गुरुवार, 12 सितंबर 2019

मास्टर साहब

मास्टर साहब | लम्बा-चकला कुछ-कुछ सांवला शरीर| ख़द्दर की धोती और सफ़ेद कुरता| पैरों में अब-फटी तब-फटी चप्पलें| मुँह में पान और चेहरे पर बेहद महीन मुस्कान| उनके काले, छोटे-छोटे घुंघराले बाल और ओठों पर मुस्कान वो समां बांधते कि लगता था उन्हें वह ज्ञान प्राप्त हो गया हो जो बुद्ध को भी नहीं मिला| बोलते बहुत कम थे| बुद्ध की तरह बहुधा मौन रहने (मय घुंघराले बाल और मसृण मुस्कान) के बावजूद यदि अब तक सारे लोग उन्हें पूजने नहीं लगे थे और केवल सम्मान दे कर चुप हो जाते थे, तो यह लोगों में गुणग्राहकता का अभाव परिलक्षित करता था, न कि मास्टर साहब में गुणों का अभाव | इसीलिए तो किसी कवि ने लिखा है - गुन ना हिरानो गुनगाहक हिरानो हैं|
मास्टर साहब हिंदी पढ़ाते थे | हिंदी पढ़ाने के कारण कविता-कहानी और लेख लिखने का उनका अधिकार स्वयंसिद्ध था | उन्होंने बहुत लिखा, पर अपनी कविता, कहानियों व लेखों को कभी किसी पत्रिका में छपने नहीं भेजा | उनका मानना था कि जब हंस के समकक्ष की पत्रिकाओं के संपादक-गण समय की मार खाकर बगुले हो गए और नीर-क्षीर विवेक की वजाये मछलियाँ पकड़ने लगे हैं, तो किसी पत्रिका में अपने काव्य-कृतित्व को भेजना सरस्वती का अपमान करना है| एक कारण और था| वह डरते थे कि कहीं उनकी अमूल्य रचना को संपादक-गण अपने नाम छाप कर लब्धप्रतिष्ठ लेखक न बन बैठें| जब तुलसीदास जैसे लोग दूसरों की कविता को जस-का-तस (लेक़िन अवधी में अनुवाद करके) अपना कहने से बाज नहीं आते तो इन छुटभैये संपादकों का क्या भरोसा| प्राक्कथन में 'नानापुराण निगमागमसम्मतं यत् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि' लिख कर हमारा सारा लिखा-पढ़ा अपने नाम छपा लेंगे| प्रकाशकों को भी विद्यार्थियों के लिए कुंजियां छापने से फ़ुर्सत नहीं है|
जब समय की मार खाकर उनका लिखा साहित्य पांडुलिपियों में बदलने लगा (कागज़ पीले पड़ने लगे और लिखावट धूमिल होने लगी) तो उन्होंने ख़ुद प्रकाशकों से मिलना शुरू किया| प्रकाशक अच्छी तरह जानते थे कि जिस दुनियाँ में निराला, दिनकर, और महादेवी वर्मा की किताबें नहीं बिकती, रैकों पर धूल खाती रहती हैं - वहाँ मास्टर साहब के कविता-संकलन को कौन खरीदेगा| इन बड़े कवियों व लेखकों की कुछ किताबें भी तब बिकतीं हैं जब वे किसी कोर्स में हों| फिर पूरी क़िताब प्रायः कोर्स में नहीं रहती| लोग खाते भी हैं तो चावल, दाल, रोटी, सब्जी, पापड़, अचार खाते हैं| सब्ज़ी कितनी भी अच्छी बनी हो, कौन सिरफिरा केवल सब्ज़ी खायेगा? उसी तरह किसी कोर्स में पृथ्वीराज रासो से लेकर धूमिल और दुष्यंत कुमार तक की रचनाएँ छिटपुट कर रखनी पड़ती है| बात संतुलित आहार की है - आहार पेट के लिए हो या दिमाग़ के लिए|
बात यहीं तक रहे तो हलक से नीचे उतार लें| लेक़िन बात आगे बढ़ जाती है जब इन बड़े लेखकों की भाषा पर ध्यान दें| प्रसाद तो हिंदी के नाम पर संस्कृत लिखते रहे| महादेवी वर्मा और दिनकर ने भी कोई कम कमाल नहीं किया है| पहले शब्दकोष कंठस्थ करो तब इनकी कविता पढ़ो| बेचारा विद्यार्थी क्या करे - साल भर का कोर्स, दर्ज़न भर पेपर| शब्दकोष रटने लगे तो हो गया| कुंजी की मदद के सिवा और क्या हो सकता है? और इन मास्टरों की बदमाशी तो देखिये - ख़ुद कुंजी लिखे बैठे हैं और किसी अन्य लेखक की लिखी कुंजी पढ़ो तो मुँह बिचकाते हैं|
अंत में मास्टर साहब इस बात पर राज़ी हो गए कि विना उनके पैसा लगाए उनकी चुनिंदा कविताओं, कहानियों और लेखों का संग्रह छप जायेगा, पर बदले में तीन कुंजियां लिखनी होंगी जिनकी बिक्री से प्राप्त आय में मास्टर साहब कोई हिस्सा नहीं मांगेंगे | दोनों तरफ़ से छूट - और बात जम गयी| नतीज़तन, छह महीने में उनके तीन अदद संकलन और छह अदद कुंजियां बाज़ार में आ गयीं| मास्टर साहब निहाल हो गए, उनकी मुस्कान कुछ ज़्यादा चौड़ी हो गयी, और वे पत्तों में बाँधकर पान की गिलौरियां साथ रखने की जग़ह पॉकेट में छोटी-सी पानडिब्बी रखने लगे|
जब आम के दाम नहीं आये तो मास्टर साहब ने गुठलियों से फ़ायदा उठाने की सम्भवताओं पर सोचना शुरू कर दिया | भगवान के रहम-ओ-करम से उनके चार-बेटे और तीन बेटियाँ थीं| सबसे बड़ी लड़की उस दहलीज़ पर पाँव रख चुकी थी जिस पर बेटी के पाँव को देखकर मास्टर साहब जैसे बाप कभी तो अपनी जमा पूँजी को देखते हैं, ज़माने पर राज करती पैसे की भूख को देखते हैं, और कभी बेटी की बाढ़ देखते हैं| बेटियाँ अक्सर घास-फूस जैसी होती हैं, बेटों के बीच या बदले उसी तरह आ जाती हैं जैसे गुलाबों की क्यारी में खर-पतवार और घास-फूस| वे गुलाबों की बढ़त रोकती हैं| गुलाबों को काटा-छाँटा जाता है, उनके लिए खाद-पानी की व्यवस्था की जाती है, उन्हें कीड़ों से बचाया जाता है, ताकि वे स्वस्थ रहें, उनपर अच्छे फूल आयें | लेक़िन खर-पतवार के लिए क्या करना - उन्हें तो उखाड़ कर फेंकना है| बेटी भी दूसरे की थाती संपत्ति होती होती है, मौका मिलते ही उखाड़ फेंकने के लिए - जिसको उसके हाथ पीले करना कहते हैं| इस तर्क का आश्रय लेकर उन्होंने बेटियों को स्कूल भेजने या घर पर पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता नहीं समझी थी, हाँ वे साक्षर थीं और वर्णों तथा मात्राओं को जोड़-जाड़ कर ग़लत-सही पढ़-लिख लेती थीं | बेटियों की इतनी शिक्षा ही उन्हें विद्वत्तमा बनाने के लिए काफ़ी थी और मास्टर साहब को पूरा विश्वास था कि आज भी हिंदुस्तान में कालिदासों की कमी नहीं है जो समय की मार पड़ने पर ऊँट को उष्ट्र कहना सीख लेंगे और उनकी बोली में विशिष्टता आ जाएगी |
तो मास्टर साहब ने अपनी बड़ी बेटी के लिए वर ढूंढना शुरू करवाया| स्कूल में पढ़ाते थे, उन्हें इतना अवकाश नहीं था कि ख़ुद लम्बी दौड़ का दौरा करते| लेक़िन उनके परिजन बहुत थे| इक्का-दुक्का करके बहुतों से मिले और उन्हें बतला दिया कि बड़ी बेटी के लिए कोई वर ढूंढें| लड़का पढ़ा-लिखा हो, लड़के को अपना घर-द्वार हो, थोड़ी ज़मीन-जग़ह हो, देखने-सुनने में ठीक-ठाक हो, उम्र लड़की के अनुरूप हो, और सबसे ज़्यादा अहम बात यह कि लड़के के माँ-बाप अधिक दहेज न माँगते हों| अगर आदर्श विवाह के पक्ष में हो तो सोने में सुगंध | इधर से लड़की का गुणगान करें, परिवार का गुणगान करें, बतलायें कि लड़की के पिता कुलीन हैं, हिंदी के उद्भट विद्वान हैं, मिसाल के तौर पर उनकी लिखी किताबें देखिये, ये रहा कविताओं का संग्रह, ये रहा कहानियों का संकलन, वो रही लेखों की पुस्तक, ये रहे आलोचना के ग्रन्थ| वे विष्णु प्रभाकर, ममता कालिया, राजेंद्र यादव और बीसियों ऐसे छंटे हुए साहित्यिकों, कवियों और लेखकों के ज़िगरी दोस्त रहे हैं| एक दूसरे के यहाँ आना-जाना है| हाल में ही बच्चन जी शहर में आये थे, तो मास्टर साहब को ढूंढा - बोले कि नाम तो बहुत सुना है, उनकी कविताएँ बहुत पढ़ी हैं, उनसे प्रभावित भी हुआ हूँ, लेक़िन सम्मुख होने का सौभाग्य नहीं मिला| अब इस शहर में आ गया हूँ तो विना मिले लौट नहीं सकता| आख़िर बच्चन जी मास्टर साहब से मिलने स्कूल चले आये| स्कूल का प्रिंसिपल अवाक्| बोला कि हम तो जानते ही नहीं थे कि मास्टर साहब गुदड़ी में छुपे लाल हैं| इनके चलते स्कूल का नाम रौशन हो गया, नहीं तो बच्चन जी हमारे स्कूल में आते - वो भी विना बुलाये| वे भी धन्य हैं, मास्टर साहब भी धन्य हैं जिनके चलते हमारे स्कूल के शिक्षक, बच्चे और उनके अभिभावक भी धन्य, कृतकृत्य हुए| हालाँकि मास्टर साहब की क़िताबों से बाद कही बातें सरासर झूठी थीं - लेक़िन उनकी मान्यता थी कि विवाह के लिये बोला गया झूठ असत्य नहीं कहलाता है, वह परमार्थ में होने के कारण कतई दोषपूर्ण नहीं होता|
ठगना, झूठ-सच कह कर अपना उल्लू सीधा करना, एक कला है और हर कला की तरह यह भी सृजन या सर्जन की मौलिक क्षमता की एक बेहतरीन अभिव्यक्ति है | इस कला की अनन्य विशेषता है कि अगर कोई ठगे नहीं तो वह निश्चय ही किसी से ठगा जायेगा| अगर कोई ठगे जाने से बचना चाहता है तो वह फ़ौरन से पेश्तर किसी को ठगने निकल पड़े | सो मास्टर साहब के परिजन सत्तू बाँधकर ठगने निकल पड़े| कहते हैं, जो खटखटाता है उसके लिए खुलता भी है और जो ढूँढता है उसे मिलता भी है| ग़रज़ यह कि झूठे वादे करके, 'वचने का दरिद्रता' का एक उम्दा प्रयोग करते हुए, मास्टर साहब ने अपनी बड़ी बेटी के लिए एक वर का जुगाड़ कर ही लिया|
मास्टर साहब एक देहाती और ग़रीब परिवेश में जन्मे और पले-बढ़े थे| उनके पिता का देहान्त तभी हो गया था जब वह बच्चे थे| कोई भाई बहन भी न था| अतः मास्टर साहब का बचपन बेवा और बेजुबान माँ तथा हृदयहीन चाचा-चाची की देखरेख में बीता था| उनके चचेरे भाई पूरी तरह से निकम्मे थे, पर मास्टर साहब समझदार और कुशाग्रबुद्धि थे | ग़रीबी और बेबसी जीने के बहुत सारे असरदार गुर सिखला देती है| मास्टर साहब ने कच्ची उमर में ही उन गुरों को सीख लिया | अतः अपने चाचा के द्वारा पैदा की गयी तमाम अड़चनों को फांदते व परीक्षाएँ पास करते हुए वह हिंदी में एमए हो गए| हिंदी भाषा और साहित्य पर उनकी अच्छी पकड़ थी| फिर अपनी योग्यता, भाग्य तथा संभवतः किसी स्वजन (जो राजनीतिक रूप से प्रभावशाली थे) की सिफ़ारिश से सरकारी स्कूल में शिक्षक हो गए| अपने गंभीर स्वभाव और सापेक्षिक विद्वत्ता के चलते वह इलाक़े में प्रतिष्ठित व्यक्ति भी हो गए|
मास्टर साहब दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती तीनों के निष्पक्ष उपासक थे | सरस्वती की कृपा तो उनके ऊपर सहज थी| उसी कृपा की बदौलत वह एमए थे, शिक्षक थे और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अच्छा कमा लेते थे | लेक़िन अकेली सरस्वती तो सब कामनाओं को पूरा नहीं कर सकती | सरस्वती अपने तईं लक्ष्मी और दुर्गा का मनुहार भले कर सकती है लेकिन दूसरों के विभागों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती| सिफ़ारिश कर दे सकती है, पर प्रार्थी को दौड़-भाग तो ख़ुद करनी होगी| इस बात को मास्टर साहब अच्छी तरह समझते थे|
मास्टर साहब तहेदिल से चाहते थे कि पूरे गाँव और संभव हो तो पूरे इलाक़े में उनकी धाक जमे, उनका वर्चस्व क़ायम हो, उनकी तूती बोले| यह धाक सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा तीनों के महकमों में हो | सरस्वती के महकमे में तो उन्होंने अपनी धाक अपने बल-बूते पर जमा ली थी, लेक़िन और दो महकमों में उनके किये कुछ होने वाला न था | नतीज़तन, दुर्गा के महकमे में धाक जमाने के लिए उन्होंने अपने मूर्ख और उजड्ड चचेरे भाई को चुना | उसने किसी ग़रीब बेबस आदमी का दिन-दहाड़े क़त्ल कर दिया | मुक़दमा चला, पर दुर्गा माता की कृपा | कुछ-कुछ कृपा लक्ष्मी माता की भी हुई| मास्टर साहब ने खूब पैरवी भिड़ाई, गाँव के लोगों ने मक़तूल के परिवार को समझाया बुझाया (या डराया धमकाया) | गवाहों को भी समझाया बुझाया| मास्टर साहब ने आदर्श भाईचारे की बेहतरीन मिसाल पेश की| मुक़दमा ख़त्म हुआ और क़ातिल बाइज्ज़त घर आया | मास्टर साहब का वर्चस्व दुर्गा माता के महकमे में भी स्थापित हो गया| तभी से मास्टर साहब पढ़ने लिखने वालों की तुलना में शोहदों की ज़्यादा इज्ज़त करने लगे| लोग भी मानने लगे कि मास्टर साहब से टक्कर लेना महँगा पड़ सकता है|
मास्टर साहब ने जल्द ही समझ लिया कि बटाईगीरी पर स्थापित वर्चस्व दोषपूर्ण और क्षणभंगुर होता है | अतः उन्होंने अपने पुत्रों को शोहदागीरी की तरफ़ आगे बढ़ाया| अपराधी होने के लिए शोहदागीरी आवश्यक सोपान है| इसकी व्यवस्था मास्टर साहब ने कर दी| आगे की बात तो व्यक्ति की योग्यता और सूझबूझ पर आश्रित है|
कहते हैं, आदमी प्रकृति (nature) और पालन-पोषण (narture) दोनों से बनता है| मास्टर साहब के बड़े पुत्र ने सरस्वती और लक्ष्मी की पूजा को श्रेयस्कर समझा| वह पढ़ने-लिखने में भी अच्छा निकला और चार-सौ-बीसी में भी| लेक़िन उसकी रुचि शुद्ध शोहदागीरी में नहीं थी| उसके इस व्यवहार से मास्टर साहब उससे रुष्ट रहने लगे | मास्टर साहब ख़ुद एमए थे, और क़ाबिल थे, अतः वह किसी के एमए होने से प्रभावित नहीं होते थे| बड़े पुत्र ने पैसा पकड़ना शुरू कर दिया और पिता की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया | कहा भी गया है - किं तया क्रियते धेन्वा या न सूते न दुग्धदा | जो गाय न बछड़ा जने न दूध दे उसका क्या करना| बड़े बेटे ने न दबदबा बढ़ाया न पैसा दिया, तो उसका क्या करना | मास्टर साहब ने 'सुधरा तो पूत और बिगड़ा तो मूत' की कहावत पर अमल करते हुए बड़े बेटे को पूत की श्रेणी से हटाकर मूत की श्रेणी में रख दिया | बड़े बेटे ने इस नवीन श्रेणीकरण का सहर्ष स्वागत किया और पिताश्री का सम्मान करते हुए अपनी दुनियाँ अलग बसा ली|
लेक़िन मास्टर साहब के दो और बेटे अपने बड़े भाई की तरह बेलौस नहीं निकले| उन्होंने सरस्वती की वंदना में अधिक समय जाया करने की ज़गह दुर्गा और लक्ष्मी पूजा पर अधिक ज़ोर दिया | उनके मार-पीट, चोरी-डकैती, ठगी और बदजुबानी के किस्से घर-घर में मशहूर हो गए और ऐसा लगने लगा कि निकट भविष्य में माँ अपने रोते बच्चों को यह कह कर चुप कराएगी कि बेटे चुप हो जा नहीं तो फलनवाँ आ जायेगा |
मास्टर साहब के गुलाबों (बेटों) की कहानी कहने की रौ में बहकर हम खर-पतवार (बेटियों) को भूल आए | लेक़िन खर-पतवार भी पौधे हैं - जीव हैं - और उनको सर्वथा भूल जाना उनके प्रति अन्याय होगा| हम कह चुके हैं कि उनकी बड़ी बेटी के लिए वर मिल गया था| आगे उसका विवाह भी हो गया और वह ससुराल में सास-ससुर की सेवा में तल्लीन हो गयी | वैसे वह बहुत समझदार थी - अतिशयोक्ति की अनुमति दें तो वह बुद्धि का पर्याय थी, पर उसकी बुद्धि का बड़ा हिस्सा सरस्वती के लॉकर में बंद था और, एहतियातन, लॉकर की चाबी मास्टर साहब ने अपने पास रख ली थी|
मास्टर साहब की दूसरी बेटी लक्ष्मीरूपा थी | मास्टर साहब ने उसे भी फ़ौरन हाथ पीले करवा कर ठिकाने लगाया| दुर्भाग्य से इस धरती पर से उसका दाना-पानी जल्द ही उठ गया | वह लक्ष्मीरूपा जरूर थी, लेक़िन इसके बावजूद कुछ देकर नहीं गयी | उसके चार छोटे-छोटे बच्चे जान भी नहीं पाए कि माँ किसको कहते हैं | उन्हें अपनाने वाला कोई नहीं था| मास्टर साहब ने बेटी का ब्याह सर पर से अपना बोझ उतारने के लिए किया था| वही बोझ अब चार गुना होकर उनके सर पर आने को था | लेक़िन मास्टर साहब ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं| गुलाबों की क्यारियों में उन बच्चों के लिए कोई ज़गह नहीं थी | वे चारों बच्चे बनफूल बन गए|
मास्टर साहब की तीसरी बेटी दुर्गारूपा थी | उसकी शादी मास्टर साहब ने ऐसे घर में की जो देवी की महिमा के पूरे जानकार नहीं थे | जब दुर्गा के सामने चण्ड-मुण्ड और शुम्भ-निशुंभ जैसे प्रतापी वीर नहीं टिक पाये तो साधारण मनुष्य क्या खाकर टिकते | वर्ष-दो-वर्ष भी नहीं गुजरे कि पति समेत सारे ससुराल वालों ने घुटने टेक दिए | इसीलिए मास्टर साहब अपनी छोटी बेटी से बहुत प्रसन्न रहते थे| यह बेटी उनकी एकमात्र बेटी थी जिसने उनका मान बढ़ाया था|
यही सही जग़ह है जहाँ मास्टर साहब के चौथे बेटे को ठिकाने लगा दिया जाये | उसने अपने सबसे बड़े भाई के यहाँ रहकर, भाभी का पीर बावर्ची भिश्ती खर बनकर, बीए किया और बड़ी बहन के यहाँ रह कर आगे की शिक्षा पायी | सौभाग्यवश उसे एक नौकरी मिल गयी और उसकी जीविका का इंतजाम हो गया| लेकिन चूँकि उसने मास्टर साहब के रौब-दाब में कोई इज़ाफ़ा नहीं किया, न पैसा दिया इसलिए मास्टर साहब की नज़र में वह अपने सबसे बड़े भाई वाली श्रेणी में ही था|
इस विषयान्तर के बाद हम अब मुख्य धारा में लौट चलें |
मास्टर साहब और उनके मँझले दोनों बेटे जिस राह पर आगे बढ़े उसे वाममार्ग कहते हैं | वाममार्ग सद्योफलवती पूजा होती है | पंचमकार से की जाने वाली पूजा तुरत रंग लाती है| लेकिन इस मार्ग की कई कठिनाइयाँ हैं| अव्वल कठिनाई तो यह है कि इसकी सिद्धि के लिए अपने प्रियपात्र का वलिदान करना होता है| इसकी दूसरी कठिनाई है कि इस पूजा में कोई खोट हो तो वह साधक को ले डूबती है | इसीलिए वाममार्ग में चलने वाले साधक को तलवार की धार पर चलना होता है | इस मार्ग में बहुत अँधेरा व अंधेर है| इसमें साधक को तामसी शक्तियों से रोज़ रु-ब-रु होना पड़ता है| दूसरी तरफ़, दक्षिण मार्ग धीमा मार्ग है - मन आये करिये, न मन आये मत करिये| मन आये फल, फूल, खीर चढ़ाइये और मन न आये तो सूखा प्रणाम करके रास्ता पकड़िए| पूजा में खोट की संभावना हो तो क्षमा मांग लीजिये| सब माफ़|
मास्टर साहब ने यह तो सही समझा कि वाममार्ग की पूजा सद्योफलदायिनी होती है लेकिन इस पूजा में हो सकने वाले ख़तरों का उन्हें ज्ञान नहीं था| वह खेल-खेल में तामसी शक्तियों का आह्वान तो कर बैठे लेकिन वे तामसी शक्तियाँ क्या मांगेंगी इसका अनुमान न कर सके| उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि तामसी शक्तियाँ भला करें न करें, बुरा तो लगे-हाथ कर बैठती हैं|
मास्टर साहब और उनके मँझले बेटे जितेन्द्रिय नहीं थे, इस लिए वाममार्गी पूजा कर सकने में सक्षम नहीं थे | पर वे इस रास्ते पर आगे बढ़ गए | इसका फल तुरंत मिला | घर में डकैती हुई - अपना अच्छा-भला घर बेच कर शहर से भागना पड़ा, घर के बच्चों की जानें गयीं, ज़मीन-ज़गह बिकी, ख़ुद मास्टर साहब को हवालात में रहना पड़ा, और पुलिस वालों ने उन्हें नसीहत दी| मास्टर साहब ने अपनी मट्टी-पलीद करवा ली | फिर भी, उनके चेहरे पर शिकन नहीं आयी| वह वाममार्गी पूजा के लिए कृतसंकल्प थे|
समय किसी के लिए नहीं रुकता - उम्र बढ़ती ही चली जाती है| समय ने मास्टर साहब को नौकरी से रिटायर कर दिया | लेक़िन वाममार्ग के भूतों ने उन्हें नहीं छोड़ा| वह अपना पेंशन, अपनी शांति, अपनी प्रतिष्ठा, अपने स्वास्थ्य की परवाह किये विना भूतों की उपासना करते रहे और अपनी बेबसी पर रोते रहे| उन्हें अपनी दवा तक के पैसे नहीं जुटते थे, लेक़िन भूतों के लिए मुर्ग-मुसल्लम का इंतज़ाम करना पड़ता था | उनकी पत्नी भी, साथ-साथ जीने-मरने की प्रतिज्ञा के बावजूद, उन्हें अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार चुकी थी, अतः मास्टर साहब की रेगिस्तानी सफ़र में नख़लिस्तान बन कर नहीं आ सकती थी| उनके दुर्भाग्य का अंत उनकी दयनीय मृत्यु के साथ आया और वह भूतों के चंगुल से हमेशा के लिए मुक्त हो गये |

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