शुक्रवार, 16 जुलाई 2021

महाभारत कालीन कथाओं में वर्णित मित्रता

 महाभारत कालीन कथाओं में वर्णित मित्रता

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महाभारत कालीन कथाओं में चार तरह की मित्रताएं देखने में आती हैं; कृष्ण और सुदामा की मित्रता,  कृष्ण और अर्जुन की मित्रता,  द्रोण और द्रुपद की मित्रता तथा कर्ण और दुर्योधन की मित्रता। 

कृष्ण और सुदामा सहपाठी थे। कृष्ण सामंत के बेटे थे, राजकुल के नाती थे। सुदामा एक गरीब ब्राह्मण के बेटे थे। गुरुकुल से निकलने के बाद वे अपनी-अपनी जिंदगी जीने लगे। समय ने कृष्ण को राजा बना दिया, पर सुदामा एक गरीब ब्राह्मण बनकर जीने लगे। एक समय ऐसा आया जब सुदामा बड़ी आशाओं के साथ, पर डरते, झिझकते, कृष्ण के पास आये। मिलते ही, कृष्ण ने सुदामा के सामने अपना दिल खोलकर रख दिया। सुदामा के साथ कृष्ण ने वह मित्रता दिखाई कि वह युगों-युगों के लिए आदर्श हो गई।

कृष्ण अर्जुन के फुफेरे बड़े भाई थे और अभिन्न मित्र भी थे। कृष्ण अर्जुन के साले भी थे। बचपन में कभी मिल न सके थे। कृष्ण का बाल्य जीवन संकटपूर्ण था। अर्जुन का  बाल्यकाल भी बहुत दिक्कतों में बीता। लेकिन जब वे मिले तो दूध और पानी की तरह मिले। यह कृष्ण के ही बूते की ही बात थी कि पांडव महाभारत का युद्ध जीते और राजा बने। कृष्ण अर्जुन के सारथी थे, हर अर्थ में। कृष्ण ने अर्जुन को हर संकट की घड़ी में साथ दिया, अर्जुन को कमजोर करने वाले तथ्यों को अर्जुन से, पांडवों से, छिपाकर रखा, सही युद्धनीति सिखाई,  गलतियां करने से रोका, जरूरत पड़ने पर डांटा, सही रास्ता सुझाया, और लक्ष्य तक पहुंचाया।

द्रोण और द्रुपद सहपाठी थे। द्रोण एक गरीब ब्राह्मण थे लेकिन द्रुपद राजा थे। द्रोण पहुंचे द्रुपद के पास, कुछ मदद मांगने, पर राजा द्रुपद से नहीं, मित्र द्रुपद से। द्रुपद ने द्रोण की बड़ी बेइज्जती की। द्रुपद का गुस्सा इस कारण से था कि एक दरिद्र ने एक राजा को मित्र क्यों कहा। द्रुपद का व्यवहार नीचतापूर्ण था। इस अपमान के बावजूद द्रोण का व्यवहार संयमित, वीरत्वपूर्ण और मिला-जुलाकर ठीक ही था (नहीं तो क्या द्रोण धृष्टद्युम्न को अपना शिष्य बनाते, या स्त्री शिखंडी को अपने मित्र स्थूणाकर्ण से शल्यक्रिया करवा कर पुरुष बनवाते?)। पर वह द्रुपद को व्यक्तिगत रूप से क्षमा नहीं कर पाये। यह मित्रता का बुरा उदाहरण था।

कर्ण की वीरता में और उसकी अर्जुन से अदम्य प्रतिस्पर्धा तथा पांडवों के प्रति दुर्भावना में, दुर्योधन ने बड़ी संभावनाएं देखीं। दुर्योधन ने कर्ण की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया और लगे हाथ उसे अंगप्रदेश का राजा बना दिया। इससे दुर्योधन को दो फायदे हुए। अंग मगध के पास किंतु हस्तिनापुर से दूर था। मगध पर जरासंध जैसे शक्तिशाली सम्राट का शासन था जिसे राज्य विस्तार और चौधराहट का बड़ा शौक था। अतः अंगप्रदेश खतरे में था। कर्ण को अंगराज बनाने से वह खतरा टल गया क्योंकि कर्ण जरासंध पर भारी पड़ता था। ध्यातव्य है कि कर्ण अबसेंटी लॉर्ड था। वह बचपन से मौत तक हस्तिनापुर में ही रहता था और दुर्योधन की परछाई था। फिर भी अंगप्रदेश सुरक्षित रहा। दूसरा फायदा यह था कि राजा बनने से कर्ण का राजनीतिक और सामाजिक स्तर ऊपर उठ गया। कर्ण दुर्योधन का आभारी हो गया और वह पांडवों के विरोध के लिए अचूक हथियार बन गया। ध्यातव्य है कि कर्ण ने ग़लत काम में भी दुर्योधन का विरोध नहीं किया वरन् साथ ही दिया। कर्ण एक ईमानदार और विश्वसनीय दोस्त जरूर था, लेकिन वह आदर्श दोस्त नहीं था। पापकृत्य में प्रवृत्त होने से रोकना और सही रास्ता दिखाना मित्र का आवश्यक कर्तव्य है। वह कर्ण ने नहीं किया। इसी लिए हम कर्ण और दुर्योधन की दोस्ती को आदर्श दोस्ती नहीं कह सकते।