगा सकते हैं| कल मय दानव को किसी बहाने टरका देना और विश्वकर्मा जी को ठेका दे देना | पैसे की चिंता मत करना, और अपनी दीदी पर भरोसा रखना |
महारानी शची के सुझाव और आवश्यक आर्थिक सहायता की पेशकश ने लक्ष्मी जी की उलझनों को एकबारगी सुलझा दिया | लेक़िन मय दानव को टरकाने का कोई समुचित तरीका उनकी ज़ेहन में तत्काल नहीं आया | अतः वह स्पष्ट बोली : दीदी, आपने जैसा कहा वैसा ही करुँगी लेक़िन यह समझ में नहीं आता कि किस बहाने मय जी की डिजाइन को असंतोषजनक करार किया जाये | वह सुन्दर भी है और बेहद सस्ती भी | ऊपर से मय जी हमारी बिरादरी के भी हैं |
शची: देख लक्ष्मी, इस के मुताल्लिक़ तो देवर जी से ही बात करनी होगी | वह तिकड़मियों के सरताज़ हैं | चलो उन्हीं से बातें करते हैं |
अपने कमरे में भगवान विष्णु अकेले बैठे थे| वह मय और विश्वकर्मा के एस्टिमेट्स, नारद का पदार्पण, सारी बातों का इंद्र तक पहुँचना और फलतः शची का असमय लक्ष्मी से मिलने आना, उनकी लम्बी गुफ़्तगू, और फिर दोनों का उनसे मिलने आने की सूचना - इन सारी घटनाओं के तार जोड़कर मामले को पूरी तरह समझ रहे थे और मय को टरकाने का समुचित बहाना भी ढूंढ़ चुके थे | अतएव वह मुस्कुरा रहे थे |
महारानी शची और लक्ष्मी ने उनके कमरे में प्रवेश किया तो वह उठ खड़े हुए | उन्होंने भाभी को प्रणाम किया, उन्हें बैठाया, कुशल क्षेम पूछा, भाई साहब के वारे में पूछा | इस सौजन्य के बाद शची ने उनके सामने लक्ष्मी की समस्या रखी |
शची : देवर जी, आप तो जानते ही हैं कि बैकुण्ठ के नवीकरण के लिए मय दानव का एस्टीमेट/डिज़ाइन सुन्दर भी है और सस्ता भी | लेक़िन लक्ष्मी चाहती है कि ठेका विश्वकर्मा जी को मिले क्योंकि उसका सम्बन्ध भारत के विकास से है, जहाँ हमारे असंख्य भक्त रहते हैं | मय दानव को ठेका देने से पाताल को लाभ होगा जहाँ हमारे भक्त प्रायः नहीं के बराबर हैं | इसी सम्बन्ध में हम दोनों बहनें आपसे कोई उपाय पूछने आयी हैं कि कल मय दानव को क्या कहा जाये |
विष्णु : भाभी जी, मुझे इस बात की खुशी है कि आप दोनों बहनें अपने कुल के कल्याण की भावना से ऊपर उठ कर मानव कल्याण और भक्तों के कल्याण के बारे में सोचने लगी हैं | आपने उपाय पूछा है कि सस्ता और बढ़िया होने के बाद भी मय दानव की डिजाइन को कैसे छाँट बाहर किया जाये और पक्षपात करने की बदनामी भी न हो | इसके लिए मय दानव की बनायी सारी इमारतों और नगरों का इतिहास देखें | पता चलेगा कि वे किसी न किसी वज़ह से कलह, युद्ध और अशांति से सम्बंधित रही हैं | शायद इसका कारण डिज़ाइनों में आध्यात्मिकता तथा आस्था का अभाव एवं वास्तुशास्त्र के नियमों का उल्लंघन है| दानव इस तर्क से सहमत नहीं होंगे पर हम देवता हैं और इन बातों का ध्यान रखते हैं | हमारे लिए बाहरी सुंदरता, मज़बूती और किफ़ायती होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि संस्कृतिपूर्ण होना और शुभ होना| अतः कल लक्ष्मी जी इन्हीं आधारों पर मय दानव की डिजाइन को छाँट बाहर करे और घोषणा करे कि विश्वकर्मा जी की डिज़ाइन स्वीकृत हुई |
भगवान के बतलाये उपाय सचमुच काबिलेतारीफ़ थे| शची जी अमरावती लौट गयी और लक्ष्मी जी ने चैन की साँस ली |
अगले दिन लक्ष्मी जी ने अपना निर्णय सुना दिया और विश्वकर्मा जी प्रफुल्लित मन से घर लौटे| एक बार फिर दानवों की हार हुई और मानवतावाद ने भाई-भतीजावाद (बेटीवाद) और तकनीकीवाद पर संयुक्त विजय पायी |
*******************************************
घर लौटकर विश्वकर्मा जी अभी मध्याह्न भोजन कर ही रहे थे कि उनके मोबाईल पर इंटरनेट बैंकिंग के मैसेज आने लगे - और दस मिनट के अंदर उनके खाते में वह पूरी रक़म आ गयी जो बैकुण्ठ नवीकरण प्रॉजेक्ट के लिए एस्टीमेट में दी गयी थी | रक़म अलग़-अलग़ खातों से आयी थी किन्तु सारे ट्रांजेक्शन के नोट में एक ही बात लिखी थी - 'फ़ॉर बैकुण्ठा प्रॉजेक्ट"| यह कोई ऐसी बात नहीं थी जिस पर सोच-विचार किया जाये |

शाम के चार बजते-बजते विश्वकर्मा जी सेठ मनसुखलाल की दूकान पर पहुँचे और उन्होंने सामान की पूरी लिस्ट सेठ को पकड़ा दी | घंटे भर में सेठ ने कच्ची रसीद बनाकर विश्वकर्मा जी के सामने रख दी | विश्वकर्मा जी ने रसीद का मुआइना किया - पर बिल के टोटल देखकर उनके हाथों के तोते उड़ गए | कुल रक़म उनके एस्टीमेट की रक़म की लगभग तिगुनी थी|
विश्वकर्मा जी ने इसका कारण पूछा तो सेठ जी उन्हें समझाने लगे | उनका एस्टीमेट सप्ताह भर पहले के बाज़ार भाव पर था किन्तु आज का बिल आज के बाज़ार भाव पर है| अगर वह आज ही ऑर्डर न दे डालें तो कल का क्या पता | बाज़ार में आग लगी हुई है - माल उपलब्ध नहीं है - मांग बेतरीका बढ़ी हुई है | समझदारी इसी में है कि विश्वकर्मा जी अभी-अभी ऑर्डर कर दें | आगे दाम घटने की कोई सम्भावना नहीं है क्योंकि जनरल एलेक्सन माथे पर है|
मरता क्या नहीं करता | विश्वकर्मा जी मन ही मन अपने भाग्य को दोष देने लगे और मरी आवाज़ में बोले - चलिए सेठ जी, पहली किश्त में सामान का चौथा हिस्सा बैकुण्ठ भिजवा दिया जाये| बाक़ी हम काम आगे बढ़ने पर बतलायेंगे | आपके बिल का भुगतान हम सामान पहुँचने के बाद इंटरनेट बैंकिंग से कर देंगे |
बैकुंठ के नवीकरण का काम शुरू तो बड़े जोर-शोर से हुआ किन्तु ज़ल्द ही सामान की कमी की वज़ह से रुक गया | विश्वकर्मा जी पैसों का जुगाड़ करने के लिये हर दरवाज़ा खटखटा आये, पर पैसों का इन्तजाम नहीं कर पाए | पत्नी के पास इतने गहने नहीं बचे थे कि उन्हें बेच कर वह सामान के अगली किश्त का आर्डर दे आते | शर्म के मारे लक्ष्मी जी और विष्णु जी से मुँह छुपाने लगे | उनका रक्तचाप बहुत अधिक रहने लगा| भूख भी नहीं लगती थी | कुछ चिड़चिड़े भी हो गए|
तीन बरसों तक जब बैकुण्ठ के नवीकरण का कार्य आगे नहीं बढ़ा तो एक दिन लक्ष्मी जी ने उन्हें दरबार में बुलाया | वह समय पर आये लेक़िन बहुत उदास थे| लक्ष्मी जी ने विश्वकर्मा जी के अलावा सभी लोगों को अपना-अपना घर जाने के लिए कहा | जब दरबार में केवल श्री भगवान, लक्ष्मी जी और विश्वकर्मा जी रहे तो लक्ष्मी जी ने नवीकरण कार्य के तीन वर्ष रुक जाने के कारणों की तहक़ीक़ात की | विश्वकर्मा जी ने अपनी विकट समस्या को श्री भगवान और लक्ष्मी जी के सामने रखा | ग़नीमत थी कि अपनी कथा कहते-कहते वह रोये नहीं |
समस्या को समझकर विष्णु भगवान तो मौन रह गए पर लक्ष्मी जी उबल पड़ीं | उन्होंने चिल्लाकर अपनी दासी को पुकारा और एक लोटा गंगाजल लाने को कहा | आनन-फ़ानन दासी गंगाजल भरा लोटा ले आयी | श्री भगवान और विश्वकर्मा जी भौंचक्के लक्ष्मी का तमतमाया चेहरा देखते रहे|
लक्ष्मी जी ने एक चुल्लू जल अपने माथे पर छिड़का और फिर अपने दाहिने हाथ में एक चुल्लू जल लेकर खड़ी हो गयी और ऊँची आवाज़ में बोली |
"मैं सागर की पुत्री और भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी दसों दिशाओं, भगवान विष्णु और श्री विश्वकर्मा को साक्षी रख कर भारत वासियों को यह भयानक शाप देती हूँ कि उनकी आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक उन्नति कभी नहीं होगी - उनके यहाँ दरिद्रता, अपवित्रता, अस्वस्थता, झूठ, मक्कारी और आपसी द्वेष का बोलबाला रहेगा, वे मानसिक रूप से विदेशियों का दासत्व करेंगे और उनके मरने के बाद यमराज उन्हें नरक में ज़गह देने में भी नाक-भौं सिकोड़ेंगे | मेरा यह शाप अटल होगा और किसी तपस्या या किसी के वरदान से प्रभावित नहीं होगा |"
फिर वह विश्वकर्मा जी की ओर मुड़कर बोली - विश्वकर्मा जी, अपना घर जाइये और इस नवीकरण दुर्घटना को भूल जाइये |
तभी से भारत में आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक उन्नति नहीं हो रही है - वहाँ दरिद्रता, अपवित्रता, अस्वस्थता, झूठ, मक्कारी और आपसी द्वेष का बोलबाला रहता है, भारतीय लोग आर्थिक व मानसिक रूप से विदेशियों का दासत्व करते हैं और विकास के सारे प्रयास असफल होते हैं | नेतागण स्वभावतः अपराधी और टुच्ची प्रवृत्ति वाले होते हैं, वैज्ञानिकगण नया अनुसन्धान नहीं कर पाते हैं, बुद्धिजीवी चाटुकार और ठग होते हैं, पंडित धर्मध्वजी होते है, व्यापारी ठग होते हैं, पढ़े-लिखे नौजवान नाकारे होते है, साधारण जनता अंधभक्त होती है और भूखों मरती है| लक्ष्मी जी का शाप अटल है और कोई लाख पूजा-पाठ करे, भारत की दुर्दशा का कोई इलाज़ नहीं है|

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें