बुधवार, 9 अक्तूबर 2019

बिहार की संस्कृति और मानसिकता

मेरी (अति सीमित) जानकारी में बिहार की संस्कृति का पहला उल्लेख, विश्वामित्र के विकट जिद्दीपन के बाद (जिसमें जातिवाद का खुला विरोध है), राजा जनक की कथा तक अन्वेषणीय है| जनक ने कहा था - "मिथिलायां प्रदग्धायां न मे दह्यति किञ्चन" यानि अगर पूरी मिथिला (उत्तरी बिहार) जल कर राख़ हो जाये फिर भी मेरा कुछ नहीं जाता| क़रीब-क़रीब ऐसी ही बात रोम के सम्राट नीरो के वारे में प्रचलित है - जब रोम जल रहा था तो नीरो संगीत में तन्मय था| पाश्चात्य संस्कृति ने नीरो की भर्त्सना की - उसे बेरहम, असामाजिक, कर्त्तव्यपराङ्मुख, संवेदनहीन और न जाने क्या-क्या कहा, उसकी निंदा की, उसपर राजधर्म से च्युत होने का अभियोग लगाया| लेक़िन हमारी भारतीय संस्कृति ने राजा जनक की सराहना की, उनकी बड़ाई में व्याख्याएँ लिखीं, उन्हें जीवन्मुक्त कहा, उन्हें आदर्श राजा कहा| फिर आज अगर बिहार बाढ़, सूखे, महामारी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, सामाजिक भेदभाव, गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार, या प्रशासनिक दुवस्था की आग में जल रहा है, पर इसके नेतागण नाच देख रहे हैं, बाँसुरी बजा रहे हैं, भेलपुरी खा रहे हैं तो लोगों को मिर्ची क्यों लगती है? वे तो राजा जनक की राह पर हैं, अपनी संस्कृति के बतलाये पथ पर हैं, आदर्शों पर दृढ़ हैं| बिहार का दूसरा उल्लेख महाभारत में आता है - दक्षिण-पश्चिमी बिहार के मगध (गया) का, जिसके राजा जरासंध थे| उन्होंने अपने बाहुबल से सैकड़ों राजाओं को बंदी बनाकर रखा था, बलिदान करने के लिए| उनके कारागार में अनेक सुंदरियाँ भी थीं [1]| ज़बरदस्त इतने कि कृष्ण तक को मथुरा से रपेट कर भगा दिया और द्वाका में बसने के लिए मज़बूर कर दिया| कंस जैसा प्रतापी राजा उसकी मुठ्ठी में था| जो भी हो, जरासंध अपने प्रताप, महत्वाकांक्षा, बहादुरी, और अत्याचार के लिए मशहूर थे| आज भी नेतागण अपने दल के लोगों (एमएलए) को होटल में कैद रखते रहे है (वैसे इस संस्कृति का नाटकीकरण हो चुका है) तो लोग प्रजातंत्र पर फ़िकरे कसते हैं| पर यह तो हमारी संस्कृति के सर्वथा अनुकूल है| दुर्योधन ने अंग देश (पूर्वी बिहार) का राज्य देकर महावीर कर्ण को अपना अभिन्न मित्र बनाया था| कर्ण शासक तो थे अंगप्रदेश के, लेक़िन रहते थे हस्तिनापुर में| उनका बचपन भी वहीं बीता था और सारी जिंदगी रहते भी वहीं थे| वह दुर्योधन की हर क्रीड़ा और हर षड़यंत्र में शामिल थे, और रोज़ाना दान-ज़कात भी वहीं करते थे; अद्भुत दानी थे| अब वह दुर्योधन से मांगकर तो दान करते नहीं होंगे| ज़ाहिर है, दान के लिए धन या तो अन्य राजाओं को लूटने से मिलता होगा (क्योंकि कर तो दुर्योधन को आता होगा) या अंगदेश की प्रजा देती होगी| कहते हैं, राजा सूर्य की तरह चप्पे-चप्पे से जल को कर-रूप में एकत्र करता है और बादल बनाकर बरसाता है जिससे फ़सलें पोषित होती हैं| किन्तु सूर्यपुत्र दानवीर कर्ण अंगदेश से कर लेकर हस्तिनापुर में लुटाता था - बिहार के बने बादल दिल्ली-हरियाणा में बरसते थे| फिर आज अगर बिहार (और झारखण्ड) की प्राकृतिक सम्पदा का दोहन देश की तरक़्क़ी के काम आया और बिहार में सूखा पड़ा - बिहार 'हाय एंड ड्राय' रहा - तो नया क्या हुआ? महाभारत में मैंने कहीं नहीं पढ़ा कि अंगदेश का शासन कैसे चलता था, जब कि महाराज कर्ण अनुपस्थित शासक (अबसेंटी लॉर्ड) थे| स्वाभाविक है कि अंगदेश का शासन सामंतों से चलता था| ऐसी स्थिति में अन्याय, शोषण, और सामंतों की विलासिता अनपेक्षित नहीं है| क्या शोषित जनता अंगप्रान्त से हस्तिनापुर जाकर महाराज कर्ण को अपना दुखड़ा सुना पाती होगी? मुझे शंका है| अतः यह अपेक्षित है कि अंगप्रान्त की जनता ने शोषण और अन्याय को अपनी नियति मान लिया होगा| बिहार के एकलव्यों के अँगूठे कितनी वार कटे, कौन जाने|   भगवान बुद्ध का आविर्भाव बिहार में ही हुआ और माना जाता है कि वह विष्णु के नवमें अवतार थे| जैसा कि विष्णु के आठवें अवतार कृष्ण ने साफ़-साफ़ कहा था कि भले-लोगों को बचाने, दुष्कर्मियों का नाश करने, और धर्म की स्थापना करने मैं वार-वार आता हूँ, वह बुद्ध बनकर आये| बुद्ध ने ब्राह्मण धर्म का विरोध किया, उसे उखाड़ फेंका, और एक नए धर्म की स्थापना की| इससे यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध के उदय के पहले जनता, ख़ास करके अब्राह्मण और नीची कौम, ब्राह्मणों के अत्याचारों से, पाखंडों से, छुआ-छूत से त्रस्त थी| वेदों का दुरुपयोग हो रहा था| नहीं, तो बुद्ध क्यों आते! बुद्ध के छा जाने के बावजूद भारत टुकड़े-टुकड़े में बंटा हुआ था और उसमें घनानंद की अनीति का बोलबाला था| इसीलिए चाणक्य ने मगध को राजनीति का केंद्र बनाया, क्योंकि मगध को समेटे विना भारत राष्ट्र नहीं बन सकता| भारत राष्ट्र बना, लेक़िन अशोक ने जो कुछ किया उसे कलिंग अब तक याद रखे है| कुछ लोग अशोक के साथ ही राजकुमार कुणाल को भी याद रखेंगे जिसकी ऑंखें महारानी ने निकलवा ली थीं और जिसकी जीवनयात्रा भीख से चलती थी| दूसरी तरफ़ अशोक का डंका श्रीलंका में बजता था| आज अगर मेरा भाई भीख मांगे तो इससे अधिक प्रिय घटना और क्या हो सकती है? अशोक स्तम्भ अब भी खड़ा है - इस्पात के स्तम्भ पर बैठा शेर - मजबूती का प्रतीक| मालूम नहीं, इस्पात, स्तम्भ, और शेर किन-किन तत्वों और सत्वों के प्रतीक हैं| देशाटन और शास्त्रार्थ करते हुए आदिशंकराचार्य केरल से बिहार आये| अहो, कितनी लम्बी यात्रा थी| मंडन मिश्र और भारती से मिथिला में टकराये, जीते, हारे, फिर जीते [2]| हारा कौन? पूर्वमीमांसा? - प्रवृत्तिमार्गी अद्वैत? कर्मकाण्डवाद?, रिचुवलिज़्म (ritualism)? जीता कौन? उत्तरमीमांसा? निवृत्तिमार्गी अद्वैत? आगे कुआँ पीछे खाई? कर्मकाण्डवाद या अद्वैत? प्रवृत्तिमार्ग या निवृत्तिमार्ग? एक अल्पज्ञानी होने के कारण मैं तो इतना ही देखता हूँ कि न मंडन-भारती जीते न शंकराचार्य| न प्रवृत्तिमार्गी अद्वैतवाद जीता न निवृत्तिमार्गी अद्वैतवाद| दोनों हार गए| जीता केवल पाखंडवाद| परम तत्व की ख़ोज में आकार, संरचना, संयोजन, और समवाय के महत्त्व की उपेक्षा एक आत्मघाती कदम है, एक सन्यासपरक चोंचलेबाजी है,  जिसके कारण सत्य में मिथ्या और मिथ्या में सत्य का आभास होने लगता है| ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या! विश्व ब्रह्ममय है लेक़िन रोटीमय नहीं है| मन मोदकन्हि कि भूख बुताई| सोने के टुकड़े और ढेले में एकता स्थापित करना आसान है लेक़िन ढेले और रोटी के टुकड़े में तादात्म्य स्थापित करना आसान नहीं है| अन्नमेव ब्रह्म कहना ही पड़ा| तभी से बिहार अब तक अन्नमेव ब्रह्म को भूल नहीं सका है| बिहार सबसे ग़रीब मुल्क है| मुग़लकालीन बिहार कर (tax) देता रहा और सामंतों से शासित ही जीता रहा| सामंतों और जमींदारों का विलासितापूर्ण जीवन, उनका रुतवा, उनकी शान-शौकत, उनका रौब-दाब, उनका ग़ुरूर, उनका अहंकार, उनका शक्तिप्रदर्शन, उनकी हठधर्मिता, उनका बड़बोलापन, उनका जातीय घमंड बिहार के मष्तिष्क पर चढ़ कर बोलता है| कृष्ण ने कहा था - यावदाचरति श्रेष्ठः तत्तदेवेतरो जनः| सः यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते (ऊँचे तबके के लोग जो करते हैं, जिसे आदर्श बना देते हैं, जनसाधारण वही करते हैं, अनुगमन करते हैं)|

सन्यासी विद्रोह (१७६०-१८००) में अंग्रेजो के विरुद्ध बगावत बिहार-बंगाल से शुरू हुई जिसको बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के आनन्द मठ में लिपिबद्ध किया गया और जहाँ से वन्दे मातरं की अलख जगी|  प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम (१८५७) में वीर कुंवर सिंह ने नेतृत्व दिया, घाव खाये, जान दी| गाँधीजी के स्वतंत्रता और अवज्ञा आंदोलन ने चम्पारण के निलहे खेतिहर मजदूरों की मदद से ज़ोर पकड़ा और देशव्यापी हो गया| उजले कुर्ते, उजली टोपी, लकदक खादी, लाल गुलाब  आगे बढ़ गए, लेक़िन बिहारी कॉलर नीले ही रह गए - मानो निलहे खेतों से उपजी स्वतंत्रता की याद दिलाते हों|    आज का बिहार या तो मज़दूर पैदा करता है या प्रशासनिक अधिकारी| प्रशासनिक अधिकारी तो देश की संपत्ति हो जाते हैं - जैसे दही बिलोने से माखन तैरने लगता है और जिसे काट लिया जाता है| वे जीवन भर मलाई काटते हैं| जो बच जाता है वह छाछ है - कलकत्ते से लुधियाना और कन्याकुमारी तक रिसता-टपकता पसीना - खट्टे-खट्टे गंध से बोझिल| हमें अपने प्रशासनिक अधिकारियों पर नाज़ है, हमारे प्रशासनिक अधिकारियों को हमसे दुरावभरी अपनियत है या उपेक्षापूर्ण अज़नबीपन| एक डर भी - बचो-बचो, उसे चीन्हने से इंकार करो - वह भदेस कंगाल, कहीं कोई रिश्ता न ले निकाल| -------------------------------------------------------------------------- नोट:
[1]. Jakhotiya, G.P. (2009).Krishna: The Ultimate Idol. Banyan Tree Books, New Delhi. p.98.
[2]. एक वार इस ब्लॉग को अवश्य पढ़ लें - https://deoshankarnavin.blogspot.com/2018/02/blog-post.html

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