भारतीय नैतिकता, लज्जा-संस्कृति और Super-Ego: एक मनो-सांस्कृतिक विवेचना
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भारतीय समाज में नैतिकता का जो स्वरूप उभरता है, वह सामान्यतः उपदेशों, प्रतीकवाद और सामूहिक अभिनय के रूप में सामने आता है। यह नैतिकता सार्वभौमिक न्याय-बोध या व्यक्तिगत आत्मनिरीक्षण पर आधारित न होकर सामाजिक दृष्टि, छवि और परंपरा की रक्षा में निहित रहती है। इसे समझने के लिए हमें सांस्कृतिक मनोविज्ञान, विशेषतः Freudian model के इगो (Ego) और सुपर-इगो (Super-Ego) के ढांचे के साथ-साथ लज्जा (shame) और अपराधबोध (guilt) के नैतिक तंत्रों की तुलना करनी होगी। यह लेख एक समग्र मनो-सांस्कृतिक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसमें भारतीय नैतिक संरचना, जनसामान्य की सामाजिक निष्क्रियता, और सुधार की संभावनाओं पर विचार किया गया है।
I. लज्जा-संस्कृति बनाम अपराधबोध-संस्कृति
गिल्ट-संस्कृति (Guilt Culture) वह नैतिक ढांचा है जिसमें व्यक्ति आंतरिक आत्मा (inner conscience) के माध्यम से अपने कार्यों को मूल्यांकित करता है। अपराधबोध उत्पन्न होता है जब व्यक्ति स्वयं को नैतिक नियमों का उल्लंघनकर्ता मानता है — भले ही कोई उसे देख न रहा हो। यहाँ Super-Ego व्यक्ति के भीतर नैतिक आदर्शों का सतत प्रहरी बनकर कार्य करता है।
शेम-संस्कृति (Shame Culture) में नैतिकता बाह्य सामाजिक दृष्टि की प्रतिक्रिया बन जाती है। जब समाज या समूह की स्वीकृति को खतरा होता है, तभी व्यक्ति को "लज्जा" होती है। लज्जा, आत्मग्लानि नहीं, बल्कि सामाजिक अपमान के भय की उपज होती है। Super-Ego यहाँ स्वतंत्र नैतिक आदर्श न होकर सामूहिक अपेक्षाओं का समुच्चय होता है।
भारतीय समाज में प्राथमिक रूप से लज्जा-संस्कृति हावी है। अतः नैतिकता का मूल उद्देश्य होता है — सामाजिक छवि की रक्षा, न कि आंतरिक आत्मशुद्धि।
II. भारतीय Super-Ego की संरचना: एक सांस्कृतिक विशेषता
भारतीय समाज में Super-Ego का निर्माण पारिवारिक आज्ञाकारिता, जाति और समूह-आधारित मान्यता, धार्मिक रीति-रिवाजों के ज़रिये होता है। यह नैतिकता को नैतिक विवेक (moral conscience) नहीं, बल्कि सामाजिक स्वीकृति और परंपरागत कर्तव्यों की पूर्ति का माध्यम बनाता है।
यह Super-Ego व्यक्ति के अंदर अपराधबोध नहीं, बल्कि सामूहिक लज्जा का भय पैदा करता है। फलस्वरूप अपराध अकेले में अपराध नहीं होता जब तक कोई देख न ले; नैतिकता सार्वजनिक मंच की भूमिका बन जाती है; पाप का शमन आत्मसुधार नहीं, धार्मिक अनुष्ठानों और पुण्य-प्रदर्शनों से होता है।
III. इगो का सामंजस्य और सामाजिक अभिनय
Ego का कार्य Super-Ego की मांगों और बाह्य यथार्थ के बीच संतुलन बनाना होता है। भारतीय Ego को दो विपरीत मांगों का सामना करना पड़ता है: सामाजिक पहचान और सम्मान की रक्षा, और निजी इच्छा, स्वार्थ व शिथिलता।
यह द्वंद्व अक्सर 'compartmentalization' द्वारा सुलझाया जाता है — सार्वजनिक जीवन में आदर्श प्रदर्शन और निजी जीवन में मूल्यहीनता। फलतः हम देखते हैं: सार्वजनिक उपदेश और निजी अनाचार का सह-अस्तित्व; न्याय की अपेक्षा दूसरों से, पर स्वयं के लिए अपवाद की आशा; अपने समूह के अपराधों के लिए माफी और दूसरों के लिए कठोर नैतिक मापदंड।
IV. नैतिक निष्क्रियता और सार्वजनिक अन्याय के प्रति सहिष्णुता
इस लज्जा-संस्कृति में जब अन्याय सामूहिक हो, तो व्यक्ति की नैतिकता निष्क्रिय हो जाती है। जब पीड़ित समूह बड़ा हो, तो Super-Ego का दबाव बंट जाता है।
यह सांस्कृतिक मनोविज्ञान हमें समझने में मदद करता है कि क्यों लोग निजी अन्याय पर उग्र हो जाते हैं, पर सार्वजनिक भ्रष्टाचार पर मौन रहते हैं; क्यों नैतिक चेतना निजी लाभ-हानि से निर्देशित होती है, न कि सार्वभौमिक न्याय-बोध से।
यह स्थिति उस आत्मनिष्ठ Super-Ego की अनुपस्थिति का लक्षण है जो पश्चिमी 'गिल्ट-संस्कृति' में अपेक्षाकृत विकसित है।
V. धार्मिकता और नैतिक बाइपासिंग
भारतीय धार्मिक परंपरा में पाप से मुक्ति का मार्ग आत्मचिंतन नहीं, बल्कि कर्मकांड, दान, संतों की कृपा आदि से प्राप्त होता है। इससे Super-Ego का दबाव निरस्त हो जाता है। नैतिक अपराध का निष्कासन प्रतीकात्मक माध्यमों से किया जाता है — जैसे गंगा-स्नान, पूजा, व्रत आदि। कुछ शास्त्र और उपनिषद तो पाठ मात्र से पाप मुक्ति प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए: "योऽधीते नित्यं सर्वान्कामानवाप्नोति।
स ब्रह्महत्यायाः पूतो भवति। सुरापानात् पूतो भवति। स्वर्णस्तेयात्पूतो भवति। गुरुतल्पगमनात् पूतो भवति। अगम्यागमनात् पूतो भवति।
अभक्ष्यभक्षात् पूतो भवति। स उपपातक महापातकेभ्यः पूतोभवति।"
(नारायणकटतापिनीय उपनिषद)। कितना सरल है पापों से मुक्ति!
इससे आत्मग्लानि और आत्मसुधार की प्रक्रिया बाधित होती है। धार्मिकता नैतिकता का स्थान ले लेती है — पर केवल प्रतीकात्मक रूप में।
VI. शिक्षा, सुधार और Super-Ego का पुनर्निर्माण
यदि भारत को एक प्रामाणिक नैतिक समाज बनना है, तो केवल धार्मिक या परंपरागत शिक्षाओं से यह संभव नहीं। हमें चाहिए:
1. स्वतंत्र नैतिक विवेक पर आधारित शिक्षा;
2. सत्य की खोज को सामाजिक मर्यादा से ऊपर रखने वाली संस्कृति;
3. आत्मालोचना और आत्म-संवाद की प्रक्रिया को बचपन से बढ़ावा देने वाला परिवेश;
4. न्याय और उत्तरदायित्व की सार्वभौमिक भावना — जो अपने और पराए में भेद न करे।
निष्कर्षतः, भारतीय समाज की नैतिकता लज्जा-संस्कृति से संचालित होती है जिसमें Super-Ego सामाजिक पहचान की रक्षा का उपकरण है, न कि नैतिक आत्मा का दर्पण। इससे पाखंड, पक्षपात और नैतिक अभिनय को वैधता मिलती है।जब तक भारतीय मानस में उत्तरदायित्वपूर्ण अपराधबोध (responsible guilt) और स्वतंत्र Super-Ego का विकास नहीं होता, तब तक नैतिकता केवल छवि-रक्षण का साधन बनी रहेगी। सुधार का मार्ग वहीं से आरंभ होता है जहाँ व्यक्ति स्वयं को प्रश्नों के कटघरे में खड़ा करता है — न कि केवल दूसरों को।
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