रविवार, 22 जून 2025

भारत बनाम पश्चिम: बौद्धिकता का आत्मघात और उसकी सभ्यतागत विवेचना

भारत बनाम पश्चिम: बौद्धिकता का आत्मघात और उसकी सभ्यतागत विवेचना

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I. पश्चिम की रीढ़: बौद्धिकता का संरचनात्मक गौरव

पश्चिम—विशेषतः यूरोप और अमेरिका—ने अपने विश्वविद्यालयों को संस्थान नहीं, आत्मा माना।

कैंब्रिज (1209), ऑक्सफर्ड (1096), हार्वर्ड (1636), येल, स्टैनफोर्ड, MIT—इनमें से अधिकांश संस्थान राजसत्ता से स्वतंत्र, चर्च से आलोचनात्मक दूरी पर, और उद्योग से सशर्त सहयोग में पले-बढ़े।

इनकी शक्ति रही:

Endowments (दान): जो विश्वविद्यालय को राज्य और बाजार दोनों से मुक्त रखते हैं;

Tenure (नौकरी की स्वतंत्रता): जिससे शिक्षक सत्ता के डर के बिना सत्य बोल सकें;

Peer Review (सहकर्मी मूल्यांकन): जिससे ज्ञान का मूल्य पदानुक्रम से नहीं, तर्क और गुणवत्ता से तय हो;

Academic Freedom (बौद्धिक स्वतंत्रता): जो किसी जाति, धर्म, वर्ग या विचारधारा की गुलाम नहीं।

पश्चिम जानता है कि सत्ता को प्रश्नों की आवश्यकता है, और विश्वविद्यालय उसका स्रोत हैं।

इसलिए वहाँ बुद्धिजीवी आलोचक हैं, दलाल नहीं।

II. भारत की रीढ़: सत्ता, जाति और प्रमोशन की राजनीति

इसके विपरीत, भारत में विश्वविद्यालय:

राज्य-निर्भर हैं, और हर कुलपति सत्ताधारी दल का ‘सलेक्टेड’ आदमी है;

जाति-गणित से चलते हैं, और विभागाध्यक्ष की नियुक्ति योग्यता से नहीं, आरक्षण और जोड़-तोड़ से होती है;

बजट के लिए राजनेताओं और नौकरशाहों की चाटुकारिता करते हैं, न कि शोध-गुणवत्ता से निधि कमाते हैं;

बौद्धिक स्वतंत्रता एक मज़ाक है—जहाँ प्रोफेसर या तो मौन साधे रहते हैं या पक्षपातपूर्ण आंदोलनों के भोंपू बन जाते हैं।

भारत के विश्वविद्यालय किसी तर्कशील परंपरा में नहीं जिए—वे या तो बाबुओं की नकल हैं या नेताओं के शरणार्थी।

III. बौद्धिकता का मापदंड: सत्य या संख्या?

पश्चिम में बौद्धिकता का मापदंड है:

प्रकाशित शोध का प्रभाव,

तथ्यपरक तर्क की शक्ति,

अनुसंधान की नवीनता,

और विद्यार्थी की आलोचनात्मक क्षमता।

भारत में बौद्धिकता का मापदंड है:

कितने फॉर्म भरे,

कौन-सी जाति से आए,

कौन से संगठन से जुड़े,

और किस नेता या विभाग से सिफारिश आई।

इसलिए भारत में सत्य को तर्क से नहीं, जनगणना से तय किया जाता है।

IV. विश्वविद्यालय: पश्चिम में आत्मा, भारत में शव

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं कि—

ऑक्सफर्ड या हार्वर्ड सभ्यता की आत्मा के अंग हैं;

जबकि इलाहाबाद, दिल्ली या बनारस के विश्वविद्यालय शवगृह हैं, जहाँ कभी-कभी 'कार्यशालाएं' और 'सेमिनार' जैसे फूल चढ़ा दिए जाते हैं।

पश्चिम के विश्वविद्यालय संवेदनशील, आलोचनात्मक, जीवंत और इतिहास से संवाद करते हैं।

भारत के विश्वविद्यालय प्रेस रिलीज़ पढ़ते हैं, जातीय आंकड़े गिनते हैं, और ग्रांट की फाइलों में मरते हैं।

कुछ दिनों पहले एक हिंदी कहानी पढ़ी थी, "नालंदा पर गिद्ध"। देवेंद्र की लिखी। कितना भयानक सत्य है वह! हाल में एक खबर पढ़ी। किसी विश्वविद्यालय ने सोचा है कि अगर कोई SC/ST छात्र कई वर्षों से परीक्षा पास न कर सका है तो उसे मेडिकल डॉक्टर की डिग्री दे दी जाये। मेरे विचार से तो यह छूट नीट में भी देनी चाहिए और इंजिनियरिंग के JEE में भी। तभी सामाजिक न्याय होगा।

V. बौद्धिकता का सम्मान बनाम भिक्षा

पश्चिम में बौद्धिजीवी—चाहे वह चॉम्स्की हो या डेरिडा, हन्ना अरेन्ड्ट हो या रसल—लोकचर्चा और राज्य-चिंतन दोनों में स्थान रखते हैं।

भारत में बुद्धिजीवी या तो:

चैनल पर बैठकर पक्ष चुनते हैं,

या प्रमोशन के लिए ‘सांविधानिक न्याय’ की पंडुलिपि पढ़ते हैं,

या किसी जातीय 'नेटवर्क' में चिपके रहते हैं।

भारत का बुद्धिजीवी आलोचक नहीं, आत्मसमर्पित है।

यहाँ ज्ञान एक राजनीतिक मुद्रा है, न कि नैतिक साधना।

निष्कर्ष नहीं—नग्न सत्य

भारत ने विश्वविद्यालयों को संविधान और आरक्षण की बंधक संपत्ति बना दिया है।

उसने बौद्धिकता को या तो भिक्षा में बाँट दिया है, या विचारधारा की कंघी से संवारा है।

पश्चिम से भारत का अंतर सांस्कृतिक या आर्थिक नहीं है—बल्कि नैतिक है।

पश्चिम ने सत्य की खोज को गरिमा दी; भारत ने उसे घोषणा-पत्र और जातीय घृणा का औज़ार बना दिया।

इसलिए आज भारत के पास मोबाइल हैं, मेट्रो हैं, चंद्रयान हैं—पर कोई ऐसा विश्वविद्यालय नहीं है, जहाँ विवेक जिंदा हो।

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