सोमवार, 2 सितंबर 2019

महाभारत में सत्य-असत्य का विवेचन

सत्यमेव जयते, या सत्यं वद, या सदा सत्य बोलो आदि प्रचलित वाक्यों (memes) ने हमें विना सोचे कुछ-से कुछ कहने-करने को मज़बूर कर दिया है| सत्य का अपने आप में (intrinsic) महत्त्व नहीं है और सदा सत्य बोलने की ज़िद कोई बुद्धिमत्ता या धर्मशीलता नहीं है| सत्य का महत्त्व समाज-कल्याण से निरूपित होता है| कल्याणकारी असत्य भी सत्य से अधिक आदरणीय है और अकल्याणकारी सत्य झूठ से भी अधिक गर्हित है (देखिये कर्णपर्व अध्याय 69 में कृष्ण का अर्जुन को उपदेश)| अगर आप धार्मिक हैं और कृष्ण को भगवान और सत्यस्वरुप मानते हैं तो भी उनके द्वारा अर्जुन या युधिष्ठिर को अधर्म (असत्य भाषण अगर सर्वथा अधर्म है तो) के लिए उकसाना कृष्ण पर शंका करना है|
महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 109 के अनुसार सत्य-असत्य का विवेचन इस प्रकार है| (यह भीष्म युधिष्ठिर संवाद है)|
युधिष्ठिर ने पूछा- "भरतनन्दन! धर्म में स्थित रहने की इच्छा वाला मनुष्य कैसा बर्ताव करे? विद्वान! मैं इस बात को जानना चाहता हूँ। भरत श्रेष्ठ! आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये। राजन! सत्य और असत्य ये दोनों सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है; किन्तु धर्म पर विश्वास करने वाला मनुष्य इन दोनों में से किसका आचरण करे। क्या सत्य है और क्या झूठ? तथा कौन सा कार्य सनातन धर्म के अनुकूल है? किस समय सत्य बोलना चाहिये और किस समय झूठ?"
भीष्म ने कहा- "भारत! सत्य बोलना अच्छा है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है; परंतु लोक में जिसे जानना अत्यन्त कठिन है, उसी को मैं बता रहा हूँ।
जहाँ झूठ ही सत्य का काम करे (समाज को स्थिरता, विकास, कल्याण और न्याय दे) वहाँ झूठ बोलना ही उचित है। जहाँ सत्य ही झूठ बन जाय (समाज को अस्थिरता, दुर्दशा, क्षति और अन्याय दे) ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ झूठ बोलना ही उचित है। सत्य और असत्य का पालन करने वाला पुरुष ही धर्मज्ञ माना जाता है। जो नीच है, जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो अत्यन्त कठोर स्वभाव का है, वह मनुष्य भी कभी अंधे पशु को मारने वाले बलाक नामक व्याध की भाँति महान पुण्य प्राप्त कर लेता हैं| कैसा आश्चर्य है कि धर्म की इच्छा रखने वाला मूर्ख (तपस्वी) (सत्य बोलकर भी) अधर्म के फल को प्राप्त हो जाता है (देखिये कर्ण पर्व: अध्याय 69 श्लोक 36-51)। गंगा के तट पर रहने वाले एक उल्लू की भाँति कोई (हिंसा करके भी) महान् पुण्य प्राप्त कर लेता है ( गंगा के तट पर किसी सर्पिणी ने सहस्रों अण्डे देकर रख दिये थे। उन अण्डों को एक उल्लू रात में फोड फोडकर नष्ट कर दिया। इससे वह महान पुण्य का भागी हुआ; अन्यथा उन अण्डों से हजारों विषैले सर्प पैदा होकर कितने ही लोगों का विनाश कर डालते।)। युधिष्ठिर ! तुम्हारा यह पिछला प्रश्न भी ऐसा ही है। इसके अनुसार धर्म के स्वरूप का विवेचन करना या समझना बहुत कठिन है; इसीलिये उसका प्रतिपादन करना भी दुष्कर ही है; अतः धर्म के विषय में कोई किस प्रकार निश्चय करे?
प्राणियों के अभ्युदय और कल्याण के लिये ही धर्म का प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्य से युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्ध होते हों, वही धर्म है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का निश्चय हैं।"
महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन के अनुसार - 'यतो अभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्मः' - जिन विचारों और कर्मों से व्यक्ति और समाज के सामंजस्यपूर्ण अभ्युदय (उन्नति) की प्राप्ति/सिद्धि हो उसे ही धर्म कहते हैं| धर्म को सत्य (for its own sake) से कुछ लेना-देना नहीं है| सत्य हो या असत्य, अगर उससे समाज और व्यक्ति का समग्र विकास (अभ्युदय) होता है, कल्याण (निःश्रेयस) होता है तो वह धर्म है, अन्यथा वह अधर्म है|

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