औपनिवेशिक आलोचना से सरकारी अध्ययन तक: भारतीय अर्थशास्त्र की कहानी
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“जब इल्म, हुकूमत की चौखट पर सज़ा करे, तो सवाल उठता है गुस्ताख़ी बन जाता है।”
1. अर्थशास्त्र सिद्धांत आँकड़ों की बाज़ीगरी नहीं
अर्थशास्त्री कोई तकनीकी चीज़ नहीं है। ये वो ज़रिया है जिससे हम ये समझते हैं कि समाज कैसा रहता है, ताक़त कैसे बँटती है, और वैज्ञानिक कहाँ गायब हो जाते हैं। लेकिन हिंदुस्तान में इस इल्म की अजब कहानी रही है। सबसे पहले ये हुकूमत से सवाल किया गया था, इसके बाद ये हुकूमत की लोकप्रियता में लग गया।
2. गुलामी का दौर: जब अर्थशास्त्र इंकलाबी था
भारत में आधुनिक अर्थशास्त्र का आरंभिक विरोध हुआ था। दादाभाई नौरोजी, रानाडे, आरसी दत्त और रजनी पाम दत्त जैसे लोगों ने इस इल्म को एक औपनिवेशिक नाइंसाफ़ी के पर्दाफ़ाश के रूप में इस्तेमाल किया।
● दादाभाई नौरोजी:
उनके "ड्रेन थ्योरी" ने बताया कि ब्रिटेन के हिंदुस्तान से लूट कर ले जा रहा है। ये महज़ परंपरा की बात नहीं थी, बल्कि एक राष्ट्र की बात तबाही की फ़रियाद थी।
● महादेव गोविंद राणाडे:
उन्होंने कहा कि केवल आर्थिक तरकीबें नहीं, बल्कि सामाजिक वैज्ञानिक और स्वदेशी उद्योग अधिक महत्वपूर्ण हैं। उनके लिए अर्थनीति एक नैतिक गुण थी।
● रोमेश चंद्र दत्त और रजनी पाम दत्त:
उन्होंने कैपिटल, मजदूर और सत्ता के अधिकार को समझाते हुए यह दर्शाया कि औपनिवेशिक हुकूमत कैसे एक वर्ग के आधार पर लूट का ढांचा था।
इन सभी में एक बात थी कॉमनवेल्थ - स्लोक का इकोनोमिक लॉजिक।
3. प्रमुख के बाद: प्रश्न कम, मूल्य अधिक
जब मिल गया, तब लगा अब अर्थशास्त्र आज़ाद हवा में सांस उपकरण। लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इसका विकास एवं सामाजिक न्याय का तर्क होना चाहिए। वह नहीं हुआ. भारत की आजादी राजनीतिक आजादी ही थी, लेकिन वह न तो वैश्वीकरण की आजादी थी, न ही वैश्वीकरण की आजादी थी, और न ही लोकतंत्र की आजादी थी।
नेहरू जी के आह्वान में पंचवर्षीय संधि और समाजवाद की बातें तो बहुत याद आ गईं, मगर साथ ही अर्थशास्त्रियों को सरकार का हमनवा बना दिया गया।
●पाठ्यक्रमों में दीक्षा की व्यवस्था होने लगी,
● आलोचना को "विघ्न" समझा गया,
● और अर्थशास्त्र डेटा एक किताब बनकर रह गया।
जो किताबें पढ़ाई जाती हैं, वे बस आँकड़े होते थे - जैसे किसी बच्चे को चिड़ियाघर में जानवर दिखाते हैं, लेकिन उनकी जिंदगियाँ, उनकी जगहें, उनकी कोई बात नहीं हो। ऐसे में ना तो प्राणीशास्त्र समझ आता है, ना ही अर्थशास्त्र।
4. ये तबदीली क्यों आई?
● राजनीतिक कारण:
नेहरू के काल में योजनाबद्ध विकास को एक "कौमी आस्था" बनाया गया। जो उनकी आलोचना करता है, वो "राष्ट्रद्रोही" कहलाने लगते हैं।
●शुरूआत ढ़ाचा:
यूनिवर्सिटियों में विचारधारा वाले प्रोफेसर की जगह वो लोग आए जो "सरकारी नीति" को ही आखिरी सच मानते थे।
● बाज़ारी विकल्प की कमी:
क्योंकि प्राइवेट सेक्टर को शक के अंतर से देखा गया था, इसलिए अलग-अलग नजरियां जगह ही नहीं मिलीं।
5. परिणाम: एक खोखली प्रतिभा
अर्थशास्त्री बस सरकारी रिपोर्टों के भोंपू बनकर रह गए। मॉडल शिक्षा से बड़ी-बड़ी प्रतियोगिता प्रतियोगिता तक।
"सवाल उठा जोखिम" और "साथ देना पूर्ति" बन गया।
और जो किसी भी योजना की अंगुली पर उंगली उठाता है, उसे "सृजनात्मक नहीं" कहा जाता है।
6. अब डूबना है एक नई अज़ाज़ की
आज जब देश बेरोजगार, बेरोज़गारी, और सांस्कृतिक संकट से जूझ रहा है, तब पता चलता है कि अर्थव्यवस्था फिर से सवाल पूछना शुरू कर देती है।
जीडीपी की बात तो ठीक है, लेकिन अब मस्जिद, इज्जत और इख्तियार की भी बात होनी चाहिए।
मैरीन कैपिटल और मैरीलैंड को मंजूरी जरूरी है, लेकिन मॉर्गनि रिजर्व के पुलिंदे की तरह नहीं।
7. आख़िरी बात: क्या है अर्थशास्त्र फिर से डेविल्स निर्माण?
दादाभाई नौरोजी ने जो प्रश्न उठाया था उससे ब्रिटिश संसद भी हिल गई थी।
रानाडे ने नीति को नीति (नैतिक नैतिकता) से जोड़ा था।
रजनी पाम दत्त ने हुकूमत की पुरानी सच्चाई को सामने रखा।
आज का अर्थशास्त्र क्या कर रहा है? जब तक ये इल्म सिर्फ सत्ता का पिछड़ा बना रहेगा, तब तक ये देश के गरीब, मजदूर, किसान और आम आदमी की आवाज नहीं बनेगी।
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