शुरू के दिनों में विवेकानंद अपनी मुक्ति के वारे में सोचा करते थे, श्री रामकृष्ण परमहंस से भी उसी मुक्ति की युक्ति के वारे में पूछा करते थे|
एक दिन श्री परमहंस ने उनको डाँटा| कहा कि अपनी मुक्ति के वारे में स्वार्थी की तरह इतना क्यों सोचते रहते हो? माँ ने जीवन देकर तुम्हें अपनी चाकरी में बहाल किया है| उनका काम करो| शाम होगी तो मजूरी मिल जाएगी| चले जाना| मुक्ति ही मुक्ति है, कौन पकड़े हुए है तुम्हें? क्या और मजूर नहीं मिलेंगे माँ को? फिर, मर्जी हो तो काम पर आ जाना| काम-धाम साढ़े बाइस, आते ही मजूरी चाहिए|
विवेकानंद जी समझदार थे| गुरु जी का इशारा समझ गए|
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