शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

प्रच्छन्न पूँजीवाद बनाम प्रकट पूँजीवाद

भारत के स्वतंत्र होने के साथ ही इसपर तीन प्रकार के पाखंडों का कुहरा घिर आया (१) देवात्मक मानववाद, (२) समाजवादिता, और (३) छद्मन्यायपरता|
देवात्मक मानवतावाद के कुहरे का सम्बन्ध उस पाखंड से है जिसमें मानव को देवोचित गुणों से भरपूर माना गया हालाँकि धरातल पर आदमी पशुता से भरा हुआ है| इस पाखंड में यह माना गया कि धनाढ्य वर्ग, उद्योगपति और व्यापारी धन के न्यासरक्षक (ट्रस्टी) के रूप में स्वार्थहीन रूप से काम करेंगे| उदाहरण के लिए वे अपनी कमाई का अधिकांश (80% से 95% तक) हिस्सा टैक्स दे देंगे जिससे समाज का कल्याण होगा| राजनीतिक नेतागण भूखे पेट, खादी कपड़े धारण कर, जनकल्याण के लिए दर-दर भटकेंगे और सत्ता से कोई व्यक्तिगत फ़ायदा नहीं उठायेंगे| जमींदार करुणावश अपनी ज़मीन को भूमिहीन जनता में बाँट देंगे| सर्वोदय के नटवरलालों ने अनेक तरह की नौटंकियाँ कीं और ज़मीन के बँटवारे का नारा एक छलावा होकर रह गया| शिक्षकगण पेट में कपड़ा बाँधकर सरस्वती की उपासना करेंगे| वक़ील और न्यायाधीश दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए जान लड़ा देंगे| पुलिस के लोग डंडे लेकर अपराधियों को नियंत्रित कर लेंगे| यह मान लिया गया और इसे मनवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी कि विश्वशांति की घोषणा और कबूतरबाज़ी के चलते भारत के कोने-कोने में बुद्ध पैदा होंगे और सारे अंगुलिमाल कंठी धारण करके मेवानिवृत्त हो जायेंगे| इत्यादि|
समाजवादिता के पाखंड को एक सुनहरा नाम देकर जनमानस पर चस्पा किया गया| इसका नाम था सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी (या सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ कैपिटलिस्टिक सोसाइटी, जिसमें कैपिटलिस्टिक शब्द को गूढ़ रखा गया)| इसकी विस्तृत विवेचना डा. शिवचंद्र झा की पुस्तक (Studies in the Development of Capitalism in India, Firma K. L. Mukhopadhyay, 1963) में है जिसमें दिखाया गया है कि समाजवादिता की आड़ में किस तरह भारतीय पूँजीवाद का विकास हुआ और किस तरह उद्योगपतियों और व्यापारियों के स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय हितों का वलिदान किया गया| डा. प्रणब बर्धन की पुस्तक (The Political Economy of Development in India, Oxford. University Press, Delhi) में यह दिखाया गया कि किस तरह व्यापारियों/पूँजीपतियों, जमींदारों और नेताओं की तिकड़ी ने गंभीर साज़िश की तहत जनता और देश के संसाधनों की लूट मचाई| प्रो. अशोक रूद्र ने दिखाया [Emergence of the Intelligentsia as a Ruling Class in India, ASHOK RUDRA, Indian Economic Review, New Series, Vol. 24, No. 2 (July-December 1989), pp. 155-183] कि कैसे बुद्धिजीवी वर्ग ने उस तिकड़ी को सराहा और बुद्धिजीवी वर्ग अपने स्वार्थों के लिए उस तिकड़ी के हाथ बिक गया|
छद्मन्यायपरता (न्यायधर्मिता का दिखावा) के पाखंड ने न्याय के छद्म से किस तरह अपराधियों की रक्षा की है यह जग-ज़ाहिर है| अधिकांश बड़े अपराधी छुट्टे सांढ़ की तरह घूमते रहे और उन्होंने न्यायव्यवस्था का मज़ाक बना दिया| नेता और अपराधी मिल गए; अपराधी नेता बनकर विधायक बन गए और नेताओं का वर्चस्व बाहुबल से स्थापित होने लगा| न्याय की प्रक्रिया इतनी जटिल, लस्त-पस्त, छिद्रपूर्ण, लचर, और दीर्घसूत्रितापूर्ण कर दी गयी जिसमें केवल अपराधी ही पनप सके, जी सके, विकास कर सके| धार्मिक बहुलवाद (रिलीजियस प्लूरलिज़्म) , सिक्युलरिज़्म, धार्मिक सहिष्णुता, और सामाजिक न्याय (सोशल जस्टिस) के पाखंड के भीतर अन्याय, उपेक्षा और तरफ़दारी की फ़सल उगायी गयी जहाँ भारत की बहुसंख्यक जनता मार खाकर भी रो नहीं सकी| हमारी न्यायव्यवस्था एक अंधी देवी है जिसके हाथ में न्याय की तराजू ज़रुर है, लेकिन वह देख नहीं सकती की डंडी समतल है या नहीं| तीन गाँधीवादी बन्दर लगे हुए हैं पलड़ों को बराबर करने और जिधर का पलड़ा नीचे होता है उधर की रोटी से एक कौर काट लेते है| अंधी देवी और तीन प्रपंची बन्दर| जनकवि नागार्जुन ने 'तीनों बन्दर बापू के ' शीर्षक अपनी कविता (http://kavitakosh.org/…/_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%… ) में इस पाखंड का बहुत अच्छा चित्रण किया है|
इन कारणों से भारत क्रोनी कैपिटलिज़्म (Crony Capitalism) का नमूना बन गया| हम समाजवादिता और आदर्शवादिता का राग अलापते रहे और प्रच्छन्न पूँजीवाद बढ़ता रहा| काले धन, काली अर्थव्यवस्था और काली मनोवृत्ति हमारे जनमानस और कार्यकलापों पर छा गयी| इसका इलाज़ पाखंड में नहीं है, प्रकट होने में है| पूँजीवाद को झूठे आदर्शवाद से रोका नहीं जा सकता है| कल (20.09.2019) वित्तमंत्री सीतारामन ने कॉरपोरेट टैक्स में छूट देकर यही किया है| काले धन को चलने दो या कमाई पर छूट दो - हमारे स्वार्थों को, प्रोफिटेबिलिटी को, बरक़रार रहने दो|

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