शनिवार, 28 सितंबर 2019

आडम्बर, पाखंड, धर्मध्वजिता, और न्यायध्वजिता

भारत एक ऐसा देश है और भारतीयता एक ऐसी संस्कृति है जिसमें मनसा, वाचा, और कर्मणा एक होने के बगटुट उपदेश दिए गए हैं पर क़दम-क़दम पर इन तीनों के बीच न केवल खाइयाँ खोदी गयी हैं अपितु उन खाइयों को उत्तरोत्तर विस्तृत और सम्पोषित किया गया है| भारतीय संस्कृति की कुल जमा पूँजी है आडम्बर, पाखंड, धर्मध्वजिता और न्यायध्वजिता|
आगे बढ़ने के पहले आडम्बर, पाखंड, धर्मध्वजिता और न्यायध्वजिता की कामचलाऊ परिभाषा से अवगत होना लाज़िमी है| आडम्बर का तात्पर्य ऊपरी बनावट, तड़क-भड़क, टीम-टाम, झूठे आयोजन, ढोंग और कपट से है जिससे वास्तविक रूप छिप जाये| आडम्बर दृष्टिगोचर, शब्दगोचर या विचारगोचर (बुद्धिगोचर) हो सकता है| आडम्बर पाखंड भाव का आलम्बन है| विना आडम्बर के पाखंड को मूर्त और इन्द्रियगम्य नहीं बनाया जा सकता, पाखंड केवल पाखंडी के मन में रह जायेगा और उसका सम्प्रेषण नहीं हो सकेगा| पाखंडी को सर्वोदय वाली मीठी जुबान बोलनी होगी, सिक्यूलरिज़्म का गुणगान करना होगा, छापा तिलक लगाना होगा, आत्मा परमात्मा की एकता और इस दुनियाँ को माया सिद्ध करना होगा, खादी पहननी होगी, बेतरतीब दाढ़ी-बाल और कंधे पर झोला लटकाये, हफ़्तों विना ग़ुस्ल किये, पुलिया पर बैठना होगा, आवारा गायों को रोटी और चीटियों को चीनी खिलानी होगी, उचके पाजामे और जालीदार टोपी पहनने होंगे, गले की माला में क्रॉस लटकाना होगा, भगवे रंग की पुतली पहननी होगी, नीम-हकीमी को छुपाने के लिए गले से स्टेथोस्कोप लटकाना होगा|
पाखंड एक भाव है जो ठगने की नैसर्गिक प्रवृत्ति, जिसका मूलस्रोत जिजीविषा है, से अंकुरित होता है| जगज़ाहिर है कि शिकारी (predator) की सफलता इस बात पर निर्भर होती है कि शिकार (prey) की तुलना में उसके पास कितना अधिक ज्ञान और अवसर है| यह ज्ञान और अवसर की विषमता ही शिकार (hunting) का आधार है| स्वाभाविक है कि शिकारी और शिकार दोनों छिपेंगे, छद्मावरण (camauflaging) का सहारा लेंगे, एक-दूसरे को ग़लत इशारे सम्प्रेषित करेंगे और वस्तुस्थिति को उजागर नहीं करना चाहेंगे| शंका और विश्वास मौलिक प्रवृत्तियॉँ हैं लेकिन दोनों ही दुधारी तलवारें हैं| विश्वास के विना उपलब्ध अवसरों का दोहन तथा उपयोग (exploitation) नहीं हो सकता, पर अतिविश्वास जानलेवा हो सकता है| दूसरी तरफ़, शंका नए अवसरों को ढूँढने की प्रवृत्ति (exploration) को उकसाती है किन्तु अत्यधिक शंका अस्थिरता और चपलता को जन्म देती है और सफलता की भ्रूणहत्या कर देती है| विश्वास और शंका के साम्य में पाखंड और उसके आलम्बन (आडम्बर) का बहुत बड़ा रोल है जो शिकार के मन में विश्वास पैदा करता है| शिकारी इसी विश्वास का फ़ायदा उठाता है|
धर्मध्वजिता पाखंड और उसके आलम्बन का वह रूप है जिसमें धर्म के टोटकों का प्रयोग होता है| सर्वधर्मसमानत्व, धर्मनिरपेक्षता इत्यादि नारों से लेकर धार्मिक कट्टरता और हिंदू, मुस्लिम या ईसाई ज़िहाद धर्मध्वजिता के उदाहरण हैं| किसी मनुष्य का चिंतन, उसकी भाषा, उसके हाव-भाव, उसकी आचारपरक मान्यताएँ इत्यादि उसके पालन-पोषण की संस्कृति के सर्वदा निरपेक्ष हो ही नहीं सकती| गाँधी जी तक ने ईश्वर और अल्लाह की एकता बतलायी, लेक़िन उनके भजन में मुलुंगु या न्याकोपोन (अफ्रीका के भगवान) तो नहीं आये, हालाँकि वह अफ़्रीका में रह चुके थे| कोई भी व्यक्ति अपने कल्चरल मैट्रिक्स से बाहर नहीं निकल सकता, और कल्चरल मैट्रिक्स से बाहर होने का ढोंग - धर्मनिरपेक्षता - धर्मध्वजिता है, पाखंड है, आडम्बरधारिता है, शिकारी प्रवृत्ति है| यही हालत उनकी है जो इस दुनियाँ को माया और मिथ्या बतलाते हैं पर मठों में महंत बने बैठे हैं या आश्रमों में चकला चलाते हैं, या धन की लोलुपता में गोद ली हुई बेटी तक से निक़ाह पढ़ने को तैयार हैं| यही धर्मध्वजिता थी जिसकी वज़ह से हज़ारों दृढ़संयमी नन्स (nuns) डायन कहकर जिंदा जला दी गयी थी, हालाँकि इसका मूल कारण धर्मगुरुओं की अदम्य और आपराधिक कामुकता थी|
चाहे सौ वर्षों तक मुकदमा चलता रहे लेक़िन किसी बेग़ुनाह को सज़ा नहीं देंगे की ज़िद न्यायध्वजिता है| चाहे हज़ार दोषी अभयारण्य में विहार करते रहें लेक़िन एक निर्दोष को सलाख़ों के अंदर नहीं होने देंगे, यह टेक न्यायध्वजिता है| हम औरतों की शिकायतों को सदासत्य मानेंगे और मर्दों को जन्मजात अपराधी मानेंगे - और हम ऐसा करेंगे डंका पीटकर - यह न्यायध्वजिता है| कोई नहीं मानेगा कि यह सब न्यायधारियों और न्यायकारियों की भीरुता या असंवेदनशीलता के चलते होता है| हर एक व्यक्ति को बोलने का - कुछ भी बोलने का - अधिकार है| कोई किसी को पप्पू कह सकता है, चायवाला कह सकता है, घूसखोर कह सकता है, चरित्रहीन कह सकता है और विना किसी उत्तरदायित्व के, विना किसी पुख्ते प्रमाण के| यह है बोलने की आज़ादी की रक्षा और यही न्याय की कसौटी है; इसी को न्यायध्वजिता - इंसाफ़ का परचम लहराना कहते हैं| आज की जातिवादिता, पिछडेपन की गुहार, सामाजिक न्याय, आरक्षण, संस्कृति की रक्षा, वेदवादिता, मनुवादिता, इत्यादि न्यायध्वजिता के ही लक्षण हैं| छद्मन्यायपरता (न्यायधर्मिता का दिखावा) के पाखंड ने न्याय के छद्म से किस तरह अपराधियों की रक्षा की है यह जग-ज़ाहिर है| अधिकांश बड़े अपराधी छुट्टे सांढ़ की तरह घूमते रहे और उन्होंने न्यायव्यवस्था का मज़ाक बना दिया| नेता और अपराधी मिल गए; अपराधी नेता बनकर विधायक बन गए और नेताओं का वर्चस्व बाहुबल से स्थापित होने लगा| न्याय की प्रक्रिया इतनी जटिल, लस्त-पस्त, छिद्रपूर्ण, लचर, और दीर्घसूत्रितापूर्ण कर दी गयी जिसमें केवल अपराधी ही पनप सके, जी सके, विकास कर सके| धार्मिक बहुलवाद (रिलीजियस प्लूरलिज़्म) , सिक्युलरिज़्म, धार्मिक सहिष्णुता, और सामाजिक न्याय (सोशल जस्टिस) के पाखंड के भीतर अन्याय, उपेक्षा और तरफ़दारी की फ़सल उगायी गयी जहाँ भारत की बहुसंख्यक जनता मार खाकर भी रो नहीं सकी| हमारी न्यायव्यवस्था एक अंधी देवी है जिसके हाथ में न्याय की तराजू ज़रुर है, लेकिन वह देख नहीं सकती की डंडी समतल है या नहीं| तीन गाँधीवादी बन्दर लगे हुए हैं पलड़ों को बराबर करने और जिधर का पलड़ा नीचे होता है उधर की रोटी से एक कौर काट लेते है| अंधी देवी और तीन प्रपंची बन्दर|

देवात्मक मानवतावाद के पाखंड में मानव को देवोचित गुणों से भरपूर माना गया हालाँकि धरातल पर आदमी पशुता से भरा हुआ है| इस पाखंड में यह माना गया कि धनाढ्य वर्ग, उद्योगपति और व्यापारी धन के न्यासरक्षक (ट्रस्टी) के रूप में स्वार्थहीन रूप से काम करेंगे| उदाहरण के लिए वे अपनी कमाई का अधिकांश (80% से 95% तक) हिस्सा टैक्स दे देंगे जिससे समाज का कल्याण होगा| राजनीतिक नेतागण भूखे पेट, खादी कपड़े धारण कर, जनकल्याण के लिए दर-दर भटकेंगे और सत्ता से कोई व्यक्तिगत फ़ायदा नहीं उठायेंगे| जमींदार करुणावश अपनी ज़मीन को भूमिहीन जनता में बाँट देंगे| सर्वोदय के नटवरलालों ने अनेक तरह की नौटंकियाँ कीं और ज़मीन के बँटवारे का नारा एक छलावा होकर रह गया| शिक्षकगण पेट में कपड़ा बाँधकर सरस्वती की उपासना करेंगे| वक़ील और न्यायाधीश दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए जान लड़ा देंगे| पुलिस के लोग डंडे लेकर अपराधियों को नियंत्रित कर लेंगे| यह मान लिया गया और इसे मनवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी कि विश्वशांति की घोषणा और कबूतरबाज़ी के चलते भारत के कोने-कोने में बुद्ध पैदा होंगे और सारे अंगुलिमाल कंठी धारण करके मेवानिवृत्त हो जायेंगे| इत्यादि|
समाजवादिता के पाखंड को एक सुनहरा नाम देकर जनमानस पर चस्पा किया गया| इसका नाम था सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी (या सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ कैपिटलिस्टिक सोसाइटी, जिसमें कैपिटलिस्टिक शब्द को गूढ़ रखा गया)| इसकी विस्तृत विवेचना डा. शिवचंद्र झा की पुस्तक (Studies in the Development of Capitalism in India, Firma K. L. Mukhopadhyay, 1963) में है जिसमें दिखाया गया है कि समाजवादिता की आड़ में किस तरह भारतीय पूँजीवाद का विकास हुआ और किस तरह उद्योगपतियों और व्यापारियों के स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय हितों का वलिदान किया गया| डा. प्रणब बर्धन की पुस्तक (The Political Economy of Development in India, Oxford. University Press, Delhi) में यह दिखाया गया कि किस तरह व्यापारियों/पूँजीपतियों, जमींदारों और नेताओं की तिकड़ी ने गंभीर साज़िश की तहत जनता और देश के संसाधनों की लूट मचाई| प्रो. अशोक रूद्र ने दिखाया [Emergence of the Intelligentsia as a Ruling Class in India, ASHOK RUDRA, Indian Economic Review, New Series, Vol. 24, No. 2 (July-December 1989), pp. 155-183] कि कैसे बुद्धिजीवी वर्ग ने उस तिकड़ी को सराहा और बुद्धिजीवी वर्ग अपने स्वार्थों के लिए उस तिकड़ी के हाथ बिक गया| इन कारणों से भारत क्रोनी कैपिटलिज़्म (Crony Capitalism) का नमूना बन गया| हम समाजवादिता और आदर्शवादिता का राग अलापते रहे और प्रच्छन्न पूँजीवाद बढ़ता रहा| काले धन, काली अर्थव्यवस्था और काली मनोवृत्ति हमारे जनमानस और कार्यकलापों पर छा गयी| इसका इलाज़ पाखंड में नहीं है, प्रकट होने में है| पूँजीवाद को झूठे आदर्शवाद से रोका नहीं जा सकता है|  
हम भारतीय इस तरह की अनेक पाखंडों में लिप्त हैं| ख़ास करके बुद्धिजीवी वर्ग इसमें अधिक लिप्त है| लेक़िन ध्यान रहे, झूठ के पाँव नहीं होते| आज न कल हम भरभराकर ढह जायेंगे|

गुरुवार, 26 सितंबर 2019

कर्म और फल

कर्म और फल से सम्बंधित दो वचन प्रचलित हैं - (१) कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन (आपका जुरिस्डिक्सन कर्म है, उसका फल नहीं), और (२) अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्मं शुभाशुभं (कर्म शुभ हों या अशुभ, उन्हें - उनके फलों को - भोगना ही होगा)| पहले वचन का (जो फैशनेबल होने की हद तक चालू है), बहुधा ग़लत प्रयोग होता है| प्रायः लोग अधिकार की जग़ह कर्त्तव्य और आशा का प्रतिस्थापन कर देते हैं हैं - जैसे कर्म किये जाओ, फल की आशा मत करो, इत्यादि| एक और समस्या खड़ी होती है तृतीय वचन से - अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच (चिंता मत करो, मैं - भगवान - तुम्हें - अर्जुन को - सब पापों से मुक्त कर दूंगा)| अगर अवश्यमेव भोक्तव्यं तो भगवान किसी को पापमुक्त कैसे कर देंगे?
अगर ठीक से मीमांसा न हो तो उपर्युक्त वचन भ्रान्ति पैदा कर सकते हैं| अगर दूसरा वचन सार्वभौम सत्य है तो फल पर अधिकार या फल की आशा का कोई अर्थ नहीं रह जाता| अगर पहला वचन सत्य है (कर्म का फल से अपरिहार्य सम्बन्ध नहीं है - कर्म फलीभूत हो सकता है या नहीं भी हो सकता है) तो दूसरे वचन पर प्रश्नचिह्न लग जाता है| तीसरा वचन तो कर्म और फल के सम्बन्ध को सर्वथा तोड़ देता है|
इस विकार की उत्पत्ति का मूल कारण व्यष्टि और समष्टि का गड़बड़झाला है जो हमारे शास्त्रों की व्याख्या (commentaries) में सर्वत्र व्याप्त है| द्वितीय वचन की व्याख्या में यह प्रश्न नहीं उठाया गया है कि अगर 'अवश्यमेव भोक्तव्यं' तो 'केन भोक्तव्यं?'| कर्म के अपरिहार्य फल का भोक्ता कौन होगा? कर्त्ता (व्यक्ति) या समाज (समष्टि)?
जब भारत स्वतंत्र हुआ तो काश्मीर की स्थिति बहुत स्पष्ट नहीं रखी गयी| लेकिन आगे चल कर इस अस्पष्टता ने दर्ज़नों समस्याओं को जन्म दिया जिनके चलते लोग बेघर हुए, मरे, बेइज़्ज़त हुए, दरिद्र हुए, कुछ लोग संपन्न हुए, राजा बन गए, वग़ैरह| व्यक्तियों के किये कर्म का फल कर्त्ता ने नहीं, समष्टि ने भोगा जो अकर्त्ताओं को भी भुगतना पड़ा| भोपाल गैस कांड के फल के भोक्ताओं पर नज़र डालिये - क्या वे कर्त्ता थे? हिरोशिमा पर अणुबम गिरा और उसके फल संततिरेखा पर पड़े| क्या संतति कर्त्ता थी? मैं रात में चुपचाप सड़क पर गढ्ढे खोदकर ढँक दूँ| मुँहअँधेरे लोग और गाड़ियाँ गड्ढे में गिरेंगे| कर्त्ता मैं, भोक्ता कोई और|
हमारे शास्त्रों ने इसे प्रारब्ध की संज्ञा दी है, पूर्वजन्म के कृत कर्मों का फल बतलाया है और क्या-क्या अनाप-शनाप नहीं कहा है [जैसे "यथा धेनु सहस्त्रेषु वत्सो विन्दति मातरम् | एवं पूर्वकृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति।" बछड़ा अपनी माँ को हज़ारों गायों में ढूंढ लेता है, उसी तरह पूर्वकृत कर्म अपने कर्त्ता को ढूंढ लेता है| कविता के तौर पर अच्छी चीज़ है,लेकिन मैंने बछड़ों को अपनी मौसियों का दूध पीते भी देखा है] | हमारे विचारकों को सीधी-सी बात नहीं सूझी कि कर्म और उसके फलों की व्याप्ति अलग़-अलग़ है| कर्म कर्त्ता से चिपका रहता है लेक़िन कर्म के फल समष्टि में फैल जाते हैं, व्यष्टि के अधिकारक्षेत्र से बाहर चले जाते हैं| इसे समझने के लिए प्रारब्ध या पुनर्जन्म की परिकल्पना की कोई आवश्यकता नहीं है| गाली आप देते हैं, गुस्सा मुझे आता है| इतनी छोटी-सी बात व्याख्याकारों को नहीं सूझी और बड़ी-बड़ी बातें कह गए| विद्वान पुरुषों के यही लक्षण हैं| तो 'केन भोक्तव्यं' का उत्तर है 'निश्चयरूपेण समाजेन भोक्तव्यं, समष्टिणा भोक्तव्यं| कदाचित कर्त्ता अपि भोक्ता भवति'| कर्म का फल कदाचित कर्त्ता को, पर निश्चय रूपेण समाज को, भोगना होगा| अच्छे कर्म सामाजिक कर्त्तव्य हैं, बुरे कर्म सामाजिक रूप से हानिकारक हैं| डकैतों के संपन्न जीवन को - वे दान ज़कात के पुण्यकार्य भी करते रहते हैं - उनके पूर्वजन्म के कर्मों से न जोड़ें|
महाराजा अंधा था, महारानी ने आँखों पर पट्टियाँ बाँध रखी थी| पातिव्रत धर्म की चोंचलेबाजी राजधर्म (राजमहिषी धर्म) पर छा गयी थी| बेटे (राजकुमार) शक्तिशाली थे और उच्छृंखल भी| मंत्रिमंडल दुष्ट और चापलूस था| प्रधान सेनापति अपनी भ्रमित प्रतिज्ञा का दास था, हालाँकि शुक्रनीति, शक्रनीति, बृहस्पतिनीति और परशुरामनीति का पंडित था| गुरु जी अर्थ के दास थे और पुत्रवाद तथा द्वेष से पीड़ित थे| जहाँ समाज इतनी बीमारियों से पीड़ित हो वहाँ कर्म के फल पर कर्त्ता का अधिकार कैसे हो सकता है? समाज जितना नियमबद्ध होगा, कर्म और उसके फल का सम्बन्ध उतना ही सम्भवतापूर्ण होगा| नियमहीनता (chaos) ही संबंधों को प्रोबैबिलिस्टिक (probabilistic या stochastic) बनाती है, अनिश्चितता को जन्म देती है| ऐसी स्थिति में केवल कर्म पर ही अधिकार हो सकता है|
कर्म और फल के संबंधों के तीन निर्णायक हैं - (१) कर्त्ता के चेतन/अचेतन में किये गए व्यापार, उनकी दिशा, गुणवत्ता तथा परिमाण - इसे कर्म से सम्बोधित किया गया है, (२) कर्त्ता के अतिरिक्त अन्य मानवीय या सामजिक घटकों के द्वारा जाने-अनजाने किये हुए कर्म, जिसे भाग्य कहा जाता है और जो पूर्वजन्मार्जित न होकर समाजार्जित होता है, समष्टि-अर्जित होता है, और (३) प्राकृतिक घटनाएँ जो मानव के वश में नहीं हैं - याने शुद्ध मानवेतर या प्रारब्ध या अदृष्ट | प्रारब्ध कर्म और फल के संबंधों को closure property देता है जो logical requirement है|
हमारे शास्त्रों के व्याख्याकारों ने भाग्य और अदृष्ट (प्रारब्ध) को मिलाकर एक खिचड़ी बनायी| इसका उद्देश्य समष्टिवाद पर व्यष्टिवाद का आरोपण था जो ऋत (ontological Truth) नहीं था, पर नैतिक रूप में उपादेय था - वह धर्मार्थक सत्य था, आचरणीय सत्य था, उपयोगी सत्य था, प्रैग्मैटिक ट्रुथ (Pragmatic Truth) था| हम इसी अन्तर को नहीं समझ पाए और उलझ गए|

रविवार, 22 सितंबर 2019

वास्तविक जीवन और अतीत का मोह

हो सकता है कि यह मेरी अल्पज्ञता के कारण हो, किन्तु मेरा सोचना है कि भारतीय वाङ्मय असंतुलित है| इसमें आत्मचिंतन, सन्यास, आराधना, दर्शन, भाषा, काव्य और स्वास्थ्य के वारे में बहुत कुछ है किन्तु जड़ प्रकृति को समझने के लिए बहुत कुछ नहीं है (या लुप्त है)| इसका एक कारण तो यह हो सकता है कि जिस युग में भारतीय वाङ्मय का विकास हुआ उसमें कृषि और पशुपालन के सिवा और कोई धंधा विकसित नहीं हुआ था| या जो और धंधों के जानकार थे वे किताबें नहीं लिखते थे (ग्रन्थ का निर्माण नहीं कर सकते थे) और जो किताबें लिख सकते थे वे धंधों के गुर नहीं जानते थे, केवल पूजा-पाठ और आत्मचिंतन में व्यस्त थे| शायद इसी के चलते कहा गया था - वेदाः कृषिविनाशाय कृषिर्वेदविनाशिका (वेद और कृषि एक दूसरे के विनाशक हैं)|
समाज दो हिस्सों में बंटा था - एक हिस्सा (श्रमिक, कारीगर) भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था और दूसरा हिस्सा (अभिजात वर्ग, खास करके बुद्धिजीवी) भौतिक आवश्यकताओं की अवहेलना करता था| दोनों हिस्सों में तारतम्य नहीं था; बौद्धिक हिस्से का विचार था कि श्रमिक हिस्सा अछूत है और पढ़ाई-लिखाई पर उसका अधिकार नहीं है| नहीं तो ऐसा कैसे हुआ कि अशोक स्तम्भ बना लेकिन उसकी धातुविद्या (metallurgy) पर कोई लेख नहीं है (या यह विचार मेरी अल्पज्ञता के चलते है)| जो सभ्यता इतना अच्छा इस्पात बना लेती थी उसने काग़ज़ की ईज़ाद क्यों नहीं की (जब कि कपड़े और भोजपत्र पर लिखाई प्रचलित थी)| राजनीति और अर्थशास्त्र पर कौटिल्य का अर्थशास्त्र है जिसमें बृहस्पति और शुक्र की नीतियों का उल्लेख है, किन्तु हथियार बनाने की विद्या पर काफ़ी पुस्तकें क्यों नहीं हैं? रण व्यूहों का उल्लेख है किन्तु उन पर विस्तृत किताबें क्यों नहीं हैं? 'काव्येन गिलितं शास्त्रं' (काव्य ने शास्त्र को निगल लिया, यानि शास्त्रों के लेखन में कविता इतनी है कि शास्त्र गौण हो गया है) की प्रवृत्ति क्यों पनपी और फली-फूली? भाषा के अलंकार ने ज्ञान को क्यों ढँक लिया? सारा गृहस्थ जीवन पूर्वमीमांसा का ग़ुलाम और तदुपरांत जीवन उत्तरमीमांसा को समर्पित क्यों हुआ| मध्यमीमांसा पर कुछ नहीं है, क्यों?
हम भारतीयों को पुरातन और अतीत से बड़ा लगाव है| अच्छी बात है| लेकिन हम में अपने वर्तमान और भविष्य को अतीत पर न्योछावर कर डालने की इतनी ललक क्यों है? मैं नहीं जानता|

शनिवार, 21 सितंबर 2019

क्या वाल्मीकि आदिकवि थे?

ऐसा माना जाता है कि महर्षि वाल्मीकि आदिकवि थे| उनके मुँह से पहली कविता निकली थी - छंदबद्ध - अनुष्टुप - "मा निषाद प्रतिष्ठां त्वं। .." इत्यादि|
मैं मानकर चलता हूँ कि वेद रामायण से पहले बने| रामायण में वेदों के होने का उल्लेख है|
कविता अगर छंदोबद्धता है तो क्या छंदोबद्ध रचना, पहली वार, वाल्मीकि ने की? क्या अनुष्टुप (अनुष्टुव) छंद की रचना वाल्मीकि ने की? उत्तर है, नहीं| शीक्षा (उच्चारणशास्त्र) और छंद (prosody) तो वेदांग रहे ही हैं| वेदों में सीधे (linear, periodic) और ऋजु (non-linear, aperiodic) दोनों तरह के छंद प्रचुर रूपों में आये हैं| वेदों में कम से कम 15 प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं।वार्णिक और मात्रिक दोनों तरह के छंदों के उदाहरण मिलेंगे| ऋग्वेद में सात तरह के छंद भरे पड़े हैं - वे हैं, गायत्री, अनुष्टुव, त्रिष्टुव, जगती, उष्णिह, बृहती, और पंक्ति| कुल ऋचाओं में त्रिष्टुव और गायत्री की संख्या सबसे अधिक है|
अगर कविता का मतलब भाषा का अलंकार है, तब भी वेदों की ऋचाओं में इसकी कमी नहीं है| उनमें रस का भी अभाव नहीं है| हाँ, अगर करुण रस को ही कविता का नाम मिले तो दूसरी बात है| उस दृष्टि से रामायण के अधिकतर श्लोक अकविता की श्रेणी में आयेंगे और prose (गद्य) और prosody (पद्य) का भेद मिटाना होगा|
मेरे लिखने का उद्देश्य यह इंगित करना नहीं है कि वाल्मीकि महाकवि नहीं थे| अवश्य थे, लेक़िन आदिकवि नहीं थे; पद्यों, छंदों, अलंकारों और रसों का वांग्मय में उद्भव और प्रवर्तन उनके पहले ही (वेदों में) हो चुका था| ऐसा मानना कि महर्षि वाल्मीकि के मुख से "मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः । यत् क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी: काममोहितम् ।।" श्लोक के रूप में भगवती सरस्वती का प्राकट्य हुआ और ऐसा ब्रह्मा जी ने स्वयं उन्हे (वाल्मीकि को) बतलाया है, मिथक नहीं, मिथ्या है| जिन ऋषियों ने वेदों की ऋचाओं की रचना अनेक पद्यों में की, वे निश्चित रूप में वाल्मीकि से पहले के कवि थे| भगवती सरस्वती का प्राकट्य वेदों की ऋचाओं में हुआ था|

भारतीय संस्कृति में पुरुषार्थ

मानव होने के महत्त्व के प्रतिपादन को पुरुषार्थ (the significance of one's being) कहा गया है| इसके चार पहलू हैं - काम, अर्थ, धर्म और मोक्ष|
इच्छाएँ काम हैं - चाहे वह इच्छा जीवन को चलाने (sustenance) के लिए हो या जीवन की तारतम्यता (perpetuity) और प्रसार (proliferation) के लिए हो| इच्छाओं का होना मानव के लिए ही नहीं वरन पशुओं और पेड़-पौधों के लिए भी सहज गुण है|
काम की पूर्ति के लिए साधनों की आवश्यकता होती है| साधनों की चिंता करना, उन्हें ढूँढना, उनका इंतजाम करना अर्थ कहलाता है| अर्थ का इंतजाम करना जीवों का सहज गुण है|
धर्म उन विचारों एवं क्रियाकलापों का नाम है जो केवल अपने काम और अर्थ के लिए ही नहीं, वरन अपने से बाहरी दुनियाँ (समाज, सम्पदा, परिस्थिति आदि) के लिए हितकारी हैं| सारे जीव ऐच्छिक या अनैक्षिक रूप से धर्म में कमोबेश प्रवृत्त होते हैं| जाति के हित में अपना बलिदान और परोपकार की भावना (altruism) जानवरों में भी पायी जाती है| मानव की धर्म में प्रवृत्ति बहुधा ऐच्छिक और सज्ञान होती है|
मोक्ष पुरुषार्थ का अंतिम महत्त्व है| यह तत्वज्ञान और अनंत कल्याण से होता है| समझ कर्त्ताभाव से ऊपर उठकर द्रष्टाभाव (साक्षीभाव) की प्राप्ति है| मोक्ष व्यक्ति को काम, अर्थ और धर्म के बंधनों से मुक्त कर देता है| मोक्ष एक वैचारिक स्थिति है| जब किसी खेलते बच्चे का खिलौना टूट जाता है तो वह रोने लगता है, पर माँ-बाप रोते नहीं| बच्चे को आश्वासन देते हैं कि दूसरा खिलौना ला देंगे| इसी भाव से जीना मोक्ष कहलाता है|

मंदी का कारण

मनमोहन सिंह बोले कि विमुद्रीकरण (demonetization) और GST दोनों ने अर्थव्यवस्था की नींव हिला दी (https://in.yahoo.com/…/demonetisation-gst-key-reasons-slowd… )|
सोचने की बात है कि विमुद्रीकरण के साथ पुराने नोटों को नए नोटों से बदला गया| तो इसका प्रभाव तात्कालिक ही होगा, टैक्स तो लोग/व्यापारी देते ही थे | अगर एकमुश्त GST दे दिया तो दिक़्क़त क्यों हो?
लेक़िन समझना होगा कि विमुद्रीकरण के चलते ब्लैक मनी को धक्का लगा और बहते काले धन और उसकी अन्डरहैन्ड तरलता को धक्का लगा| GST ने इनडायरेक्ट टैक्स की चोरी पर लग़ाम कसी|
मंदी के लिए काले धन और टैक्स की चोरी पर नियंत्रण (जो मोदी ने किया) उत्तरदायी है| और ऐसा करने के लिए मोदी उत्तरदायी है| मोदी अगर काले धन और कर-चोरी करने वालों से बरज़ोरी नहीं करता तो सबकुछ बल्ले-बल्ले रहता| विमुद्रीकरण (demonetization) और GST दोनों ने काली अर्थव्यवस्था की नींव हिला दी| काले धन और काली पूँजी ने शिक़स्त खायी तो हमारी अर्थव्यवस्था (जिसकी दो तिहाई काले धंधे पर आधारित थी) हिचकोले खाने लगी| इसी सेटबैक ने मंदी का आह्वान किया| भारतीय अर्थव्यवस्था में जड़ जमाये भ्रष्टाचार की तरफ़ सबसे पहले गुन्नार मिर्डल (1968) ने अपनी क़िताब 'एशियन ड्रामा' में इशारा किया था| लेक़िन एशियन ड्रामा कौन पढता है?
मनमोहन सिंह जी खुल कर भ्रष्टाचार की बात नहीं कर सकते | अपनी रोटी भी तो सेंकनी है|

हिंदी दिवस पर

हिंदी मेरी अपनी भाषा है, मैं इसे बेहद प्यार करता हूँ| मैं चाहता हूँ कि हिंदी इतनी धनी भाषा हो कि इसको विना पढ़े कोई भी ढंग का विद्वान (किसी भी विषय में) न बन सके| कोई ऐसा ज्ञान-विज्ञान न हो जिसकी शीर्ष किताबें हिंदी में उपलब्ध नहीं हों|
किन्तु माज़रा कुछ और है| पिछले सत्तर वर्षों में हिंदी को संस्कृतनिष्ठ बनाने की तमाम कोशिशें की गयी हैं, इसका हिंदुस्तानी रूप (बाज़ारू भाषा कहकर) अपमानित हुआ है, उर्दू फ़ारसी के शब्द निकाल बाहर किये गए हैं| यह दर्ददेह है|
हिंदी का इश्तेमाल अज्ञानता की ढाल की तरह किया गया है| यह सोचा गया है कि प्रेमचंद के उपन्यासों/कहानियों और जयशंकर प्रसाद की कविताओं के सहारे रॉबोटिक्स या कंप्यूटर साइंस पढ़ाया जा सकता है| हिंदी भाषा को पॉपुलिज़्म और घटिया राजनीति का हथियार बनाया गया है| मातृभाषा के लिए हमारे स्वाभाविक प्रेम और कोमल भावनाओं का दोहन किया गया है| मुझे इसीका दुःख है| लोग हिंदी-हिंदी करते ज़रूर हैं लेक़िन चार पंक्ति का लेख लिखने में (हिज़्ज़े और लिंग की) सोलह ग़लतियाँ करते हैं|  कोई भी राष्ट्र, कोई भी समाज, कोई भी समुदाय जो न तो ख़ुद लिखकर और न अनुवाद कर के अपनी भाषा और अपने साहित्य को समृद्ध करता है, वह मूर्खता के भंवर में पड़ जाता है|

खड़ी बोली हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओँ का विकास

ईसा से 2000 वर्ष (या और अधिक) वर्ष पूर्व तक वैदिक भाषा का प्रचार था जिसके सम्बन्ध ईरानी भाषा से थे | इस भाषा का प्रयोग आर्य लोग किया करते थे। यह संस्कृत से भी पहले बोली जाती थी।
पाणिनि ने लगभग 500 ईसा पूर्व ‘अष्टाध्यायी’ की रचना की, जिसे पाणिनीय व्याकरण भी कहते हैं। इसे संस्कृत के विकास में एक बड़ा कदम माना जा सकता है, क्योंकि इससे भाषा में एकरूपता आ गयी। संस्कृत हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि कई सभ्यताओं के लिखित अभिलेखों में अधिकता में प्रयोग की गयी भाषा है। वैदिक भाषा के सुदृढ़ होने पर यह बनी और मध्य व दक्षिण-पूर्व एशिया में बुद्धिजीवी इसका प्रयोग करने लगे। जहाँ कि वैदिक भाषा जनसाधारण के बोलचाल और वेद की भाषा थी, संस्कृत का प्रयोग उच्च वर्ग तक सीमित हो गया और यह सामान्य से खास लोगों की भाषा बन गयी। लगभग 100 ईसा पूर्व तक यह चलन में थी।
जैसे-जैसे संस्कृत की पहुँच सीमित होती गयी, अन्य स्थानीय भाषाएँ जन्म लेती गयीं। यह भाषाएँ ‘प्राकृत’ यानी जो भाषाएँ स्वाभाविक बोल-चाल में इस्तेमाल की जा सकें, कही जाने लगीं।पालि इस कड़ी में पहली भाषा थी, जिसे ‘पहली प्राकृत’ का दर्जा भी दिया जाता है। मागधी या पालि धीरे-धीरे मगध और आस-पास के भारतीय जनपदों में बोलने में प्रयुक्त होने लगी। श्रीलंका से लेकर मध्य भारत तक पालि भाषा का मौखिक रूप से विस्तार हो रहा था, पर इसमें लेखन को प्रोत्साहन बौद्ध अनुयायियों ने दिया। इसे लिखने के लिए ब्राह्मी, खरोष्ठी आदि लिपियों का प्रयोग होता था। पहली शताब्दी ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व से 100 ईस्वी तक पालि का बोलचाल, साहित्य, राजनीति और अन्य क्षेत्रों में प्रयोग हुआ।
पालि में लेखन प्रारम्भ होने के बाद क्षेत्रीय साहित्यकार इसमें धीरे-धीरे बदलाव करते गए, जिससे प्राकृत की दूसरी पीढ़ी तैयार हुई। इसकी मुख्यतः पांच शाखाएं मानी जाती हैं – महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, अर्द्धमागधी, पैशाची।महाराष्ट्री से मराठी का जन्म हुआ।पैशाची, जो पंचनदप्रदेश (पंजाब) की तरफ बोली जाती थी, लहन्दा और पंजाबी भाषा का आधार बनी।शौरसेनी (शूरसेन के क्षेत्र की भाषा) अनेकों भाषाओं में परिवर्तित हो गयी, जैसे – गुजराती, राजस्थानी, पश्चिमी हिंदी, पहाड़ी इत्यादि।
मागधी भी धीरे-धीरे राज्यों के साथ विभक्त होती गयी और बंगला, असमी, बिहारी, उड़िया, मागधी आदि में टूट गयी। अर्द्धमागधी से पूर्वी हिंदी का जन्म हुआ।
जैसा कि नाम से ही विदित है, अपभ्रंश टूटी-फूटी हिंदी के लिए प्रयोग किया जाता था, जिसे प्राचीन हिंदी भी कह सकते हैं। इसके तीन रूप थे – नागर, उपनागर और ब्राचड़। लगभग 1000 या 1050 ईसवी तक इसका प्रयोग हुआ।
अपभ्रंश धीरे-धीरे बढ़ते प्रयोग से व्यवस्थित होती गयी और अंत में खड़ी बोली बन गयी। मुग़लों के भारत पर आधिपत्य के कारण अरबी और फ़ारसी शब्दों वाली बोली का नाम उर्दू रखा गया | जब उर्दू देवनागरी लिपि में लिखी गयी तो यह ‘हिन्दुस्तानी’ कही जाने लगी|
भारत की स्वतंत्रता के बाद देश बंट गया और हिंदुस्तानी की उपेक्षा होने लगी| अरबी, फ़ारसी शब्दों की बहुतायत वाली भाषा की लिपि देवनागरी नहीं रह सकी | हिंदुस्तानी भाषा में संस्कृत के शब्द भरने लगे और लिपि देवनागरी हो गयी |

भाषा की उत्पत्ति और उपयोगिता

क्रिया (action, एक्शन) का निष्पादन एवं क्रिया तथा गुणों का अवलोकन, चेतन (consciousness) का मुख्य धर्म (property) है| कुछ क्रियाओं का संपादन कर्मेन्द्रियों से होता है| कुछ दूसरी क्रियाएँ प्रकृति की हलचलों से होती है| गुण प्राकृतिक है| दूसरों की क्रियाओं एवं गुणों का अवलोकन ज्ञानेन्द्रियों से होता है|
भाषा का प्राथमिक कार्य इन क्रियाओं और गुणों का नामकरण है| आना, जाना, भागना, दौड़ना, रोना, हँसना, चिल्लाना, इत्यादि क्रियाओं के नाम हैं| लाल, पीला, नीचा, ऊपर, पहले, पीछे, चिकना, रुखड़ा, इत्यादि गुणों के नाम हैं| इन नामों का अपने व समाज के लिए आरोपण भाषा का प्रथम और स्थैतिक (stationary) कार्य है| जिस भाषा में ये नाम अधिक हैं और उन नामों में विभेदीकरण (differentiation) की क्षमता अधिक है, वह भाषा अधिक समृद्ध होती है| पिटना, पीटना, पिटवाना तथा मरना, मारना, मरवाना का अंग्रेज़ी में (एक शब्द में) अनुवाद करने की चेष्टा कीजिये, हमारा अभिप्राय स्पष्ट हो जायेगा|
भाषा का द्वितीयक कार्य सोचने में, मानसिक नक़्शा बनाने में है| किसी कार्य में जानबूझ कर प्रवृत्त होने के पहले हम सोचते हैं, कार्य संपादन की प्रक्रिया की एक रुपरेखा तैयार करते हैं| यह क्षमता भाषा से सबल होती है| हम भाषा में सोचते हैं|
भाषा का तृतीयक कार्य सम्प्रेषण (communication) है| सम्प्रेषण वर्णनात्मक (descriptive), आदेशात्मक (instructive), उद्गारात्मक (emotive, exclaimatory) इत्यादि कई तरह के होते हैं| कुत्तों को भी हम 'आव' कहकर बुलाते हैं, 'हट' कहकर भगाते हैं, 'ले-ले-ले' कह कर किसी के पीछे भगाते हैं| दोस्तों को अपना दुख-दर्द बतलाना वर्णनात्मक होता है| रोने की भाषा उद्गारात्मक होती है|
भाषा का चतुर्थक कार्य ज्ञान, आदेशों, और भावों का संचयन (accumulation) है| इससे ज्ञान और भावनाओं की पूँजी (knowledge and emotional capital and workbook) बनती है| इस क्रिया में श्रुति और स्मृति की क्षमता बहुत सीमित होती है, वह अधिक टिकाऊ भी नहीं होती| इसीलिए भाषाएँ अपने लेखन का रास्ता अपनाती है| अलग़-अलग़ भाषाओँ की लेखन प्रणाली अलग़-अलग़ होती है| ब्राह्मी, देवनागरी, उर्दू, रोमन, ग्रीक आदि कितनी ही लेखन प्रणालियाँ होती हैं| कुछ भाषाओँ की अपनी लेखन प्रणाली नहीं है, कुछ-एक की कोई लेखन प्रणाली है ही नहीं| पूँजी के अभाव में ऐसी भाषाएँ अविकसित रह जाती हैं| कुछ भाषाओँ में भावनाओं का संचयन प्रचुर है पर ज्ञान का संचयन अधिक नहीं है| कुछ अन्य भाषाओँ में ज्ञान का संचयन विशाल है, किंतु भावनाओं का संचयन उतना अच्छा नहीं है|
भाषा का पंचमक कार्य सामाजिक पहचान (social identity) है| भाषा यह बतलाती है कि बोलने वाला किस समुदाय का है| इस पहचान के अपने गुण दोष हैं| भाषा का धर्म, संस्कृति, क्षेत्र इत्यादि से लगाव इसी सामजिक पहचान को लेकर है| इसके आधार पर राजनीति भी होती है| भाषा के आधार पर भेद-भाव भी पलता है|
प्राकृतिक भाषाओँ के अलावे मानवकृत बनावटी भाषाएँ भी होती हैं| सारी कूट भाषाएँ और कंप्यूटर की भाषाएँ बनावटी हैं| इनका प्रयोग प्रायः सामाजिक पहचान के लिए नहीं होता किन्तु इसकी सम्भावनाएँ अवश्य हैं|
--

प्रेय और श्रेय

कठोपनिषद में यम-नचिकेता संवाद के जरिये दो तरह के उद्देश्यों, कामनाओं और एतदर्थक प्रयासों का वर्णन हुआ है - प्रेय और श्रेय|
प्रेय उन कामनाओं एवं उद्देश्यों का नाम है जो प्रिय की उपलब्धि कराते हैं - प्लेजेंट (pleasant) होते हैं, ज्ञानेन्द्रियों और मन को तुष्ट करते हैं| अच्छा भोजन, अच्छे वस्त्र, अच्छा आवास, अच्छा स्वर, अच्छा दृश्य, सुखद स्पर्श, सुगंध, अच्छी बोली, आदर, सम्मान, प्रभुता, इत्यादि प्रेय हैं| हर व्यक्ति की चाहत प्रेय की प्राप्ति होती है|
श्रेय अपने अंतिम रूप में कल्याणकारी होता है, व्यक्ति के लिए और समाज के लिए भी|
प्रेय कभी-कभी श्रेयस्कर होता है कभी-कभी नहीं| मछली प्रेय की साधना में चारा खा जाती है और वडिश (बंशी) में फँस जाती है| कहा गया है - पतंग मातंग कुरंग भृंग मीना हताः पंचेभिरेव पंच । एकः प्रमादी स कथं न हन्यते यः सेवते पंचभिरेव पंच (फतिंगा, हाथी, हिरन, भौंरा, और मछली अपनी एक-एक इन्द्रियों की संतुष्टि के लिए मारे जाते हैं| मानव जो अपनी पाँचों इन्द्रियों का ग़ुलाम होता है उसका हश्र क्या होगा !)|
लेक़िन प्रेय की सर्वदा उपेक्षा भी श्रेय के रास्ते से भटका सकती है| मिथकों में बहुत बड़े-बड़े सन्यासियों, ऋषियों और मुनियों का उल्लेख है कि वे कैसे प्रेय को लांघ कर सीधे श्रेय पर कूदे और उलट कर प्रेय की साधना में डूब गए| सारी अप्सराएँ और स्वर्ग प्रेय के प्रतीक हैं| ऋषियों का पतन इसलिए हुआ क्योंकि वे प्रेय को लांघकर श्रेय पर कूदे थे|
जनक एक दूसरा उदाहरण है| वह राजा थे, पर प्रेय की साधना के साथ श्रेय की साधना भी करते थे| उनके लिए प्रेय वह गली थी जिसमें होते हुए ही श्रेय का रास्ता निकलता था|
प्रेय की उपेक्षा करते हुए श्रेय का रास्ता सीधा है किन्तु ख़तरनाक है| चढ़े तो चाखे प्रेमरस गिरे तो चकनाचूर| कुछ लोग ही उबर सकते हैं| चित्रलेखा उपन्यास में योगी कुमारगिरि गिर कर उबर गए थे| बहुत सारे बाबा लोग गिर कर डूब गए|
प्रेय की साधना से गुजरते हुए श्रेय की तरफ़ जाना ज़्यादा आसान है| उलझ तो इस रास्ते में भी सकते हैं| मैंने ख़ुद अपने जीवन में इसे महसूस किया है, अनुभव किया है, देखा है | माता सरस्वती जब खुश हुई तो प्रेय स्वतः आने लगे - दौलत, ताक़त, इज्ज़त, औरत, शोहरत | भटकने के लिए काफी कुछ| हममें से कुछ चिपक गए प्रेय में| ऐसे चिपके कि सरस्वती यानि काला अक्षर भैंस बराबर| पढ़ें-लिखें तो माँ मरे| गोबर-गणेश होकर कुर्सी से चिपक गए| मरे तो कुर्सी-समेत दाहक्रिया करनी पड़ी|
लेक़िन जो सतर्क रहते हैं, वे भटकने से बच जाते हैं| बिजली के कारीगरों को गुरु मानिये| ख़तरनाक वोल्टेज़ लिए हुए तारों से खेलते हैं| दत्तात्रेय से हमें बहुत कुछ सीखना होगा |

शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

प्रच्छन्न पूँजीवाद बनाम प्रकट पूँजीवाद

भारत के स्वतंत्र होने के साथ ही इसपर तीन प्रकार के पाखंडों का कुहरा घिर आया (१) देवात्मक मानववाद, (२) समाजवादिता, और (३) छद्मन्यायपरता|
देवात्मक मानवतावाद के कुहरे का सम्बन्ध उस पाखंड से है जिसमें मानव को देवोचित गुणों से भरपूर माना गया हालाँकि धरातल पर आदमी पशुता से भरा हुआ है| इस पाखंड में यह माना गया कि धनाढ्य वर्ग, उद्योगपति और व्यापारी धन के न्यासरक्षक (ट्रस्टी) के रूप में स्वार्थहीन रूप से काम करेंगे| उदाहरण के लिए वे अपनी कमाई का अधिकांश (80% से 95% तक) हिस्सा टैक्स दे देंगे जिससे समाज का कल्याण होगा| राजनीतिक नेतागण भूखे पेट, खादी कपड़े धारण कर, जनकल्याण के लिए दर-दर भटकेंगे और सत्ता से कोई व्यक्तिगत फ़ायदा नहीं उठायेंगे| जमींदार करुणावश अपनी ज़मीन को भूमिहीन जनता में बाँट देंगे| सर्वोदय के नटवरलालों ने अनेक तरह की नौटंकियाँ कीं और ज़मीन के बँटवारे का नारा एक छलावा होकर रह गया| शिक्षकगण पेट में कपड़ा बाँधकर सरस्वती की उपासना करेंगे| वक़ील और न्यायाधीश दूध का दूध और पानी का पानी करने के लिए जान लड़ा देंगे| पुलिस के लोग डंडे लेकर अपराधियों को नियंत्रित कर लेंगे| यह मान लिया गया और इसे मनवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी कि विश्वशांति की घोषणा और कबूतरबाज़ी के चलते भारत के कोने-कोने में बुद्ध पैदा होंगे और सारे अंगुलिमाल कंठी धारण करके मेवानिवृत्त हो जायेंगे| इत्यादि|
समाजवादिता के पाखंड को एक सुनहरा नाम देकर जनमानस पर चस्पा किया गया| इसका नाम था सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी (या सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ कैपिटलिस्टिक सोसाइटी, जिसमें कैपिटलिस्टिक शब्द को गूढ़ रखा गया)| इसकी विस्तृत विवेचना डा. शिवचंद्र झा की पुस्तक (Studies in the Development of Capitalism in India, Firma K. L. Mukhopadhyay, 1963) में है जिसमें दिखाया गया है कि समाजवादिता की आड़ में किस तरह भारतीय पूँजीवाद का विकास हुआ और किस तरह उद्योगपतियों और व्यापारियों के स्वार्थ के लिए राष्ट्रीय हितों का वलिदान किया गया| डा. प्रणब बर्धन की पुस्तक (The Political Economy of Development in India, Oxford. University Press, Delhi) में यह दिखाया गया कि किस तरह व्यापारियों/पूँजीपतियों, जमींदारों और नेताओं की तिकड़ी ने गंभीर साज़िश की तहत जनता और देश के संसाधनों की लूट मचाई| प्रो. अशोक रूद्र ने दिखाया [Emergence of the Intelligentsia as a Ruling Class in India, ASHOK RUDRA, Indian Economic Review, New Series, Vol. 24, No. 2 (July-December 1989), pp. 155-183] कि कैसे बुद्धिजीवी वर्ग ने उस तिकड़ी को सराहा और बुद्धिजीवी वर्ग अपने स्वार्थों के लिए उस तिकड़ी के हाथ बिक गया|
छद्मन्यायपरता (न्यायधर्मिता का दिखावा) के पाखंड ने न्याय के छद्म से किस तरह अपराधियों की रक्षा की है यह जग-ज़ाहिर है| अधिकांश बड़े अपराधी छुट्टे सांढ़ की तरह घूमते रहे और उन्होंने न्यायव्यवस्था का मज़ाक बना दिया| नेता और अपराधी मिल गए; अपराधी नेता बनकर विधायक बन गए और नेताओं का वर्चस्व बाहुबल से स्थापित होने लगा| न्याय की प्रक्रिया इतनी जटिल, लस्त-पस्त, छिद्रपूर्ण, लचर, और दीर्घसूत्रितापूर्ण कर दी गयी जिसमें केवल अपराधी ही पनप सके, जी सके, विकास कर सके| धार्मिक बहुलवाद (रिलीजियस प्लूरलिज़्म) , सिक्युलरिज़्म, धार्मिक सहिष्णुता, और सामाजिक न्याय (सोशल जस्टिस) के पाखंड के भीतर अन्याय, उपेक्षा और तरफ़दारी की फ़सल उगायी गयी जहाँ भारत की बहुसंख्यक जनता मार खाकर भी रो नहीं सकी| हमारी न्यायव्यवस्था एक अंधी देवी है जिसके हाथ में न्याय की तराजू ज़रुर है, लेकिन वह देख नहीं सकती की डंडी समतल है या नहीं| तीन गाँधीवादी बन्दर लगे हुए हैं पलड़ों को बराबर करने और जिधर का पलड़ा नीचे होता है उधर की रोटी से एक कौर काट लेते है| अंधी देवी और तीन प्रपंची बन्दर| जनकवि नागार्जुन ने 'तीनों बन्दर बापू के ' शीर्षक अपनी कविता (http://kavitakosh.org/…/_%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%97%E0%A4%… ) में इस पाखंड का बहुत अच्छा चित्रण किया है|
इन कारणों से भारत क्रोनी कैपिटलिज़्म (Crony Capitalism) का नमूना बन गया| हम समाजवादिता और आदर्शवादिता का राग अलापते रहे और प्रच्छन्न पूँजीवाद बढ़ता रहा| काले धन, काली अर्थव्यवस्था और काली मनोवृत्ति हमारे जनमानस और कार्यकलापों पर छा गयी| इसका इलाज़ पाखंड में नहीं है, प्रकट होने में है| पूँजीवाद को झूठे आदर्शवाद से रोका नहीं जा सकता है| कल (20.09.2019) वित्तमंत्री सीतारामन ने कॉरपोरेट टैक्स में छूट देकर यही किया है| काले धन को चलने दो या कमाई पर छूट दो - हमारे स्वार्थों को, प्रोफिटेबिलिटी को, बरक़रार रहने दो|

गुरुवार, 12 सितंबर 2019

तन्हाई में बढ़े हाथों की कहानी

बहुत बार हाथ बढ़ाये | हर बार मेरे हाथों को बयार ने चूमा और कहा कि ऐ नादान इंसान, करना ही है तो हवाओं से मुहब्बत कर| वो तुम्हें हर घड़ी साथ देगी, मरते दम तक साथ देगी और तेरे मरने के बाद भी तेरी याद में रोएगी|
मेरे बढ़े हाथों को रौशनी ने सहलाया और कहा कि ऐ नेक बन्दे - देखना ही है तो मेरी ओर देख| मैं फूलों में रंग भरती हूँ। मैं पौ फटने के साथ ही तुम्हे जगा दिया करुँगी - तेरे साथ मीठी-मीठी बातें करुँगी, तुझे मुस्कराने के पहले शरमाने वाली कलियों के बीच ले जाऊँगी, तुम्हें चिड़ियों के गाने सुनवाऊँगी|
मेरे बढ़े हाथों को सुबह के कोहरे ने हौले-हौले छुआ और कहा कि ऐ दोस्त, मेरे साथ चल| मैं तुझे उन वादियों में ले चलूँगा जहाँ तेरे और मेरे सिवा कोई और नहीं होगा| ओ दुनियाँ की रुखाई और बेरुख़ी से घायल दोस्त, मेरी आँखों की ओर देख, इसमें तेरे लिए कितनी नमी है, कितनी हमदर्दी है|
मेरे बढ़े हाथों को देखकर शबनम रो पड़ी और कहा कि ऐ भोले आशिक़, मेरी ओर देख| वैसे तो में तेरी आँखों में हूँ, लेकिन जब आँखें मेरा बोझ ढो नहीं पाती तो मैं कोपलों पर बिखर जाती हूँ| मैं बिखरे हुए जज़्बात हूँ, मेरे दोस्त, मुझमें यादों के मोती छुपे हैं| मेरे क़रीब आओ और उन मोतियों का नूर देखो, ख़ुद-ब-ख़ुद सारे दर्द फ़ना हो जायेंगे|
मेरे बढ़े हाथों को चाँदनी ने आहिस्ता-आहिस्ता छुआ और कहा कि पगले ..

मास्टर साहब

मास्टर साहब | लम्बा-चकला कुछ-कुछ सांवला शरीर| ख़द्दर की धोती और सफ़ेद कुरता| पैरों में अब-फटी तब-फटी चप्पलें| मुँह में पान और चेहरे पर बेहद महीन मुस्कान| उनके काले, छोटे-छोटे घुंघराले बाल और ओठों पर मुस्कान वो समां बांधते कि लगता था उन्हें वह ज्ञान प्राप्त हो गया हो जो बुद्ध को भी नहीं मिला| बोलते बहुत कम थे| बुद्ध की तरह बहुधा मौन रहने (मय घुंघराले बाल और मसृण मुस्कान) के बावजूद यदि अब तक सारे लोग उन्हें पूजने नहीं लगे थे और केवल सम्मान दे कर चुप हो जाते थे, तो यह लोगों में गुणग्राहकता का अभाव परिलक्षित करता था, न कि मास्टर साहब में गुणों का अभाव | इसीलिए तो किसी कवि ने लिखा है - गुन ना हिरानो गुनगाहक हिरानो हैं|
मास्टर साहब हिंदी पढ़ाते थे | हिंदी पढ़ाने के कारण कविता-कहानी और लेख लिखने का उनका अधिकार स्वयंसिद्ध था | उन्होंने बहुत लिखा, पर अपनी कविता, कहानियों व लेखों को कभी किसी पत्रिका में छपने नहीं भेजा | उनका मानना था कि जब हंस के समकक्ष की पत्रिकाओं के संपादक-गण समय की मार खाकर बगुले हो गए और नीर-क्षीर विवेक की वजाये मछलियाँ पकड़ने लगे हैं, तो किसी पत्रिका में अपने काव्य-कृतित्व को भेजना सरस्वती का अपमान करना है| एक कारण और था| वह डरते थे कि कहीं उनकी अमूल्य रचना को संपादक-गण अपने नाम छाप कर लब्धप्रतिष्ठ लेखक न बन बैठें| जब तुलसीदास जैसे लोग दूसरों की कविता को जस-का-तस (लेक़िन अवधी में अनुवाद करके) अपना कहने से बाज नहीं आते तो इन छुटभैये संपादकों का क्या भरोसा| प्राक्कथन में 'नानापुराण निगमागमसम्मतं यत् रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि' लिख कर हमारा सारा लिखा-पढ़ा अपने नाम छपा लेंगे| प्रकाशकों को भी विद्यार्थियों के लिए कुंजियां छापने से फ़ुर्सत नहीं है|
जब समय की मार खाकर उनका लिखा साहित्य पांडुलिपियों में बदलने लगा (कागज़ पीले पड़ने लगे और लिखावट धूमिल होने लगी) तो उन्होंने ख़ुद प्रकाशकों से मिलना शुरू किया| प्रकाशक अच्छी तरह जानते थे कि जिस दुनियाँ में निराला, दिनकर, और महादेवी वर्मा की किताबें नहीं बिकती, रैकों पर धूल खाती रहती हैं - वहाँ मास्टर साहब के कविता-संकलन को कौन खरीदेगा| इन बड़े कवियों व लेखकों की कुछ किताबें भी तब बिकतीं हैं जब वे किसी कोर्स में हों| फिर पूरी क़िताब प्रायः कोर्स में नहीं रहती| लोग खाते भी हैं तो चावल, दाल, रोटी, सब्जी, पापड़, अचार खाते हैं| सब्ज़ी कितनी भी अच्छी बनी हो, कौन सिरफिरा केवल सब्ज़ी खायेगा? उसी तरह किसी कोर्स में पृथ्वीराज रासो से लेकर धूमिल और दुष्यंत कुमार तक की रचनाएँ छिटपुट कर रखनी पड़ती है| बात संतुलित आहार की है - आहार पेट के लिए हो या दिमाग़ के लिए|
बात यहीं तक रहे तो हलक से नीचे उतार लें| लेक़िन बात आगे बढ़ जाती है जब इन बड़े लेखकों की भाषा पर ध्यान दें| प्रसाद तो हिंदी के नाम पर संस्कृत लिखते रहे| महादेवी वर्मा और दिनकर ने भी कोई कम कमाल नहीं किया है| पहले शब्दकोष कंठस्थ करो तब इनकी कविता पढ़ो| बेचारा विद्यार्थी क्या करे - साल भर का कोर्स, दर्ज़न भर पेपर| शब्दकोष रटने लगे तो हो गया| कुंजी की मदद के सिवा और क्या हो सकता है? और इन मास्टरों की बदमाशी तो देखिये - ख़ुद कुंजी लिखे बैठे हैं और किसी अन्य लेखक की लिखी कुंजी पढ़ो तो मुँह बिचकाते हैं|
अंत में मास्टर साहब इस बात पर राज़ी हो गए कि विना उनके पैसा लगाए उनकी चुनिंदा कविताओं, कहानियों और लेखों का संग्रह छप जायेगा, पर बदले में तीन कुंजियां लिखनी होंगी जिनकी बिक्री से प्राप्त आय में मास्टर साहब कोई हिस्सा नहीं मांगेंगे | दोनों तरफ़ से छूट - और बात जम गयी| नतीज़तन, छह महीने में उनके तीन अदद संकलन और छह अदद कुंजियां बाज़ार में आ गयीं| मास्टर साहब निहाल हो गए, उनकी मुस्कान कुछ ज़्यादा चौड़ी हो गयी, और वे पत्तों में बाँधकर पान की गिलौरियां साथ रखने की जग़ह पॉकेट में छोटी-सी पानडिब्बी रखने लगे|
जब आम के दाम नहीं आये तो मास्टर साहब ने गुठलियों से फ़ायदा उठाने की सम्भवताओं पर सोचना शुरू कर दिया | भगवान के रहम-ओ-करम से उनके चार-बेटे और तीन बेटियाँ थीं| सबसे बड़ी लड़की उस दहलीज़ पर पाँव रख चुकी थी जिस पर बेटी के पाँव को देखकर मास्टर साहब जैसे बाप कभी तो अपनी जमा पूँजी को देखते हैं, ज़माने पर राज करती पैसे की भूख को देखते हैं, और कभी बेटी की बाढ़ देखते हैं| बेटियाँ अक्सर घास-फूस जैसी होती हैं, बेटों के बीच या बदले उसी तरह आ जाती हैं जैसे गुलाबों की क्यारी में खर-पतवार और घास-फूस| वे गुलाबों की बढ़त रोकती हैं| गुलाबों को काटा-छाँटा जाता है, उनके लिए खाद-पानी की व्यवस्था की जाती है, उन्हें कीड़ों से बचाया जाता है, ताकि वे स्वस्थ रहें, उनपर अच्छे फूल आयें | लेक़िन खर-पतवार के लिए क्या करना - उन्हें तो उखाड़ कर फेंकना है| बेटी भी दूसरे की थाती संपत्ति होती होती है, मौका मिलते ही उखाड़ फेंकने के लिए - जिसको उसके हाथ पीले करना कहते हैं| इस तर्क का आश्रय लेकर उन्होंने बेटियों को स्कूल भेजने या घर पर पढ़ाने-लिखाने की आवश्यकता नहीं समझी थी, हाँ वे साक्षर थीं और वर्णों तथा मात्राओं को जोड़-जाड़ कर ग़लत-सही पढ़-लिख लेती थीं | बेटियों की इतनी शिक्षा ही उन्हें विद्वत्तमा बनाने के लिए काफ़ी थी और मास्टर साहब को पूरा विश्वास था कि आज भी हिंदुस्तान में कालिदासों की कमी नहीं है जो समय की मार पड़ने पर ऊँट को उष्ट्र कहना सीख लेंगे और उनकी बोली में विशिष्टता आ जाएगी |
तो मास्टर साहब ने अपनी बड़ी बेटी के लिए वर ढूंढना शुरू करवाया| स्कूल में पढ़ाते थे, उन्हें इतना अवकाश नहीं था कि ख़ुद लम्बी दौड़ का दौरा करते| लेक़िन उनके परिजन बहुत थे| इक्का-दुक्का करके बहुतों से मिले और उन्हें बतला दिया कि बड़ी बेटी के लिए कोई वर ढूंढें| लड़का पढ़ा-लिखा हो, लड़के को अपना घर-द्वार हो, थोड़ी ज़मीन-जग़ह हो, देखने-सुनने में ठीक-ठाक हो, उम्र लड़की के अनुरूप हो, और सबसे ज़्यादा अहम बात यह कि लड़के के माँ-बाप अधिक दहेज न माँगते हों| अगर आदर्श विवाह के पक्ष में हो तो सोने में सुगंध | इधर से लड़की का गुणगान करें, परिवार का गुणगान करें, बतलायें कि लड़की के पिता कुलीन हैं, हिंदी के उद्भट विद्वान हैं, मिसाल के तौर पर उनकी लिखी किताबें देखिये, ये रहा कविताओं का संग्रह, ये रहा कहानियों का संकलन, वो रही लेखों की पुस्तक, ये रहे आलोचना के ग्रन्थ| वे विष्णु प्रभाकर, ममता कालिया, राजेंद्र यादव और बीसियों ऐसे छंटे हुए साहित्यिकों, कवियों और लेखकों के ज़िगरी दोस्त रहे हैं| एक दूसरे के यहाँ आना-जाना है| हाल में ही बच्चन जी शहर में आये थे, तो मास्टर साहब को ढूंढा - बोले कि नाम तो बहुत सुना है, उनकी कविताएँ बहुत पढ़ी हैं, उनसे प्रभावित भी हुआ हूँ, लेक़िन सम्मुख होने का सौभाग्य नहीं मिला| अब इस शहर में आ गया हूँ तो विना मिले लौट नहीं सकता| आख़िर बच्चन जी मास्टर साहब से मिलने स्कूल चले आये| स्कूल का प्रिंसिपल अवाक्| बोला कि हम तो जानते ही नहीं थे कि मास्टर साहब गुदड़ी में छुपे लाल हैं| इनके चलते स्कूल का नाम रौशन हो गया, नहीं तो बच्चन जी हमारे स्कूल में आते - वो भी विना बुलाये| वे भी धन्य हैं, मास्टर साहब भी धन्य हैं जिनके चलते हमारे स्कूल के शिक्षक, बच्चे और उनके अभिभावक भी धन्य, कृतकृत्य हुए| हालाँकि मास्टर साहब की क़िताबों से बाद कही बातें सरासर झूठी थीं - लेक़िन उनकी मान्यता थी कि विवाह के लिये बोला गया झूठ असत्य नहीं कहलाता है, वह परमार्थ में होने के कारण कतई दोषपूर्ण नहीं होता|
ठगना, झूठ-सच कह कर अपना उल्लू सीधा करना, एक कला है और हर कला की तरह यह भी सृजन या सर्जन की मौलिक क्षमता की एक बेहतरीन अभिव्यक्ति है | इस कला की अनन्य विशेषता है कि अगर कोई ठगे नहीं तो वह निश्चय ही किसी से ठगा जायेगा| अगर कोई ठगे जाने से बचना चाहता है तो वह फ़ौरन से पेश्तर किसी को ठगने निकल पड़े | सो मास्टर साहब के परिजन सत्तू बाँधकर ठगने निकल पड़े| कहते हैं, जो खटखटाता है उसके लिए खुलता भी है और जो ढूँढता है उसे मिलता भी है| ग़रज़ यह कि झूठे वादे करके, 'वचने का दरिद्रता' का एक उम्दा प्रयोग करते हुए, मास्टर साहब ने अपनी बड़ी बेटी के लिए एक वर का जुगाड़ कर ही लिया|
मास्टर साहब एक देहाती और ग़रीब परिवेश में जन्मे और पले-बढ़े थे| उनके पिता का देहान्त तभी हो गया था जब वह बच्चे थे| कोई भाई बहन भी न था| अतः मास्टर साहब का बचपन बेवा और बेजुबान माँ तथा हृदयहीन चाचा-चाची की देखरेख में बीता था| उनके चचेरे भाई पूरी तरह से निकम्मे थे, पर मास्टर साहब समझदार और कुशाग्रबुद्धि थे | ग़रीबी और बेबसी जीने के बहुत सारे असरदार गुर सिखला देती है| मास्टर साहब ने कच्ची उमर में ही उन गुरों को सीख लिया | अतः अपने चाचा के द्वारा पैदा की गयी तमाम अड़चनों को फांदते व परीक्षाएँ पास करते हुए वह हिंदी में एमए हो गए| हिंदी भाषा और साहित्य पर उनकी अच्छी पकड़ थी| फिर अपनी योग्यता, भाग्य तथा संभवतः किसी स्वजन (जो राजनीतिक रूप से प्रभावशाली थे) की सिफ़ारिश से सरकारी स्कूल में शिक्षक हो गए| अपने गंभीर स्वभाव और सापेक्षिक विद्वत्ता के चलते वह इलाक़े में प्रतिष्ठित व्यक्ति भी हो गए|
मास्टर साहब दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती तीनों के निष्पक्ष उपासक थे | सरस्वती की कृपा तो उनके ऊपर सहज थी| उसी कृपा की बदौलत वह एमए थे, शिक्षक थे और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अच्छा कमा लेते थे | लेक़िन अकेली सरस्वती तो सब कामनाओं को पूरा नहीं कर सकती | सरस्वती अपने तईं लक्ष्मी और दुर्गा का मनुहार भले कर सकती है लेकिन दूसरों के विभागों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती| सिफ़ारिश कर दे सकती है, पर प्रार्थी को दौड़-भाग तो ख़ुद करनी होगी| इस बात को मास्टर साहब अच्छी तरह समझते थे|
मास्टर साहब तहेदिल से चाहते थे कि पूरे गाँव और संभव हो तो पूरे इलाक़े में उनकी धाक जमे, उनका वर्चस्व क़ायम हो, उनकी तूती बोले| यह धाक सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा तीनों के महकमों में हो | सरस्वती के महकमे में तो उन्होंने अपनी धाक अपने बल-बूते पर जमा ली थी, लेक़िन और दो महकमों में उनके किये कुछ होने वाला न था | नतीज़तन, दुर्गा के महकमे में धाक जमाने के लिए उन्होंने अपने मूर्ख और उजड्ड चचेरे भाई को चुना | उसने किसी ग़रीब बेबस आदमी का दिन-दहाड़े क़त्ल कर दिया | मुक़दमा चला, पर दुर्गा माता की कृपा | कुछ-कुछ कृपा लक्ष्मी माता की भी हुई| मास्टर साहब ने खूब पैरवी भिड़ाई, गाँव के लोगों ने मक़तूल के परिवार को समझाया बुझाया (या डराया धमकाया) | गवाहों को भी समझाया बुझाया| मास्टर साहब ने आदर्श भाईचारे की बेहतरीन मिसाल पेश की| मुक़दमा ख़त्म हुआ और क़ातिल बाइज्ज़त घर आया | मास्टर साहब का वर्चस्व दुर्गा माता के महकमे में भी स्थापित हो गया| तभी से मास्टर साहब पढ़ने लिखने वालों की तुलना में शोहदों की ज़्यादा इज्ज़त करने लगे| लोग भी मानने लगे कि मास्टर साहब से टक्कर लेना महँगा पड़ सकता है|
मास्टर साहब ने जल्द ही समझ लिया कि बटाईगीरी पर स्थापित वर्चस्व दोषपूर्ण और क्षणभंगुर होता है | अतः उन्होंने अपने पुत्रों को शोहदागीरी की तरफ़ आगे बढ़ाया| अपराधी होने के लिए शोहदागीरी आवश्यक सोपान है| इसकी व्यवस्था मास्टर साहब ने कर दी| आगे की बात तो व्यक्ति की योग्यता और सूझबूझ पर आश्रित है|
कहते हैं, आदमी प्रकृति (nature) और पालन-पोषण (narture) दोनों से बनता है| मास्टर साहब के बड़े पुत्र ने सरस्वती और लक्ष्मी की पूजा को श्रेयस्कर समझा| वह पढ़ने-लिखने में भी अच्छा निकला और चार-सौ-बीसी में भी| लेक़िन उसकी रुचि शुद्ध शोहदागीरी में नहीं थी| उसके इस व्यवहार से मास्टर साहब उससे रुष्ट रहने लगे | मास्टर साहब ख़ुद एमए थे, और क़ाबिल थे, अतः वह किसी के एमए होने से प्रभावित नहीं होते थे| बड़े पुत्र ने पैसा पकड़ना शुरू कर दिया और पिता की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया | कहा भी गया है - किं तया क्रियते धेन्वा या न सूते न दुग्धदा | जो गाय न बछड़ा जने न दूध दे उसका क्या करना| बड़े बेटे ने न दबदबा बढ़ाया न पैसा दिया, तो उसका क्या करना | मास्टर साहब ने 'सुधरा तो पूत और बिगड़ा तो मूत' की कहावत पर अमल करते हुए बड़े बेटे को पूत की श्रेणी से हटाकर मूत की श्रेणी में रख दिया | बड़े बेटे ने इस नवीन श्रेणीकरण का सहर्ष स्वागत किया और पिताश्री का सम्मान करते हुए अपनी दुनियाँ अलग बसा ली|
लेक़िन मास्टर साहब के दो और बेटे अपने बड़े भाई की तरह बेलौस नहीं निकले| उन्होंने सरस्वती की वंदना में अधिक समय जाया करने की ज़गह दुर्गा और लक्ष्मी पूजा पर अधिक ज़ोर दिया | उनके मार-पीट, चोरी-डकैती, ठगी और बदजुबानी के किस्से घर-घर में मशहूर हो गए और ऐसा लगने लगा कि निकट भविष्य में माँ अपने रोते बच्चों को यह कह कर चुप कराएगी कि बेटे चुप हो जा नहीं तो फलनवाँ आ जायेगा |
मास्टर साहब के गुलाबों (बेटों) की कहानी कहने की रौ में बहकर हम खर-पतवार (बेटियों) को भूल आए | लेक़िन खर-पतवार भी पौधे हैं - जीव हैं - और उनको सर्वथा भूल जाना उनके प्रति अन्याय होगा| हम कह चुके हैं कि उनकी बड़ी बेटी के लिए वर मिल गया था| आगे उसका विवाह भी हो गया और वह ससुराल में सास-ससुर की सेवा में तल्लीन हो गयी | वैसे वह बहुत समझदार थी - अतिशयोक्ति की अनुमति दें तो वह बुद्धि का पर्याय थी, पर उसकी बुद्धि का बड़ा हिस्सा सरस्वती के लॉकर में बंद था और, एहतियातन, लॉकर की चाबी मास्टर साहब ने अपने पास रख ली थी|
मास्टर साहब की दूसरी बेटी लक्ष्मीरूपा थी | मास्टर साहब ने उसे भी फ़ौरन हाथ पीले करवा कर ठिकाने लगाया| दुर्भाग्य से इस धरती पर से उसका दाना-पानी जल्द ही उठ गया | वह लक्ष्मीरूपा जरूर थी, लेक़िन इसके बावजूद कुछ देकर नहीं गयी | उसके चार छोटे-छोटे बच्चे जान भी नहीं पाए कि माँ किसको कहते हैं | उन्हें अपनाने वाला कोई नहीं था| मास्टर साहब ने बेटी का ब्याह सर पर से अपना बोझ उतारने के लिए किया था| वही बोझ अब चार गुना होकर उनके सर पर आने को था | लेक़िन मास्टर साहब ने कच्ची गोलियाँ नहीं खेली थीं| गुलाबों की क्यारियों में उन बच्चों के लिए कोई ज़गह नहीं थी | वे चारों बच्चे बनफूल बन गए|
मास्टर साहब की तीसरी बेटी दुर्गारूपा थी | उसकी शादी मास्टर साहब ने ऐसे घर में की जो देवी की महिमा के पूरे जानकार नहीं थे | जब दुर्गा के सामने चण्ड-मुण्ड और शुम्भ-निशुंभ जैसे प्रतापी वीर नहीं टिक पाये तो साधारण मनुष्य क्या खाकर टिकते | वर्ष-दो-वर्ष भी नहीं गुजरे कि पति समेत सारे ससुराल वालों ने घुटने टेक दिए | इसीलिए मास्टर साहब अपनी छोटी बेटी से बहुत प्रसन्न रहते थे| यह बेटी उनकी एकमात्र बेटी थी जिसने उनका मान बढ़ाया था|
यही सही जग़ह है जहाँ मास्टर साहब के चौथे बेटे को ठिकाने लगा दिया जाये | उसने अपने सबसे बड़े भाई के यहाँ रहकर, भाभी का पीर बावर्ची भिश्ती खर बनकर, बीए किया और बड़ी बहन के यहाँ रह कर आगे की शिक्षा पायी | सौभाग्यवश उसे एक नौकरी मिल गयी और उसकी जीविका का इंतजाम हो गया| लेकिन चूँकि उसने मास्टर साहब के रौब-दाब में कोई इज़ाफ़ा नहीं किया, न पैसा दिया इसलिए मास्टर साहब की नज़र में वह अपने सबसे बड़े भाई वाली श्रेणी में ही था|
इस विषयान्तर के बाद हम अब मुख्य धारा में लौट चलें |
मास्टर साहब और उनके मँझले दोनों बेटे जिस राह पर आगे बढ़े उसे वाममार्ग कहते हैं | वाममार्ग सद्योफलवती पूजा होती है | पंचमकार से की जाने वाली पूजा तुरत रंग लाती है| लेकिन इस मार्ग की कई कठिनाइयाँ हैं| अव्वल कठिनाई तो यह है कि इसकी सिद्धि के लिए अपने प्रियपात्र का वलिदान करना होता है| इसकी दूसरी कठिनाई है कि इस पूजा में कोई खोट हो तो वह साधक को ले डूबती है | इसीलिए वाममार्ग में चलने वाले साधक को तलवार की धार पर चलना होता है | इस मार्ग में बहुत अँधेरा व अंधेर है| इसमें साधक को तामसी शक्तियों से रोज़ रु-ब-रु होना पड़ता है| दूसरी तरफ़, दक्षिण मार्ग धीमा मार्ग है - मन आये करिये, न मन आये मत करिये| मन आये फल, फूल, खीर चढ़ाइये और मन न आये तो सूखा प्रणाम करके रास्ता पकड़िए| पूजा में खोट की संभावना हो तो क्षमा मांग लीजिये| सब माफ़|
मास्टर साहब ने यह तो सही समझा कि वाममार्ग की पूजा सद्योफलदायिनी होती है लेकिन इस पूजा में हो सकने वाले ख़तरों का उन्हें ज्ञान नहीं था| वह खेल-खेल में तामसी शक्तियों का आह्वान तो कर बैठे लेकिन वे तामसी शक्तियाँ क्या मांगेंगी इसका अनुमान न कर सके| उन्हें यह ज्ञात नहीं था कि तामसी शक्तियाँ भला करें न करें, बुरा तो लगे-हाथ कर बैठती हैं|
मास्टर साहब और उनके मँझले बेटे जितेन्द्रिय नहीं थे, इस लिए वाममार्गी पूजा कर सकने में सक्षम नहीं थे | पर वे इस रास्ते पर आगे बढ़ गए | इसका फल तुरंत मिला | घर में डकैती हुई - अपना अच्छा-भला घर बेच कर शहर से भागना पड़ा, घर के बच्चों की जानें गयीं, ज़मीन-ज़गह बिकी, ख़ुद मास्टर साहब को हवालात में रहना पड़ा, और पुलिस वालों ने उन्हें नसीहत दी| मास्टर साहब ने अपनी मट्टी-पलीद करवा ली | फिर भी, उनके चेहरे पर शिकन नहीं आयी| वह वाममार्गी पूजा के लिए कृतसंकल्प थे|
समय किसी के लिए नहीं रुकता - उम्र बढ़ती ही चली जाती है| समय ने मास्टर साहब को नौकरी से रिटायर कर दिया | लेक़िन वाममार्ग के भूतों ने उन्हें नहीं छोड़ा| वह अपना पेंशन, अपनी शांति, अपनी प्रतिष्ठा, अपने स्वास्थ्य की परवाह किये विना भूतों की उपासना करते रहे और अपनी बेबसी पर रोते रहे| उन्हें अपनी दवा तक के पैसे नहीं जुटते थे, लेक़िन भूतों के लिए मुर्ग-मुसल्लम का इंतज़ाम करना पड़ता था | उनकी पत्नी भी, साथ-साथ जीने-मरने की प्रतिज्ञा के बावजूद, उन्हें अकेला छोड़कर स्वर्ग सिधार चुकी थी, अतः मास्टर साहब की रेगिस्तानी सफ़र में नख़लिस्तान बन कर नहीं आ सकती थी| उनके दुर्भाग्य का अंत उनकी दयनीय मृत्यु के साथ आया और वह भूतों के चंगुल से हमेशा के लिए मुक्त हो गये |

बैकुंठ का नवीकरण

कुछ साल पहले जब नारद जी विष्णु भगवान के घर पर उनसे मिले तो भगवान ने पूछा - कहो नारद, कहाँ का चक्कर लगा कर आ रहे हो ?
नारद : और कहाँ से आयें प्रभु, भारत से आ रहा हूँ |
भगवान : वहां अपना मंदिर बन गया नारद ? कैसा बना है ? हमारा गृहवास समारोह कब तक हो जायेगा?
नारद : कहाँ प्रभु, अभी तक तो नींव भी नहीं पड़ी |
भगवान : क्यों ? चार साल लगा दिए, अभी तक नींव भी नहीं पड़ी ? क्या कर रहे हैं वे लोग ?
नारद : प्रभु, आप आदमी की समस्या नहीं समझते | केंकड़े उनसे बेहतर हैं| कोई आदमी थोड़ा सा आगे बढ़ा नहीं, सात विरोधी उसकी टांग खींच कर उसे पुरानी जग़ह ला खड़ा करते हैं | आदमी आगे बढ़े भी तो कैसे ?
भगवान : तुम वार-वार आदमी शब्द का प्रयोग कर रहे हो, नारद| क्या भारत के लोग अब मानव नहीं रहे या तुम्हारी भाषा बिगड़ चुकी है ?
नारद : क्षमा, भगवन | भारत में घूमते-फिरते रहने के कारण मैं अब पूरी तरह से समझ गया हूँ कि शब्दों के प्रयोग में हमें संस्कृति-निरपेक्ष होना चाहिए| वैसे भी, वहाँ मनु महाराज की बहुत छीछालेदर हो चुकी है | मैं मानव शब्द का प्रयोग करके मनुवादी नहीं कहलाना चाहता | लोग बड़ी बेईज्ज़ती करते हैं | इसीलिए मैं अब आदमी शब्द का इश्तेमाल करने लगा हूँ | यह निरापद है| वैसे भी मुझे बहुत वार भारत जाना है|
भगवान : अच्छा, जो मन आये, बोलो | लेक़िन यह तो बताओ कि मंदिर कब तक बन जायेगा ? मैं बैकुंठ में रहते-रहते बोर हो गया हूँ|
नारद : देखिये भगवन, अपने लोगों को और तीन-चार टर्म तो देने ही होंगे | जब अदना-से ताजमहल के तैयार होने में तीस साल लगे, तो आपका मंदिर बीस साल से कम क्या लेगा ?
भगवान : लेक़िन कल तो हमारे पास मय दानव और विश्वकर्मा जी दोनों आये थे | कह रहे कि मैं उन्हें आज्ञा दूँ तो वे पूरा मंदिर दो महीने में बना देंगे| मैं भी सोच रहा था कि इन्हीं दोनों को ठेका क्यों न दे दिया जाये | मुझे थोड़ी जल्दी है नारद, बैकुंठ में जग़ह की बड़ी क़िल्लत हो गयी है |
नारद: प्रभु, भारत के लोगों को एक मौक़ा तो दें| ये मय और विश्वकर्मा अगर मंदिर बनायेंगे तो वह इम्पोर्टेड तकनीक से बनायेंगे | अभी भारत में 'मेक इन इंडिया' का प्रचलन है| सांसदगण शायद ही मय और विश्वकर्मा को मंदिर बनाने दें | आप अपने ही लोगों से झमेला मोल लेना क्यों चाहते हैं? तत्काल की समस्या को हल करने के लिए आप बैकुंठ का ही नवीकरण क्यों नहीं कर लेते हैं ?
विष्णु भगवान अभी कुछ बोल भी नहीं पाए थे कि लक्ष्मी जी ने मय और विश्वकर्मा का ध्यान किया| वे पलक झपकते हाज़िर हो गए | भगवान कुछ समझ पायें, इसके पहले लक्ष्मी ने आदेश दिया - मय जी और विश्वकर्मा जी, बैकुंठ का नवीकरण शुरू करें | धरती पर घपला-ही-घपला चल रहा है | शायद घर वहाँ कभी न बन सके|
लक्ष्मी जी के तेवर देख कर नारद जी डर गये और अंतर्धान हो गये |
******************************************************
बैकुंठ के नवीकरण के लिए जैसे ही लक्ष्मी जी की आज्ञा मिली, मय और विश्वकर्मा, तीन दिनों के अंदर-अंदर, अपना-अपना डिज़ाइन और एस्टीमेट जमा कर गए | दोनों के डिज़ाइन मूलतः एक-ही थे - ज़्यादा काम तो रिपेयर वर्क था - लेक़िन उनके एस्टीमेट में १:३ का अनुपात था | मय के एस्टीमेट बहुत कम थे | लक्ष्मी जी ने भगवान से मशवरा किया | भगवान ने बड़ी बेतक़ल्लुफी से राय दी कि मय और विश्वकर्मा से ही पूछ लिया जाये | अतः लक्ष्मी जी ने दोनों का ध्यान किया और दोनों भगवान के दरबार में हाज़िर हो गए | इसी वक़्त नारद जी वीणा बजाते हरिगुण गाते वहाँ प्रकट हो गए | अब उन्हीं की जुबानी सुनिए |

लक्ष्मी जी: मय जी और विश्वकर्मा जी | हमने आपकी डिज़ाइनें देखीं | दोनों तक़रीबन एक-सी हैं और होनी भी चाहिए| लेक़िन आपलोगों के एस्टीमेट में बड़ा फ़र्क है | इसका क्या कारण है?
मय दानव : देवी, आप हमारे वंश की बेटी हैं और भगवान दामाद हैं | हम दानव अब उतने संपन्न नहीं रहे जितना पहले हुआ करते थे | नहीं, तो हम बैकुंठ का नवीकरण विना कोई एस्टीमेट दिए, अपने पैसे से कर देते | बेटी-दामाद का घर रिपेयर करने के लिए पैसा चार्ज नहीं करते | अतः हमने वही एस्टीमेट दिया है जो रॉक-बॉटम पर है | अगर विश्वकर्मा जी के एस्टीमेट हमारे एस्टीमेट से कम हैं तो या तो उनसे जोड़-घटाव में भूल हुई है, या वह इंद्र महाराज से सब्सिडाइज़्ड रेट पर सामान लेंगे या फिर मिलावट करेंगे, दिल्ली-बाज़ार से ख़रीदा नक़ली सामान लगायेंगे | तीसरी संभावना ज़्यादा है| विश्वकर्मा जी देवता हैं - भोले-भाले हैं, ज़्यादा तिकड़म नहीं समझते, लेक़िन उनके भक्तगण बड़े तिकड़मी हैं | वे धेले-भर का प्रसाद चढ़ाकर और कुछ स्तोत्र सुनाकर विश्वकर्मा जी को प्रसन्न कर लेंगे | सप्लाई टेंडर ले लेंगे और नक़ली सामान चेंप देंगे | सारी रसीदों पर 'बिका हुआ माल वापस नहीं होगा" लिखा रहेगा और सारा दोष विश्वकर्मा का होगा | बाकी आप विश्वकर्मा जी को ही पूछ लें |
लक्ष्मी जी ने विश्वकर्मा की और देखा|
विश्वकर्मा: देवी, हमारे एस्टीमेट मय जी के एस्टीमेट से कम नहीं हो सकते अतः मय जी की बातों में कोई दम नहीं है | हमारे एस्टीमेट ज़्यादा इसलिए होंगे कि हम जीएसटी देते हैं | मय जी का सामान पाताल से आएगा जिसपर कोई जीएसटी नहीं लगता | लेक़िन मानवों और देवताओं के बीच हुए अनुबंध की तहत स्वर्ग और बैकुंठ आदि लोकों के निर्माण कार्य के लिए सारा सामान भारत से ही ख़रीदा जा सकता है | हम अनुबंध तथा क़ानून की अवहेलना नहीं कर सकते | इसलिये हमारे एस्टीमेट ज़्यादा हो सकते हैं, कम नहीं | कई और बातें हैं | भारत में सामान के मूल्य निरंतर बढ़ते रहते हैं- कॉस्ट-इसकलेशन होता रहता है | वहाँ दैत्यों का शासन नहीं है जो इतना चुस्त-दुरुस्त हो कि आज हेराफेरी की और कल बेड़ा ग़र्क| पाताल में तो लोग होर्डिंग तथा ब्लैकमार्केटिंग करने पर मृत्युदंड पाते हैं - सप्ताह भर में फ़ैसला हो जाता है क्योंकि पाताल में न डिमॉक्रेसी है न विभिन्न स्तर के न्यायालय| वहाँ तो ग़लत करने वाले के पक्ष से मुक़दमा लड़ने वाले वक़ील तक को सज़ा हो जाती है | चारों और भय व्याप्त है और लोग मट्ठा भी फूँक-फूँक कर पीते हैं | भारत में वह साँसत की जिंदगी नहीं है | लोग स्वतंत्र हैं और बोलने तथा आलोचना करने से डरते नहीं | लोग अपने अपने धर्म का पालन करते हैं और सारे दूकानदार गौमाता को रोटी खिलाकर ही ख़ुद खाते हैं | बची थोड़े अधिक दाम की बात | तो देवी, आपको क्या कमी है | बैकुण्ठ की छोड़िये | भारत के आपके एक-एक मंदिर में हज़ारों ख़रबों का सोना पड़ा है | उनसे हज़ारों स्वर्ग और सैकड़ों बैकुण्ठ बनाये जा सकते हैं | अतः आप थोड़े से अधिक एस्टीमेट से घबड़ाकर मय जी को ठेका मत दें | लोग कहेंगे कि बैकुण्ठ का रिपेयर दैत्य कर रहे हैं | कुछ लोग यह भी कहेंगे कि लक्ष्मी जी ने अपने पीहर वालों का पक्ष लिया है | कुछ लोग तो यहाँ तक चले जायेंगे कि अब बैकुण्ठ में भगवान की नहीं, लक्ष्मी की चलती है | भारत के सारे टुटपुँजिए अखबारों को बेसिरपैर की बातें फैलाने का मौक़ा मिल जायेगा | विरोधी राजनीतिकर्ताओं को भी मसाला मिल जायेगा | बैकुण्ठ के नवीकरण पर राजनीति न करवाइये | बाकी तो आप ख़ुद समझदार हैं |
मय दानव कुछ कहना चाहते थे, लेक़िन लक्ष्मी जी ने इशारे से उन्हें रोक दिया | फिर बोली - कल दोनों जने दस बजे सुबह दरबार में आइये | वे दोनों क्षण भर में ग़ायब हो गए |
लक्ष्मी जी नारद की ओर मुड़ीं और बोली - देखो नारद, ये बातें कॉन्फिडेंटिअल हैं | तुम्हारी बुरी आदत है कि तुम धरती पर जाकर सारी बातें जिस-तिस को सुनाते रहते हो - वह भी अपनी तरफ़ से नमक-मिर्च लगाकर | आज की बातें किसी से मत कहना | अब जाओ | हमारे प्रभु के आराम करने का वक़्त हो चला है |
लेक़िन नारद जी अपनी आदत से बाज क्यों आते?
*******************************************************************
पृथ्वी पर आकर, लक्ष्मी जी के मना करने के बावज़ूद, नारद ने कुछ गिने-चुने सेठों को बैकुंठ के नवीकरण और मय तथा विश्वकर्मा के ठेका लेने की पूरी कहानी बतला ही दी| इसके बाद नारद जी अलकापुरी की और जाने की सोचने लगे|

सेठ मनसुखलाल स्थापत्यकर्म में प्रयुक्त होने वाले सामानों के सबसे बड़े थोक व्यापारी थे| इस धंधे में उनका एकाधिकार-सा था| वह नारद जी को विदा करके सीधे अपने आवास के पूजागृह में घुसे और अपने सभी इष्ट देवताओं की चिरौरी करने लगे कि वे विश्वकर्मा से कहें कि वह बैकुंठ के नवीकरण में लगनेवाले सामान सीधे मनसुखलाल की दूकान से ही खरीदें| इसका पहला तात्कालिक फल यह हुआ कि बात देवताओं के ज़रिये इंद्र तक पहुँच गयी | दूसरा फल यह हुआ कि सेठ जी ने स्थापत्यकर्म में प्रयुक्त होने वाले सारे सामानों को तहखानों में रखवा दिया तथा उनके दाम दुगुने कर दिए | दाम बढ़ने की बात मिनटों में सारे भारत में फैल गयी और देश भर में उन सामानों के भाव तीन से चार गुने तक बढ़ गए | आपूर्ति पर पूर्ण नियंत्रण हो गया | भारत के सारे शहरों में मकान बनाने का काम रुक-सा गया | तैयार मकानों के दाम पाँच गुने तक बढ़ गए| कंस्ट्रक्शन कंपनियों के शेयर के मूल्य छलाँग लेकर बढ़ने लगे | सारा कुछ तीन घंटे में हो गया | आर्थिक जगत में मानो भूचाल आ गया |
अमरावती में इंद्र इस बात पर बेहद चिंतित हो गए कि लक्ष्मी जी ने मय दानव को फिर कल आने को क्यों कहा | कौन नहीं जानता कि सस्ता रोये बार-बार, मँहगा रोये एक बार| सस्ता काम करने के नाम पर ये दानव फिर अपने धंधे फैलाना चाहते हैं | आज बैकुण्ठ का ठेका ले रहे हैं, कल यमराज से मिलकर नरक रिपेयर करने का ठेका लेंगे, फिर भुवः लोक, स्वः लोक, सत्य लोक, ब्रह्मलोक, शिव लोक वग़ैरह का ठेका लेंगे| इन दानवों की पहुँच हर जग़ह है | आज लक्ष्मी को बेटी बना कर काम निकाल रहे हैं, कल पार्वती को हिमालय की पुत्री होने के नाते बेटी बनायेंगे, परसों शची को अपने वंश की बेटी कह कर अपने पक्ष में करेंगे | ये हर जगह बेटीवाद फैलायेंगे, जो निपोटिज़्म का ही एक रूप है |
उन्होंने एक सेविका को भेज कर शची को, जो लंच लेने के बाद एक झपकी ले रही थी, तुरंत बुलवाया और स्थिति की गंभीरता समझायी| फिर उन्होंने शची को कहा कि वह बैकुण्ठ की तरफ़ तुरंत रवाना हो और शाम ढलते-ढलते वह लक्ष्मी को समझा आये कि किसी हालत में मय दानव को ठेका नहीं देना है| ज़रूरत पड़े तो अपने देवर (विष्णु भगवान) को भी समझाये कि लक्ष्मी के ऊपर सारी ज़िम्मेदारी डालकर,आँखें बंद करके शेषशय्या पर पड़े रहने से दुनियाँ नहीं चलती | दानव छद्मवेश में स्वर्ग में घुसना चाहते हैं और अगर वह देवताओं का भला चाहते हैं तो किसी हालत में मय दानव को बैकुण्ठ नवीकरण का ठेका न दें |
शची को यह सब अच्छा नहीं लगा, लेक़िन उन्होंने मातलि (इंद्र के रथ के सारथि) को बुलाया और, एक अच्छी पत्नी की तरह, रथ पर बैठ कर बैकुण्ठ की और चल पड़ीं| उस समय अपराह्न के दो बज रहे थे |
********************************************************
अपराह्न के लगभग ढाई बजे महारानी शची बैकुंठ पहुँची और लक्ष्मी जी के भवन में प्रवेश किया | शची के असमय आने के कारण लक्ष्मी जी थोड़ा चौंकी लेक़िन इस आश्चर्य भाव को उन्होंने अपने चेहरे पर आने नहीं दिया | शची की आवभगत की, उन्हें सोफे पर बैठाया और झटपट रूह-अफ़ज़ा के दो गिलास बनाये| शची को एक गिलास पेश कर वह बग़ल में बैठ गयीं | कुशल क्षेम पूछने के बाद उन्होंने शची के तशरीफ़ लाने का कारण पूछा | शची ने विना किसी लाग-लपेट के सीधी भाषा में बातचीत शुरू की |

शची: लक्ष्मी, मैं तुम्हारे जेठ देवराज इंद्र के द्वारा भेजी गयी यहाँ आयी हूँ | उन्हें विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि बैकुण्ठ के नवीकरण के सन्दर्भ में कल मय दानव एवं विश्वकर्मा जी दोनों को तुमने बुलाया है | देवराज को यह भी मालूम है कि मय जी के एस्टीमेट की तुलना में विश्वकर्मा जी का एस्टीमेट काफ़ी ज़्यादा है | इसके बावज़ूद तुमने दोनों को कल बुलाया है| इससे तुम्हारी मनसा साफ़ ज़ाहिर होती है कि तुम काम का एक, शायद बड़ा, हिस्सा मय को देने वाली हो और बचा हिस्सा, कॉन्सोलेशन या तुष्टीकरण के तौर पर, विश्वकर्मा जी को देनेवाली हो| देवराज इंद्र दैत्यों को मिलने वाले इस मौक़े को गहरी राजनीतिक चाल की पृष्ठभूमि समझते हैं | उन्होंने साफ़ कहा है कि जब लक्ष्मी के पास अकूत सम्पत्ति है तो थोड़ा-सा पैसा बचाने के लिए वह दानवों को क्यों प्रश्रय दे रही है| समझदार व्यक्ति को हर कार्य के केवल आर्थिक ही नहीं, राजनीतिक, सामरिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू पर भी विचार करना चाहिए| संक्षेप में देवराज चाहते हैं कि तुम कोई बहाना बना कर मय दानव को चलता करो और पूरा नवीकरण कार्य विश्वकर्मा जी को करने दो|
लक्ष्मी: सुनो दीदी, तुम्हें बतला दूँ कि विश्वकर्मा जी का एस्टीमेट मय जी के एस्टीमेट से तीन गुना ज़्यादा है | मैंने अपने सूत्रों से इसका कारण जानना चाहा| मुझे ज्ञात हुआ कि एस्टीमेट के स्वीकृत होने के बाद जो पैसा मिलेगा उसके तीन बराबर हिस्से होंगे | एक हिस्सा तो विश्वकर्मा जी को कच्चे बिल का भुगतान करने के लिए मिलेगा| इसमें उन्हें कुछ नहीं बचेगा| घाटा हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं | उनकी पत्नी के सारे गहने, जो वह मायके से लायी थी, इसी तरह के घाटों को पूरा करने में बिके हैं| दूसरा हिस्सा दूकानदार का होगा | यह भारत में निजी पूँजी को बढ़ावा देने, औद्योगीकरण करने, विकास की गति को तेज़ करने, राष्ट्रीय आय को बढ़ाने इत्यादि के नाम पर जायज़ माना जाता है| तीसरा हिस्सा राजनीतिकर्ताओं के लिए होगा, जिसका कोई हिसाब नहीं होता | इसका एक हिस्सा राजनीतिकर्ताओं के सुख-मौज़, सैर-सपाटे, रंगीन होटलों में टिकने, मत ख़रीदने इत्यादि के काम आता है| दूसरा बड़ा हिस्सा नेताओं की व्यक्तिगत संपत्ति को बढ़ाने के काम आता है | अब तुम्हीं बतलाओ - कि क्या विश्वकर्मा जी को ठेका देना पुण्यभूमि भारतवर्ष में कदाचार और विश्वकर्मा जी की पत्नी के ऊपर संभावित अत्याचार नहीं होगा ?
दूसरी बात भी साफ़ सुन लो, बुरा नहीं मानना| जब तुम्हारे देवर जी (विष्णु भगवान) की शादी मुझसे तय हुई थी, तो मेरे पिता जी ने दूल्हा-वरन के वक़्त इनके हाथो में कौस्तुभ मणि रख दी थी| वह मणि इतनी वहुमूल्य थी कि उसके जोड़ की कोई दूसरी मणि थी ही नहीं, न होगी| उसी वक़्त सारे देवता चौंक गए थे | फिर शादी के बाद मैं जब ससुराल आयी तो मेरे पिता जी ने हज़ार से ऊपर बड़े ट्रक भेजे थे जो सोने और रत्नों से लदे थे | इस संपत्ति को देखकर कुबेर जी भी अचंभित हो गए थे और उन्होंने मुझे संपत्ति का पर्याय कहा था | तभी से लोगों में यह बात फैल गयी कि मैं संपत्ति की देवी हूँ |
अब तुम्हीं सोचो,दीदी | जब सारे लोग संपत्ति की लालसा से मेरी पूजा करने लगे तो मैं उदार ह्रदय से उनकी मनोकामना कैसे पूरा नहीं करती | यह सब सदियों होता रहा | लेक़िन अगर आय न हो तो व्यय करने से धन घटेगा ही | हमारे पीहर में भी सब-कुछ ठीक-ठाक नहीं चला | देवासुर संग्राम कई हुए| हर संग्राम में दानव हारे - चाहे जिस तिकड़म के चलते हारे हों | अधिक बोलना जेठ जी और तुम्हारे देवर जी पर भी आक्षेप होगा| अतः अब पीहर से भी संपत्ति आते रहने की गुंजाइश नहीं है| मेरी जमा पूँजी चुक गयी है | इसीलिए तो बैकुंठ का रिपेयर करवा रही हूँ, नया महल नहीं बनवा रही हूँ| इसमें अगर मय दानव सस्ते में रिपेयर कर देते हैं तो मैं विश्वकर्मा जी को ठेका देकर पामाल क्यों हो जाऊँ? झूठी शान के लिए जान क्यों दूँ?
लक्ष्मी जी व्यथा-कथा सुनकर शची की आँखों में आँसू आ गए | लेक़िन उन्होंने धीरज से काम लिया और बोली | सुन बहना, बुरा न मानो तो एक तरीका बतलाती हूँ, पर किसी से कहना नहीं | मेरा कुछ धन कुबेर जी के पास रखा है, और कुछ मेरा स्त्रीधन है| कुबेर जी से हमारा धन का लेन-देन चलता है| मैं पैसों का इंतजाम कर दूँगी| मन में आये लौटाना, मन में न आये तो बड़ी बहन का दिया उपहार मानकर रखे रहना | देवर जी से भी नहीं कहना | यह बात हमारे-तुम्हारे बीच रही | नारद जी से थोड़ा बच कर रहना | वह उड़ती चिड़िया के परों में हल्दी लगा सकते हैं| कल मय दानव को किसी बहाने टरका देना और विश्वकर्मा जी को ठेका दे देना | पैसे की चिंता मत करना, और अपनी दीदी पर भरोसा रखना |
महारानी शची के सुझाव और आवश्यक आर्थिक सहायता की पेशकश ने लक्ष्मी जी की उलझनों को एकबारगी सुलझा दिया | लेक़िन मय दानव को टरकाने का कोई समुचित तरीका उनकी ज़ेहन में तत्काल नहीं आया | अतः वह स्पष्ट बोली : दीदी, आपने जैसा कहा वैसा ही करुँगी लेक़िन यह समझ में नहीं आता कि किस बहाने मय जी की डिजाइन को असंतोषजनक करार किया जाये | वह सुन्दर भी है और बेहद सस्ती भी | ऊपर से मय जी हमारी बिरादरी के भी हैं |
शची: देख लक्ष्मी, इस के मुताल्लिक़ तो देवर जी से ही बात करनी होगी | वह तिकड़मियों के सरताज़ हैं | चलो उन्हीं से बातें करते हैं |
अपने कमरे में भगवान विष्णु अकेले बैठे थे| वह मय और विश्वकर्मा के एस्टिमेट्स, नारद का पदार्पण, सारी बातों का इंद्र तक पहुँचना और फलतः शची का असमय लक्ष्मी से मिलने आना, उनकी लम्बी गुफ़्तगू, और फिर दोनों का उनसे मिलने आने की सूचना - इन सारी घटनाओं के तार जोड़कर मामले को पूरी तरह समझ रहे थे और मय को टरकाने का समुचित बहाना भी ढूंढ़ चुके थे | अतएव वह मुस्कुरा रहे थे |
महारानी शची और लक्ष्मी ने उनके कमरे में प्रवेश किया तो वह उठ खड़े हुए | उन्होंने भाभी को प्रणाम किया, उन्हें बैठाया, कुशल क्षेम पूछा, भाई साहब के वारे में पूछा | इस सौजन्य के बाद शची ने उनके सामने लक्ष्मी की समस्या रखी |
शची : देवर जी, आप तो जानते ही हैं कि बैकुण्ठ के नवीकरण के लिए मय दानव का एस्टीमेट/डिज़ाइन सुन्दर भी है और सस्ता भी | लेक़िन लक्ष्मी चाहती है कि ठेका विश्वकर्मा जी को मिले क्योंकि उसका सम्बन्ध भारत के विकास से है, जहाँ हमारे असंख्य भक्त रहते हैं | मय दानव को ठेका देने से पाताल को लाभ होगा जहाँ हमारे भक्त प्रायः नहीं के बराबर हैं | इसी सम्बन्ध में हम दोनों बहनें आपसे कोई उपाय पूछने आयी हैं कि कल मय दानव को क्या कहा जाये |
विष्णु : भाभी जी, मुझे इस बात की खुशी है कि आप दोनों बहनें अपने कुल के कल्याण की भावना से ऊपर उठ कर मानव कल्याण और भक्तों के कल्याण के बारे में सोचने लगी हैं | आपने उपाय पूछा है कि सस्ता और बढ़िया होने के बाद भी मय दानव की डिजाइन को कैसे छाँट बाहर किया जाये और पक्षपात करने की बदनामी भी न हो | इसके लिए मय दानव की बनायी सारी इमारतों और नगरों का इतिहास देखें | पता चलेगा कि वे किसी न किसी वज़ह से कलह, युद्ध और अशांति से सम्बंधित रही हैं | शायद इसका कारण डिज़ाइनों में आध्यात्मिकता तथा आस्था का अभाव एवं वास्तुशास्त्र के नियमों का उल्लंघन है| दानव इस तर्क से सहमत नहीं होंगे पर हम देवता हैं और इन बातों का ध्यान रखते हैं | हमारे लिए बाहरी सुंदरता, मज़बूती और किफ़ायती होना इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि संस्कृतिपूर्ण होना और शुभ होना| अतः कल लक्ष्मी जी इन्हीं आधारों पर मय दानव की डिजाइन को छाँट बाहर करे और घोषणा करे कि विश्वकर्मा जी की डिज़ाइन स्वीकृत हुई |
भगवान के बतलाये उपाय सचमुच काबिलेतारीफ़ थे| शची जी अमरावती लौट गयी और लक्ष्मी जी ने चैन की साँस ली |
अगले दिन लक्ष्मी जी ने अपना निर्णय सुना दिया और विश्वकर्मा जी प्रफुल्लित मन से घर लौटे| एक बार फिर दानवों की हार हुई और मानवतावाद ने भाई-भतीजावाद (बेटीवाद) और तकनीकीवाद पर संयुक्त विजय पायी |
*******************************************
घर लौटकर विश्वकर्मा जी अभी मध्याह्न भोजन कर ही रहे थे कि उनके मोबाईल पर इंटरनेट बैंकिंग के मैसेज आने लगे - और दस मिनट के अंदर उनके खाते में वह पूरी रक़म आ गयी जो बैकुण्ठ नवीकरण प्रॉजेक्ट के लिए एस्टीमेट में दी गयी थी | रक़म अलग़-अलग़ खातों से आयी थी किन्तु सारे ट्रांजेक्शन के नोट में एक ही बात लिखी थी - 'फ़ॉर बैकुण्ठा प्रॉजेक्ट"| यह कोई ऐसी बात नहीं थी जिस पर सोच-विचार किया जाये |

शाम के चार बजते-बजते विश्वकर्मा जी सेठ मनसुखलाल की दूकान पर पहुँचे और उन्होंने सामान की पूरी लिस्ट सेठ को पकड़ा दी | घंटे भर में सेठ ने कच्ची रसीद बनाकर विश्वकर्मा जी के सामने रख दी | विश्वकर्मा जी ने रसीद का मुआइना किया - पर बिल के टोटल देखकर उनके हाथों के तोते उड़ गए | कुल रक़म उनके एस्टीमेट की रक़म की लगभग तिगुनी थी|
विश्वकर्मा जी ने इसका कारण पूछा तो सेठ जी उन्हें समझाने लगे | उनका एस्टीमेट सप्ताह भर पहले के बाज़ार भाव पर था किन्तु आज का बिल आज के बाज़ार भाव पर है| अगर वह आज ही ऑर्डर न दे डालें तो कल का क्या पता | बाज़ार में आग लगी हुई है - माल उपलब्ध नहीं है - मांग बेतरीका बढ़ी हुई है | समझदारी इसी में है कि विश्वकर्मा जी अभी-अभी ऑर्डर कर दें | आगे दाम घटने की कोई सम्भावना नहीं है क्योंकि जनरल एलेक्सन माथे पर है|
मरता क्या नहीं करता | विश्वकर्मा जी मन ही मन अपने भाग्य को दोष देने लगे और मरी आवाज़ में बोले - चलिए सेठ जी, पहली किश्त में सामान का चौथा हिस्सा बैकुण्ठ भिजवा दिया जाये| बाक़ी हम काम आगे बढ़ने पर बतलायेंगे | आपके बिल का भुगतान हम सामान पहुँचने के बाद इंटरनेट बैंकिंग से कर देंगे |
बैकुंठ के नवीकरण का काम शुरू तो बड़े जोर-शोर से हुआ किन्तु ज़ल्द ही सामान की कमी की वज़ह से रुक गया | विश्वकर्मा जी पैसों का जुगाड़ करने के लिये हर दरवाज़ा खटखटा आये, पर पैसों का इन्तजाम नहीं कर पाए | पत्नी के पास इतने गहने नहीं बचे थे कि उन्हें बेच कर वह सामान के अगली किश्त का आर्डर दे आते | शर्म के मारे लक्ष्मी जी और विष्णु जी से मुँह छुपाने लगे | उनका रक्तचाप बहुत अधिक रहने लगा| भूख भी नहीं लगती थी | कुछ चिड़चिड़े भी हो गए|
तीन बरसों तक जब बैकुण्ठ के नवीकरण का कार्य आगे नहीं बढ़ा तो एक दिन लक्ष्मी जी ने उन्हें दरबार में बुलाया | वह समय पर आये लेक़िन बहुत उदास थे| लक्ष्मी जी ने विश्वकर्मा जी के अलावा सभी लोगों को अपना-अपना घर जाने के लिए कहा | जब दरबार में केवल श्री भगवान, लक्ष्मी जी और विश्वकर्मा जी रहे तो लक्ष्मी जी ने नवीकरण कार्य के तीन वर्ष रुक जाने के कारणों की तहक़ीक़ात की | विश्वकर्मा जी ने अपनी विकट समस्या को श्री भगवान और लक्ष्मी जी के सामने रखा | ग़नीमत थी कि अपनी कथा कहते-कहते वह रोये नहीं |
समस्या को समझकर विष्णु भगवान तो मौन रह गए पर लक्ष्मी जी उबल पड़ीं | उन्होंने चिल्लाकर अपनी दासी को पुकारा और एक लोटा गंगाजल लाने को कहा | आनन-फ़ानन दासी गंगाजल भरा लोटा ले आयी | श्री भगवान और विश्वकर्मा जी भौंचक्के लक्ष्मी का तमतमाया चेहरा देखते रहे|
लक्ष्मी जी ने एक चुल्लू जल अपने माथे पर छिड़का और फिर अपने दाहिने हाथ में एक चुल्लू जल लेकर खड़ी हो गयी और ऊँची आवाज़ में बोली |
"मैं सागर की पुत्री और भगवान विष्णु की पत्नी लक्ष्मी दसों दिशाओं, भगवान विष्णु और श्री विश्वकर्मा को साक्षी रख कर भारत वासियों को यह भयानक शाप देती हूँ कि उनकी आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक उन्नति कभी नहीं होगी - उनके यहाँ दरिद्रता, अपवित्रता, अस्वस्थता, झूठ, मक्कारी और आपसी द्वेष का बोलबाला रहेगा, वे मानसिक रूप से विदेशियों का दासत्व करेंगे और उनके मरने के बाद यमराज उन्हें नरक में ज़गह देने में भी नाक-भौं सिकोड़ेंगे | मेरा यह शाप अटल होगा और किसी तपस्या या किसी के वरदान से प्रभावित नहीं होगा |"
फिर वह विश्वकर्मा जी की ओर मुड़कर बोली - विश्वकर्मा जी, अपना घर जाइये और इस नवीकरण दुर्घटना को भूल जाइये |
तभी से भारत में आर्थिक, मानसिक, सामाजिक और धार्मिक उन्नति नहीं हो रही है - वहाँ दरिद्रता, अपवित्रता, अस्वस्थता, झूठ, मक्कारी और आपसी द्वेष का बोलबाला रहता है, भारतीय लोग आर्थिक व मानसिक रूप से विदेशियों का दासत्व करते हैं और विकास के सारे प्रयास असफल होते हैं | नेतागण स्वभावतः अपराधी और टुच्ची प्रवृत्ति वाले होते हैं, वैज्ञानिकगण नया अनुसन्धान नहीं कर पाते हैं, बुद्धिजीवी चाटुकार और ठग होते हैं, पंडित धर्मध्वजी होते है, व्यापारी ठग होते हैं, पढ़े-लिखे नौजवान नाकारे होते है, साधारण जनता अंधभक्त होती है और भूखों मरती है| लक्ष्मी जी का शाप अटल है और कोई लाख पूजा-पाठ करे, भारत की दुर्दशा का कोई इलाज़ नहीं है|