शनिवार, 7 जून 2025

भारत में जन्म-आधारित सामाजिक वर्गीकरण: संस्थागत लागत से सामाजिक लागत का परिवर्तन और एलएएचएससी समाधान

भारत में जन्म-आधारित सामाजिक वर्गीकरण: प्रशासनिक लागत से सामाजिक लागत की शिफ्टिंग और LAHSC Solution

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भारतीय वर्ण व्यवस्था, जो समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — इन चार वंशानुगत वर्गों में विभाजित करती है, हिंदू सामाजिक दर्शन की रीढ़ रही है। यह व्यवस्था अक्सर एक ईश्वरीय और अपरिवर्तनीय व्यवस्था के रूप में प्रस्तुत की जाती रही है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि से यह एक सस्ता और स्थायी सामाजिक प्रबंधन तंत्र भी थी। हालांकि यह प्रणाली प्रशासनिक दृष्टि से सत्ताधारियों के लिए उपयोगी थी, परंतु इसके कारण समाज पर, विशेषकर निम्न वर्गों पर, अत्यंत भारी सामाजिक, आर्थिक और नैतिक भार पड़ा। यह  एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि जन्म-आधारित वर्गीकरण को ऐतिहासिक रूप से क्यों प्राथमिकता दी गई, इसमें कौन-से लागतगत संरचनाएं अंतर्निहित थीं, और यह वर्गीकरण व्यवस्था कैसे प्रशासनिक लागत को समाज पर स्थानांतरित करने का एक माध्यम बन गई।

I. वर्गीकरण का तर्क: धर्मशास्त्र से परे

किसी भी समाज में वर्गीकरण का उद्देश्य जनसंख्या को इस प्रकार व्यवस्थित करना होता है कि सामाजिक कार्य सुचारु रूप से चलें। आधुनिक सांख्यिकीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो किसी वर्गीकरण को प्रभावी तब माना जाता है जब वह एक वर्ग के भीतर की विविधता को न्यूनतम तथा विभिन्न वर्गों के बीच भिन्नता को अधिकतम रखे। इसके लिए वर्गीकरण के आधार भी लचीले और गतिशील होने चाहिए। क्लस्टर एनालीसिस और डिस्क्रिमिनेंट एनालीसिस यही करते हैं।

किन्तु वर्ण व्यवस्था ऐसा कोई लचीला या कार्यात्मक मॉडल नहीं थी। यह एक आदेशात्मक, धार्मिक-रूपकात्मक, और शाश्वत सिद्धांत था, जो पुरुष सूक्त की मिथकीय कथा से जुड़ा था। इसमें किसी भी प्रकार की सामाजिक वास्तविकता, प्रतिभा, या व्यवहारिक भूमिका को महत्व नहीं दिया गया। इस व्यवस्था में यह कल्पना ही नहीं की गई कि समाज में वर्गों की संख्या चार से अधिक या कम भी हो सकती है। इस प्रकार, यह व्यवस्था मूलतः विचारधारात्मक थी, न कि वस्तुगत।

II. जन्म आधारित वर्गीकरण क्यों अपनाया गया

इतनी कठोर होते हुए भी यह व्यवस्था शताब्दियों तक बनी रही। इसका मुख्य कारण यह था कि यह व्यवस्था प्रशासनिक और संज्ञानात्मक दृष्टि से अत्यंत सस्ती और सरल थी। न राज्य को किसी परीक्षण की आवश्यकता थी, न व्यक्तियों के गुणों का मूल्यांकन करना पड़ता था, न किसी संस्थान को वर्ग सौंपने की जिम्मेदारी लेनी पड़ती थी। एक व्यक्ति का जन्म ही उसका भाग्य और उसकी भूमिका दोनों तय कर देता था।

वर्गीकरण जन्म के साथ ही तय हो जाता था; आजीवन वैसा ही रहता था; सार्वजनिक रूप से पहचानने योग्य था; समुदाय स्वयं इसे लागू करता था; और धर्म इसे नैतिक रूप से वैध ठहराता था।

इस प्रकार यह एक शून्य-लागत वाली सामाजिक वर्गीकरण प्रणाली बन गई, जिसे बिना किसी केंद्रीय प्रशासन के, परंपरा और आस्था के सहारे पीढ़ी दर पीढ़ी चलाया गया।

III. छिपी हुई लागतें: प्रशासन से समाज की ओर बोझ का स्थानांतरण

जन्म-आधारित व्यवस्था का वास्तविक मूल्य समाज को चुकाना पड़ा। जिस लागत को राज्य या सत्ताधारी वर्ग ने टाल दिया, वह अब आम लोगों, विशेषकर निम्नवर्गीयों के जीवन का भार बन गई।

व्यक्ति को उसके गुण, योग्यता या अभिलाषा की परवाह किए बिना एक निश्चित सामाजिक भूमिका में बांध दिया जाता था। "निम्न जातियों" में जन्म लेने वालों को शिक्षा, कौशल, या सामाजिक गतिशीलता से वंचित कर दिया गया। इसके कारण समाज की प्रतिभा और श्रमशक्ति का गंभीर दुरुपयोग हुआ। योग्य लोग तुच्छ कार्यों में फंसे रहे और अयोग्य लोग विशेषाधिकार भोगते रहे।

इस व्यवस्था ने न केवल अवसरों की भारी हानि की, बल्कि सामाजिक और मनोवैज्ञानिक कुण्ठा भी उत्पन्न की। सामाजिक गतिशीलता के अभाव ने निराशा, अवसाद और दमन को जन्म दिया। इसके अतिरिक्त, धर्म और समुदाय के नाम पर हर परिवार ही इस व्यवस्था का प्रहरी बन गया, जिससे उत्पीड़न का विकेन्द्रीकरण हो गया।

व्यवस्था ने राज्य की ओर से जिम्मेदारी उठाने की बजाय समाज को कठोरता में जकड़ दिया। उसने शासन के बोझ से बचने के लिए असमानता को स्थायित्व प्रदान किया। प्रशासनिक सुविधा के लिए नैतिक मूल्यों की बलि दी गई।

IV. वैकल्पिक मानदंडों का दमन

ऐतिहासिक रूप से ऐसे कई अन्य मानदंड उपलब्ध थे जो वर्गीकरण को अधिक न्यायपूर्ण बना सकते थे—जैसे कौशल, शिक्षा, आचरण, गुण, या मनोवैज्ञानिक प्रवृत्तियाँ। बौद्ध और भक्ति परंपराओं ने जन्म के स्थान पर आंतरिक गुणों को प्राथमिकता दी थी। यहां तक कि हिंदू ग्रंथों में भी गुण-कर्म आधारित दृष्टिकोण (जैसे गीता में) मौजूद थे।

किन्तु इन वैकल्पिक दृष्टिकोणों को संस्थागत रूप नहीं दिया गया। कारण स्पष्ट है: राजनीतिक अर्थशास्त्र। जन्म आधारित व्यवस्था सत्ताधारी वर्ग के हित में थी। यदि वर्गीकरण योग्यता या आचरण पर आधारित होता, तो ब्राह्मणों और उच्च जातियों का विशेषाधिकार खतरे में पड़ जाता, और साथ ही राज्य को महंगी प्रशासनिक व्यवस्था बनानी पड़ती। इसलिए जन्म को ही वर्गीकरण का आधार बनाए रखना अधिक "सस्ता" और "सुरक्षित" उपाय बना रहा।

V. समकालीन संदर्भ और शिक्षा

आज भी समाज अनेक क्षेत्रों में इस प्रश्न से जूझ रहा है: क्या दक्षता के नाम पर हम सामाजिक न्याय की कीमत चुका रहे हैं? क्या न्यूनतम प्रशासनिक लागत की खोज में हम मानवीय विविधताओं को कुचलते जा रहे हैं?

चाहे वह आरक्षण की बहस हो, या एल्गोरिद्मिक वर्गीकरण, सबक यह है कि सादगी और स्थिरता के नाम पर थोपे गए मॉडल अक्सर असमानता और उत्पीड़न को जन्म देते हैं।

एक लोकतांत्रिक और मानवतावादी समाज में वर्गीकरण के आधार लचीले, पारदर्शी और न्यायसंगत होने चाहिए— अगर वह प्रणाली को थोड़ा अधिक महँगा या जटिल बना दें, तब भी। वर्गीकरण का उद्देश्य व्यक्ति की क्षमता को विकसित करना होना चाहिए, न कि उसकी पहचान को बंदी बनाना। जो सबसे अहम बात है वह यह है कि आज भी जन्म के आधार पर ही सामाजिक न्याय को देने की व्यवस्था है जिसका प्रच्छन्न कारण प्रशासनिक मितव्ययिता ही है न कि वास्तविक न्यायप्रियता या कल्याणकारिता।

एक अर्थशास्त्री की दृष्टि में भारतीय वर्ण व्यवस्था ने संभवतः अल्पविकसित राज्य व्यवस्था को कम लागत में सामाजिक स्थायित्व प्रदान किया, परंतु इसकी कीमत करोड़ों लोगों की मानव गरिमा, अवसर, और मानसिक स्वतंत्रता के रूप में चुकाई गई। यह Low Administrative but High Social Cost Solution - LAHSC Solution -  है। यह एक ऐतिहासिक उदाहरण है कि शासन की सुविधा के लिए अगर लागत को नीचे के वर्गों पर ढका जाए, तो वह व्यवस्था दीर्घकाल में सामाजिक विषमता और पतन का कारण बनती है।

VI. एक अनौपचारिक सिम्युलेशन पर आधारित नतीजे

1. जन्म-आधारित प्रणाली 

प्रशासनिक लागत: अत्यंत कम और स्थिर — क्योंकि वर्गीकरण जन्म पर ही तय होता है।

सामाजिक लागत: समय के साथ बढ़ती है — प्रतिभा दमन, कुंठा, असंतोष, विद्रोह।

उत्पादकता: मामूली बढ़ती है, पर ठहराव के साथ — श्रम का कुशल उपयोग नहीं होता।

असमानता: दीर्घकाल में गंभीर रूप से बढ़ती है — अवसर सीमित।

सामाजिक गतिशीलता: अत्यंत निम्न और स्थिर — व्यक्ति अपनी जाति से नहीं उभर सकता।

2. गुण/योग्यता आधारित प्रणाली:

प्रशासनिक लागत: प्रारंभ में अधिक, लेकिन दक्षता के साथ घटती है।

सामाजिक लागत: शुरू में अधिक (संक्रमण की कठिनाइयाँ), लेकिन धीरे-धीरे घटती है।

उत्पादकता: तीव्र गति से बढ़ती है — क्योंकि समाज प्रतिभा का दोहन करता है।

असमानता: घटती है — क्योंकि अवसर समान होते हैं।

सामाजिक गतिशीलता: लगातार बढ़ती है — हर व्यक्ति को उन्नति का अवसर मिलता है।

सिम्युलेशन का निष्कर्ष:

जन्म-आधारित व्यवस्था राज्य के लिए सस्ती, पर समाज के लिए अत्यंत महंगी होती है।

गुण-आधारित व्यवस्था शुरू में महंगी, लेकिन समाज और अर्थव्यवस्था के लिए लाभकारी होती है।

दीर्घकालिक दृष्टि से, गुण आधारित व्यवस्था सामाजिक न्याय, उत्पादकता और स्थायित्व — तीनों में श्रेष्ठ सिद्ध होती है।

Monte Carlo Simulation के नतीजे लगभग यही कहते हैं। उसके अनुसार जन्म आधारित वर्गीकरण प्रणाली प्रशासनिक दृष्टि से सस्ती प्रतीत हो सकती है, लेकिन इसकी दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक लागत अत्यधिक होती है।

गुण आधारित प्रणाली प्रशासनिक रूप से महंगी जरूर है, परंतु उत्पादकता, सामाजिक स्थिरता और दीर्घकालीन लागत नियंत्रण में अत्यधिक लाभकारी सिद्ध होती है।

Policy-based Simulation दिखाता है कि नीतिगत दक्षता और आरंभिक निवेश यदि ठीक से किया जाए, तो गुणवत्ता-आधारित प्रणाली दीर्घकाल में सबसे कम लागत और उच्चतम उत्पादकता प्रदान करती है।

यदि सुधार केवल आंशिक हो, या नीतियाँ विफल हों, तो गुणवत्ता आधारित प्रणाली भी विफल हो सकती है और उत्पादकता बाधित हो सकती है।

तो हम पाते हैं कि वर्तमान और भविष्य की व्यवस्था को इस ऐतिहासिक सबक से सीखते हुए गुण-सापेक्षता, मानवाधिकार, और सामाजिक गतिशीलता को प्राथमिकता देनी होगी। तभी वर्गीकरण व्यवस्था अन्याय को वैध ठहराने की बजाय न्याय का माध्यम बन सकेगी।

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