स्वदेशी की छाँह में बंधी अर्थव्यवस्था: बजाज स्कूटर, एम्बेसेडर कार और बहुत कुछ
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भारत की आर्थिक यात्रा में एक समय ऐसा भी था जब "स्वदेशी" केवल एक नैतिक आदर्श न होकर एक रणनीतिक ढाल बन गया था—जिसके पीछे छिपकर कुछ गिने-चुने औद्योगिक घरानों ने भारत की पूरी उपभोक्ता अर्थव्यवस्था को नियंत्रित किया। बजाज स्कूटर और एम्बेसेडर कार उस युग के दो सबसे प्रबल प्रतीक थे। इनकी कहानी केवल तकनीक या उपभोक्ता उत्पादों की नहीं, बल्कि क्रोनी पूंजीवाद, राजनीतिक संरक्षण और विकल्पहीनता की व्यथा-भरी भारतीय कथा है।
* जमनालाल बजाज: नैतिक पूंजीवाद का आदर्श
जमनालाल बजाज गांधी के निकटतम अनुयायियों में थे। सेवाग्राम आश्रम, हरिजन सेवा, खादी और ग्रामोद्योग के प्रति उनकी आस्था ने उन्हें एक नैतिक पूंजीपति के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने व्यापार को राष्ट्रसेवा के एक साधन के रूप में देखा। लेकिन जैसे ही सत्ता गांधी के उत्तराधिकारियों के पास आई, उनके उत्तराधिकारी पूंजीपतियों ने गांधी के नाम का व्यापारिक पूंजीकरण शुरू किया।
* बजाज स्कूटर: प्रतीक्षा की सवारी
बजाज ग्रुप ने 1960–70 के दशक में स्कूटर निर्माण शुरू किया। "बजाज चेतक" भारत के मध्यवर्ग का सपना बन गया। पर यह सपना बाज़ार की प्रतिस्पर्धा से नहीं, बल्कि सरकारी संरक्षण और विदेशी आयात पर नियंत्रण के कारण पनपा। बजाज को लाइसेंस, उत्पादन विस्तार और विदेशी साझेदारियों में प्राथमिकता दी गई। एक स्कूटर के लिए 10–15 वर्षों तक प्रतीक्षा करना सामान्य बात थी। (हां, डॉलर में भुगतान करने से अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती थी।) यह प्रतीक्षा पूंजीवाद की नहीं, क्रोनी व्यवस्था की उपज थी।
* एम्बेसेडर कार: सत्ता की सवारी
बिरला समूह की हिंदुस्तान मोटर्स द्वारा निर्मित एम्बेसेडर कार 1950 के दशक से 2014 तक भारत की सड़कों पर छाई रही। इसकी तकनीक ब्रिटेन की Morris Oxford पर आधारित थी—जो वहां दशकों पहले बंद हो चुकी थी। पर भारत में इसे सरकारी खरीद, मंत्रीगण, नौकरशाही और न्यायपालिका का संरक्षण प्राप्त था। भारत में एक समय ऐसा था जब एक साधारण नागरिक के लिए कार का मतलब ही था—"एम्बेसेडर।" यह स्थिति उपभोक्ता की पसंद नहीं, बल्कि राजनीति और पूंजी का गठबंधन थी।
* नेहरू-युगीन आर्थिक दर्शन और उसकी सीमाएँ
1950 और 60 के दशक में भारत की आर्थिक नीतियों को जवाहरलाल नेहरू की समाजवादी दृष्टि ने निर्देशित किया। योजना आयोग, सार्वजनिक क्षेत्र का वर्चस्व, भारी उद्योगों पर ज़ोर, और विदेशी पूंजी तथा प्रतिस्पर्धा से बचाव — यह सब नेहरू युग की विशेषताएँ थीं। इस व्यवस्था में वे पूंजीपति ही सफल हो सकते थे जो राज्यसत्ता के निकट हों। यह state-led capitalism था, जिसमें नैतिक स्वतंत्रता नहीं, तकनीकी कौशल नहीं, वरन् राजनीतिक निकटता आर्थिक प्रगति का मार्गदर्शक थी।
एक महत्वपूर्ण उदाहरण है रामकृष्ण डालमिया का। वे वनस्पति घी, सीमेंट, और बीमा जैसे क्षेत्रों में अग्रणी थे। उन्होंने जब वनस्पति घी उत्पादन में विस्तार किया तो यह क्षेत्र नेहरू के प्रिय उद्योगपतियों के हितों के विरुद्ध पड़ने लगा।परिणामस्वरूप डालमिया को सीधा सरकारी प्रतिरोध झेलना पड़ा—उनके करार रद्द किए गए, कानूनी दबाव डाले गए, और अंततः उन्हें जेल तक जाना पड़ा। यह केवल व्यापारिक प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि राजनीतिक संदेश था कि “जो लाइन में नहीं रहेगा, वह लाइन से बाहर किया जाएगा।”
* डालमिया और संस्थागत विघटन का मामला
रामकृष्ण डालमिया की व्यावसायिक सफलता केवल उत्पादन तक सीमित नहीं थी; उन्होंने Times of India और Bharat Insurance Company जैसी मीडिया और वित्तीय संस्थाओं का नियंत्रण भी प्राप्त किया था। यह स्थिति नेहरू-युगीन राजनीतिक व्यवस्था के लिए असहज थी। भारत के सबसे बड़े अंग्रेज़ी दैनिक पर डालमिया का नियंत्रण, एक ऐसे समय में जब सरकार मीडिया पर नैतिक अनुशासन चाहती थी, उन्हें सत्ता की आँख की किरकिरी बना गया। डालमिया पर वित्तीय अनियमितताओं का आरोप लगाकर उन्हें बदनाम किया गया और Times of India को बाद में 'ट्रस्ट' में परिवर्तित कर सरकारी नियंत्रण की ओर मोड़ा गया। इसी प्रकार Bharat Insurance को भी LIC के गठन के साथ जबरन समाहित किया गया।
यह मामला दिखाता है कि वित्त और सूचना पर निजी नियंत्रण को राज्य सत्ता का अपवित्र अतिक्रमण समझा गया और उसे कुचलने में कोई संकोच नहीं किया गया।
* रणनीतिक राष्ट्रीयकरण और निजी पूंजी का पुनर्संयोजन
इसी कड़ी में यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ प्रमुख निजी क्षेत्रों का योजनाबद्ध रूप से राष्ट्रीयकरण किया गया—जिनमें एयर इंडिया, इंडियन एयरलाइंस, एअरपोर्ट्स अथॉरिटी, हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स, और प्रमुख जहाज़रानी कंपनियाँ शामिल थीं।
टाटा समूह की एयरलाइन को राष्ट्रीयकरण कर भारतीय विमानन का "जनकल्याणकारी" मॉडल बनाया गया, पर इसमें राजनीतिक प्रतिशोध की गंध स्पष्ट थी।
हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स जैसी उभरती हुई निजी संस्थाओं को रक्षा-क्षेत्र के नाम पर सरकारी नियंत्रण में लिया गया।
स्वतंत्र निजी पोर्ट ऑपरेशनों को हतोत्साहित कर शिपिंग कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया जैसी सार्वजनिक संस्थाओं को वरीयता दी गई।
इन उपायों को सार्वजनिक हित के नाम पर प्रस्तुत किया गया, पर व्यवहार में ये अधिकतर दंड या राजनीतिक correctives और राजकीय प्रभुत्व की पुनःस्थापना का हिस्सा थे।
इसी संदर्भ में टाटा, वालचंद और लोहिया समूह जैसे औद्योगिक घरानों का अनुभव उल्लेखनीय है।
टाटा समूह, जिसने विमानन, इस्पात और ऊर्जा जैसे क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से पहल की थी, को सरकारी नियंत्रण और नौकरशाही की कठोरता का सामना करना पड़ा।
वालचंद हीराचंद, जिन्होंने Hindustan Aircraft और Scindia Shipyard जैसे कई महत्त्वाकांक्षी उपक्रम खड़े किए, को योजनाबद्ध तरीके से हाशिये पर डाल दिया गया। उनकी एयरोनॉटिक्स परियोजनाओं को बाद में HAL के रूप में राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।
लोहिया समूह, जो उत्तर भारत में उभरता हुआ स्वतंत्र पूंजीवादी उद्यम था, को 'राजनीतिक गैर-अनुकूलता' के कारण विकास का वैसा प्रोत्साहन नहीं मिला जैसा कुछ अन्य मित्रवत घरानों को मिला।
यह सब दर्शाता है कि नेहरू-कालीन योजनात्मक अर्थव्यवस्था में औद्योगिक सफलता का मानदंड नवाचार या दक्षता नहीं था, बल्कि राजनीतिक संरेखण और विचारधारात्मक अनुरूपता था।
* क्रोनी पूंजीवाद: स्वदेशी के नाम पर विकल्पहीनता
भारत के औद्योगिक विकास को जब "स्वदेशी" की भाषा में ढाला गया, तो वह प्रतिस्पर्धा और नवाचार से कट गया। बजाज और बिरला जैसे घरानों को नैतिक चादर ओढ़ाकर नीति-निर्माताओं से विशेष सुविधाएँ दिलाई गईं। विदेशी कंपनियों को बाज़ार में प्रवेश नहीं मिल सका। आयात शुल्क इतने ऊँचे रखे गए कि उपभोक्ता के पास स्थानीय उत्पाद ही विकल्प थे। गुणवत्ता, डिज़ाइन और सेवा को अनदेखा किया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि भारत का मध्यवर्ग चुपचाप सरकारी पूंजीवाद के अधीन हो गया।
* 1991: जब प्रतिस्पर्धा की हवा बही
उदारीकरण के बाद जापानी व कोरियाई टू-व्हीलर (हीरो होंडा, टीवीएस-सुजुकी) और चारपहिया (मारुति, हुंडई) ने बाज़ार में प्रवेश किया। बजाज ने खुद को मोटरसाइकिल की ओर मोड़ा और अंततः स्कूटर निर्माण बंद कर दिया। एम्बेसेडर कार अपनी जड़ता के कारण 2014 में बंद कर दी गई।
* यह सब अकथ कहानी
क्रोनी पूंजीवाद का वह युग, जो स्वदेशी की आत्मा का दोहन कर रहा था, नये रूप लेने को मजबूर हुआ। परंतु यह नया रूप केवल बाज़ार का नहीं, नैतिकता का भी है, जिसने पूंजी को राजनीति का स्थायी साथी बना दिया है। बजाज स्कूटर और एम्बेसेडर कार के नाम से कही यह कहानी केवल यांत्रिक विफलताओं की नहीं, बल्कि राजनीति, अर्थनीति और नैतिकता के त्रिकोणीय संघर्ष की है। गांधी के नाम पर बनी आर्थिक संरचनाएँ अंततः उन्हीं मूल्यों के विपरीत खड़ी हो गईं, जिन्हें वे पोषित करने का दावा करती थीं। यह इतिहास हमें यह सिखाता है कि “स्वदेशी” जब तक नैतिक विवेक और सार्वजनिक जवाबदेही से जुड़ा न हो, तब तक वह मात्र एक छलावा बन जाता है — क्रोनी पूंजीवाद का सुशोभित आवरण।
कबीर ने कहा था:
हिंदु की दया मेहर तुरकन की दोनों घर से भागी।
वह करै जिबह वाँ झटका मारै आग दोऊ घर लागी।
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मित्रगण! मोरे अवगुन चित न धरौ।
(भारत में तकरीबन पचास छोटे-बड़े औद्योगिक घराने या बिजनेस ग्रुप्स हैं। कुछ पुराने, कुछ नये भी। इनका इतिहास बहुत ही आकर्षक और ज्ञानवर्धक है। इनको पढ़े बिना कोई भारतीय अर्थशास्त्र नहीं समझ सकता। हां, इतना ही काफी नहीं है। यह भी समझना होगा कि सरकारों ने किस तरह ग्रामीण सेक्टर और श्रम बाजार को गुलाम बनाया है। मेरा विश्वास कीजिए, यह गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी है।)
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