ऋण का दर्शन: भारतीय वैज्ञानिक एवं आधुनिक संदर्भ में ऋण के चार चरण
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भारतीय दर्शन में ऋण (ṛṇa) एक गहरी सैद्धांतिक अवधारणा है - केवल आर्थिक या वित्तीय लेन-देन नहीं, बल्कि एक साइंटिस्ट जिम्मेदारी का प्रवेश पत्र। ऋग्वैदिक संस्कृति से लेकर धर्मशास्त्रों और स्मृति-ग्रंथों तक, मनुष्य को "त्रि-ऋणि" (तीन ऋणों से युक्त) कहा गया है - पितृ ऋण, आचार्य ऋण और देव ऋण। इन ऋणों का उद्देश्य सामाजिक-सांस्कृतिक उत्तरदायित्व को केंद्र में लाना था।
वर्तमान युग में, विभिन्न उद्योग, पूंजीपति और वैश्विक व्यापार प्रमुख हो गए हैं, एक चौथा ऋण भी उभर कर सामने आया है - औद्योगिक और आर्थिक उद्योग निर्माण का ऋण, जो मूलतः बातचीत (वाणिज्य) से शुरू हुआ है और धर्म की संभावनाओं से बाहर खड़ा है।
यह ध्यान देने की आवश्यकता है कि पहले दो ऋण-पितृ ऋण और गुरु ऋण-एंडोसोमैटिक पूंजी से संबंधित हैं, अर्थात् व्यक्ति के भीतर अस्थिर जैविक और ऋण संरचना के निर्माण से। वहीं देव ऋण और वाणिज्यिक ऋण एक्सोसोमैटिक पूंजी यानी सहकारी सामाजिक-संरचनात्मक और आर्थिक सहायता के निर्माण से जुड़ते हैं।
* पितृ ऋण - जैविक उत्तराधिकार और पारिवारिक निवेश
यह ऋण उत्तराधिकार से उत्पन्न होता है जो हमें अपने माता-पिता से प्राप्त होता है - न केवल जीववैज्ञानिक (आनुवंशिक) रूप से, बल्कि पालन-पोषण, साध्य संरक्षण, और मूल जीवन-शक्ति के रूप में।
यह भारतीय दृष्टिकोण में पितृ ऋण (पितृ ऋण) के रूप में अभिव्यक्त होता है।
कर्तव्य: संत के रूप में जीवन की परंपरा को आगे बढ़ाना, राजवंश की गरिमा बनाए रखना, और अपने पंथ की स्मृति और अवशेषों को सम्मान देना।
* अध्यापक ऋण - ज्ञान, शिक्षा, अनुदेशक का ऋण
मनुष्य एक सामाजिक जीव के साथ-साथ शिक्षण जीव भी होता है।
हम जो कुछ भी जानते हैं - भाषा, तर्क, मूल्य, कौशल - वह हमें शिक्षकों, इंजीनियरों, गुरुओं से मिलाता है। यह ऋण सांस्कृतिक और शैक्षणिक पोषण का ऋण है।
कर्तव्य: अर्जित ज्ञान को रूप से उपयोग में लाना, उसे आगे बढ़ाना, और ज्ञान की परंपरा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी तीसरा बनाना।
*देव ऋण - सामाजिक संरचना, प्रकृति एवं संस्कृति का ऋण
इसमें वह सभी योगदान शामिल हैं जो हमें समाज, समुदाय, संस्कृति, प्रकृति और देव-तत्वों से प्राप्त होते हैं। देव ऋण में नदियाँ, सूर्य, वायु, पृथ्वी और सामाजिक व्यवस्था - सभी का योगदान शामिल है।
कर्तव्य: संरक्षण प्रदान करना, यज्ञ-संस्कार या सामाजिक सेवा के माध्यम से प्रतिदान देना, परिवर्तन और सांस्कृतिक, संतुलन बनाए रखना।
यह ऋण आधुनिक भाषा में सामाजिक और संरचनात्मक संरचना (बुनियादी ढांचा) का ऋण है - भाषा, यातायात एवं संचार व्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा और न्याय-व्यवस्था, आदि।
*आर्थिक-वाणिज्यिक ऋण - पूंजीपति संरचना का ऋण
यह ऋण वह है जो हम उद्योग, व्यापार, उत्पादन और उद्यम निर्माण के लिए लेते हैं।
इस ऋण ऋग्वैदिक "त्रिवर्ग" में वर्णित वार्ता (वाणिज्य) से संबंधित है - जिसे धर्म के परिवर्तन में नहीं, बल्कि कौशल और लाभ की नीति के अंतर्गत रखा गया है।
यह ऋण मूलतः आधुनिक युग का है - बैंक ऋण, ब्याज, निवेश निवेश, उद्यमिता का जोखिम-पूँजी।
कर्तव्य: इसके तहत अर्थशास्त्रीय, स्केलेटिक, और व्यावसायिक उद्यमियों का भुगतान करना आवश्यक है। इसमें फिल्मांकन से अधिक कानूनी अनुबंध और उपाधि की भूमिका है।
*कर्ज चुकाना क्यों जरूरी है?
भारतीय दर्शन में जीवन को स्वयं में स्वावलंबी नहीं माना गया है।
मनुष्य का जन्म से ही एक ऋणात्मक पहलू है - उसकी अपनी स्वतंत्रता समाज, देवता, माता-पिता, और परमाणु ऊर्जा के निवेश के बदले में प्राप्त हुई है।
इसलिए ऋण चुकाना केवल नैतिक कर्तव्य नहीं है, सिद्धांत उत्तरदायित्व है।
यह उत्तरदायित्व एक चक्र की तरह है - जिसमें न किसी पात्र से पुनर्जन्म होता है और दुःख का चक्र रहता है।
* ऋण एवं उत्तरदायित्व का आदर्श दर्शन
यह चार-स्तरीय ऋण-संरचना हमें सिखाती है कि हमारी जैविक संपदा, शेयर पूंजी, सामाजिक जीवन और आर्थिक संरचना - चारों ओर किसी भी रूप में ऋण पर आधारित नहीं हैं।
ऋण चुकाने का अर्थ है - इन सभी में नैतिक संतुलन, अंश, और देयता निभाना शामिल है।
जहां पहले तीन ऋण धर्म-संहिता से संचालित थे, वहीं चौथा ऋण व्यावसायिक संहिता और अनुशासन से।
आज जब ऋण को केवल वित्तीय उपकरणों के रूप में देखा जाता है, तब इस ऋण-दर्शन को पुनः स्मरण करके हमारे दर्शन और दृष्टि दोनों को समृद्ध किया जा सकता है।
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