ईमानदारी और नैतिक पलायन: लाल बहादुर शास्त्री की राजनीतिक भूमिका की एक पुनः समीक्षा
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भारतीय जनमानस में लाल बहादुर शास्त्री एक ऐसे नेता के रूप में स्थापित हैं जो सादगी, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के प्रतीक माने जाते हैं। उनके जीवन के अनेक प्रसंग, जैसे ट्रेन में अपने डब्बे का कूलर बंद करवाना, या एक रेल दुर्घटना के बाद त्यागपत्र देना, उन्हें नैतिकता के ऊँचे मानदंड पर स्थापित करते हैं। किंतु जब इस आभामंडल को एक गंभीर ऐतिहासिक समीक्षा की दृष्टि से देखा जाता है, तब कुछ असहज प्रश्न उठते हैं: क्या शास्त्री जी की यह निजी ईमानदारी उस युग की सार्वजनिक नीतिगत अन्याय से संघर्ष करती दिखाई देती है? क्या उन्होंने उस सत्ता-संरचना में रहकर नैतिक सहयोग किया जो अक्सर नैतिकता-विरोधी नीतियों को जन्म देती रही?
* ईमानदारी: निजी गुण या सार्वजनिक दायित्व?
भारतीय परंपरा में धर्म केवल निजी सदाचार नहीं, बल्कि सार्वजनिक उत्तरदायित्व का भी नाम है। रामायण से लेकर महाभारत तक, यह स्पष्ट है कि राजा या मंत्री का धर्म केवल निजी शुचिता नहीं, बल्कि जनहित में न्याय का पक्ष लेना है।
शास्त्री जी की निजी ईमानदारी पर कोई संदेह नहीं। लेकिन जब वे नेहरू की मंत्रिपरिषद में एक दीर्घकाल तक रहे, उस दौरान उन्होंने न तो नेहरू की नीतिगत विफलताओं की आलोचना की, न ही समाजवादी-नियंत्रणवादी अर्थनीति के कारण उपजे अन्यायपूर्ण प्रशासनिक ढाँचे का प्रतिकार किया।
* नेहरू युग और शास्त्री की भूमिका
नेहरू युग में क्रोनी कैपिटलिज़्म की नींव रखी गई (कुछ औद्योगिक घरानों को विशेष संरक्षण मिला)। ग्राम समाज की उपेक्षा की गई, जबकि पंचायती राज केवल प्रतीकात्मक बना रहा। ब्यूरोक्रेटिक केंद्रीकरण और लोकसेवाओं में भ्रष्टाचार तेजी से बढ़ा। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यक समाज की सांस्कृतिक पहचान को अपमानित किया गया। इन सबके बीच शास्त्री जी का मौन रहना या उस सत्ता-संरचना को बनाए रखना क्या एक प्रकार की नैतिक कायरता नहीं है?
ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शास्त्री जी ने नेहरू जी की नीतियों का कोई स्पष्ट "मुखर विरोध" नहीं किया। वे नेहरू के अत्यंत विश्वस्त सहयोगियों में से थे और लगभग पूरे नेहरू-युग में केंद्रीय मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण पदों पर रहे:
1951–56: रेल मंत्री
1956–61: परिवहन, संचार और वाणिज्य मंत्री
1961–63: गृह मंत्री
इन वर्षों के दौरान उन्होंने नेहरू की समाजवादी योजना अर्थनीति, पंचवर्षीय योजनाओं, भारत-चीन नीति, धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा, आदि पर कभी कोई तीखा या असहमति वाला वक्तव्य नहीं दिया।
संकेतात्मक या सीमित मतभेद दिखा — किंतु ‘सिस्टम के भीतर’ ही। कुछ संकेतात्मक घटनाएं मिलती हैं जहाँ यह देखा जा सकता है कि शास्त्री जी की सोच स्वतंत्र थी — लेकिन उन्होंने उसे नेहरू के खिलाफ "विरोध" के रूप में नहीं, बल्कि नरम मतभेद या प्रशासनिक विवेक के रूप में रखा।
रेल दुर्घटना पर इस्तीफा (1956): एक रेल दुर्घटना के बाद जब शास्त्री रेल मंत्री थे, उन्होंने नेहरू के स्पष्ट मना करने के बावजूद स्वेच्छा से इस्तीफा दिया। नेहरू चाहते थे कि वह इस्तीफा न दें क्योंकि यह "व्यवस्था की विफलता" मानी जाएगी, लेकिन शास्त्री ने उत्तरदायित्व का उच्च मानदंड स्थापित किया। हालांकि यह नीति विरोध नहीं, बल्कि नैतिक प्रशासनिक जिम्मेदारी का उदाहरण है।
रेल दुर्घटना पर इस्तीफा देकर शास्त्री जी ने जो फौरी नैतिक उदाहरण प्रस्तुत किया (और ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं उनके), वही उदाहरण नेहरू की विदेश नीति, चीन से युद्ध की विफलता, या भारत की खाद्यान्न नीति की त्रुटियों पर क्यों नहीं दोहराया गया? क्या यह केवल व्यक्तिगत प्रतीकात्मक नैतिकता थी, या उस समय का एक राजनीतिक प्रदर्शन? इससे शास्त्री जी की व्यक्तिगत ईमानदारी और पद से अनासक्ति की झलक जरूर मिलती है, लेकिन क्या एक मंत्री की सिस्टम के सुधार के लिए प्रतिबद्धता भी दिखाई पड़ती है?
युद्ध (1962) और सेना का आधुनिकीकरण: गृह मंत्री के रूप में उन्होंने सुरक्षा और खुफिया तंत्र के सशक्तिकरण की आवश्यकता महसूस की। किन्तु उन्होंने कभी नेहरू की चीन-नीति या पंचशील के अंध-आशावाद का सार्वजनिक विरोध नहीं किया।
खाद्यान्न संकट और हरित क्रांति की पृष्ठभूमि: प्रधानमंत्री बनने के बाद शास्त्री ने जो "जय जवान, जय किसान" का नारा दिया, उसमें खाद्यान्न आत्मनिर्भरता की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया — यह नेहरू की केंद्रीकृत खाद्य वितरण नीति से कुछ अलग दिशा थी। लेकिन नेहरू शासन के दौरान शास्त्री इस विषय पर मौन थे।
इतिहास बताता है कि शास्त्री जी नेहरू के कट्टर समर्थक थे, उनकी सोशलिस्ट योजनाओं को सक्रिय रूप से लागू करने वाले मंत्री थे, और कभी भी किसी नीति या विचार पर सार्वजनिक असहमति नहीं जताई।
इसलिए उन्हें ‘नरम आलोचक’ कहना भी अतिशयोक्ति होगी। वे संवेदनशील प्रशासक तो थे, लेकिन वैचारिक विरोधी नहीं।
* कुछ ऐसी बातें जो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाती हैं
लाल बहादुर शास्त्री जी के मंत्रीकाल (1951–1964) में कई महत्वपूर्ण निर्णय हुए जिनका नैतिक और विकासात्मक मूल्यांकन करने पर स्पष्ट होता है कि वे यद्यपि "नेहरूवादी" योजना ढांचे के अनुकूल थे, लेकिन जनसरोकारों के प्रतिकूल या दीर्घकालिक दृष्टि से विफल सिद्ध हुए। ये शास्त्री जी की मिनिस्ट्री में नेहरू की नीति के तहत जनविरोधी/विकासविरोधी निर्णय मानें जा सकते हैं जिनका अनुमोदन शास्त्री जी ने किया।
रेलवे में प्राथमिकता असमान: तब शास्त्री जी रेल मंत्री थे (1951–56): नई रेल लाइनों का निर्माण मुख्यतः शहरी-केंद्रित रहा। ग्रामीण इलाकों में कनेक्टिविटी उपेक्षित रही। फंड का वितरण और इंफ्रास्ट्रक्चर अपग्रेड मुख्यतः औद्योगिक नगरों और राजनीतिक रूप से प्रभावशाली क्षेत्रों में केंद्रित था। गाँवों को बाज़ार, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा से जोड़ने में रेलवे की भूमिका सीमित रही। इस असमान निवेश ने ग्रामीण-शहरी विभाजन को बढ़ाया। लेकिन यह योजना आयोग की प्राथमिकता औद्योगिक क्षेत्र और उत्पादन केंद्रों पर थी, ग्रामीण भारत की ज़रूरतों पर नहीं।
उपभोक्ता हितों की उपेक्षा और लाइसेंस राज का समर्थन - शास्त्री जी वाणिज्य और उद्योग मंत्री थे(1957–60): उद्योगों और व्यापार के लिए लाइसेंसिंग, परमिट और कोटा प्रणाली को आगे बढ़ाया गया। निजी उपभोक्ताओं के अधिकार, महंगाई और माल की उपलब्धता को राज्य नियंत्रण के नाम पर स्थगित कर दिया गया। इन निर्णयों का जनविरोधी पहलू यह था कि मोनोपॉली और भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप मिला। उपभोक्ताओं को घटिया माल, ऊँचे दाम और कालाबाजारी का सामना करना पड़ा। लेकिन ये निर्णय नेहरू की समाजवादी प्रेरणा में राज्य नियंत्रण और निजी क्षेत्र की अविश्वास की नीति गहराई से जुड़ी थी।
खाद्य वितरण और राशनिंग प्रणाली की अक्षमता - शास्त्री जी गृह मंत्री (1961–63): खाद्यान्न की केन्द्रीय खरीद और वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार, देरी और जमाखोरी के लिए कोई ठोस सुधार नहीं किया गया। यह जनविरोधी था। गरीबों को समय पर अनाज नहीं मिल पाता था, जबकि गोदामों में सरकारी स्टॉक सड़ते रहते थे। राशन दुकानों पर भयंकर कालाबाजारी और घोटाले होते रहे। लेकिन ये नेहरू की नीति के अनुकूल थे। "सेंट्रल प्लानिंग" के तहत स्थानीय स्वायत्तता और फीडबैक मैकेनिज्म को कुचल दिया गया।
पुलिस राज्य की प्रवृत्ति और नागरिक स्वतंत्रताओं की उपेक्षा - शास्त्री जी के गृह मंत्री काल में सामरिक और आंतरिक सुरक्षा के नाम पर सीआरपीसी की धाराओं का दुरुपयोग बढ़ा, विशेषकर धारा 144 और निवारक गिरफ्तारी कानूनों का। इसमें राजनीतिक विरोध, मज़दूर आंदोलनों, और क्षेत्रीय असंतोष को दबाने के लिए कानून का प्रयोग हुआ। विशेष रूप से तेलंगाना और बंगाल में छात्र-युवाओं पर बल प्रयोग बढ़ा। लेकिन यह इसलिए हुआ क्योंकि नेहरू का रवैया असहमति के प्रति असहिष्णु था (जैसे कि उन्होंने RSS और कुछ कम्युनिस्टों पर प्रतिबंध लगाए), और शास्त्री जी ने उस रवैये का समर्थन किया।
पंचायती राज का खोखलापन - सामूहिक जिम्मेदारी, गैर-विशिष्ट मंत्रालय, पर शास्त्री जी का समर्थन रहा। इसमें पंचायतों को सत्ता हस्तांतरण के बिना केवल विकास के एजेंट बना दिया गया। ग्रामीण सत्ता कलेक्टर-प्रधान केंद्रित बनी रही। सामाजिक न्याय और भागीदारी केवल दिखावटी शब्द रह गए। यह नेहरू नीति के अनुकूल था। नेहरू का दृष्टिकोण केंद्रीय योजना के तहत पंचायतों को सहायक संस्था के रूप में देखना था, न कि सत्ता के स्वायत्त केन्द्र के रूप में।
* द्रौपदी चीरहरण और शास्त्रीय चुप्पी
महाभारत में जब द्रौपदी का चीरहरण होता है, तब भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य जैसे बुज़ुर्ग और आदर्शवान पुरुष मौन बैठे रहते हैं। वे स्वयं को धर्मात्मा मानते हैं, लेकिन अधर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया नहीं देते। शास्त्री जी की चुप्पी भी कुछ-कुछ उसी तरह की है — व्यक्तिगत पवित्रता तो है, पर सामाजिक अन्याय के विरुद्ध नैतिक विद्रोह नहीं।
* मूल्यांकन के असंगत मापदंड
हमारे इतिहासबोध का सबसे बड़ा संकट यह है कि हम व्यक्तियों को केवल उनके निजी आचरण से आँकते हैं, न कि उनके सार्वजनिक उत्तरदायित्व और नैतिक साहस से।
गांधीजी से लेकर गुलज़ारीलाल नंदा और शास्त्री जी तक, अनेक नेताओं को महानता का दर्जा केवल उनके व्यक्तिगत गुणों के कारण दे दिया गया जबकि उनके राजनीतिक-सामाजिक योगदान और मौन सहमति की आलोचनात्मक समीक्षा नहीं की गई।
नैतिकता की पुनर्समीक्षा आवश्यक है। इसी लिए मेरे स्वर में पारंपरिक मूल्यांकण के लिए विरोध है। आज के भारत में, जहाँ नैतिकता का संकट गहराता जा रहा है, वहाँ यह आवश्यक है कि हम नैतिकता की परिभाषा को पुनः परिभाषित करें।
केवल निजी ईमानदारी नहीं, बल्कि सार्वजनिक अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाना, नैतिक साहस दिखाना और गलत का सक्रिय प्रतिरोध करना — यही पूर्ण नैतिकता है।
लाल बहादुर शास्त्री जी भारतीय राजनीति के एक सम्माननीय व्यक्तित्व थे, लेकिन उन्हें ईश्वरतुल्य मानकर उनके राजनीतिक मौन को अनदेखा करना सत्य से भागना होगा। क्या ईमानदारी वह है जो अपने लिए सच्ची हो, या वह जो जन के लिए न्याय की रक्षा करे?
यह प्रश्न न केवल शास्त्री जी पर लागू होता है, बल्कि हर उस "ईमानदार व्यक्ति" पर लागू होता है जो अन्याय के बीच चुप रहता है।
* तो फिर लालबहादुर शास्त्री की इतनी प्रशंसा क्यों की जाती है?
शास्त्री जी की मृत्यु (जो संभवतः एक साजिश थी) के बाद उन्हें इतना महिमामंडित किया गया कि लोग उनकी मृत्यु की घटना को ही भूल गए। हम इसे "posthumous glorification as political burial" कह सकते हैं — "मरणोपरांत प्रशंसा को स्मृति-विलोपन के औजार की तरह इस्तेमाल करना।"
शास्त्री जी की मृत्यु की परिस्थितियाँ इस संदर्भ में सबसे चौंकाने वाली हैं। कई सवाल उठते रहे हैं।
मृत्यु या हत्या? — शास्त्री जी की रहस्यमय मौत: ताशकंद समझौते के ठीक बाद मौत — जब वे पाकिस्तान पर निर्णायक दबाव बना चुके थे। रात में अचानक दिल का दौरा, लेकिन कोई डॉक्टर मौजूद नहीं था। पोस्टमार्टम नहीं हुआ — यह सबसे बड़ा संदेह है। परिवार ने माँगा, नहीं किया गया। ब्लू बुक/सुरक्षा लॉग गायब — सुरक्षा एजेंसियों का रिकॉर्ड अधूरा है। उनकी पत्नी और पुत्रों ने सीधे हत्या का संदेह जताया — पर किसी जाँच की अनुमति नहीं मिली। मृत्यु के बाद तत्कालिक सरकार (इंदिरा गांधी की देखरेख में) ने कोई न्यायिक जांच नहीं कराई।
और फिर आया प्रशंसा का तूफ़ान। "जय जवान जय किसान" को इतना प्रचारित किया गया कि ‘जय शास्त्री’ की मांग गौण हो गई। उन्हें "गांधीवादी सादगी का प्रतीक", "त्याग का पुतला", "ईमानदारी की प्रतिमूर्ति" बताकर उनकी छवि को एक स्मारक में बदल दिया गया, लेकिन उनकी मौत की जांच को एक वर्जित विषय बना दिया गया। स्कूलों में उनके बारे में बस यह बताया गया कि वे "बहुत ईमानदार" थे — न कि यह कि उनकी मृत्यु रहस्यमय थी।
यह महिमामंडन दरअसल एक राजनीतिक दफन था। शास्त्री जी का मूल्य उनके जीवन की विचारधारा में था, लेकिन उसे बदला गया एक मूर्ति में, ताकि उनके अंत से उपजा असहज सवाल कभी उठे ही नहीं। यह भारतीय राजनीति की वह गूंगी हत्या थी, जिसमें न शोर था, न विद्रोह। केवल प्रशंसा थी — इतनी अधिक कि सवाल का दम घुट गया।
यह प्रक्रिया दो स्तरों पर देखी जा सकती है:
1. राजनीतिक स्तर पर:
शास्त्री की मौत से जिन लोगों को नीतिगत या नेतृत्विक बाधा हटती दिखी, उन्होंने उनकी प्रशंसा को उनकी अनुपस्थिति की वैधता में बदल दिया।
2. सांस्कृतिक स्तर पर:
भारतीय समाज शहीदों की पूजा करता है, लेकिन सच का अन्वेषण नहीं करता। इसलिए जैसे ही शास्त्री को "त्याग की प्रतिमा" बना दिया गया, लोग उनकी मौत की सच्चाई भूल गए — मानो ईमानदारी से मर जाना ही उनका धर्म था।
इसलिए यह हत्या थी कि नहीं यह अनिर्णीत रहा, लेकिन यह स्मृति का दमन अवश्य था। और वह दमन आज भी जारी है। कोई निष्पक्ष न्यायिक आयोग नहीं बैठा; उनकी मौत पर बात करना अब भी “राजनीतिक असुविधा” मानी जाती है; RTI में जानकारी देने से मना किया जाता है। शास्त्री जी की मृत्यु का यह राजनीतिक रूप से नियंत्रित स्मृति-नियंत्रण भारत के लोकतंत्र की उन कमजोरियों में से है, जो आज भी उजागर नहीं हो पाई हैं।
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आशा है मेरे मित्रगण मुझसे सहमत नहीं होंगे। वे लाइक टीप देंगे। मित्रता निभानी है न।
जानते हैं, कर्ण ने मित्रता को इतना महत्व दिया था कि दुर्योधन की गलतियों की मक्खियों को शर्बत में मिलाकर सुबह-शाम पीते थे। उन्हें कभी उबकाई नहीं आयी। पीते रहे और पीते-पीते मर गये।
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