भारतीय विद्वानों में अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र का पृथक्करण: राजनीतिक अर्थशास्त्र की अवधारणा, दार्शनिक दार्शनिक और 'खिलौना-शास्त्रों' की उत्पत्ति
— एक विकसित-संस्थागत समीक्षा
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*अर्थशास्त्र की विखंडन-यात्रा: एक छात्र की फ़्रांसीसी
आज़ादी के पहले तक रणनीति भारतीय मठाधीशों में अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र एक ही छत के नीचे पढ़े गए थे और राजनीतिक अर्थशास्त्र की बहुत प्रतिष्ठा थी। अर्थशास्त्र का इतिहास भी। लेकिन आज़ादी के बाद इसमें बहुत परिवर्तन आया।
स्वतंत्र भारत के साहित्यिक शास्त्र में अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र का विभाजन हुआ और यह स्नातक पाठ्यक्रम पुनः आरंभ करने की योजना नहीं थी, बल्कि वह एक गंभीर राजनीतिक-वैचारिक संप्रदाय की अनुपस्थिति और नियंत्रण की समाप्ति का प्रतीक था। विशेष रूप से राजनीतिक अर्थशास्त्र, जो राज्य, शक्ति, वर्ग, उत्पादन और सामाजिक माप के अंतर्विरोधों का आकलन करता है, उसे योजनाबद्ध तरीके से अनुशासनात्मक ढांचे से बाहर किया गया है।
इस लेख का उद्देश्य यह है:
1. राजनीतिक अर्थशास्त्र को कमज़ोर क्यों समझा गया,
2. क्यों अधिकांश भारतीय फ़्रांसीसी अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र को कृत्रिम रूप से अलग कर दिया गया,
3. क्यों दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) और शहीद नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) जैसे संप्रदाय को असाधारण अपवाद यह परंपरा सीमित रूप में जीवित रखा गया, और
4. क्यों मैथेमैटिकल इकोनोमिक्स और इकोनो इम्मिक्स जैसे उपविषय, समाज की आर्थिक समझ बढ़ाने में असफल अस्ट्रेट्स, मॅच्युएटर क्रिएटिव टॉयज बनकर रह गए।
*राजनीतिक अर्थशास्त्र: सत्ता और समाज का दर्पण
उन्होंने राजनीतिक रूप से निर्देशित किया कि जो यह जानना चाहते थे कि किस तरह से जातीय जाति पक्ष का निर्माण होता है, किस जाति के लोगों का स्थानांतरण होता है, और किस तरह की आर्थिक प्रक्रिया समाज के गुणों को हाशिये पर डालती है। यह निर्देशित स्मिथ, रिकार्डो, मिल, मार्क्स, और गांधी जैसे चिंतकों की परंपरा में सत्य और मूल्य के बीच संबंध को केंद्र में रखा गया था।
बोरिया स्वतंत्र भारत में इस अनुदेश को तेजी से हाशिये पर डाल दिया गया। राजनीति और अर्थशास्त्र को अर्थशास्त्र से जोड़ते हुए, उन्हें एक "तथ्यात्मक और निरपेक्ष विज्ञान" के रूप में गढ़ा गया, जो 'राज्य की योजना' में सहयोगी तो हो, पर प्रश्नकर्ता नहीं। अर्थशास्त्र के स्थान पर "डेटा संचालित", "मॉडल आधारित", "सुधारात्मक" और "सांख्यिकी-लेखक" अर्थशास्त्र का उदय हुआ - जिसमें सत्ता, वर्ग और दमन के लिए कोई स्थान नहीं बचा।
* भारतीय संदर्भ में यथार्थ और सांस्कृतिक अर्थशास्त्र के बीच की खाई
भारत का समाज एक अभिन्न संरचना वाला समाज है - जाति, पितृसत्ता, श्रम-अवमूल्यन, कृषि-निराधार, धार्मिक अभ्यास और क्षेत्रीय विषमताएँ यहाँ आर्थिक निर्णयों के गंभीर कारक हैं। फिर भी भारतीय सार्वजानिकों में शास्त्रीय अर्थशास्त्र, विशेष रूप से मैथेमैटिकल इकोनोमिक्स और इकोनो कॉम्बल्स, ने इन प्रयोगशालाओं से आंख चुरा ली।
इन विषयों में ऐसी भाषा और व्युत्पत्ति का विकास किया गया जो आम सामाजिक यथार्थ से संवाद नहीं कर सका। वे ऐसे अनुक्रमों में शामिल रहे जिनमें न किसान था, न दलित, न महिला, न लघु व्यवसाय, न ही शेयरधारी युवा। नीति-निर्माण के लिए अपना योगदान शून्य नहीं तो नगण्य रहा।
इकोनो एनालिसिस, जो डेटा के "सैटिक" विश्लेषण का दावा करता है, बार-बार पूर्वाग्रह से ग्रसित मॉडल और अजीबोगरीब आँकड़ों पर रुक रहा है। मैथेमैथेल इकोनोमिक्स, जो "यथार्थ को समर्थन तर्कशास्त्र शास्त्र" में व्यक्त करता है, उस यथार्थ को खो दिया गया था जिसे उसने मॉडल किया था। इस प्रकार, इस विषय पर वाद्य यंत्र 'खिलौने' के स्थान पर 'खिलौने' बनकर रह गए, जिनमें कुछ विद्वान 'खेलने' के लिए तो उत्सुक रहते हैं, पर नीति-निर्माण या सामाजिक बदलावों के प्रेरणा पर इनका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
* डीयू और जेएनयू में राजनीतिक अर्थशास्त्र का सीमित संरक्षण: क्यों और कैसे?
दिल्ली यूनिवर्सिटी और डेस्टिनेशन दो महत्वपूर्ण अपवाद रहे। डीयू, जहां स्वतंत्रता पूर्व के परमाणु ऊर्जा संयंत्र का एक समूह बनाया गया था, एक ऐसी जगह जहां राजनीतिक अर्थशास्त्र और सामाजिक विचारधारा की संगति परंपरा बनी रही। यह स्वाधीनता आंशिक थी, और सत्ता के अधिक हस्तक्षेप से बचाव जारी था, क्योंकि राजधानी में होने के कारण असमानता की बहस बार-बार 'लोकतांत्रिक शोकेस' की तरह असंतुलित होती थी।
जेएनयू की स्थापना ही इस सोच के साथ हुई कि वहां राजनीति, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र का समावेशी संवाद हो - और वह 'अलोकतांत्रिक अलगाव' को एक सीमित दायरे में बढ़ावा दे। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जे.एन.यू. में इसकी बार-बार आलोचना की जाती है राज्य- समाजवाद और उदारवाद की सीमा में बंधन रही। वहां एक प्रकार की तीव्र आलोचना को 'सहमति में स्वतंत्रता' की छूट दी गई, जो सत्य-संरचना को पूरी तरह से उधेड़ नहीं किया जा सका।
* अन्य उद्यमों पर नियंत्रण और डिवीजन का प्रभुत्व
देश के अन्य विश्वविद्यालय, विशेष राज्य स्तर के वैज्ञानिक, उच्च शिक्षा के केन्द्रीकृत मानकीकरण और राजनीतिक नियंत्रण की खुराकें बन गईं। यहां पर कच्चे माल का निर्माण न उन्नत गहराई से हुआ, न ही समाज की बर्बादी के सिद्धांत। आलोचनात्मक या वैकल्पिक दृष्टियों को "राजनीतिक प्रभाव", "वामपंथी उग्रता", या "गैर-तकनीकी विषय" की तलाश की गई।
इनमें से किसी एक का अध्ययन करने वाले कर्मियों के लिए न्यूनतम सोच वाले कर्मचारी तैयार करना था, न कि गहराई से विचार वाले नागरिक। फलतः अर्थशास्त्र, राजनीति और शास्त्र के बीच संवाद तो समाप्त ही हो गया, बल्कि अर्थशास्त्र और निर्जीवता ने भी जड़ें जमा लीं।
* एकअनुशासन का मूल्य और उसके सामाजिक मूल्य का प्रश्न
भारतीय वैज्ञानिकों में अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र का विभाजन सत्य के डर, नियंत्रण की कमी, और अभाव स्वाभाव की कमी से उत्पन्न हुआ। अर्थशास्त्र को अर्थपरक माना गया क्योंकि वह व्यवस्था से अंतःसंबंधित प्रश्न पूछता था: विकास पहलू के लिए? नीतिगत विरोध? योजना किनके श्रम से?
इस वैज्ञानिक सिद्धांत ने न केवल सामाजिक-शास्त्रीय विश्लेषण को पंगु बनाया, बल्कि गणितल इकोनोमिक्स और इकोनो महत्व जैसे विषयों को मूल्य-विमुख, मानव-विमुख, और समाज-विस्मृत 'खिलौनों' में बदल दिया। ये विषय आपके अंदर प्राकृतिक प्रकृति तो संजोए रहे, पर सामाजिक सच्चाइयों से अंधेरे रहे।
आज जब भारत में बेरोजगारी, बेरोजगारी, किसान संकट, अल्पसंख्यक और लोकतांत्रिक किसानों से संघर्ष चल रहा है - तब जरूरी है कि राजनीतिक अर्थशास्त्र को फिर से बुनियादी ढांचे में लाया जाए। केवल यह निर्देश दिया गया है कि जो यह साहस कर सकता है कि उद्योग को सत्ता, श्रम, समाज और संघर्ष के समग्र सिद्धांत में देखा जाए।
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