एक्सक्रिटा सभ्यता: भारत में संस्कृति, प्रौद्योगिकी और विचारों के विश्वविद्यालय की त्रासदी
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हर जीवन प्रणाली - जैविक हो या सांस्कृतिक - स्वयं के भीतर एक अपशिष्ट-निर्माण तंत्र रचना है। यह एक्सक्रिटा केवल शारीरिक नहीं, असमानता और सांस्कृतिक भी होता है। कोई भी प्रणाली यदि आपके अपने उत्पादों की एक्सक्रीटा को न पहचान सके, न अलग कर सके, न छोड़ सके - तो वह जड़, नपुंसक और अंततः आत्म-घाती हो जाती है।
भारत की एस्टीमेट सोसायटी इस बीमारी से प्रभावित है। हम पुरातन के मोह और पश्चिम के परजीविता के द्वंद्व में घूमे हुए हैं, जहां हम न तो अपना भिखारी पहचान पा रहे हैं, न बाहर का भिखारी पहचान पा रहे हैं। हमारी सोच में बेकार-बोध की कमी है। इस पूरे ढाँचे में हमारी संस्कृति, हमारी प्रौद्योगिकी नीति, और हमारी समानताएँ - सब एक सांस्कृतिक जंकयार्ड में बदल गए हैं।
*अतीत का रहस्य: बर्गर और प्राचीन का अंतर
भारतीय समाज में एक विशेष प्रवृत्ति का दृष्टिकोण है - अतीत का व्यामोह। यह उस स्मृति-विन्यास का हिस्सा नहीं है जो परंपरा जीवित है, बल्कि वह अंधा मोह है जो कि विरासत को समझा जाता है। टूटी-फूटी मूर्तियाँ, खंडहर मंदिर, अप्रासंगिक रीति-रिवाज, अप्रचलित सामाजिक संरचनाएँ - इन साक्षियों के नाम पर हम संरक्षित करते हैं, लेकिन कोई भी अर्थपूर्ण पुनर्संरचना या आधुनिकीकरण नहीं करते हैं।
सांस्कृतिक संस्थाएँ - संग्रहालय, अकादमियाँ, विश्वविद्यालय - इन सबमें यह व्यामोह व्याप्ति है। वे विचारों और प्रतीकों के अवशेषों को 'स्मृति' और 'गौरव' के नाम पर रखते हैं। बर्गर और एंटीक के बीच का अंतर गायब हो गया है। वस्त्र, हमारी संस्कृति सांस्कृतिक परंपरा के बजाय एक स्थिर, दुर्गंधयुक्त संस्कृति-वस्त्रालय बन गया है - जहां वस्त्र नहीं, उनके चिथड़े हैं।
* जुगाड़-आधारित प्रौद्योगिकी विकास: लेफ्टओवर टेक्नोलॉजी की त्रासदी
भारतीय विकास की एक श्रृंखलाबद्ध समस्या है - प्रौद्योगिकी का जुगाड़ू मुद्दा। जब भी कोई तकनीक पश्चिम में पुरानी होती है, जब वहां उसके मूल्यह्रास का भुगतान होता है, तब हम उसे 'नई' मांगते हैं भारत में। यह स्पिलओवर इफेक्ट भारत के लिए 'आयातित विकास' का आधार बन गया है।
लेकिन आप अपने रोबोट का उपयोग नहीं कर सकते। उन्हें मानव अध्ययन करना चाहिए - तकनीकी सिद्धांत, कार्य संस्कृति, शिक्षण की नीतियाँ, और उद्देश्य बोध। लेकिन भारत इस दिशा में बेहद खोखला है। हमारे पास तकनीकें तो हैं, पर आदमी नहीं हैं। जुगाड़ से केवल कुछ ही जानवर हैं, सभी नहीं, और समाज तो बेकार नहीं।
नतीजा यह होता है कि भारत जंक टेक्नोलॉजी का संग्रहालय बन जाता है - उन संग्रहालयों का संग्रहालय जो चला नहीं, और उन संग्रहालयों का संग्रहालय जो समझी नहीं जाता।
* आइडिया का जुगाड़खाना: शिक्षा नीति और प्रतिभा परजीविता
(के) भारतीय शिक्षा नीति: आउटडेटेड फ़्रेमवर्क का पुनर्चक्रण
हमारे फर्मों और वैज्ञानिकों में यूरो-अमेरिकी विचार पढ़े जाते हैं, जिनमें वहां के समाजों ने 30-40 साल पहले त्याग दिया था। पोस्टमॉडर्निज़्म, डेरिडा, फ़्रायड, मार्क्स, हबर्मस, किन्स, सैमुएलसन - इन सभी अध्ययनों में आलोचनात्मक रूप से क्रूरता से भुगतान किया जाता है, यहां उन्हें धर्मग्रंथों की तरह सिखाया जाता है।
वहीं भारतीय ज्ञान परंपरा - न्याय, सांख्य, योग, मीमांसा, लोक-कथाएं, ईश्वरीय आख्यान - या तो लुप्त हो गए हैं या उन्हें रूढ़िवादी कैदी के रूप में दिखाया गया है। भारतीय शिक्षा नीति में न तो पश्चिम की आधुनिकता का विवेक है, न भारत की परंपरा की आत्मा।
(ख) सोशल मीडिया समानता: ज्ञान की सार्थकता
आज के सोशल मीडिया-अभिनेता प्रतिमान वर्ग में दर्शन की गहराई नहीं, प्रवृत्ति की सतही व्याकुलता है। एक विचार वायरल होता है, फिर सुगड़ा जाता है। बिना संदर्भ, बिना समीक्षा, बिना बहुमुखी - एकमात्र उत्कृष्ट टिक-टोक उभरता रहता है।
ट्विटर व्हाट्सएप, वैशाली रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स - इन माध्यमों ने विचारधारा के समय और स्थान को छीन लिया है। वे सुझाव देते हैं कि उपभोक्ता-सामग्री लीक हैं, न कि रुचि अनुदेशन का साधन। और इसी तरह के नागालैंड से हमारा नव-बौद्धिक वर्ग पठ रहा है - ज्ञान नहीं, राय का साम्राज्य।
*सांस्कृतिक आत्मशुद्धि की आवश्यकता: संविधानीकरण द एक्सक्रीटा
एक स्वस्थ्य संगति ऐसी होती है जो यह नियुक्त हो जाती है। आत्म-शुद्धि, आत्म-आलोचना, और परंपरा की समयोचित संधियों के बिना कोई भी संस्कृति जीवित नहीं रहती। यह आवश्यक है -
बर्गर और विरासत में भेद करने का विवेक
पुरातनता के मोह से बाहर की विश्वसनीयता
विदेशी दार्शनिकों को विश्वास दिलाने की अगली कड़ी उनकी जाँच-पड़ताल है
मूल्यहिन होलैण्ड टेक्नोलॉजी को केवल 'नए' संतों की वकालत का त्याग करना चाहिए
शिक्षा को बढ़ावा स्वराज की दिशा में बदलना
हमें सांस्कृतिक अपशिष्ट-बोध (सांस्कृतिक मल-मूत्र चेतना) की आवश्यकता है - ऐसा विवेक जो जगाए समझ सके, और वास्तविक वस्तुओं को संरक्षित कर सके। इसके बिना हम केवल मैगज़ीन के निर्माता, निर्माता नहीं हैं।
*समय की पुकार : आत्म-परिशोधन का प्रश्न
भारत एक प्राचीन सभ्यता है, पर वह बर्गरगृह नहीं बन सकता। उसे स्मृति और टुकड़े में भेद करना सीखना होगा। विचार, संस्कृति, प्रौद्योगिकी - इन सभी क्षेत्रों में अपशिष्टों का निर्माण ही आवश्यक है कि नव-निर्माण किया जाए।
यदि हम इस आत्मशुद्धि की प्रक्रिया को विश्वसनीयता से नहीं अपनाते, तो भारत एक ऐसा स्थान बन जाता है जहाँ विश्व की प्रतिभा और तकनीकी का समावेश होता है - और हम उसे विकास, परंपरा और आधुनिकता के नाम पर पूजते हैं।
* नीतिगत सुझाव: जॉगर से सर्जना की ओर
यदि भारत को 'एक्सक्रिटा सभ्यता' से लाभ होता है, तो केवल आलोचनात्मक समर्थन नहीं - हमें सुरक्षा और पुनर्संरचना की योजना बनानी होगी। यह प्रक्रिया शिक्षा, तकनीकी नीति, और उत्कृष्ट जीवन - तीन स्तर पर आवश्यक है।
(के) शिक्षा-नीति: पिछड़ा स्वराज की पुनर्स्थापना
1. आउटडेटेड वेस्टर्न सिलेबस का तंत्र समीक्षा:
एक स्वतंत्र बौद्धिक संस्था (शैक्षणिक प्रासंगिकता आयोग) के लिए हर विषय के वैज्ञानिक बने की समीक्षा और कलानुकूलता सुनिश्चित करने के लिए, जो यह आकलन करता है कि कौन-से विचार अब अप्रासंगिक हो चुके हैं और कौन-से आज भी बोधगम्य हैं।
2. भारतीय ज्ञान परंपरा का मौलिक समावेश:
वेदांत, न्याय, मीमांसा, लोक-दर्शन, बौद्ध और जैन तर्कशास्त्र-प्रणाली सभी आधुनिक विद्याओं जैसे लॉजिक, एपिस्टेमोलॉजी, मनोविज्ञान और सौंदर्यशास्त्र के साथ जुड़े हुए हैं - केवल 'विरासत पाठ्यक्रम' के रूप में नहीं, बल्कि वैध विद्वान विकल्प के रूप में।
3. बौद्धिक आत्मनिर्भरता को बढ़ावा:
फ़ोर्ट्स और आर्कषक आर्केस्ट्रा को बढ़ावा दिया जाए कि वे अपनी परिकल्पनाएँ गढ़ें, न कि केवल पश्चिमी सिद्धांतों की खोज करें। इसके लिए इंडिजिनस स्कॉलरशिप फंडिंग, डायमेंशन, और स्थानीय इंडिपेंडेंट को बढ़ावा दिया जाए।
(ख) तकनीकी नीति: उद्देश्य नहीं, निर्माण की ओर
1. स्पिलओवर टेक्नोलॉजी पर रोक:
सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र को केवल 'अन्य देशों से छोड़ी गई प्रौद्योगिकी' की प्रवृत्ति से हटना होगा। इसके लिए उपयोग-मूल्य आधारित तकनीकी आकलन नीति लाई जाए।
2. मानव संसाधन का दीर्घकालीन निर्माण:
आईटीआई, पॉलिटेक्निक, और पॉलिटेक्निक विश्वविद्यालय जैसा को केवल तकनीकी कौशल नहीं, बल्कि तकनीकी विवेकाधिकार वाली पाठ्यचर्या विकसित करनी चाहिए।
3. स्थानीय नवीन संस्कृति को बढ़ावा:
बाहरी विज्ञान से नवाचारों के भ्रम को दूर करने के लिए, स्थानीय वैज्ञानिकों के लिए दीर्घकालिक समाधानों को खोजने वाली नवाचार-नीतियां बनाई गईं - जैसे कि कृषि महाविद्यालय, ग्रामीण स्वास्थ्य विज्ञान, या कलाकारों के डिजिटलीकरण में।
(जी) अनमोल संस्कृति और सामाजिक मीडिया: गहराई की वापसी
1. सार्वजनिक विशिष्टता का पुनर्पाठ:
टी.वी. डिबेट और सोशल मीडिया की बहसदार समानता से इतर, शास्त्रार्थ की परंपरा को पुनर्जीवित किया जाए - जहां विषय की गहराई, शास्त्रीय विवेक, और बहस का प्रतिबंध हो। विचारधारा को स्वतंत्रता दिवस पर प्रकाशित करने की तिथि आज अनार्कस और बहुधा गैली-व्यास में बदल दी गई है। यह संविधान की मूल भावना का शिलहरण है। इसपर नियंत्रण आवश्यक है। सत्य है कि स्वतंत्रता का आपके पास कोई मूल्य नहीं है; उसका मूल्य उसकी सामाजिक और मानवीय उपयोगिता से स्पष्ट होता है।
2. डिजिटल मंच पर दीर्घप्रारूप (longform) ज्ञान:
सरकार और निजी संस्थान दीर्घवृत्त दस्तावेज़, अविश्वास, विध्वंसक, और ऑडियो-वीडियो व्याख्यान की एक श्रृंखला विकसित करें - जहां तत्काल राय नहीं, प्रसिद्ध लोगों से परे विचार मिल।
3. सोशल मीडिया पर प्रतिष्ठा समीक्षा संस्कृति का विकास:
हर वायरल विचार को 'प्रवृत्ति' के बजाय उस पर समीक्षा टिप्पणियाँ-टिप्पणी (मेटा-कमेंटरी) रिवाज की परंपरा विकसित हो गई - जो कि विचारधारा लंबे समय तक टिक न सारथी।
*घर नहीं, टॉयलेट बनने की जरूरत
भारत को यह तय करना है कि वह क्या चाहता है - सभ्यताओं का खाना या विचार और शिक्षण की तलाश।
किसी भी सभ्यता की महानता केवल उसकी पुरातनता में नहीं है, बल्कि उसकी नवीनता-संवेदनशीलता (अप्रचलन के प्रति संवेदनशीलता) में है। वह जितनी सहजता से पुरानी को विदा कर सकती है, उतनी ही सहजता से नई को स्थापित कर सकती है।
हमें अपनी असमानता, तकनीकी और सांस्कृतिक संस्कृति की पहचान करनी होगी - अपमान से नहीं, बल्कि स्वास्थ्य और संस्कृति की दृष्टि से।
केवल वही समाज जीवित रहते हैं जो जानते हैं कि क्या भूलते हैं, और क्या याद रखते हैं।
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