मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

चंची (संस्मरणात्मक कहानी)

चंची को देखा बहुतों ने है लेक़िन मेरे सिवा उसे जानता कोई नहीं है| अब, जब मैं भी उस उम्र में पहुँच गया हूँ कि मुझे अपने गाल में रख लेना काल की मजबूरी हो जाने वाली है, मैं सोचता हूँ कि चंची के वारे में मैं जो कुछ जानता हूँ वह संक्षेप में ही सही पर लिख ज़रूर दूँ| नहीं तो पढ़ना-लिखना जानने से फ़ायदा ही क्या!
चंची बड़े जीवट वाली औरत थी| मैंने उसे तब से जानना शुरू किया जब वह पैंतालीस की उम्र पार कर गयी थी और मैं पाँच-छह साल का बच्चा था| एक सस्ती-सी उजली साड़ी में लिपटी हलकी साँवली सी मूरत, खुले पैर, किसी न किसी काम में लगी हुई| मैंने उसे आराम करते कभी नहीं देखा| सूरज की पहली किरण फूटने के साथ ही नहा-धोकर, शिवपुराण और रामचरितमानस के एक-एक अध्याय का पाठ कर, जीवन के युद्ध के लिए तैयार| वह किसी की प्रतीक्षा नहीं करती थी, काम उसका इंतजार करते थे| सकारे ही वह टोले-मोहल्ले के बीसियों काम निपटा लेती थी और इसके बाद खाना बनाने में लग जाती थी| उपले, लकड़ियों और सूखे घास-फूस या पुआल से जलने वाला मिट्टी का चूल्हा, अल्युमिनियम की ढंकना समेत बटलोही, काला मोटा सा लोहे का लोहिया, कछुल और छोलनी| बाड़ी से तोड़ी थोड़ी सी सब्ज़ी, नहीं तो फ़क़त आलू| चंची को भुने आलू का भरता (चोखा) बहुत पसंद था| इसमें उसे तरद्दुद नहीं करनी पड़ती थी| चूल्हे की आग में आलू यूँ ही जल-पक जाते थे| बस, निकाल कर गूंडा, नमक तेल मिर्चा मिलाया और सोंधी तरकारी तैयार| गोलत्थी (विना मांड पसाये बना गीला अधिक सिझा, भात) और आलू का भरता (चोखा) उसका बहुत प्रिय भोजन था| मालूम नहीं कि चंची जीभ की बात मानती थी या उसकी जीभ उसकी व्यस्तता और अभाव से उपजी मजबूरियों की बात मानती थी, लेक़िन चंची की जीभ और गोलत्थी-भरता में खूब पटती थी|
वैसे तो चंची के सात बच्चे थे लेक़िन चार बेटियाँ ब्याही जा चुकी थीं अपने-अपने ससुराल में बसती थीं| बड़ा बेटा भी लगभग ससुराल ही बसता था| जब आदमी को अपना काम इतना हो जाये कि वह परदेश में मय बीवी-बच्चे के रहे और उसी को अपना घर समझने लगे, अपने पुराने वाले (जहाँ जन्म हुआ हो, माँ-बाप रहते हों) घर को देखने की फुर्सत साल में एक वार भी न हो, चिट्ठी-चपाती भी न चले तो फिर ससुराल बसना किसे कहते हैं! तो कुल जमा दो बच्चे (बेटे) बचे जिसे पाल कर बड़ा करना चंची की ज़िम्मेदारी थी| और यह काम चंची ने बख़ूबी किया|
चंची को इतनी ज़मीन-जग़ह नहीं थी कि उसकी उपज से परिवार का गुज़ारा हो जाये| उसके पति अच्छे-भले थे लेक़िन उन्हें वेदांत पढ़ने की बीमारी लग गयी थी| किस्सा कुछ यूँ है कि चंची के पति के बहनोई, पंडित कमलाकांत चौधरी, संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और उनके पास संस्कृत की अच्छी-ख़ासी लाइब्रेरी थी - कमला संस्कृत पुस्तकालय| पंडित जी बाल-बच्चों को ब्रह्म के सहारे छोड़कर सन्यासी हो गए और लापता होने से पहले अपनी बहुत सारी किताबें अपने साले को सौंप गए| जिस तरह पापी के साथ रहकर पाप से नहीं बचा जा सकता, हथियारों के साथ रहकर उनके उपयोग से बचना आसान नहीं है, उसी तरह किताबें भी आदमी को फँसा ही लेती हैं| तो चंची के पति को वेदांत की क़िताबों ने फाँस लिया| अब अगर कुछ किये विना रूखी-सूखी मिल जाये और कर के भी वही मिले तो सारे उपनिषद करने और नहीं करने में एकत्व सिद्ध कर ही देंगे| इस एकत्व की अनुभूति के बाद उन्होंने बैदगिरी (जो उनका पेशा थी) छोड़ दी| पर उपनिषदों और शास्त्रों में, जहाँ सोने के टुकड़े और मिट्टी के ढेले में तादात्म्य स्थापित करने की लत सी दिखती है, मिट्टी के ढेले और रोटी में तादात्म्य नहीं दिखाया गया है| रोटी को ब्रह्म ज़रूर कहा गया है| यह बात दीगर है कि रोटी नहीं मिले तो ब्रह्म रोटी में विलुप्त हो जाता है|
चंची और उसके बच्चों की पहुँच वेदांत तक नहीं थी| विश्व ब्रह्ममय है लेक़िन रोटीमय नहीं है अतः चंची के माथे पर रोटी का जुगाड़ करने का भार आ पड़ा| बैद का घर था, तो उसपर बीमार लोगों की आशा कुछ-न-कुछ टिकी थी ही| औरतें औरतों को पूछती ही रहती हैं| सो, वे चंची से भी अपनी समस्याएँ बतलाती थीं, किसी-न-किसी दवा की आशा करती थी| चंची ने अपना लम्बा समय एक वैद्य पति के साथ गुज़ारा था और कुछ पढ़ी-लिखी भी थी| घर में वैद्यक की बहुत सारी किताबें थीं जिनमें से कुछ-एक हिंदी में थीं| चंची कुछ पढ़कर और कुछ अपने पति के साथ बातचीत कर दवाइयाँ ढूँढ लेती थी| उसके हाथ में जस था, बीमार ठीक भी होते थे (वैसे अस्सी प्रतिशत बीमारियाँ ठीक होने के लिए ही होती हैं)|
उन दिनों एलोपैथिक डॉक्टर बहुत सारे इंजेक्शन लेने को लिख देते थे (शायद अब भी लिखते हैं)| दवाइयाँ तो शहर से ख़रीद ली जाती थीं, पर इंजेक्शन कौन दे| देहात में झोला छाप डॉक्टर प्रायः मर्द ही होते हैं| औरतें उनसे इंजेक्शन लगवाना अक्सर नापसंद करती हैं| फिर इंजेक्शन लगवाना ही ज़रूरत की इतिश्री नहीं है, औरतों के हज़ार मुद्दे हैं जो वे औरतों से खुलकर बतला सकती हैं| चंची ने समाज की इस ज़रूरत को पूरा किया| प्रसव के समय चंची जैसी मददगार और जानकार महिला का दिन-रात कभी भी उपलब्ध होना एक वरदान सा साबित हुआ| चंची ने सैकड़ों बच्चों को जन्म लेने में मदद की और बात-की-बात में समय के साथ वह डेढ़-दो हज़ार घरों की डॉक्टर-दादी बन गयी|
डॉक्टर-दादी बहुत मिलनसार थी और बहुत सारी औरतें उसे सास वाला सम्मान देती थी| घर भर की तमाम बातें, दुख-दर्द, सब कुछ बाँटे जाते थे| डॉक्टर-दादी को ग़रीबों के लिए बहुत प्रेम था और बहुत ग़रीब मरीज़ों को वह मुफ़्त ही सुइयाँ लगा देती थी, कुछ हल्की-फुलकी दवाइयाँ दे देती थी| इससे उसे बहुत सम्मान और प्रेम भी मिलता था| वह न पैसे के लिए ज़िद करती थी न सेवा के लिए इनकार करती थी| बीमार चंगे होकर कुछ-न-कुछ दे ही जाते थे| कोई धान दे जाता था, कोई अरहर, कोई दूध, कोई आलू, कोई गोयठा (उपले), और कोई पैसे भी| बूंद-बूंद से तालाब भरता है|

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तो पुनरायातः। वर्ष पर वर्ष गुजरते रहे| ...  ...  ...  ...  ...  

डॉक्टर-दादी के दोनों बेटे पढ़-लिख कर बड़े होकर दूर-दराज़ रहने लगे| एक बहू बरसों साथ रही क्योंकि उसके पति को नौकरी नहीं मिली थी| उसने सास की ख़ूब सेवा की| लेक़िन पति के नौकरी मिलते ही वह अपने पति के साथ रहने चली गयी| दूसरी बहू तो केवल मुँह दिखाने और अपने पति को ले जाने को आयी थी| ग़रज़ यह कि डॉक्टर-दादी को दुबारा गोलत्थी-भरता पर जीना पड़ा| लेक़िन उसने कभी कोई शिकायत नहीं की| कहती थी, मुझे बेटों, बहुओं, पोते-पोतियों की कमी है क्या? दर्जनों नहीं, सैकड़ों हैं| सैकड़ों पोते-पोतियों ने अपनी पहली साँस मेरी गोद में ली है| डॉक्टर-दादी के पति ने हर वस्तु और जीव में ब्रह्म को देखना चाहा, पर पता नहीं, देखा कि नहीं देखा| चंची ने हर बच्चे में पोते-पोतियों को देखा और मैं दावा कर सकता हूँ कि हाँ, उसने देखा| मैंने चंची का जगज्जननी रूप अपनी आँखों से देखा है, उसकी अपनियत को देखा है, स्नेह को देखा है, ममता को देखा है, करुणा को देखा है, उदात्तता को देखा है| संभव है कि चंची में उदात्तता का उदय बेसहारापन, पति और बेटों से मिली उपेक्षा, अकेलापन, प्रबल आत्मविश्वास  और आत्मघाती निर्भयता की मिली-जुली भावनाओं से हुआ|
डॉक्टर-दादी अस्सी पार कर चुकी थी| एक दिन वह अपनी सेवा, अपनी ममता और अपनी उदात्तता बाँटते हुए मरी| मोहल्ले में ही किसी बीमार को देखकर घर आ रही थी कि गली में ही ढह कर गिर गयी| लोगों ने उठाया, पानी-वानी दिया लेकिन चंची (डॉक्टर-दादी) जा चुकी थी| उसके अगल-बग़ल में उसका कोई अपना जना बच्चा नहीं था - लेकिन जो वहाँ थे सब उस जगज्जननी के ही बच्चे थे - हर उम्र के, हर कद के, हर जाति के| और उसकी स्पंदनहीन देह मानो कह रही थी - ख़ुश रहो अहले चमन, हम तो चमन छोड़ चले|

[नोट: डॉक्टर-दादी के बचपन का नाम चंची था| हमारे पुरुषप्रधान समाज में (ख़ास कर हमारी माँओं, दादियों के समय में) औरतों के नाम ससुराल आते ही लुप्त हो जाते थे और उन्हें उनके मातृगाँव, या पति/पुत्र/पति के नाम से ही नया नाम मिलता था| मैं इस कहानी का शीर्षक डॉक्टर-दादी भी रख सकता था लेकिन यह चंची जैसी महिला को भुलाना होता|]

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