गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

बिहार के आर्थिक विकास की समस्या - एकअज़नबी दृष्टिकोण


बिहार के आर्थिक हालात अच्छे नहीं हैं| इसका प्रधान कारण है पूँजी का अभाव| वैसे इसकी स्थिति प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों के दृष्टिकोण से भी अच्छी नहीं है|

पूँजी तीन तरह की होती है| पहली तरह की पूँजी है स्थूल वस्तुगत पूँजी जिसमें औज़ार, मशीनरी, किताबें वग़ैरह आते हैं| यह पूँजी अनाधिदैहिक (exosomatic - external to human physique) होती है| लेक़िन इसके उपयोग के लिए प्रशिक्षण, ज्ञान, और कुशलता चाहिए| यह प्रशिक्षण और कुशलता दूसरी तरह की पूँजी है| यह पूँजी आधिदैहिक (endosomatic) होती है और व्यक्ति में रहती है|
तीसरी तरह की पूँजी संस्थागत (Institutional) है| इसका स्वभाव सामाजिक होता है| संस्थाओं के दो आयाम हैं, मूर्त और अमूर्त| अमूर्त संस्था का निवास मन में होता है और वे रुझानों, आदतों व व्यवहार में परिलक्षित होती हैं| उदाहरण के लिए अच्छी शिक्षा की चाह अमूर्त है और स्कूल, कॉलेज वग़ैरह उसका मूर्त रूप है| न्याय-व्यवस्था अमूर्त है जिसका मूर्त रूप न्यायालय और उसके कार्यकारी हैं| विनिमय की तत्परता, साख, सहयोग की भावना, मानवीय संबंधों के जाल इत्यादि अमूर्त हैं पर ये बाज़ार, बैंक, आपसी व्यवहारों आदि में मूर्त रूप लेते हैं| ये पूँजियाँ सतत प्रयास से निर्मित और संचित होती हैं और ये उपेक्षित होने से या दुष्प्रयोग से क्षरित हो जाती हैं|
बिहार की अर्थव्यवस्था और समाज ने इन पूँजियों को बनाने और संचित करने के प्रयास में ढील दी है| इतना ही नहीं, इनके क्षरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया है| इसकी संस्थागत पूँजी लचर है क्योंकि उसकी आत्मा (अमूर्त संस्थागत पूँजी) विकल है| इसके ज्ञान, कुशलता, और प्रशिक्षण अनुत्पादक है| इसके मशीन पुराने (obsolete), अर्धप्रयुक्त (underutilized) और कार्यविरत (dysfunctional) हैं| साख, सहयोग और विकासशील चिंतन की जग़ह धोख़ा, अविश्वास और विनाश की भावनाएँ प्रबल हैं|
बिहार की जनता और बिहार के नेताओं ने अपने निजी, अदूरदर्शी और स्वार्थपूर्ण कारणों से पूँजी का सतत विनाश किया है| स्कूल-कॉलेज हैं लेक़िन पढ़ाई नदारद| पुलिस और न्याय व्यवस्था है लेक़िन इनपर भरोसा नहीं किया जा सकता| सड़कें हैं लेक़िन यातायात धीमा और भरोसे का नहीं है| अधिकारीगण हैं लेक़िन आप उनसे बहुत आशा नहीं कर सकते|
परिदृश्य निराशाजनक है, लेक़िन इसमें सुधार केवल नवजागरण से ही संभव है| हर देश का इतिहास यही बतलाता है कि बुद्धिजीवी वर्ग नवजागरण के पुरोधा रहे हैं| किन्तु आज के बिहार की विडंबना यही है कि बुद्धिजीवियों की रुचि स्वार्थसाधन और अवसरवादिता में उलझी हुई है| जो गरुड़ बनकर नागपाश को काट सकते वे गिद्ध बनकर बन्दी के मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं या उसे जीते जी नोच खाने को उतारू हैं|

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