सोमवार, 21 अक्तूबर 2019

खखरी और पोचा

सुजला, सुफला, शस्यश्यामला| पता नहीं, कवि (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, आनंदमठ में) ने सुदूर विगतकाल का वर्णन किया था, या तत्कालीन स्थिति का वर्णन किया था. या वर्णित स्थिति के भविष्य में आने की कामना की थी| एक सौ छत्तीस वर्ष गुज़र गए आनंदमठ के| तब क्या होता था, कौन बतलाये? हाँ, जो कवि ने दर्शाया है वह बंगाल का दुर्भिक्ष काल था, जब लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे थे - सब गाँव छोड़कर यहाँ-वहाँ भाग रहे थे| तो अवश्य ही कवि ने माता के उस रूप की कल्पना की होगी जो बेड़ियों के कटने के बाद होगी, या बेड़ियों के लगने के पहले की होगी| मेरे परदादे का जमाना - बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का जमाना - सुजला, सुफला, शस्यश्यामला धरती - मेरी धरती - मेरी जन्मभूमि - मेरे बाप-दादे-परदादे की जन्मभूमि| वन्दे मातरं|
मैं, बंकिमचंद्र का परपोता, क्या देख रहा हूँ? पृथ्वीमाता के अनगिनत परपोतों, प्रपरपोतों की भीड़ - बेरोज़गार बच्चों की भीड़, ख़ानदान की परंपरा और इज्ज़त को तार-तार करने के लिए हुहुआती भीड़, किसको कहाँ और कैसे लूट लें का मौक़ा ढूंढती भीड़, माता की गरिमा पर कीचड़ उछालने को उत्सुक भीड़, अपनी संस्कृति को लतियाती भीड़, भेड़ियों की भीड़, भेड़ों की भीड़, दलालों की भीड़, कंगालों की भीड़, फटे-हालों की भीड़|
धान के पौधे पला गए| पुआल ही पुआल - दाने नहीं लगे| सारा खाद-पानी बेकार गया| उपजा पर पोचा-पुआल| बुद्धि तो घास चरकर जिन्दा रह सकती है, लेक़िन शरीर क्या करे? बुद्धिमान लोग चारा खा सकते हैं, उन्हें पुआल की जरूरत है, पुआल-पोचा फ़सल बेशकीमती है - जहाँ चाहेँगे लगा देंगे - एक जून का खाना देकर - जय बोलेंगे, प्रदर्शन करेंगे, धरना देंगे, लाठी खायेंगे, टाँग तुड़वा कर घर लौट आयेंगे, इंकलाब करते हुए खेत आयेंगे, ख़ून की खाद दे देंगे| पुआल बड़े काम की चीज़ है - पोचा बड़े काम की चीज़ है| लेकिन आम आदमी तो पुआल खाकर जिन्दा नहीं रह सकता, सब तो नेता नहीं बन सकते|

खखरी - केवल भूसा, दाना नहीं| ओसाओ, फटको तो सब उड़ जायेंगे| हाँ, तब भी काम में आयेंगे - चूल्हे-भाड़ में झोंकने के काम आयेंगे - गाय-गोरू को खिलाने के काम आयेंगे| भारतमाता की औलाद - खखरी| डिग्री भी देते हैं और अनइम्प्लॉयेबल (निकम्मा, रोज़गार के अयोग्य) भी कहेंगे| अस्सी से अधिक प्रतिशत यांत्रिकी-डिग्रीधारी निकम्मे - डोनेशन देकर पढ़े - बाप की ज़मीन बिकवाकर पढ़े| खखरी|
कुछ खखरी अपने को बुद्धिजीवी कहने लगे हैं | थोथा चना बाजे घना| मैंने एक बुद्धिजीवी लौंडे को पूछा कि मार्क्स की क़िताब Das Kapital में Das का क्या अर्थ है? वह झुंझलाकर बोला - मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो अंकल| अरे, यह भी कोई प्रश्न है? दास का मतलब है ग़ुलाम| कैपिटल की इस्पेलिंग ग़लत लिखी है तुमने, Capital होती है| आप क्या समझेंगे, आप सब साम्राज्यवादी रहे हैं, पूँजीवाद के समर्थक| तभी तो Calcutta से Kolkata बनाया गया| Das Kapital का मतलब है सर्बोहारा - जिन्हें पूँजीवादियों ने गुलाम - दास - बनाया है|
खखरी, पोचा| दादा बंकिमचंद्र जी, आपके परपोते और उनकी औलाद खर-पतवार हैं|

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