रविवार, 22 जून 2025

नेहरूवादी क्रोनी पूंजीवाद और भारत में रिश्वतखोरी की तहजीब का उदय

नेहरूवादी क्रोनी पूंजीवाद और भारत में रिश्वतखोरी की तहजीब का उदय

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जब उसूलों में इन्साफ़ की जगह सिफ़ारिश ले ली जाती है, तो ज़ुल्म एक दस्तूर बन जाता है।


*मुद्दे की बुनियाद


स्वीडन के नामवर इकोनोमी ग्लारर्डल ने अपनी किताब एशियन ड्रामा (1968) में हिंदुस्तान की साकी और करप्शन की जो तस्वीर पेश की थी, वह आज भी हू-ब-हू सही बैठती है। उन्होंने यह भी लिखा कि इस मुद्दे पर शोध करना तब ग़ुलाह-ए-अज़ीम समझा जाता था। मगर चुभन के साथ परिवर्तन, और आज "इकोनॉमिक्स ऑफ करप्शन" एक मनी हुई ड्रैगन शाखा बन गई है।


अगेंस्ट द स्ट्रीम नामक दूसरी किताब में मिर्डल की एक दिलचस्प वाकिया बयानबाजी की गई है। दिल्ली हवाई अड्डे पर, नेहरू से विदा लेने के बाद, उन्होंने देखा कि दूर से कुछ ड्राइवर शोरगुल कर रहे हैं।

उन्होंने दिल्ली पुलिस के आला अधिकारी से पूछा कि ये लोग बारिश क्यों कर रहे हैं, और पुलिस इन्हें क्यों नहीं कर रही।

अफ़सोर ने दिया जवाब:

"हम भिक्षु हैं, सर। अगर हम हस्तक्षेप करेंगे तो वे चिल्लाएंगे कि पुलिस वाले पैसे मांगते हैं।"


मिर्डल ने पूछा: "लेकिन उन पर विश्वास कौन करेगा?"

उत्तर मिला: “कौन विश्वास नहीं करेगा सर?”

यानी, रिश्वतखोरी को लोग इतने आम और स्वाभाविक मान चुके थे कि उनकी इल्ज़ाम ख़ुद पुलिस को भी डर लगने लगा था।


अगेंस्ट द स्ट्रीम में मिर्डल ने एक और वाकये का बयान दिया है: एक लंबे प्रवचन के बाद जब वो पंडित नेहरू के साथ बाहर निकल रहे थे, तब उनका घनत्व स्थिरता से भाग आया और कुछ झिझकते हुए कहा: "सर, सामाजिक वैज्ञानिकता पर बहस तो एजेंडे में थी, मगर उस पर कोई बातचीत नहीं हुई।"


नेहरू का चेहरा तमतम उठा। उन्होंने बिना लफ़्ज़ों को नर्म किया

"ऐसी बातें अजेंडा में हुई और बैठक की रिपोर्ट के मुख में दर्ज करने के लिए होती हैं, न कि वाकाई में गुफ्तगु करने के लिए!"


इस एक जुमले से ये साफ़ झलकता है कि किस हद तक कुछ मस्जिदें शोरूम थे, और पंडित नेहरू के लिए हक़ीक़त में कोई रसायन नहीं थे।


सोशल साइट्स ने उनके लिए एक नारा था—एक एस्कॉट वेजिटेबल—मगर नियति की तह में वह कभी भी नहीं गया।


*नेहरू का इमामत और तानाशाही का सूरत


ईसा मसीह के बाद भारत के पास गांधी, त्याग, और धर्म का एक नैतिक सिद्धांत था। लेकिन जब आर्थिक नीति की बात आई तो यह सैद्धांतिक सिद्धांत एक राज्य-सापेक्ष विचारधारा की ओर झुका।


नेहरू की ख्वाहिश थी कि समाजवाद की प्रेरणा से एक योजना और औद्योगिक विकास हो, जिससे आगे बढ़ें। मैग्राही सेंट्रल वैधानिक नियंत्रण, लाइसेंस- दस्तावेज़ राज, और ब्यूरोक्रेसी राज वह ढांचा बन गया, जिसने क्रोनी कैपिटल इस्लाम और रिश्वत की तहजीब को जन्म दिया।


*:राज्य के मुनाज्जम शाह पर नाफा वाले


जो मुसलमान हुकूमत के करीब थे या फिर इमाम रहनुमाओं का हाथ कंधे पर था, उन्हें मुसलमानों के लिए दरवाज़ा खुला मिला। निशादास बिड़ला, जोगांधीजी के अमूल्य थे, के बाद राष्ट्रनिर्माता संस्थापति बने। सरकारी मंजूरी में तरज़ीह मिली, क़ायदे-क़ानून ने उनका मुफ़ीद बनाया।


इसके बराक्स, रामकृष्ण डालमिया, सिंघानिया, वालचंद हीराचंद—जिनकी सोच ज़रा अलग थी या जो कांग्रेस की ''लाइन'' में फिट नहीं थे, राजनीतिक तफ़तीश, कानूनी केसों और सरकारी दबावों का सामना करना पड़ा। कई बार तो यह दबाव सिर्फ इसलिए बनता था कि वे किसी "प्रिय उद्योगपति" के बाजार में कम कर दी थी।


इस तरह, प्रोटोटाइप ही मसारियो की ज़मानत बन गई—यही क्रोनी पूंजीवाद की असल पहचान है।


* ब्यूरोक्रेसी का रुतबा और 'सुविधा शुल्क' का दस्तूर


जब हर इज़्ज़तनामा, हर मंज़ूरी, लाइसेंस हर सरकारी बाबू के दस्तख़त पर मुँह ताकता हो, तो फिर सिफ़ारिश, रिश्वत और ज़मीन की मशीनरी बढ़ जाती है। शुरुआत-शुरू में ये निश्चित रूप से-तरीके बस बड़े पैमाने तक सीमित थे, लेकिन जल्द ही ये अफ़सोसशाही की रगों में ऐसी दौड़ें कि उद्योग का अनिवार्य हिस्सा बन गया।


रॉ माल, विदेशी अलॉटमेंट के पासपोर्ट, बैंक ऋण, रियायती-हर जगह ऑफसर की मेहरबानी होनी चाहिए थी।

कभी राजनीतिक सरपरस्ती, तो कभी नक़द नज़राना—बिना इसका न कारोबार था, न फ़ैक्टरी।


*जब रिश्वत बनी एक तहज़ीबी बनी


जो पहले पासपोर्ट लाइसेंस और थेकों में था, वह धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे समाज की हर परत में घुस गया।


स्कूल में क्या रखा जाना चाहिए? रिश्वत दो.

सरकारी अस्पताल में खरीदारी करनी चाहिए? रिश्वत दो.

थाने में FIR लिखवानी है? रिश्वत दो.

अफ़सोसशाही में पोस्टिंग या प्रमोशन? बोली लगाओ।


सिस्टम ऐसा हो गया कि ईमानदार व्यक्ति को या तो हार माननी पड़ी थी, या सहमति बनी हुई थी।

उधार अब एक जुर्म नहीं रही—वह एक "प्राकृतिक शुल्क" बन गया था।


*नेहरू की नीति और ज़मीनी नाकामी


नेहरू के इरादे बेशक नेक थे, मगर उन्होंने जिन आस्थाओं और समर्थकों को खड़ा कर दिया, उनमें निष्ठा की जगह उत्तरदायित्व की जगह, और तीर्थस्थलों पर नियंत्रण की व्यवस्था दी गई।


उनकी नीति के उसूल ऊँचे थे, लेकिन अमल में उभरते अफ़सरशाही और सत्ता-पसंद ने उनूलों को कुचल दिया। एक झलक ऐसा भी आया जब “नीतिगत आदर्शवाद, व्यावहारिक अवसरवाद की कठपुतली बन गई।”


*नतीज़ा: दो जुड़वाँ राक्षस


इस कुल परिणाम में यह हुआ कि भारत में दो ऐसे शेयरधारक हो गए जो जुड़वाँ मगर जहरीले थे:


क्रोनी कैपिटलिज्म, जिसमें चंद चुने हुए निवेशकों को सरकारी आशीर्वाद मिला


सोयायटी गोदाम खोरी, जिसमें आम आदमी को हर स्तर पर सिक्के खरीदे जाते थे


जहाँ एक ओर सत्ता और संस्था का गठजोड़ आर्थिक विचारधारा का जन्म हुआ, वहीं दूसरी ओर समाज का हर तबका रिश्वत को "ज़रूरी ज़रिया" देने की मांग की गई।


* अंतिम बात


आज अगर भारत में करप्शन सिर्फ एक मसला नहीं है, बल्कि एक "जीवित व्यवस्था" है, तो उसकी जड़ें हमें अस्तित्व में लाती हैं, उसी दौर में जब उम्मीदों की सरकार ने, आदर्शों की नींव में, संरक्षित पूर्व की फसल बोई थी।


नेहरूवादी आदर्शवाद का दुर्भाग्य यह था कि वह अभिनय की दुहाई दे रहे थे, लेकिन ज़मीनी हकीकत में वह न सच्ची कहानी दी, न पुष्टि—बल्कि आम लोगों को मौका दिया।

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