गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

बाह्य और आभ्यांतरिक दिशाएँ

बाह्य (बाहरी) दस दिशाएँ हैं - (१) पूर्व, (२) पश्चिम (३) उत्तर, (४) दक्षिण, (५) ईशान (पूर्वोत्तर), (६) अग्नि (पूर्व-दक्षिण ), (७) नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम), (८) वायव्य (उत्तर-पश्चिम), (९) उर्ध्व (ऊपर), और (१०) अधः (नीचे)|
इन दिशाओं का आध्यात्मिक पहलू भी है| आंतरिक (मन की) दस दिशाएँ (रुझान और चिंतन की दिशाएँ) हैं - (१) भविष्य की ओर (पूर्व-चिंतन), (२) भूत की ओर (भूत-चिंतन), (३) अलगाव, निवृत्ति-चिंतन, (४) लगाव, प्रवृत्ति-चिंतन, (५) पूर्व-निवृत्ति चिंतन, (६) पूर्व-प्रवृत्ति चिंतन, (७) भूत-प्रवृत्ति चिंतन, (८) भूत-निवृत्ति चिंतन, (९) ऐहिक या लौकिक चिंतन (सांसारिक, दुनियाँदारी), और (१०) बौद्धिक या पारलौकिक चिंतन|
इन दिशाओं में उर्ध्व और अधः के साथ पूर्व, पश्चिम इत्यादि से बने कोणों की गणना नहीं की गयी हैं| अगर इनकी भी गणना की जाये तो छब्बीस (८ x ३ + २) दिशाएँ होंगी| इन पर सत, रज और तम की स्थापना से कुल अठहत्तर (२६ x ३) दिशाएँ होंगी| पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और पाँचों कर्मेन्द्रियों की सत, रज और तम में रुझान के चलते अतिरिक्त तीस दिशाएँ होंगी| इस तरह कुल ७८ + ३० = १०८ दिशाएँ होती हैं|
इन १०८ दिशाओं का विस्तार आंतरिक विश्व या ब्रह्माण्ड है| यह मन, बुद्धि और आत्मा समेत शरीर ही ब्रह्माण्ड या विश्व है| केंद्र में आत्मा है| केंद्र की कोई दिशा नहीं होती, दिशाएँ केंद्र के सापेक्ष होती हैं| इन्हीं दिशाओं में, इसी विश्व में मन के भ्रमण (चरण) को विचार कहते हैं| इन्हीं दिशाओं (आंतरिक विश्व) में चित्त का भ्रमण विकार हैं| चित्त के भ्रमण का निरोध और चित्त का केंद्रीकरण एकाग्रता है जो योगसाधना के लिए आवश्यक है| निरंतर प्रयास से चित्त की उड़ान पर, उसके विकारों और विस्तार पर, नियंत्रण और उसकी परिधि को क्रमशः सीमित करना साधना है| केंद्र में चित्त का विलय महासमाधि है| इस स्थिति में (आंतरिक) विश्व भी केंद्र में विलीन हो जाता है|
आत्मा अपने को चेतन रूप में प्रकट करता है और चेतन बुद्धि का निर्माण करता है| बुद्धि इन्द्रियों का निर्माण करती है और साथ ही, इन्द्रियों के नियमन-नियंत्रण के लिए मन का निर्माण करती है| इन्द्रियों से वाह्य जगत का ज्ञान और तत्सम्बन्धी कार्य अपना-अपना रूप लेते हैं| वाह्य और आंतरिक विश्व के भेद के लिए बुद्धि अहंकार का सृजन करती है| साधना पहले इन्द्रियजन्य विस्तार से निस्तार दिला कर बुद्धि को अहंकार (अपनेपन) पर केंद्रित करती है, फिर अहंकार मन के विलयन के रास्ते बुद्धि में विलीन होता है| इस विलयन से बुद्धि स्थिर हो कर चेतना की तरफ़ मुड़ जाती है| अंतर्मुखी बुद्धि चेतना के दरवाज़े खटखटाती रहती है और उसे यदा-कदा आत्मा की धुंधली झलक मिलती है| इस झलक से आनंद होता है| यह सत (आत्मा), चित (चेतना) और आनंद की त्रयी है| इसके बाद कुछ करना बुद्धि के वश में नहीं है| चेतना और आत्मा के बीच का पर्दा उठ भी सकता है, और नहीं भी| यह आत्मा का निर्णय है| अगर आत्मा पर्दा उठा ले तो बुद्धि और चेतना आत्मा को अनुभव कर सकती हैं, यह (सविकल्पक) समाधि है| विरली स्थिति में आत्मा चेतना और बुद्धि को अपने में समेट लेता है, जिसे महासमाधि (निर्विकल्पक) कहते हैं| इसके बाद चेतना स्वतः लौटती नहीं है| बुद्धि के लौटने का तो प्रश्न ही नहीं उठता| इस समाधि से लौटकर पुनः चेतना, बुद्धि, मन और इन्द्रियों की प्राप्ति केवल आत्मा के वश में है, आत्मा का प्रसाद है, जो साधक की इच्छा से स्वतंत्र है| 

जिस क्रम में आत्मा ने आंतरिक विश्व का या जीव जगत का निर्माण किया है ठीक उससे विपरीत क्रम में चलकर आत्मा को महसूस करना साधना है| साधना रिवर्स इंजीनियरिंग है| विज्ञान भी रिवर्स इंजीनियरिंग है - लेक़िन वाह्य संसार को समझने के लिए कि प्रकृति ने इसे कैसे बनाया है| आध्यात्मिक साधना और विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं| इसीलिए एक अच्छा योगी वैज्ञानिक और अच्छा वैज्ञानिक योगी हो जा सकता है| आत्मा (व्यष्टि) और परमात्मा (समष्टि) के जड़ रूप (प्रकृति) को जानने  की साधना को विज्ञान कहते है और आत्मा (व्यष्टि) और परमात्मा (समष्टि) के चेतन  रूप (पुरुष) को जानने की साधना को योग कहते हैं| अतः विज्ञान और योग दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं और एक ही तरीक़े के द्वारा  स्थूल से सूक्ष्म की ओर, तथा आभास (appearance) से मौलिक सत्य (ultimate reality) की ओर जाते हैं| [अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानां ईश्वरोऽपि सन् |  प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया || गीता 4.6]|  
   
अष्टांग योग (पतंजलि) के आठ सोपान है - यम, नियम, आसन और प्राणायाम शुरू के चार सोपान हैं जिनसे मन और बुद्धि को अंतर्मुखी बनाया जाता है| इसके बाद अंतर्यात्रा शुरू होती है जिसका पहला चरण (शुरू से पाँचवाँ चरण) है बाहरी विषयों से मन को समेटना और केंद्र की तरफ़ मोड़ना, जिसे प्रत्याहार कहते हैं| प्रत्याहार के बाद ही धारणा का अगला चरण संभव है| धारणा पक्की एकाग्रता है| यहाँ तक बहुत साधक पहुँच जाते हैं| लेकिन अगला चरण, ध्यान, दुरूह है| ध्यान पर टिक पाना आसान नहीं है| ध्यान साधक को एक नयी दुनियाँ में लेकर चला जाता है जहाँ प्रकृति के रहस्य खुलते-से प्रतीत होते हैं| एकत्व की अनुभूति यहीं से शुरू हो जाती है, चेतना का प्रकाश चारों तरफ़ फैल जाता है| इस प्रकाश में साधक का अस्तित्व विलीन होने लगता है और अहंकार लुप्तप्राय हो जाता है| योग का आठवाँ और अंतिम चरण है समाधि| समाधि ऐच्छिक नहीं है क्योंकि इसके पहले ही अहंकार लुप्त हो जाता है, बुद्धि की पकड़ छूट जाती है| प्रायः साधक इस चरण में नहीं जा सकते| साधक के प्रयासों में उसे ध्यान तक ले जाने की क्षमता है| प्रयासों से समाधि नहीं हो सकती| समाधि के लिए आत्मा की कृपा चाहिए| जिस पर आत्मा की कृपा होती है उसे सोपानों के रास्ते आने की ज़रूरत नहीं पड़ती, उसे घूमते-फ़िरते समाधि हो जा सकती है|

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