गुरुवार, 3 अक्तूबर 2019

बैकुंठी काका (संस्मरणात्मक लेख)

क्या आपने ब्रह्मकमल के फूल देखे हैं? ब्रह्मकमल गमलों में लगाया जाने लायक़ कैक्टस (?) की जाति का लगभग डेढ़ फुट ऊँचा, मोटे दल के पत्तों वाला, छोटा-सा पौधा होता है जो ऊँची, पहाड़ी, ठंढी जगहों में पाया जाता है| इसमें,साल में एक वार, एक या दो फूल आते हैं; बड़े-बड़े, पत्ते को चोंच से पकड़ कर जैसे हंस लटक रहे हों, उजले, निर्मल, सात्विकता के रूप, पर एक दिन ही टिकने वाले | जब मैं शिलाँग में रहता था, मेरे बाग में थे और जब फूलते थे तब मुझे बैकुंठी काका की याद दिला देते थे| ब्रह्मकमल के फूल और बैकुंठी काका के बीच क्या रिश्ता है, मैं समझ नहीं पाया| आदमी का अचेतन कैसे-कैसे सम्बन्ध क्यों जोड़ता है इसे समझना मेरी क्षमता के बाहर है|
मेरे गाँव के घर, जिसमें मैं जन्मा और पला-बढ़ा, के कोई दो सौ फुट पूरब एक बीरान-सी, उजड़ी-उजड़ी ठाकुरबाड़ी है जहाँ ठाकुर जी होते हैं, और उनके अगल-बग़ल होती हैं कुछ गाय-भैसें, खूँटों से जुड़ी, लीदती और पागुर करती, कुछ बकरियाँ खुली, घास टूंगती, कुछ बकरियाँ खूटों से बँधी, गोमूत्र के गंध से बोझिल हवा, कुछ बदहाल बच्चे, इधर-उधर उछलते-कूदते, और कुछ फूल के पौधे जो जब तक हैं तब तक हैं|
लेक़िन यह ठाकुरबाड़ी हमेशा ऐसी ही नहीं हुआ करती थी| एक जमाना वह भी था जब इस ठाकुरबाड़ी का चप्पा-चप्पा फूलों के पौधों से भरा हुआ होता था और पौधे फूलों या लस हरी पत्तियों से भरे होते थे| कितनी तरह के फूल और कितनी तरह के पौधे| फूलों से लदा कचनार का पेड़| इसी पेड़ को देखकर मैंने कालिदास के 'चित्तं विदारयति कस्य न कोविदारः' की अनुभूति की थी (मैं बचपन में संस्कृत पढ़ता था और ठाकुरबाड़ी में खेलता था)| कोने कोने में वैजयंती (कैन्ना लिली) के मीठी सुगंध और चटक रंगो के फूलों को सर पर लिए पौधे| वैजयंती ने मुझे यहीं अपने प्रेमपाश में बाँधा था| चिकने-चिकने पारदर्शी-से हरे फलों से लदे आँवले का पेड़ और 'खेलना पर तोड़-फोड़ नहीं करना, बेटे' की प्रेम और आदेश से भरी बैकुंठी काका की आवाज़|
बैकुंठी काका इस ठाकुरबाड़ी के अकेले विधाता थे| वही न जाने कहाँ-कहाँ से फूलों के पौधों को लाते थे, उन्हें लगाते थे, उनकी देखभाल करते थे, घास साफ़ करते थे| मंडप बनाने से लेकर उसमें कीर्तन करवाने तक की व्यवस्था करते थे| हालाँकि वह विवाहित थे, लेक़िन उनकी सुबह ठाकुरबाड़ी में होती थी और शाम भी| दोपहर में खाना खाने घर जाते रहे होंगे, हम बच्चों को क्या मालूम|
बैकुंठी काका गोरे, लम्बे, कसरती बदन वाले, आकर्षक नाक-नक्श वाले हँसमुख और मिलनसार व्यक्ति थे| सबेरे-शाम मुद्गर फेरते थे और दंड-बैठक करते थे| मैंने मुद्गर पहली वार ठाकुरबाड़ी में ही देखा था| हम बच्चों को वह पिता-सा प्यार देते थे, पर तोड़-फोड़ नहीं करने की हिदायत भी देते रहते थे|
हम कुछ बड़े हुए और इस बात को महसूस करने लगे कि बैकुंठी काका ने ठाकुरबाड़ी में रहना छोड़ दिया और उसकी व्यवस्था से अपने हाथ खींच लिए| क्या हुआ, क्यों हुआ, कब हुआ, यह सब जानना-समझना हम बच्चों के मतलब की बातें नहीं थीं, लेक़िन जो मतलब की बात थी वह यह थी कि पौधों की जड़ों से घास साफ़ नहीं होती थी और 'तोड़-फोड़ मत करना' कहने वाला कोई नहीं था| फिर उजले गुड़हल और लाल कनेर की डालें काटकर मैं ले गया, वैजयंती के बच्चे पौधे उखाड़कर मैं ले गया, जेबें भर कर आँवले मैंने तोड़े, कचनार की फूल-लदी डालियाँ मैंने तोड़ी, कामिनी के सारे फूल मैंने चुन लिए, चंपा के कच्चे-पके फूलों पर आफ़त मैंने ढायी, बकरियों को ढेले मैंने मारे|
फिर मैं बड़ा हो गया, पढ़-लिख कर बाहर चला गया, नौकरी करते हुए सेवानिवृत्त हो गया| अब लौटा हूँ तो बैकुंठी काका बहुत बूढ़े हो चुके हैं, पर स्वस्थ हैं| गाँव के ही हैं| मिलने गया तो हँस कर स्नेह के साथ मिले, मानो बेटा परदेश से घर आया हो| वह सदा की तरह प्रसन्न दिखे| मालूम नहीं उनके मन में और क्या हुआ लेक़िन मेरे मन के कानों में कोई गा गया - मग़र मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो कागज़ की कश्ती, वो बारिस का पानी| और आंखों के सामने ब्रह्मकमल के फूल आ गए, शिलाँग वाले ब्रह्मकमल के फूल|


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