शनिवार, 7 सितंबर 2019

काले धन की शुरुआत कैसे हुई

हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू मानव में देवत्व देखने के आदी थे| वह, उनके साथ के नेतागण, अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी सभी यह मानते थे कि भारतीय मनुष्य देवता हैं और अपने स्वार्थ की परवाह किये विना देश के लिए सब कुछ न्यौछावर कर देंगे|
इस विश्वास का सबूत उन्होंने आयकर की दरों में दिया| 1960 तक शीर्ष धनियों और उद्योगपतियों की आमद पर आयकर की दर लगभग 88% (प्रभावतः 97 प्रतिशत) थी - यानि बहुत धनी लोग इतने देशभक्त माने गए थे कि अपने अर्जित 100 रूपये में 97 रूपये सरकार को देंगे और केवल 3 रूपये अपने पास रखेंगे| अहा, नेहरू जी से बड़ा समाजवादी और आदर्श नेता और कौन हो सकता है?
यह देव-मानवतावादी सिलसिला 1973 तक चला | 1973-74 के बाद शिखर पर के धनियों की आय पर कर की दर प्रभावतः 77 प्रतिशत थी| मतलब कि शिखर के धनाढ्य लोग 100 में 23 रूपये अपने पास रखेंगे और 77 रूपये सरकार को दे देंगे|
अहा, क्या गुलाबी दृष्टिकोण था|
वर्ष 1985-87 में VP Singh ने आय कर के चार स्लैब बनाये और शीर्ष स्लैब पर आयकर की दर को अधिकतम 50% कर दिया| मानव को देवत्व से उतार कर मानव समझने की कोशिश शुरू हुई| सांस्कृतिक रूप से यह मानवीकरण मात्र पतन ही था| यह माना गया कि आयकर की दर बहुत ज़्यादा होने की वज़ह से टैक्स की चोरी होती है| यह दुखद है कि हमारे धनाढ्यों और उद्योगपतियों को देवदूत न समझकर 'कर-चोर' समझा गया| जो महामना पूँजीपति गाँधीजी की बकरी तक को एयरकंडीशंड कमरे में रखने की उदारता दिखा सकते थे उन्हें स्वार्थी, लोलुप, चरित्रहीन और दौलत का पुजारी कहा गया| यह भयंकर वैचारिक पतन था| धनाढ्यों के चरित्र पर शंका एक हृदयविदारक घटना थी| हाय, उन्हें स्वार्थी समझा गया|
मनमोहन सिंह (1991-96) ने मानव को और नीचे गिराया और उन्हें स्वार्थी समझकर आयकर के मात्र तीन स्लैब बना दिए| आयकर की अधिकतम दर 40% कर दी गयी|
पी चिदंबरम और नीचे गिर गए| उन्होंने 1997-98 में आयकर की अधिकतम दर 30% कर दी| अबतक हम और अधिक नीचे नहीं गए हैं|
अब शुरू से लीजिये (https://economictimes.indiatimes.com/…/slidesh…/67582813.cms)| जिस देश के बुद्धू अर्थशास्त्री और नेता यह मानते हैं कि धनाढ्य वर्ग अपनी आय का 80% (या 97%) सरकार को दे देगा वह देश तो काले धन का सृजन करेगा ही| जिस देश का 'मंगरू' सम्राट अशोक बनने के सपने देखेगा, हथियार की फैक्टरी में जूते बनवाएगा; सुशीला को जाँघ के नीचे दबाकर शान्ति के नाम का जाप करेगा, कबूतरबाजी करेगा, वह तो हॉबसीयन (Hobbesian) मानव से धोखा खायेगा ही|
और इसी कारण काला धन और काली पूँजी हमारी अर्थव्यवस्था पर शासन करने लगे| हमने आदमी को ग़लत समझा - हम दार्शनिक तौर पर गधे थे, गधे हैं|
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