मंगलवार, 22 अक्तूबर 2019

विवेकानंद जी की समाधि

कहते हैं, विवकानंद जी समाधि की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ज़िद मचाये हुए थे, और श्री रामकृष्ण परमहंस उनको टालते जा रहे थे| आख़िर श्री रामकृष्ण परमहंस हार गए, और उन्होंने विवकानंद जी को समाधि कि स्थिति में पहुँचा दिया| जब विवेकानंद जी समाधि की स्थिति से सामान्य स्थिति में लौटे, तो गुरु महाराज ने कहा - देख लिया न? बस| अब तू कभी समाधि की स्थिति में नहीं जा सकेगा| ताला बंद, चाबी मेरे पास| अब ताला एक वार ही खुलेगा - जब तू जानेवाला होगा| फिर तू चला जायेगा, लौटेगा नहीं| महासमाधि होगी|
विवेकानंद जी चिंतनशील थे| वह सोचने लगे कि गुरु जी ने देकर क्यों छीना? क्या मंशा है उनकी? क्या चाहते हैं? विना कहे ही क्या कहा उन्होंने? क्या उपदेश दिया? उनके लिए तो शिष्य को समाधि दिलाना और बच्चे को अमरुद दिलाना दोनों बराबर हैं, फिर यह ताले-चाबी की बात क्यों? क्या समाधि से भी बड़ी कोई चीज़ है जो मुझे देना चाहते हैं| क्या समाधि खिलौना है और वह नहीं चाहते कि मैं खिलौने के पीछे पागल होकर अपने उद्देश्य को भूल जाऊँ? क्या चाहते हैं वह? क्या करवाना चाहते हैं मुझसे? फिर अंतकाल में महासमाधि क्यों? क्या वह चाहते हैं कि मैं जाने के पहले यह समझ लूँ कि जो किया वह भी खेल था, जीना खेल था, करना खेल था, अब जाना भी खेल है? चलो, वाहे गुरू की फ़तह| उन्हीं की चले, जैसी उनकी मर्जी|
विवेकानंद जी पढ़े-लिखे व्यक्ति थे| उनकी गहरी पैठ थी भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में| आश्चर्यजनक याददाश्त और धारणाशक्ति थी उनकी| मन-ही-मन सारा पढ़ा शास्त्र खँगालने लगे| श्री रामकृष्ण परमहंस और विवकानंद जी में यह बहुत बड़ा अंतर था| श्री परमहंस का चित्त/मन सब्लिमेटरी था - वह एक दुनियाँ से दूसरी दुनियाँ में फांद कर चले जाते थे विदाउट गोइंग थ्रू अ प्रॉपर चैनल, पलक झपकते ग़ायब| विवकानंद जी रास्ते-रास्ते जाने वाले थे, क्रमिक ढंग से, लेक़िन बहुत तेज़ी से| सो, वह चले रास्ता पकड़ कर|
शास्त्रों को खँगाला तो हर जग़ह एक ही निष्कर्ष| पूरब में भी, पश्चिम में भी| जीवन का उद्देश्य है समाज का कल्याण, समाज का उत्थान, मानवीय मूल्यों की स्थापना, हृदय-हृदय में आलोक और शुभ-चिंतन, आईने सा साफ़ मन, फूलों का समाज, बच्चों की किलकारियों से भरा समाज, मां की ममता और बहन-बेटी के प्रेम से लबालब भरे नारी-हृदय, पिता और भाई के स्नेह से भरे पुरुष हृदय| भूख नहीं, बीमारी नहीं, चिंता नहीं, भय नहीं, ग़ुलामी नहीं| कर्म का यही अर्थ, धर्म का यही अर्थ, सत्य का यही अर्थ, तप का यही अर्थ, नैतिकता का यही अर्थ, जीवन का यही अर्थ, मृत्यु का यही अर्थ| अपनी व्यक्तिगत मुक्ति, और समाधि में उलझने का अपने-आप में कोई अर्थ नहीं है| अगर यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि समाज के लिए नहीं, वरन केवल अपने लिए हैं तो वे खिलौने हैं, बच्चों के लिए हैं|
विवेकानंद जी चिंतन में डूबे खड़े थे, कि श्री परमहंस वहाँ आ गए| हँसते हुए बोले - अब तो समझ गए? पर छूछे समझने से क्या होगा? करो, करना शुरू करो|
इस आदेश पर विवेकानंद जी ने सारी जिंदगी डाल दी|
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