मंगलवार, 10 सितंबर 2019

पाप, पापी और हम

प्रायः हर भारतीय इन दोनों शब्दों - पाप और पापी - से परिचित है| हम में से बहुत लोग इस नसीहत से भी परिचित हैं कि हमें पाप से, न कि पापी से, नफ़रत करनी चाहिए| यह भगवान बुद्ध ने भी कहा था, और गाँधी ने भी| गाँधी ने कहा था - पाप से नफरत करो, पापी से प्रेम करो। वैसे छान्दोग्योपनिषद (10.9) के अनुसार पापियों के संग रहने से भी पाप होता है|
खैर, शब्दकल्पद्रुम (संस्कृत शब्दों का विश्वकोश) के अनुसार 'पाप' शब्द की व्युत्पत्ति पा (पाति रक्षति अस्मदात्मनि इति) + पः (पानीविधिभ्यः पः) से है| इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि किनसे और क्यों अपनी रक्षा की जाये| यह पाप के पर्यायवाची शब्द 'पातक' से स्पष्ट हो जाता है| शब्दकल्पद्रुम के अनुसार 'पातक' की व्युत्पत्ति पातयति अधोगमयति दुष्क्रियाकारणमिति (पत् + शिच् + ण्वुल्) यानि 'उन कर्मों से जिनसे पतन होता है' से हुई है| कहने का अर्थ यह है कि जिन कर्मों से कर्त्ता और समाज का पतन होता है उसे पाप कहते हैं अतः इनसे अपनी व समाज की रक्षा करनी चाहिए, इनसे बच कर रहना चाहिए|
पाप फैलता है, बहुत तेज़ी से फैलता है| पाप कैसे फैलता है यह देखें (गारुड नीतिसार, अध्याय 112):
आलापात् गात्रसंसर्गात् संवासात् सहभोजनात्
आसनात् शयनात् यानात् पापं संक्रमनेत् नृणाम् ||
आसनात् एकशय्याया भोजनात् पङ्क्तिसङ्करात्
ततः संक्रमते पापं घटाद्घट इवोदकम् ||
[बात-चीत करने से, शरीर-संपर्क से, साथ रहने से, साथ खाना खाने से, एक आसन पर बैठने से, एक साथ घूमने-फिरने एवं यात्रा करने से, एक शय्या पर सोने से, एक पंक्ति में भोजन करने से पाप उसी तरह संक्रमण करता है जैसे एक घड़े के पानी को दूसरे घड़े के पानी को मिलाने से जल का दोष संक्रमण करता है].
राजा राष्ट्रकृतात् पापात् पापी भवति वै हरे
तथैव राज्ञः पापेन तद्राज्यस्थाः तु ते जनाः ||
वर्नाश्रमादयः सर्वे पापिनो नात्र संशयः
भार्यान्होदुष्कृतो स्वामी व्रिजिनात् स्वमिनोवलाः ||
तथा देशिकपापात्तु शिष्यः स्यात् पातकी सदा
शिष्यात् हि पापिनो नित्यं गुरुर्भवति दुष्कृती ||
[प्रजा के पाप से राजा और राजा के पाप से प्रजा के सभी वर्ण एवं आश्रम, पत्नी के पाप से पति और पति के पाप से पत्नी, तथा निर्देशक (=गुरु, देशिक का अर्थ है दिशा निर्दिष्ट करने वाला जैसे "धर्म्माणां देशिकः साक्षात् स भविष्यति धर्म्मभाक्" महाभारत 13|147|42. शब्दकल्पद्रुम, खण्ड 2, पृष्ठ 748) के पाप से शिष्य और शिष्य के पाप से गुरु पाप में भागी होते हैं] |
इसीलिये 'पापी से प्यार और पाप से नफ़रत' द्वारा पाप को फैलने से रोका नहीं जा सकता| पाप और पापी दोनों से दूरी बनानी होगी|
वैसे तो उच्च दर्शन पाप और पुण्य से सर्वथा ऊपर की बात करता है| (देखिये देवी सप्तशती)
या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी: पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥
[जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये]
वैसे भी देवी महामाया हैं| वह पापियों के घर लक्ष्मी रूप में और सत्कर्मियों के घर दरिद्रा के रूप में भी निवास करने की ठान ले सकती हैं, बहुधा ठान लेती हैं| उन्हें कौन मना कर सकता है? कहते हैं, भगवान भृगु ने भगवान विष्णु को लात मारी| एवज़ में श्री लक्ष्मी जी ने भृगु को शाप दिया कि उनके तथा उनके वंशजों के घर हमेशा दरिद्रा का निवास होगा (चाहे वे सुकृत करें या दुष्कृत)|
सर्वत्र में स्थित देवीभाव से लक्ष्मी और अलक्ष्मी को बराबर मानना व्यावहारिक नहीं है| अगर होता तो देवी ने मधु-कैटभ का, चंड-मुंड का, शुम्भ-निशुम्भ का, महिषासुर का हृदय-परिवर्तन क्यों न कर दिया? वे पापी थे तो उन्हें मारने की क्या ज़रूरत थी? उनके हृदय-परिवर्तन से पाप ख़त्म हो जाता, पापी सामान्य हो जाता| क्या भगवान विष्णु हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप का हृदयपरिवर्तन नहीं कर सकते थे? हमारे ही शास्त्रों में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिसमें पाप तो हँसता खेलता रहा, पर बेचारा पापी मारा गया| वैसे, भगवान बुद्ध के द्वारा अंगुलिमाल के हृदयपरवर्तन की कथा भी सर्वविदित है| किन्तु पापी का हृदयपरिवर्तन करना सर्वगम्य नहीं है| अन्यथा दंड (जेल, फाँसी और अर्थदंड) देने के बदले हमारी न्यायव्यवस्था हृदयपरिवर्तन का रास्ता अपनाती|
पापी से प्यार और पाप से नफ़रत गाँधी जैसे पुरुष कर सकते हैं, हम जैसे साधारण मानव नहीं| हमें तो पाप और पापी दोनों से दूर रहना होगा|
गाँधी से बड़ा महात्मा और कौन हो सकता है? उन्होंने बड़े मार्के की बात कही है - जब तक गलती करने की स्वतंत्रता न हो तब तक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है। इसी लिए उनके अनुयायी भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, यह जाँचने-परखने के लिए कि स्वतंत्रता सचमुच मिली है या यह एक भ्रम है, सपना है, धड़ल्ले से गलतियाँ करने लगे | इन ग़लतियों की - पापकृत्यों की - अधिक आलोचना भी नहीं हुई क्योंकि गाँधी के तीन बंदर देखने, सुनने और बोलने की मनाही करते | कोई चौथा बंदर था नहीं जो ग़लतियाँ या पापकृत्य करने से मना करता| फिर गलतियाँ न करने देना स्वतंत्रता के लिए घातक होता| फलतः हम भाषणों में, कमीटियों में, रिपोर्टों में, लेखों में, पुस्तकों में, संसद की बहसों में, अख़बारों में, विकृत शिक्षासंस्थानों में, चालाक काकधर्मी विद्वद्गोष्ठियों में, चंडूखाने की गप्पों में, आवारा औरतों/मर्दों की बाँहों में पाप से नफ़रत करते रहे और पापी से प्रेम करते रहे |

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