गुरुवार, 26 सितंबर 2019

कर्म और फल

कर्म और फल से सम्बंधित दो वचन प्रचलित हैं - (१) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (आपका जुरिस्डिक्सन कर्म है, उसका फल नहीं), और (२) अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभाशुभं (कर्म शुभ हों या अशुभ, उन्हें - उनके फलों को - भोगना ही होगा)| पहले वचन का (जो फैशनेबल होने की हद तक चालू है), बहुधा ग़लत प्रयोग होता है| प्रायः लोग अधिकार की जग़ह कर्त्तव्य और आशा का प्रतिस्थापन कर देते हैं हैं - जैसे कर्म किये जाओ, फल की आशा मत करो, इत्यादि| एक और समस्या खड़ी होती है तृतीय वचन से - अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच (चिंता मत करो, मैं - भगवान - तुम्हें - अर्जुन को - सब पापों से मुक्त कर दूंगा)| अगर अवश्यमेव भोक्तव्यं तो भगवान किसी को पापमुक्त कैसे कर देंगे?
अगर ठीक से मीमांसा न हो तो उपर्युक्त वचन भ्रान्ति पैदा कर सकते हैं| अगर दूसरा वचन सार्वभौम सत्य है तो फल पर अधिकार या फल की आशा का कोई अर्थ नहीं रह जाता| अगर पहला वचन सत्य है (कर्म का फल से अपरिहार्य सम्बन्ध नहीं है - कर्म फलीभूत हो सकता है या नहीं भी हो सकता है) तो दूसरे वचन पर प्रश्नचिह्न लग जाता है| तीसरा वचन तो कर्म और फल के सम्बन्ध को सर्वथा तोड़ देता है|
इस विकार की उत्पत्ति का मूल कारण व्यष्टि और समष्टि का गड़बड़झाला है जो हमारे शास्त्रों की व्याख्या (commentaries) में सर्वत्र व्याप्त है| द्वितीय वचन की व्याख्या में यह प्रश्न नहीं उठाया गया है कि अगर 'अवश्यमेव भोक्तव्यं' तो 'केन भोक्तव्यं?'| कर्म के अपरिहार्य फल का भोक्ता कौन होगा? कर्त्ता (व्यक्ति) या समाज (समष्टि)?
जब भारत स्वतंत्र हुआ तो काश्मीर की स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं रखी गयी| लेकिन आगे चल कर इस अस्पष्टता ने दर्ज़नों समस्याओं को जन्म दिया जिनके चलते लोग बेघर हुए, मरे, बेइज़्ज़त हुए, दरिद्र हुए, कुछ लोग संपन्न हुए, राजा बन गए, वग़ैरह| व्यक्तियों के किये कर्म का फल कर्त्ता ने नहीं, समष्टि ने भोगा जो अकर्त्ताओं को भी भुगतना पड़ा| भोपाल गैस कांड के फल के भोक्ताओं पर नज़र डालिये - क्या वे कर्त्ता थे? हिरोशिमा पर अणुबम गिरा और उसके फल संततिरेखा पर पड़े| क्या संतति कर्त्ता थी? मैं रात में चुपचाप सड़क पर गढ्ढे खोदकर ढँक दूँ| मुँहअँधेरे लोग और गाड़ियाँ गड्ढे में गिरेंगे| कर्त्ता मैं, भोक्ता कोई और|
हमारे शास्त्रों ने इसे प्रारब्ध की संज्ञा दी है, पूर्वजन्म के कृत कर्मों का फल बतलाया है और क्या-क्या अनाप-शनाप नहीं कहा है [जैसे "यथा धेनु सहस्त्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् | एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।" बछड़ा अपनी माँ को हज़ारों गायों में ढूंढ लेता है, उसी तरह पूर्वकृत कर्म अपने कर्त्ता को ढूंढ लेता है| कविता के तौर पर अच्छी चीज़ है,लेकिन मैंने बछड़ों को अपनी मौसियों का दूध पीते भी देखा है] | हमारे विचारकों को सीधी-सी बात नहीं सूझी कि कर्म और उसके फलों की व्याप्ति अलग़-अलग़ है| कर्म कर्त्ता से चिपका रहता है लेक़िन कर्म के फल समष्टि में फैल जाते हैं, व्यष्टि के अधिकारक्षेत्र से बाहर चले जाते हैं| इसे समझने के लिए प्रारब्ध या पुनर्जन्म की परिकल्पना की कोई आवश्यकता नहीं है| गाली आप देते हैं, गुस्सा मुझे आता है| इतनी छोटी-सी बात व्याख्याकारों को नहीं सूझी और बड़ी-बड़ी बातें कह गए| विद्वान पुरुषों के यही लक्षण हैं| तो 'केन भोक्तव्यं' का उत्तर है 'निश्चयरूपेण समाजेन भोक्तव्यं, समष्टिणा भोक्तव्यं| कदाचित कर्त्ता अपि भोक्ता भवति'| कर्म का फल कदाचित कर्त्ता को, पर निश्चय रूपेण समाज को, भोगना होगा| अच्छे कर्म सामाजिक कर्त्तव्य हैं, बुरे कर्म सामाजिक रूप से हानिकारक हैं| डकैतों के संपन्न जीवन को - वे दान ज़कात के पुण्यकार्य भी करते रहते हैं - उनके पूर्वजन्म के कर्मों से न जोड़ें|
महाराजा अंधा था, महारानी ने आँखों पर पट्टियाँ बाँध रखी थी| पातिव्रत धर्म की चोंचलेबाजी राजधर्म (राजमहिषी धर्म) पर छा गयी थी| बेटे (राजकुमार) शक्तिशाली थे और उच्छृंखल भी| मंत्रिमंडल दुष्ट और चापलूस था| प्रधान सेनापति अपनी भ्रमित प्रतिज्ञा का दास था, हालाँकि शुक्रनीति, शक्रनीति, बृहस्पतिनीति और परशुरामनीति का पंडित था| गुरु जी अर्थ के दास थे और पुत्रवाद तथा द्वेष से पीड़ित थे| जहाँ समाज इतनी बीमारियों से पीड़ित हो वहाँ कर्म के फल पर कर्त्ता का अधिकार कैसे हो सकता है? समाज जितना नियमबद्ध होगा, कर्म और उसके फल का सम्बन्ध उतना ही सम्भवतापूर्ण होगा| नियमहीनता (chaos) ही संबंधों को प्रोबैबिलिस्टिक (probabilistic या stochastic) बनाती है, अनिश्चितता को जन्म देती है| ऐसी स्थिति में केवल कर्म पर ही अधिकार हो सकता है|
कर्म और फल के संबंधों के तीन निर्णायक हैं - (१) कर्त्ता के चेतन/अचेतन में किये गए व्यापार, उनकी दिशा, गुणवत्ता तथा परिमाण - इसे कर्म से सम्बोधित किया गया है, (२) कर्त्ता के अतिरिक्त अन्य मानवीय या सामजिक घटकों के द्वारा जाने-अनजाने किये हुए कर्म, जिसे भाग्य कहा जाता है और जो पूर्वजन्मार्जित न होकर समाजार्जित होता है, समष्टि-अर्जित होता है, और (३) प्राकृतिक घटनाएँ जो मानव के वश में नहीं हैं - याने शुद्ध मानवेतर या प्रारब्ध या अदृष्ट | प्रारब्ध कर्म और फल के संबंधों को closure property देता है जो logical requirement है|
हमारे शास्त्रों के व्याख्याकारों ने भाग्य और अदृष्ट (प्रारब्ध) को मिलाकर एक खिचड़ी बनायी| इसका उद्देश्य समष्टिवाद पर व्यष्टिवाद का आरोपण था जो ऋत (ontological Truth) नहीं था, पर नैतिक रूप में उपादेय था - वह धर्मार्थक सत्य था, आचरणीय सत्य था, उपयोगी सत्य था, प्रैग्मैटिक ट्रुथ (Pragmatic Truth) था| हम इसी अन्तर को नहीं समझ पाए और उलझ गए|

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