सोमवार, 2 सितंबर 2019

भारतीय संस्कृति में मानव, देवता, दैत्य और मानवेतर जातियाँ

हमारी सांस्कृतिक कथाओं (माइथोलॉजी) में मानव और इस सृष्टि की मानवेतर जातियों और उनके आपसी संबंधों का सांकेतिक वर्णन हुआ है|
सबसे पहले दैत्य हुए जो अंधकार के प्रतीक हैं, जिसका वर्णन हम बाद में करेंगे| ध्यान रखें शुरू में अंधकार ही था, प्रकाश बाद में आया|
फिर देवता हुए| देवता तैंतीस (33) हैं| बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, वषट्कार (यज्ञ) और प्रजापति (अन्यत्र वषट्कार और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनीकुमार गिनाए गए हैं, जिसकी विवेचना हम बाद में करेंगे)|
बारह आदित्य, आठ वसु और यज्ञ (कुल मिलाकर इक्कीस) मानव के बाहरी वातावरण (environment) को नियंत्रित करते हैं| रुद्र, यज्ञ और प्रजापति (कुल मिलकर तेरह) मानव के आंतरिक वातावरण को नियंत्रित करते हैं| यज्ञ आतंरिक और वाह्य दोनों वातावरणों को नियंत्रित करता है|
बारह आदित्य हैं - विष्णु (सूर्य), अर्यमन, अंशुमान, विवस्वान, वरुण, पर्जन्य, मित्र, त्वष्टा, इंद्र, धाता, भग, और पूषा| सूर्य (विष्णु) अंधकार का नाश करते हैं| अर्यमन (शीत) और अंशुमान (उष्ण) प्रवहमान हैं, इन्हीं से गति उत्पन्न होती हैं, विवस्वान अग्नि हैं, वरुण जल हैं, पर्जन्य मेघ तथा सिंचक हैं, मित्र चन्द्रमा तथा समुद्र हैं, त्वष्टा निर्माण के देवता हैं, इंद्र शक्तिस्वरुप हैं, धाता संतुलन और स्थिति का नियंत्रण करते हैं, भग प्रजननकर्ता हैं, पूषा पोषक अन्न हैं| शुरू के दस आदित्य अजैव और जैव सारे वातावरण का नियंत्रण करते हैं| अंतिम दो आदित्य जीव जगत से ख़ास करके जुड़े हैं जो प्रजनन और पोषण से सम्बंधित हैं| बाकी दसों आदित्य भी अपनी कुछ कलाओं को जीव में देते हैं|
आठ वसु हैं - धर (धरा), अनल, अनिल, आप (जल), प्रत्यूष, प्रभाष, सोम और ध्रुव| धर आकर्षणशक्ति है, पृथ्वी है, धारण करने वाली है| पृथ्वी को वसुधा, वसुमती और वसुंधरा भी कहते हैं| इसमें आकर्षण शक्ति (धर) हैं| पृथ्वी पर या इसके इर्द-गिर्द जो हवा होती है (atmosphere) अनिल कहलाती हैं, पृथ्वी पर की अग्नि अनल कहलाती है| पृथ्वी को घेरने वाला तत्व आकाश (प्रभाष) है, सारे ग्रह नक्षत्र इसी में हैं| प्रत्यूष सबेरा, प्रकाश है, सोम रात का प्रकाश और वनस्पतियों का पोषक है| ध्रुव पृथ्वी की धुरी है (जिसके ऊपर यह घूमती है)| वसु पृथ्वीवासी देवता हैं, किन्तु आदित्य अंतरिक्ष वासी हैं, पर अपनी कुछ कलाओं के साथ वे पृथ्वी पर और जीवों में भी रहते हैं|
ग्यारह रुद्र हैं - जो जीवित शरीर में रहने वाले दस वायु हैं और ग्यारहवां आत्मा है (बृहत् आरण्यकोपनिषद)| इन्हें रुद्र इसलिए कहा जाता है कि जब ये शरीर को छोड़ते हैं तो मृत्यु होती है जिसपर सभी रोते हैं - रुलाने के कारण रुद्र कहे गए हैं| दस रुद्र या वायु हैं - प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, और धनंजय| इसमें से पहले दो दृश्य हैं और शरीर को बाहरी वातावरण से जोड़ते हैं| बाकी आठ शरीर में रहकर शरीर के कार्यों को संपन्न करते हैं| अन्यत्र पहले पाँच को मुख्य कहा गया है और बाद के पाँच को गौण क्योंकि पहले पाँच जीवन के लिए आवश्यक हैं और बाद के पाँच स्वास्थ्य के लिए| जीवन की तुलना में स्वास्थ्य गौण है| ग्यारहवाँ रुद्र आत्मा सबका स्वामी है|
प्राण वायु श्वास-प्रश्वास (respiration) से सम्बंधित है, इसी से शरीर को शक्ति बनाने की ऊर्जा मिलती है; अपानवायु अन्न ग्रहण करता है (देखें माण्डूक्योपनिषद) और मलनिष्काशन (excretion ) करता है| अपानवायु ही जननकर्म (reproductive system) का नियंत्रण करता है| प्राण और अपान मिलकर शरीर को वाह्य आधार से जोड़ते हैं| यही जीवनशक्ति को कायम रखते हैं| समानवायु खाए हुए अन्न को पचाने (digestive) तथा पचे हुए अन्न से रस, रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है। यही अस्थियों तथा मांसपेशियों के कार्य (skeletal and muscular system) का नियंत्रण करता है| उदानवायु कण्ठ से शिर (मस्तिष्क) तक के अवयवों में रहता है और शब्दों के उच्चारण, वमन आदि का नियंत्रक है| व्यानवायु सम्पूर्ण शरीर में रहता है। यह सम्पूर्ण संचारतंत्र - रक्तसंचार (cardiovascular ), ग्रन्थि-स्राव संचार ( endocrine and lymphatic system), नाड़ीतंत्र (nervous system) का नियंत्रण करता है| पाँच उपप्राण बाकी कार्य करते हैं डकार निकालना नाग वायु का कर्म है, नेत्रों के पलक लगाना खोलना कूर्म वायु का कर्म है, छींक करना कृकल वायु का कर्म है, जम्हाई लेना देवदत्त वायु का कर्म है, और धनंजय वायु सर्व शरीर में व्याप्त रहता है और अध्यावरणी तंत्र (Integumentary system) का नियंत्रण करता है| इस तरह ये दस वायु शरीर के 11 तंत्रों को चलाते हैं| आत्मा ग्यारहवाँ रुद्र है जो बाक़ी दस रुद्रों का अधिपति और नियंता है| जबतक आत्मा शरीर को नहीं छोड़ता, बाक़ी दस रुद्र भी शरीर में निवास करते हैं|
शंकर (शिव) को प्रधान रुद्र माना गया है, यही आत्मा है| शंकर परम योगी थे और उन्होंने ही सबसे पहले प्राण और अपान को प्रयास से वश करने का तरीका (प्राणायाम योग) निकाला| प्राणायाम से बाक़ी आठ वायु स्वतः नियंत्रित हो जाते हैं, सारे तंत्र स्वतः ठीक-ठाक चलने लगते हैं| आत्मा (व्यक्ति में स्थित) और परमात्मा के एकत्व के कारण यह कहा जाता है कि शिव आत्मा भी हैं और परमात्मा भी|
प्रजापति रचना तथा प्रजनन के सार्वभौम देवता हैं और इस कार्य को भग देवता और अपानवायु की मदद से संपन्न करते हैं| वषट्कार (यज्ञ) शारीरिक शक्ति (energy), कार्यान्वयन (implementation) और व्यवस्था (organization) के देवता हैं और आदित्य इंद्र की सहायता से काम करते हैं| जहाँ अश्विनी कुमारों को देवता माना गया है वहाँ वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का नियमन करते हैं|
ये देवता संसार के हर जीव में और निर्जीव वस्तु में अपनी कलाओं में विद्यमान हैं और अपने महत रूप में संहति में विद्यमान हैं| इस व्यष्टि और संहति कोटि में विद्यमान होने के कारण यह कहा जाता है कि देवताओं की संख्या 33 कोटि है|
स्वायम्भुव मनु ब्रह्मा के मानस संतान थे| शतरूपा ब्रह्मा की मानस पुत्री थी| इन्हीं दोनों से मानव हुए|
सृष्टि के अन्य जीव भी ब्रह्मा के छह पुत्रों पौत्रों तथा कश्यप ऋषि (जो ब्रह्मा के पोते और मरीचि ऋषि के पुत्र थे) की संतानें हैं| कश्यप की अनेक पत्नियाँ थीं| वे दक्ष की पुत्रियाँ थीं| कश्यप ऋषि को अदिति में 12 आदित्यों, दिति में 2 दैत्यों (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु), दनु में 34 दानवों, सिंहिका में राहु, क्रूरा में क्रोधवश गण, दनायु में 4 पुत्र (वृत्र, बल, वीर और विक्षर), काला में चार मुख्य पुत्र (विनाशन आदि), विनता में गरुड़, अरुण आदि, कद्रू में शेष, वासुकि आदि नाग, मुनि में नारद आदि सोलह पुत्र (गन्धर्व), प्राधा में देवगंधर्व और अप्सराएँ, कपिला में गायें, अमृत, गन्धर्व और अप्सराएँ, पैदा हुईं| इसी तरह लता वृक्षों, पक्षियों आदि की भी सृष्टि हुई| ब्रह्मा के पुत्र स्थाणु से रुद्रों की उत्पत्ति हुई| धर्म ब्रह्मा के पुत्र थे जिनकी पत्नियाँ दक्ष की पुत्रियाँ थीं| इन्हीं से वसुओं का जन्म हुआ| दोनों अश्विनीकुमार (दस्र और नासत्य) सूर्यपुत्र हैं| इसकी पूरी वंशावलि महाभारत के आदिपर्व के संभवपर्व में है|
सत्ता को लेकर कश्यप के पुत्रों में विरोध हुआ और उनके पुत्र दो दलों में बंट गए| कुछ ने देवताओं का पक्ष लिया और कुछ ने दैत्यों-दानवों का| देवता-विरोधी दल असुर कहलाया| देवताओं ने कुछ आदर्शों के ऊपर दुनियाँ को चलाना चाहा और असुरों ने इसमें विघ्न पैदा किया| इसी कारण दैत्य अंधकार के प्रतीक हैं और देवता प्रकाश के प्रतीक हैं| देव (देवता) शब्द की उत्पत्ति दिव् से हुई है जिसका अर्थ है प्रकाशमय होना| हमारी संस्कृति देवताओं द्वारा स्थापित व्यवस्था के पक्ष में है|

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