अध्याय 1: नेहरू और सत्ता का वादी पाखं
"हमारे कलाकारों ने अलग-अलग तरह की बातें कीं, उनके पीछे सत्ता की भूख छुपी रही - न मिटने वाली, न स्वीकार की गई।"
1.1. असंबद्ध और व्यक्ति का द्वंद्व
स्वतंत्र भारत का पहला युग नेहरू के नाम से जाना जाता है- नेहरू युग । यह युग था जिसमें लोकतंत्र की स्थापना हुई, योजना आयोग का निर्माण हुआ, पंचवर्षीय योजनाएँ आईं, सार्वजनिक क्षेत्र स्थापित हुए, और विज्ञानवाद की स्थापना हुई। लेकिन इस उजाले के पीछे एक काला अँधेरा था - सत्ता का केंद्रीकरण, वादी पाखंड, और सिद्धांत का वैयक्तिकरण ।
नेहरू ने स्वयं को वैज्ञानिक, समाजवादी और आधुनिकता का प्रतीक बताया। लेकिन जब हम उनके कार्य को देखते हैं, तो यह प्रतीक अपनी ही छाया से डरता दिखाई देता है। वे वामपंथियों को समर्थन देते रहे, कांग्रेस के अंदर वामपंथियों को समर्थन देते रहे। वे सेक यूनिवर्सलिज्म की बात कर रहे थे, लेकिन मुस्लिम लीग की विरासत को बचाने के लिए कुछ समुदायों को विशेष संरक्षण के लिए शेष समाज में गहरी दोस्ती बोते रहे।
1.2. योजना आयोग केन्द्र औरीकरण का छलावा
नेहरू ने "योजना आयोग" की स्थापना की - एक ऐसी संस्था जिसका लोकतांत्रिक नियंत्रण रखा गया था, न तो संसद द्वारा समर्थित, न ही जनता को जिम्मेदार ठहराया गया। यह आयोग देश की आर्थिक दिशा तय करता था, इसके सदस्यों का नाम होता था - न चुने गए, न जवाबदेह ।
नेहरू के 'केंद्र में योजना' के सपने ने राज्यों की स्वतंत्रता का संकल्प लिया । हर नीति केंद्र से तय होता था, और राज्यों को उस पर कार्यान्वित करना होता था, वह अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिरता के अनुकूल हो या नहीं।
1.3. 'वैज्ञानिक समाजवाद' - आर्किटेक्ट्स की सेवा में
नेहरू युग का एक बड़ा पाखंड यह था कि इसे समाजवाद के नाम से प्रचारित किया गया था, जबकि असल में यह कालानुक्रमिक सिद्धांतों की शिक्षा थी। टाटा, बिड़ला, बजाज जैसे उद्योग जगत को विशेष लाइसेंस, सरकारी संरक्षण और फाइनेंस लाइसेंस ऑफर दिए गए। 'लाइसेंस राज' ने आम जनता के लिए नहीं, बल्कि कुछ चुने हुए व्यवसायों के लिए ही डोर ओपन किया।
कंपनी की बड़ी कंपनियों को "बुनियादी" सरकारी निवेश से खड़ा कर दिया गया, और जैसे ही उन्हें लाभ मिला, धीरे-धीरे उनका नियंत्रण या शेयर निजी क्षेत्र को छीन लिया गया। सार्वजनिक क्षेत्र का लाभ कभी भी सीधे जनता तक नहीं पहुंचता है - वह राजनीतिक संरक्षण, स्वामित्व और अध्ययन के सिद्धांतों में बंटवारा करता रहता है।
1.4. सत्य के साथ आत्ममुग्धा का गठबंधन
नेहरू अपने विचारों से इस कदर आत्ममुग्ध थे कि उनकी बात सुनी तक गवारा नहीं थी। राममनोहर जोसेफ, सुभाषचंद्र बोस की विरासत, डॉ. ओबामा की चेतावनी - नेहरू ने या तो संप्रदाय बनाया या हाशिए पर लिखा।
उन्होंने प्रेस पर कभी आपातकाल जैसी खुली सेंसरशिप नहीं लगाई, पर एक ‘नेहरूवादी संस्कृति’ खड़ी कर दी, जिसमें असहमति को ‘राष्ट्रविरोध’ या ‘अविकसित मानस’ का प्रतीक माना गया। यही संस्कृति आगे चलकर कांग्रेसवाद और फिर ‘नेतावाद’ में बदल गई।
1.5. आधुनिकता का मोह और परंपरा का तिरस्कार
नेहरू की आधुनिकता आधुनिक पश्चिमी छवि की नकल बनकर रह गई। गाँवों को “बैकवर्ड” बताकर उनकी आत्मनिर्भर प्रणाली को तोड़ दिया गया। ग्राम स्वराज की गांधीवादी अवधारणा को एक किनारे कर भारी उद्योगों और शहरीकरण को प्राथमिकता दी गई।
यह ‘डवलपमेंटल पाखंड’ गाँवों के विस्थापन, पर्यावरण विनाश, और सामाजिक असंतुलन का बीज था – जिसे ‘प्रगति’ का नाम देकर जनता को भ्रमित किया गया।
1.6. निष्कर्ष: वैचारिकता के नाम पर सत्ता का विस्तार
नेहरू ने भारत को एक दिशा दी – पर वह दिशा केवल विचारों की सजावट और सत्ता की केन्द्रीकरण की ओर जाती थी।
उनकी विचारधारा और व्यवहार में जो गहरी खाई थी, उसी से भारत के लोकतंत्र की गिरावट शुरू हुई।
वह खाई आज और चौड़ी हो चुकी है – पर उसकी नींव नेहरू युग में ही रखी गई थी।
“विचारधाराएँ जब सत्ता की भूख के नीचे दबी हों, तो वे सिर्फ़ मुखौटे बन जाती हैं – और भारत ने यह मुखौटा बहुत पहले पहन लिया था।”
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अध्याय 2: पंचायती राज – सत्ता का ‘लोकल’ फैलाव
"लोकतंत्र का विकेंद्रीकरण तब पाखंड बन जाता है, जब सत्ता की रस्सियाँ अब भी दिल्ली और राजधानी के ड्रॉइंग रूम में खिंचती रहें।"
2.1. सत्ता का विकेंद्रीकरण या भ्रष्टाचार का प्रसार?
भारत में पंचायती राज की शुरुआत ग्राम स्वराज की भावना से नहीं, बल्कि सत्ता के "डिस्ट्रिब्यूशन" मॉडल के रूप में हुई – ऊपर से नीचे की ओर निर्देशों और पैसों का प्रवाह। 73वाँ संविधान संशोधन (1992) भले बाद में हुआ हो, लेकिन पंचायतों को "विकास का आधार" कहकर पहले ही एक प्रयोगशाला बना दिया गया था – जहाँ प्रयोग जनता पर होते थे, परिणाम सत्ता को सूट करते थे।
स्थानीय स्वशासन के नाम पर जो प्रणाली विकसित की गई, वह वास्तव में एक राजनीतिक-कॉर्पोरेट गठजोड़ का लोकल संस्करण थी। पंचायतों को जो अधिकार दिए गए, वे कागज़ पर थे। असली ताक़त अब भी स्थानीय सचिव, ब्लॉक स्तर के अधिकारी, और सत्ताधारी दलों के क्षेत्रीय प्रभुओं के हाथ में केंद्रित रही।
2.2. महिला और दलित प्रतिनिधित्व: प्रतिनिधि नहीं, प्रतीक मात्र
आरक्षण का प्रावधान – विशेषतः महिलाओं, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए – एक ऐतिहासिक निर्णय प्रतीत हुआ। परंतु इसकी असल क्रियान्विति में प्रॉक्सी शासन का बोलबाला रहा। एक शब्द पैदा हुआ: प्रधानपति। अर्थात – महिला प्रधान, पर काम करनेवाला उसका पति। इसी तरह, एक दलित व्यक्ति को प्रधान बना दिया गया, लेकिन गांव की असली सत्ता अब भी सवर्ण ज़मींदार या प्रभावशाली परिवारों के हाथों में रही।
न तो महिलाएं निर्णयों में स्वतंत्र थीं, न दलित प्रतिनिधि। वे या तो डर, कूटनीति या मजबूरी से उपयोग किए गए – और जब उन्होंने स्वतंत्रता दिखाई, तो उन्हें सामाजिक बहिष्कार या हिंसा का सामना करना पड़ा।
यह सशक्तिकरण नहीं, प्रतीकरण था – जिससे सत्ताधारी सत्ता की छवि को लोकतांत्रिक दिखा सकें।
2.3. ग्राम सभाएँ: औपचारिकता या जनभागीदारी?
ग्राम सभा – पंचायत व्यवस्था की आत्मा – भारत में प्रहसन बन गई। जिन लोगों को उसमें भाग लेना था, वे या तो सूचना से वंचित थे या व्यवस्था से हताश। निर्णय पहले ही कर लिए जाते, ग्राम सभा बस ‘अनुमोदन की फोटो’ बन जाती।
"पंचायती लोकतंत्र" गाँव के लोग नहीं, ब्लॉक ऑफिसर और ठेकेदार तय करते हैं। कौन सी योजना लगेगी, कितनी राशि लगेगी, किसको टेंडर मिलेगा – ये सब पहले से तय रहता है।
जिस ‘जनभागीदारी’ का ढोल पीटा गया, वह असल में एक ऐसी बाजारू मंडी थी जहाँ ठेकेदार, नेता, अफसर – सभी ‘विकास’ के नाम पर दलाली करते रहे।
2.4. योजना, घोटाले और भ्रष्टाचार का लघुकरण
ग्रामीण योजनाएं – जैसे मनरेगा, इंदिरा आवास योजना, जल-स्वच्छता अभियान – ग्राम पंचायतों के हाथ में आनी शुरू हुईं। लेकिन इन योजनाओं के साथ आया एक नया ‘लोकल पिशाच वर्ग’:
- बिल्डर-ठेकेदार जो घटिया निर्माण करता
- सचिव जो जाली मस्टर रोल बनाता
- पंचायत प्रधान जो 10% कमीशन तय करता
- और ऊपर से ब्लॉक स्तर के अफसर जो ‘सालाना हिस्सा’ वसूलते
पंचायत, जो आत्मनिर्भरता का प्रतीक हो सकती थी, भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकृत रूप बन गई।
2.5. क्या यह गांधी का ग्राम स्वराज है?
गांधी ने जब ग्राम स्वराज की बात की थी, उनका आशय था – ग्राम की आत्मनिर्भरता, नैतिक नेतृत्व, सामूहिक सहमति, और संस्थाओं की जवाबदेही। लेकिन जो आज पंचायती राज है, वह गांधी के विचारों से उलट है। यह न तो आर्थिक रूप से स्वतंत्र है, न नैतिक रूप से मजबूत।
यह "केंद्र से भेजे गए पैसों के स्थानीय मैनेजमेंट" की एक व्यवस्था है – जिसमें स्थानीय गरीब जनता का नहीं, स्थानीय प्रभु वर्ग का सशक्तिकरण होता है।
2.6. निष्कर्ष: लोकतंत्र की नींव खोखली है
पंचायती राज का पाखंड यह है कि यह जनता को सत्ता देने का दावा करता है, जबकि असल में यह राजनीतिक नियंत्रण और आर्थिक दलाली का स्थायी ढाँचा बन चुका है।
लोकल सेल्फ गवर्नमेंट अगर लोकल पॉवर एलाइट के हाँथ का औजार बन जाए, तो वह लोकतंत्र नहीं, छोटे-छोटे सामंतों की पुनरुत्थान यात्रा है।
"पंचायती राज की आज़ादी वैसी ही है जैसे किसी कर्ज़दार को उधारी में लोकतंत्र दे देना – दिखे तो सही, पर छू न पाए।”
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अध्याय 3: बेसिक बनाम नॉन-बेसिक उद्योग – नीति या छल?
“नीतियाँ जब शब्दों में सुंदर और व्यवहार में पक्षपाती हों, तो वे केवल शासन का पर्दा होती हैं – असली चेहरा पीछे छुपा रहता है।”
3.1. आधारभूत उद्योगों का महिमामंडन: नीति के पीछे रणनीति
स्वतंत्र भारत के औद्योगिक विकास का मूल आधार ‘बेसिक इंडस्ट्रीज़’ पर केंद्रित था – इस विचारधारा को नीति के रूप में सबसे पहले 1956 की औद्योगिक नीति प्रस्ताव (Industrial Policy Resolution) में प्रमुखता से स्थान मिला। नेहरू और उनके योजनाकारों का कहना था कि यदि स्टील, कोयला, मशीन टूल्स, इंजीनियरिंग, पेट्रोलियम, विद्युत और भारी रसायनों जैसे मूल उद्योग विकसित होंगे, तो उनसे अन्य सभी उद्योगों को शक्ति मिलेगी।
लेकिन इस "बेसिक" बनाम "नॉन-बेसिक" वर्गीकरण में एक गहरा पाखंड छिपा था:
- 'बेसिक' उद्योगों को सरकारी निवेश और संरक्षण मिला
- 'नॉन-बेसिक' या उपभोक्ता वस्तु उद्योगों को निजी पूंजी के लिए खोल दिया गया
- दोनों जगहों पर लाभांश की मलाई उद्योगपतियों और अफसरशाही ने बाँटी
सरकार ने जिन उद्योगों को “राष्ट्रनिर्माण के स्तंभ” कहकर स्थापित किया, वे धीरे-धीरे साझेदारी के नाम पर खास पूंजीपतियों के हित में ढाले गए।
3.2. सार्वजनिक क्षेत्र – जनधन से खड़ा, निजी हाथों में झुका
हजारों करोड़ जनता के टैक्स और विदेशी सहायता से बनाए गए सार्वजनिक उपक्रम जैसे SAIL, BHEL, HAL, ONGC आदि को “राष्ट्र की संपत्ति” कहा गया। लेकिन इनका प्रशासन राजनीतिक अधिकारियों और नौकरशाहों के गठजोड़ से संचालित होता रहा – जो इन उपक्रमों को निजी हितों के लिए झुकाते गए।
बाद में ‘साझेदारी’ और फिर ‘डिसइनवेस्टमेंट’ के नाम पर इनका लाभकारी हिस्सा निजी पूंजीपतियों को सौंपा गया। जनता ने निवेश किया, जोखिम उठाया – लेकिन फल मिला नेताओं, अफसरों और पूंजीपतियों को।
3.3. ‘लाइसेंस राज’ – प्रतिस्पर्धा नहीं, कृपा के भरोसे पूंजीवाद
औद्योगिक नीति के तहत एक ‘लाइसेंस परमिट कोटा राज’ बना। यह कहा गया कि इससे अनियंत्रित पूंजीवाद रुकेगा। पर हुआ उल्टा – इसने एक नया ‘क्रोनी पूंजीवाद’ खड़ा किया।
- उद्योग खोलने के लिए लाइसेंस चाहिए था
- लाइसेंस पाने के लिए रिश्वत, संपर्क और पार्टीभक्ति ज़रूरी थी
- परिणामतः वही लोग उद्योग खोल पाए जो सत्ता के करीबी थे
इससे भारतीय उद्योग न तो प्रतिस्पर्धी बन पाया, न नवोन्मेषी। वह अनुदान-प्रेमी, संरक्षणवादी और दलाल-आधारित व्यवस्था बनकर रह गया।
3.4. उपभोक्ता वस्तु उद्योग – गाँव को लूटने का नया तरीका
जब भारत में साबुन, तेल, बिस्कुट, कपड़े, टूथपेस्ट, पंखे, रेडियो, और स्कूटर जैसे उपभोक्ता उत्पाद बनने लगे, तो कहा गया कि इससे आम जन को सुविधा मिलेगी। लेकिन इन उत्पादों की कीमतें और ब्रांडेड प्रसार गाँवों की ओर मोड़ दिए गए – मूल्य बढ़ते गए, गुणवत्ता घटी, और किसानों की वस्त्र-विनिमय आधारित जीवनशैली टूटती गई।
जो गाँव पहले तेल, कपड़ा, दातून, गुड़, आदि खुद बनाते थे – अब वे उपभोक्ता बन गए।
विकास के नाम पर उन्हें बाजार का गुलाम बनाया गया।
3.5. असंतुलन – कृषि उत्पाद के दाम स्थिर, औद्योगिक मूल्य दुगुने
एक भयानक नीति-पाखंड यहाँ और था:
- कृषि उपज की सरकारी न्यूनतम कीमतें (MSP) बहुत धीमी गति से बढ़ीं
- जबकि औद्योगिक वस्तुओं की कीमतें (input cost) लगातार तेज़ी से बढ़ीं
उदाहरण:
- एक किसान को गेहूं का 22 रुपये प्रति किलो मूल्य मिला
- वही किसान अगर ट्रैक्टर का कलपुर्जा खरीदने गया, तो वह 400 रुपये में बिकता था
यह अनुपातहीन मूल्यवृद्धि गरीब को गरीबतर और उद्योगपति को अमीरतर बनाती रही।
और सरकार ने हर बजट में इस असंतुलन को "विकास" कहकर छुपाया।
3.6. श्रमिकों का शोषण: मशीनों का मुनाफा, मज़दूर की मजदूरी
बेसिक इंडस्ट्रीज़ के नाम पर जहाँ मशीनें और तकनीक को अपनाया गया, वहाँ मानव श्रम को सिर्फ एक 'कॉस्ट फैक्टर' माना गया।
- मज़दूरों को सब्सिस्टेंस वेज (न्यूनतम जीवन स्तर) पर रखा गया
- यूनियनों को दबाया गया
- छँटनी को नियोजित किया गया
मशीनें पूँजी की सेवा में थीं, मज़दूर न नायक थे, न भागीदार।
3.7. निष्कर्ष: नीति का नाम, छल का काम
‘बेसिक बनाम नॉन-बेसिक’ एक ऐसा वर्गीकरण था, जो जनता को भ्रमित करने, और नीतियों के पीछे वर्ग-हित छिपाने के लिए बनाया गया। इसका उद्देश्य राष्ट्रनिर्माण नहीं, राजनीतिक नियंत्रण और पूंजी के केन्द्रीकरण को स्थिर करना था।
"जब नीति का हर शब्द जनहित में हो, और हर क्रियान्वयन पूंजी-हित में – तब समझिए कि विकास सिर्फ एक प्रहसन है।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 4: श्रमिक, किसान और रियल इनकम का पतन
“यदि देश का श्रमिक दो वक्त की रोटी के लिए तड़पता रहे, और किसान को उसकी उपज का मूल्य न मिले, तो उस राष्ट्र का विकास मात्र एक आंकड़ा होता है – एक लाठी जो गरीब की पीठ पर गिनी जाती है।”
4.1. भारत का श्रमिक – विकास की मशीन या गुलाम?
विकास के हर आँकड़े में ‘रोज़गार सृजन’, ‘औद्योगिक उत्पादन’ और ‘GDP वृद्धि’ जैसे शब्द आते हैं। लेकिन कभी नहीं पूछा गया कि इन आँकड़ों के पीछे काम करनेवाले लोगों की दशा कैसी है।
श्रमिकों को:
- सब्सिस्टेंस वेज (न्यूनतम गुजर-बसर की मजदूरी) पर काम करने को मजबूर किया गया
- न्यूनतम मजदूरी कानून की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई गईं
- स्थायी नौकरी के बदले ठेका मजदूरी की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित किया गया
- यूनियनों को असुरक्षा, लाल आतंक या ‘विकास विरोधी’ कहकर दबा दिया गया
उदाहरण के लिए:
- एक फैक्ट्री मज़दूर को 8000 रुपये माहवार वेतन दिया गया
- जबकि उसी फैक्ट्री के प्रबंध निदेशक की तनख़्वाह थी 12 लाख रुपये माह
- और उत्पाद की कीमत थी इतनी अधिक कि वह मज़दूर खुद उसका ग्राहक नहीं बन सकता
यह कैसा विकास है, जिसमें उत्पाद का निर्माता ही उसे नहीं खरीद सकता?
4.2. कृषि – जिसे जानबूझकर अर्धमृत रखा गया
भारत की 60% आबादी कृषि पर निर्भर रही, पर सरकारों ने कृषि को ‘कम-प्रॉफिटेबल सेक्टर’ मानकर कभी संजीदा निवेश नहीं किया।
- सिंचाई की व्यवस्था 60 वर्षों तक 40% से ऊपर नहीं बढ़ी
- उर्वरक नीति में सब्सिडी का फायदा किसानों की जगह कंपनियों को मिला
- MSP यथार्थ से कम रखा गया
- क्रेडिट के नाम पर बैंकिंग फ्रॉड और साहूकार लोन का दोहरा जाल खड़ा कर दिया गया
जो किसान:
- बीज महंगे दामों पर खरीदता है
- खाद कंपनियों की शर्तों पर लेता है
- बिजली अनियमित दरों पर पाता है
- और फसल की बिक्री में मंडी और दलालों से लूटता है
वह अंततः कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या करता है।
यह ‘आर्थिक विकास’ नहीं, 'सामूहिक मरण' का संस्थागतकरण है।
4.3. रियल इनकम का ह्रास – आँकड़ों में बढ़त, थाली में घटत
वेतन बढ़ा है, यह कहकर नीति-निर्माता जनता को बहलाते हैं। पर रियल इनकम (Real Income) वह है जो मुद्रास्फीति (Inflation) और उपभोक्ता वस्तुओं के दाम बढ़ने के बाद बचती है।
- पिछले 40 वर्षों में आम उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्य 500–1000% तक बढ़े
- पर किसानों के उत्पादन (गेहूं, चावल, दाल, सब्ज़ी, दूध) की सरकारी खरीद दर लगभग 4–6% की दर से ही बढ़ी
- मजदूरों की मज़दूरी तो कई बार स्थिर ही रही – क्योंकि नियोक्ता ने "अस्थायी", "कॉन्ट्रैक्ट", "शॉर्ट-टर्म" जैसे शब्दों के पीछे श्रम कानून को चकमा दिया
उदाहरण:
- बैंक में फिक्स्ड डिपोजिट का ब्याज 5.5%
- खुदरा मुद्रास्फीति 6.5–8%
- मतलब – आपकी बचत दरअसल घट रही है, बढ़ नहीं रही
सरकारी कर्मचारी को DA और वेतनमान मिले, लेकिन निजी क्षेत्र और असंगठित श्रमिकों को यह सुरक्षा कभी नहीं मिली।
4.4. वित्तीय संस्थाएं – आम जनता को लूटने का संगठित तंत्र
बैंकों और बीमा कंपनियों ने भी विकास की कहानी में अपनी भूमिका निभाई – जनता से जमा लेकर पूंजीपतियों को उधार देना, और जब वह NPA बन जाए, तो माफ़ कर देना।
- बड़े पूंजीपति 5000–10000 करोड़ के ऋण लेकर विदेश भागे
- आम आदमी 2 लाख के शिक्षा ऋण पर डिफॉल्ट करे, तो बैंक नोटिस चिपका देता है
- छोटे किसान 50,000 का ऋण न चुका पाए, तो आत्महत्या की खबर बनते हैं
फिक्स्ड डिपोजिट का ब्याज अब मुद्रास्फीति के नीचे गिर चुका है, जिससे करोड़ों वृद्धजन, नौकरीपेशा लोग और छोटे निवेशक धीरे-धीरे गरीब होते जा रहे हैं।
यह वित्तीय लोकतंत्र नहीं, संविधान सम्मत शोषण है।
4.5. विकास की भाषा में विस्थापन की व्याकरण
विकास के नाम पर:
- भूमि अधिग्रहण हुआ – किसानों से बिना मोलभाव ज़मीन छीनी गई
- औद्योगिक क्षेत्र बने – जहाँ स्थानीय युवा मजदूर नहीं, बाहर से आए कुशल श्रमिक लगे
- नगर विकास हुआ – जहाँ झुग्गियाँ उजाड़ी गईं, पर पुनर्वास न मिला
इसी बीच, सरकार ने हर बजट में "Inclusive Growth" शब्द घिसते हुए लिखा – और ज़मीन से जुड़े लोग छूटते गए।
4.6. निष्कर्ष: विकास के नीचे दबी आवाजें
श्रमिकों की कराह, किसानों की हताशा, और बचतकर्ता की निराशा – यह वह सच्चाई है जो भारत के विकास के चमचमाते स्लाइड शो में कभी नहीं दिखती।
यह सबकुछ जानबूझकर किया गया – ताकि क्रोनीज़ की पूँजी बढ़े, राजनीति को फंड मिले, और विकास की कथा जनता को मूर्छित करने वाली अफीम बन जाए।
“जब आम आदमी की जेब खाली और उसकी थाली अधूरी हो, तो ‘विकास दर’ नहीं, ‘विकास की दिशा’ पर सवाल उठना चाहिए।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 5: स्वास्थ्य और शिक्षा — खोखले खंभों पर खड़ी इमारत
“जहाँ अस्पताल खुद बीमार हों और स्कूल खुद अनपढ़, वहाँ जनता की मुक्ति नहीं, बस मोर्चा-बंध गुलामी होती है — जिसे ‘विकास’ कहकर हम हर बजट में भुनाते हैं।”
5.1. स्वास्थ्य – बीमारियों की फैक्ट्री या उपचार की व्यवस्था?
स्वतंत्रता के बाद के दशकों में जनस्वास्थ्य प्रणाली को लेकर बड़े-बड़े वादे किए गए — “सबके लिए स्वास्थ्य”, “निःशुल्क इलाज”, “गांव-गांव तक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र”। लेकिन ज़मीनी हकीकत यह थी:
- ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) या तो बंद रहते थे या वहाँ कोई MBBS डॉक्टर नहीं होता
- दवाइयाँ या तो उपलब्ध नहीं होती थीं या भ्रष्टाचार में बेच दी जाती थीं
- शहरों में सरकारी अस्पतालों की स्थिति इतनी दयनीय कि लोग निजी अस्पतालों की शरण में भागते — और वहाँ लूट का आलम
सरकारी स्वास्थ्य क्षेत्र का बजट:
- 1947 में GDP का लगभग 0.4%
- 2020 तक भी GDP का केवल 1.2%
(जबकि WHO की न्यूनतम अनुशंसा थी: 5%)
और इसी दौरान:
- निजी अस्पतालों का विस्तार हुआ
- बीमा कंपनियाँ आईं
- मेडिकल कॉलेजों ने सीटें बेचीं
- और स्वास्थ्य एक “सेवा” से “उद्योग” बन गया
5.2. बीमारी का निजीकरण, इलाज का बाज़ारीकरण
आज जो स्वास्थ्य प्रणाली है, उसमें रोगी ग्राहक है, डॉक्टर सेल्समैन, और अस्पताल मार्केटिंग हाउस।
- अनावश्यक टेस्ट, महंगे पैकेज, ICU में भर्ती की मजबूरी — ये सब इलाज की प्रक्रिया में शामिल कर दिए गए
- जो नहीं दे सका पैसा, उसे अस्पताल के फर्श पर सड़ने दिया गया
- बीमारियों को भी मुनाफे का स्रोत बना दिया गया
कोरोना महामारी ने इस पाखंड को खुलकर उजागर किया:
- ऑक्सीजन ब्लैक में बिकी
- अस्पताल में बेड नहीं मिले
- मृतकों की लाशें गंगा में बहा दी गईं
- लेकिन अमीरों के लिए चार्टर फ्लाइट और होम ICU उपलब्ध था
5.3. शिक्षा – ज्ञान का मंदिर या मूर्खों की मंडी?
“शिक्षा से ही राष्ट्र निर्माण होगा” — यह नारा हर सरकार ने लगाया, लेकिन किया क्या?
-
सरकारी स्कूलों की हालत:
- शिक्षक अनुपस्थित
- छात्र बिना बस्ते, बिना परीक्षा
- पाठ्यक्रम विचारशून्य और परीक्षा-केन्द्रित
- स्कूल भवनों का इस्तेमाल शादी और पार्टी के लिए
-
मिड डे मील योजना — बच्चों को स्कूल में रखने का एकमात्र प्रलोभन, वह भी घटिया गुणवत्ता से संचालित
-
शिक्षा की भाषा, विषय-वस्तु और पद्धति – सब कुछ ऐसा जैसे शिक्षा नहीं, परीक्षा पास कराना ही उद्देश्य हो
अंततः शिक्षा बनी – एक अर्धशिक्षित, बिना सोच के, आज्ञाकारी, भ्रमित जन-बल की फैक्ट्री।
5.4. निजीकरण: शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों का सुनियोजित अपहरण
सरकार ने खुद अपने संस्थानों को जानबूझकर बर्बाद किया ताकि जनता विकल्पहीन हो जाए और फिर निजी संस्थानों की शरण में जाए।
- निजी स्कूलों की फ़ीस बढ़ती गई, क्वालिटी नहीं
- मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट – सबकी सीटें “डोनेशन” से बिकने लगीं
- शिक्षा के मंदिर, पूंजी के मॉल बन गए
- स्वास्थ्य के केंद्र, लूट के अड्डे
सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों को:
- दायित्व नहीं, अवसर समझा
- व्यय नहीं, निवेश समझा — जिससे वोट भी मिले और कॉर्पोरेट चंदा भी
5.5. विचारहीन शिक्षितों की फौज – न नौकर, न नागरिक
इस पथभ्रष्ट शिक्षा नीति ने जो नागरिक बनाए, वे:
- न सोच सकते हैं, न सवाल उठा सकते हैं
- उन्हें सिर्फ नौकरी की तलाश है — देश, समाज, मूल्य, विवेक सब गौण
- उनमें आत्मसम्मान नहीं, अंकों का अभिमान है
- उनमें नागरिक चेतना नहीं, उपभोक्ता-मानस है
और इस "बौद्धिक पतन" की परिणति है –
सोशल मीडिया पर नाचते डॉक्टर, गाली देते प्रोफेसर, और नेता की जयकार करते साइंटिस्ट।
5.6. निष्कर्ष: खोखले खंभे, डगमगाता राष्ट्र
जब शिक्षा और स्वास्थ्य — दो आधारभूत स्तंभ — ही खोखले हों, तो “विकास” एक गिरती हुई इमारत जैसा है, जिसे हर चुनाव में झूठे इश्तहारों से रंगा जाता है।
इस व्यवस्था ने:
- शिक्षा को वश में रखने का औजार बनाया
- स्वास्थ्य को नियंत्रण का माध्यम
जनता के पास न सोचने की शक्ति रही, न जीने की। सिर्फ जीने की “इच्छा” बनी रही — और उसी इच्छा को बाज़ार ने बेचा।
“अगर जनता को अनपढ़ और बीमार रखा जाए, तो वह कभी सवाल नहीं पूछेगी – और यही सत्ता की सबसे बड़ी सफलता होती है।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 6: बैंकिंग और वित्तीय संस्थाएं — साजिशन लूट का लोकतांत्रिक मॉडल
“पहले राजा जनता से कर वसूलता था, अब बैंक ब्याज और नियमों के नाम पर वही काम करते हैं – फर्क बस इतना है कि अब शोषण वैधानिक हो गया है।”
6.1. बचत का मिथक — किसके लिए, किससे?
स्वतंत्रता के बाद से सरकार ने नागरिकों को यह सपना दिखाया —
“बचत करें, बैंक में जमा करें, भविष्य सुरक्षित करें।”
लेकिन यह सपना धीरे-धीरे एक योजनाबद्ध धोखा बन गया।
- जब फिक्स्ड डिपॉज़िट पर ब्याज 4–5% तक आ गया
- और खुदरा मुद्रास्फीति 6–8% पर बनी रही
- तब यह साफ़ हो गया कि आम जनता की बचत दरअसल धीरे-धीरे खाई में गिर रही है
उदाहरण:
- यदि आपने ₹1,00,000 की FD की
- 5% ब्याज पर 1 वर्ष में मिला ₹5,000
- लेकिन महँगाई 7% की दर से बढ़ी
- तो आपकी असली पूँजी का मूल्य घटा — ₹2,000 का सालाना नुक़सान!
यह कैसा विकास है जिसमें पूँजी बढ़ाने के बजाय घटती है, और कोई इसे चोरी नहीं मानता?
6.2. बैंक — जनता से लिया, पूंजीपतियों को दिया
बैंकों का मूल उद्देश्य बताया गया:
“जनता की बचत को विकास में लगाना।”
लेकिन हुआ क्या?
- उद्योगपतियों को हज़ारों करोड़ के ऋण दिए गए
- फिर उन्हीं में से कई बैंकों को चूना लगाकर विदेश भाग गए
- और सरकार ने बैंकों का ‘recapitalization’ किया — यानि फिर से जनता के पैसे से घाटा भरा
कुछ उदाहरण:
- विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, IL&FS, आदि
- कुल NPA (Non-Performing Assets) – ₹10 लाख करोड़ से अधिक
- जिनमें से अधिकांश राजनीतिक संरक्षण में माफ किए गए
और आम आदमी?
- 50,000 का लोन डिफॉल्ट करे तो CIBIL स्कोर गिरा दिया जाए
- पेंशनधारी वृद्ध महिला से 5,000 का KYC अपडेट न होने पर खाता सील
यह व्यवस्था नहीं, वर्ग आधारित वित्तीय सामंतवाद है।
6.3. बैंकिंग शुल्क — सेवा नहीं, शोषण का नया तरीका
बैंकिंग अब सेवा नहीं रही, एक परोक्ष टैक्स बन गई है।
- न्यूनतम बैलेंस न रखने पर ₹150–₹600 तक जुर्माना
- एटीएम से चार बार निकासी के बाद शुल्क
- चेक बाउंस, स्लिप, SMS अलर्ट – हर चीज़ पर शुल्क
ग़रीब के ₹1,000 जमा हों या अमीर के ₹10 लाख, शुल्क का अनुपात अक्सर उल्टा होता है — ग़रीब अधिक दे, अमीर माफ़ी पाए।
बैंकिंग अब सेवा नहीं, एक व्यापार बन चुका है – जहाँ ग्राहक नहीं, शिकार होता है।
6.4. बीमा और पेंशन – सुरक्षा के नाम पर सुनियोजित लूट
सरकार ने जनता को ‘सुरक्षित भविष्य’ के नाम पर बीमा और पेंशन योजनाओं में फंसाया —
- ₹12 में जीवन बीमा
- ₹330 में दुर्घटना बीमा
- ₹1,000 प्रतिवर्ष देकर ₹5,000 मासिक पेंशन का सपना
लेकिन हक़ीक़त:
- दावों का निपटान < 10%
- पेंशन योजनाएं बाज़ार से जुड़ीं, लाभ नहीं सुनिश्चित
- LIC जैसी संस्थाओं को अडानी-एंबानी में निवेश का दबाव
आपका पैसा सुरक्षित नहीं, सत्ता के संरक्षण में कॉर्पोरेट की जेब में है।
6.5. डिजिटलीकरण – पारदर्शिता या निगरानी और नियंत्रण?
बैंकों को डिजिटल बनाना एक उपलब्धि बताया गया —
“डिजिटल इंडिया, फिनटेक इन्क्लूज़न”
लेकिन हुआ क्या?
- UPI से लेन-देन फ्री कहा गया, पर डेटा का व्यापार हुआ
- बैंक शाखाएँ बंद हुईं, ग्रामीण इलाकों में सेवा दुर्गम हुई
- हर लेन-देन पर निगरानी — कौन क्या खरीद रहा, क्यों?
और अंत में:
- पेंशनर के लिए फेस ऑथेंटिकेशन अनिवार्य
- लेन-देन पर TDS का काटना स्वचालित
- UPI से ₹1 का भुगतान करो, ₹5 का डेटा दो
यह डिजिटलीकरण नहीं, वित्तीय निगरानीवाद (Financial Surveillance State) है।
6.6. निष्कर्ष: वित्तीय लोकतंत्र नहीं, आर्थिक गुलामी
आम भारतीय के लिए बैंक:
- न सुरक्षित बचत का ठिकाना रहा
- न सस्ती ऋण सुविधा
- न सम्मानजनक वित्तीय सहभागिता का मंच
अब बैंकिंग केवल:
- अमीरों को छूट
- नेताओं को चंदा
- कॉर्पोरेट को पूंजी
- और आम जनता के लिए: प्रोसेसिंग फीस, अकाउंट क्लोजर चार्ज और ब्याज से कम मूल्यवृद्धि
“यदि जनता का पैसा उसे ही कमज़ोर कर दे, और उसका भविष्य केवल आंकड़ों में जीवित रहे – तो उस देश की बैंकिंग व्यवस्था को शोषण की संस्थागत कविता कहना चाहिए।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 7: औद्योगीकरण का छलावा — उपभोक्ता वस्तुओं की राजनीति और उत्पादक जनता का अपमान
“जहाँ उद्योग नीति केवल शहरों के लिए बनती है, और गाँवों के लिए नारे — वहाँ फैक्ट्रियाँ मुनाफ़ा पैदा करती हैं, पर श्रमिक नहीं, केवल बाज़ार के उपभोक्ता पैदा होते हैं।”
7.1. बुनियादी बनाम गैर-बुनियादी उद्योग — एक षड्यंत्रकारी वर्गीकरण
स्वतंत्रता के बाद महलनॉबिस मॉडल और नेहरूवादी योजनावाद के तहत एक कृत्रिम विभाजन खड़ा किया गया:
- बेसिक इंडस्ट्री: इस्पात, कोयला, मशीन निर्माण
- नॉन-बेसिक इंडस्ट्री: उपभोक्ता वस्तुएँ, खाद्य प्रसंस्करण, वस्त्र, फर्नीचर
सरकारी निवेश का बहुमत बेसिक सेक्टर में गया, जबकि नॉन-बेसिक को निजी क्षेत्र के हवाले किया गया।
लेकिन यह वर्गीकरण वस्तुतः जनता की ज़रूरतों को ‘ग़ैर-बुनियादी’ घोषित करने का एक वैचारिक छल था।
फलतः:
- पूंजी, भूमि, बिजली सब भारी उद्योग को मिली
- पर आम आदमी की जरूरतों — जैसे सस्ते वस्त्र, जूते, घरेलू उपकरण — को बाजार के भरोसे छोड़ दिया गया
- और वहाँ भी — सरकारी समर्थन केवल बड़े कॉर्पोरेट्स को मिला, लघु उद्योग और कुटीर उद्यम पिसते रहे
7.2. ‘मेक इन इंडिया’ का झूठ और विदेशी ब्रांडों की बाढ़
जब भारत ने बाज़ार खोला (1991 के बाद), तो कहा गया:
“विदेशी पूंजी आएगी, रोज़गार बढ़ेगा, तकनीक आएगी”
पर असल में हुआ:
- विदेशी कंपनियाँ भारत आईं, पर मूलतः उपभोक्ता वस्तुएँ बेचने के लिए
- मोबाइल, टूथपेस्ट, बिस्कुट, टीवी — हर चीज़ के विज्ञापन बढ़े, उत्पादन नहीं
- विदेशी तकनीक को "असेंबली लाइन" में सीमित कर दिया गया — जहां भारतीय श्रमिक को स्क्रू कसने वाला मज़दूर बना दिया गया
“हमने विदेशी पूंजी से ज्ञान नहीं लिया, केवल उसके ब्रांड और दासता ली।”
7.3. औद्योगिक मूल्य वृद्धि बनाम कृषि मूल्य वृद्धि — जनता की वास्तविक आय का ह्रास
सरकार ने किसानों को बार-बार कहा:
“कृषि आय बढ़ाएँ, कृषि उत्पाद बेचें, ‘डबल इनकम’ होगा।”
लेकिन दूसरी तरफ:
- MSP में 2-4% सालाना वृद्धि
- जबकि उद्योग उत्पाद (consumer durables) के दामों में 8-12% की वृद्धि
उदाहरण:
- गेहूँ का मूल्य 2010 में ₹1,100 → 2023 में ₹2,100 (यानी ~90% वृद्धि)
- वहीं, एक साधारण कूलर ₹3,000 → ₹7,500 (150%+ वृद्धि)
यानी किसान का श्रम सस्ता हुआ, उद्योगपति की वस्तु महँगी और लाभदायक।
जनता को ग्राहक बना दिया गया, पर उनके उत्पाद का मूल्य नहीं बढ़ाया गया।
7.4. मजदूरी और श्रम कानून — उत्पादन के नाम पर शोषण का वैधानिककरण
उद्योगों को "लचीलापन" देने के नाम पर:
- श्रम कानूनों में संशोधन हुए
- अनुबंध मज़दूर, आउटसोर्सिंग, गिग इकोनॉमी — सबने स्थायी रोज़गार को खत्म कर दिया
- न्यूनतम मज़दूरी तय हुई, पर जीवनयापन की न्यूनतम आवश्यकताओं से भी कम
फैक्ट्रियाँ बनीं, मशीनें आईं —
पर श्रमिक:
- मशीन के पुर्जे बन गए
- न बीमा, न स्वास्थ्य सुविधा, न सुरक्षा
और सरकार ने इसे Ease of Doing Business का नाम दिया!
7.5. उपभोक्ता संस्कृति – जनता की चेतना का विध्वंस
उद्योगों ने सिर्फ उत्पाद नहीं बेचे — उन्होंने लाइफस्टाइल बेची, इच्छाएँ बेचीं, असंतोष बेचा।
- एक मजदूर को मोटरसाइकिल चाहिए, ताकि वह ‘आधुनिक’ लगे
- एक किसान का बेटा स्मार्टफोन ले, ताकि वह ‘पिछड़ा’ न कहलाए
- एक गरीब औरत भी अब फेयरनेस क्रीम से ‘खुश’ होना चाहती है
“पहले आदमी जीता था, अब खरीदकर जीने का भ्रम करता है।”
7.6. निष्कर्ष: उत्पादन के नाम पर परनिर्भरता का निर्माण
औद्योगीकरण की नीतियाँ:
- न आत्मनिर्भर रहीं, न रोजगारपरक
- उन्होंने उत्पादक को उपभोक्ता बनाया
- और उपभोक्ता को बाजार का बंधुआ बनाया
विकास का नारा दरअसल जनता को बाज़ार में धकेलने और उनके श्रम व इच्छाओं को भुनाने का एक खूबसूरत हथियार बन गया।
“यदि कोई राष्ट्र अपने श्रमिक को केवल उपभोग की वस्तु बनाकर रखे, और किसान की उपज से अपने उद्योगों की पूँजी बनाता रहे — तो वह राष्ट्र नहीं, एक ‘कारपोरेट उपनिवेश’ है।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 8: कृषि का अवमान और ग्रामीण भारत का राजनीतिक अपहरण
“जिस भूमि से अन्न उपजता है, उस पर केवल वादे बोए गए, और जिस किसान के कंधे पर भारत टिका था, उसे भिखारी बना दिया गया — वोट के समय जागृत और बाकी समय तिरस्कृत।”
8.1. भूमि सुधार या भूमि भ्रम — किसान को ज़मीन का हक नहीं, जिम्मेदारी दी गई
स्वतंत्रता के बाद सबसे ज़रूरी प्रश्न था —
“भूमि किसकी?”
नेहरूवादी शासन ने भूमि सुधार के नाम पर जो किया, वह सुधार नहीं, सत्ता-संरक्षित नाटक था:
- ज़मींदारी उन्मूलन हुआ, लेकिन बड़ी ज़मीनें टुकड़ों में बँटाकर फिर उन्हीं के रिश्तेदारों के नाम कर दी गईं
- ‘सीलिंग ऐक्ट’ बनाए गए, लेकिन बेनामी, बंटवारे और काग़जी ट्रांसफर से बड़े भूमिपति फिर ज़मीनों के स्वामी बन गए
- आदिवासी इलाकों में भूमि अधिकार अभी तक अस्पष्ट हैं, क्योंकि “वन अधिनियम” उन्हें अपनी ही ज़मीन पर बाहरी बना देता है
फलतः:
- गरीब किसान कर्ज़ में
- भूमिहीन खेतिहर मज़दूर बन गए
- और राजनीतिक दलों के ‘दलीय किसान संगठनों’ ने उनके क्रोध को झंडों में कैद कर दिया
8.2. सिंचाई और तकनीक — वादों का गंगाजल, पर खेत फिर भी प्यासे
हर पंचवर्षीय योजना में कहा गया —
“नहरें बनाएँगे, ट्यूबवेल देंगे, आधुनिक तकनीक लाएँगे।”
लेकिन हुआ क्या?
- बड़े बाँध बने — पर बिजली शहरों को मिली, खेतों को नहीं
- सौर पंप की घोषणा हुई — लेकिन वितरण में भ्रष्टाचार और तकनीकी विफलता
- टपक सिंचाई, ड्रिप, मिनी स्प्रिंकलर — केवल पायलट प्रोजेक्ट में रहे, जमीनी हकीकत नहीं बने
एक किसान अब भी मानसून की गुलामी करता है — क्योंकि सरकार केवल घोषणाओं की वर्षा करती है, पानी की नहीं।
8.3. कृषि मूल्य — परिश्रम का मूल्य नहीं, सत्ता की कृपा
हर साल MSP की घोषणा होती है —
लेकिन:
- वह लागत मूल्य से नीचे होता है
- बहुत से फसलें MSP सूची में ही नहीं
- और जहाँ MSP है भी, वहाँ सरकारी खरीद तंत्र 50% से अधिक किसानों तक पहुँचता ही नहीं
दूसरी ओर:
- उर्वरक, डीज़ल, बीज, कीटनाशक — सब महँगे
- मंडियों में दलाल, व्यापारियों और अफसरों की गठजोड़
- भुगतान में देरी, तोल में धोखा, ट्रॉली खड़ी करवा देने का भय
“किसान अन्नदाता नहीं, एक न्यूनतम मूल्य वाला कर्मचारी है — जिसके श्रम का दाम सरकार तय करती है, और उसकी फसल का भविष्य मौसम और मंडी तय करती है।”
8.4. कृषि नीति नहीं, कृषि राजनीति — किसानों की पीड़ा का दलितीकरण
हर चुनाव से पहले:
- ऋणमाफी की घोषणा
- MSP बढ़ाने का आश्वासन
- ट्रैक्टर-बीज-स्प्रे का वितरण
लेकिन चुनाव बाद:
- वही पुरानी हालत
- “कृषि एक राज्य विषय है” कहकर केंद्र पल्ला झाड़ ले
- और राज्य सरकारें “बजट नहीं” कहकर हाथ खड़े कर दें
इस बीच:
- एक किसान आत्महत्या कर लेता है, तो सरकार 2 लाख का चेक दे देती है
- लेकिन किसान को जिंदा रखने की व्यवस्था नहीं करती
यह किसी समुदाय की नहीं, पूरे उत्पादक वर्ग की राजनीतिक हत्या है।
8.5. कृषि में नवाचार नहीं, नाटक — किसानों को दीन बनाए रखने की साज़िश
जब कभी किसान अपना संगठन बनाए:
- तो उसे “राजनीतिक” कहकर दबाया जाता है
- या उसे एक दल से जोड़कर निष्प्रभावी बना दिया जाता है
‘किसान आंदोलन’ कहें तो:
- या तो उन्हें खालिस्तानी कहा जाए
- या टुकड़े-टुकड़े गैंग का हिस्सा
जब तक किसान “निर्दोष, भोला, और वोटर” बना रहेगा — वह उपयोगी रहेगा
जैसे ही वह जागरूक, संगठित और प्रश्नकर्ता बनेगा — वह “राष्ट्रद्रोही” बना दिया जाएगा
8.6. निष्कर्ष: खेती को पिछड़ा बनाना, गाँव को सत्ता से दूर रखना — ये नीति नहीं, रणनीति है
भारत के गाँव:
- संख्या में बहुमत, पर संसाधन में न्यूनतम
- वोट में सर्वाधिक, पर विकास में सबसे कम
- संस्कृति के केंद्र, पर शासन के परिधि पर
गाँवों को जानबूझकर:
- आधुनिकता से दूर रखा गया
- ताकि वहाँ केवल वोट, खनिज, और सस्ता श्रम लिया जा सके
- और वापस दिया गया — वादे, भाषण और आत्महत्या के आँकड़े
“यदि कोई राष्ट्र अपने अन्नदाता को गरीब बनाए रखता है, और उसके सपनों को योजनाओं में छिपाकर उसका भविष्य केवल मतपत्रों से मापता है — तो वह राष्ट्र एक लोकतंत्र नहीं, एक राजनीतिक बटाईदार व्यवस्था है।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 9: शिक्षा का खोखलापन और मूढ़ शिक्षितों की फौज
"जिस समाज में शिक्षा का उद्देश्य प्रश्न करना नहीं, आदेश मानना हो — वहाँ शिक्षित जन भी केवल प्रशिक्षित गुलाम बनते हैं।"
9.1. औपनिवेशिक शिक्षा प्रणाली का नेहरूवादी उत्तराधिकार
भारत की औपनिवेशिक शिक्षा नीति थी —
"क्लर्क, दुभाषिया और आज्ञाकारी अधिकारी" पैदा करने की।
स्वतंत्रता के बाद इसे तोड़ने की बात हुई —
लेकिन असल में हुआ क्या?
- वही परीक्षा-केंद्रित प्रणाली
- वही अंग्रेज़ी माध्यम का प्रभुत्व
- वही स्नातक उत्पादन केंद्र — जो केवल डिग्रीधारी थे, कौशलहीन, संदिग्ध दृष्टि वाले
नेहरूवाद का आदर्श था —
"वैज्ञानिक सोच"
पर स्कूलों में केवल विज्ञान विषय पढ़ाया गया,
विज्ञान-चिंतन नहीं।
9.2. शिक्षा का केंद्रीकरण — लोकतंत्र के नाम पर विचारहीनता का वितरण
-
गाँव-गाँव प्राइमरी स्कूल खुले —
पर न शिक्षक थे, न लाइब्रेरी, न विज्ञान प्रयोगशाला -
सरकार ने कहा — "शिक्षा सबके लिए"
पर न पाठ्यक्रम में विविधता, न स्थानीय संदर्भ
फलतः:
- एक आदिवासी बच्चे को भी वही 'न्यूटन का सेब' पढ़ाया गया
- एक ग्रामीण बालिका को भी वही 'लॉर्ड मैकाले का गद्य' पढ़ाया गया
शिक्षा एक 'आउटपुट मशीन' बन गई, न कि आत्मबोध की यात्रा।
9.3. अंग्रेज़ी का प्रभुत्व — ज्ञान नहीं, दासता का प्रतीक
भारत में अंग्रेज़ी:
- संवाद का माध्यम नहीं बनी,
- बल्कि बौद्धिक श्रेष्ठता का संकेतक बना दी गई
नौकरियों, विश्वविद्यालयों, शोधपत्रों — हर जगह अंग्रेज़ी ज़रूरी हुई
जिससे दो भारत बने:
- अंग्रेज़ी जानने वाले शिक्षित और सम्मानित
- स्थानीय भाषाओं में पढ़े गए ‘मूढ़’, 'अयोग्य', और 'निचले दर्जे' के
ये विभाजन शिक्षा के जरिए ही किए गए —
एक प्रभु वर्ग और एक मानसिक श्रमिक वर्ग।
9.4. उच्च शिक्षा संस्थानों की वास्तविक भूमिका — बौद्धिक आत्मसमर्पण के केंद्र
- विश्वविद्यालयों में न बहस बची, न विद्रोह
- शिक्षकों को UGC के API स्कोर से बाँधा गया
- शोध को "Scopus index" से मापा गया, प्रासंगिकता से नहीं
विचारधाराओं का झगड़ा बचा — विचार नहीं।
फेलोशिप पाने के लिए छात्र
- गाइड के पसंदीदा विषय पर काम करते हैं
- प्रश्न नहीं उठाते — केवल डेटा जमा करते हैं
फलतः:
- एक "डिग्रीधारी आत्मा-विहीन मनुष्य" तैयार हुआ —
जो कंपनियों का HR पसंद करता है,
सरकार का नौकर बनना चाहता है,
पर समाज का सवाल पूछने वाला नहीं।
9.5. कौशलहीनता का शिक्षित विस्फोट — बेरोज़गारी नहीं, दिशाहीनता का संकट
- लाखों इंजीनियर — जिनकी तकनीकी समझ शून्य
- लाखों एमबीए — जिन्हें निर्णय क्षमता सिखाई ही नहीं गई
- और करोड़ों बीए-बीकॉम — जिन्हें यह भी नहीं पता कि ‘आजीविका’ और ‘श्रम’ में क्या संबंध है
नौकरियों की कमी नहीं, योग्यता की विकृति है।
एक सरकारी परीक्षा पास करने वाला
- देश की संरचना नहीं समझता
- संविधान रटकर कर्मचारी बनता है, नागरिक नहीं
9.6. प्रश्नहीनता की संस्कृति — शिक्षण नहीं, ‘सिस्टम का पालन’
- स्कूलों में प्रश्न पूछना 'शिष्टाचार का उल्लंघन' माना गया
- यूनिवर्सिटी में शिक्षक की आलोचना करना ‘अराजकता’ कहलाया
- NET-JRF में "ऑब्जेक्टिव प्रश्न" आ गए —
ताकि छात्र सोचे नहीं, टिक करे
फलतः:
- भारत में ‘विचारशील पढ़ा-लिखा वर्ग’ का अंत हुआ
- बची एक भीड़, जो केवल आदेश समझती है,
और अपनी शिक्षा को रोज़गार पाने का जरिया मानती है —
समाज बदलने का नहीं
9.7. निष्कर्ष: शिक्षा का उद्देश्य आत्मनिर्भर नागरिक नहीं, प्रशिक्षित उपभोक्ता बनाना था
जो पढ़ा-लिखा है:
- वह प्रश्न नहीं करता
- वह शासन पर टिप्पणी नहीं करता
- वह ब्रांड, बैंक, बॉस और ‘बजट’ से बंधा हुआ है
और यही था शिक्षा नीति का मौन उद्देश्य:
“एक ऐसा वर्ग तैयार करना जो शिक्षित लगे, पर नेतृत्व न करे; जो स्मार्ट दिखे, पर विद्रोही न हो।”
“जिस शिक्षा का अंतिम उद्देश्य ‘सरकारी नौकरी’ बन जाए, और जो आत्मा, समाज और सत्य के प्रश्नों को त्याग दे — वह शिक्षा नहीं, मानसिक दासता का प्रमाणपत्र है।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 10: स्वास्थ्य सेवा की विफलता और मरणशील समाज
"जहाँ बीमारी को भाग्य माना जाए और अस्पताल अमीरों के लिए सुरक्षित दुर्ग बन जाएँ, वहाँ स्वास्थ्य नहीं, शोषण का साम्राज्य खड़ा होता है।"
10.1. स्वतंत्रता के बाद स्वास्थ्य नीति — न नियति, न प्राथमिकता
1947 के बाद जब भारत की योजनाएं बन रही थीं,
तो पंचवर्षीय योजनाओं में स्वास्थ्य को रखा गया —
पर सिर्फ कागज पर।
- बजट का बहुत छोटा हिस्सा स्वास्थ्य को मिला
- प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) खोले गए —
जहाँ डॉक्टर नहीं, दवाइयाँ नहीं, और कई बार भवन भी नहीं
स्वास्थ्य ‘कल्याण’ नहीं, ‘दया’ की वस्तु बन गया।
10.2. ग्रामीण भारत में स्वास्थ्य का अर्थ — झोला छाप, भगत, और भाग्य
ग्रामीण इलाकों में:
- PHC या तो बहुत दूर
- या वहाँ “नियमित” डॉक्टर की नियुक्ति केवल रिकॉर्ड में
फलतः:
- झोला छाप डॉक्टरों का राज
- संक्रमण से लेकर प्रसव तक, सब जुगाड़ से
- और अगर कुछ गंभीर हुआ —
तो जिला अस्पताल या शहर की ओर दौड़
“अस्पताल नहीं, एक भय का नाम बन गया — जहाँ पहुँचना महँगा, और लौटना अनिश्चित।”
10.3. शहरी भारत में स्वास्थ्य — मुनाफा और मार्केटिंग
शहरों में बहुचर्चित निजी अस्पताल:
- पाँच सितारा होटल जैसे भवन
- विदेशी मशीनें
- और इलाज — इंसान के नहीं, बीमा की पॉलिसी के अनुसार
NABH accreditation या JCI standards —
ये सब केवल धनाढ्य वर्ग के लिए
बाक़ी जनता?
- सरकारी अस्पताल में लंबी कतारें
- घटिया सेवाएँ
- और डॉक्टरों की बेरुख़ी
10.4. बीमा योजना — बीमारी का बाज़ारीकरण
सरकार ने कहा:
“आयुष्मान भारत, सभी को स्वास्थ्य अधिकार।”
पर हकीकत क्या?
- बीमा कंपनियों को फायदा
- निजी अस्पतालों को नया ग्राहक वर्ग
- मरीज बना डाटा बिंदु
सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों को कहा गया:
“कम से कम खर्च करो”
नतीजा:
- ऑपरेशन टाले जाते हैं
- आवश्यक जांच नहीं होती
- और मरीज को सलाह दी जाती है — “प्राइवेट में करवा लो”
10.5. चिकित्सकीय शिक्षा — ज्ञान नहीं, व्यापारी गिल्ड का प्रवेश द्वार
AIIMS और कुछ गिने-चुने संस्थानों को छोड़ दें,
तो मेडिकल कॉलेज:
- बड़े उद्योगपतियों के कब्ज़े में
- लाखों की डोनेशन
- फिर वही डॉक्टर जब निकलते हैं,
तो रिटर्न ऑन इन्वेस्टमेंट के लिए मरीज को ग्राहक समझते हैं
फलतः:
- डॉक्टर मरीज से आँख नहीं मिलाता
- उसका चार्ट पढ़ता है, चेहरा नहीं
- और लिखता है टेस्ट, ब्रांडेड दवा, और कभी-कभी “रिपीट विज़िट”
10.6. महामारी और सरकारी नंगापन — कोरोना का आईना
कोरोना के दौरान जो उजागर हुआ:
- ऑक्सीजन नहीं
- बेड नहीं
- डॉक्टरों के पास PPE नहीं
- और शवों को गंगा में बहाया गया
इसमें किसी विदेशी दुश्मन की साज़िश नहीं थी —
ये उस सत्तर साल की लापरवाही का परिणाम था,
जहाँ स्वास्थ्य को या तो चुनाव का मुद्दा नहीं माना गया,
या वोट देने वाले मरते रहें, इससे फर्क नहीं पड़ा।
10.7. स्वास्थ्य कार्यकर्ता — श्रम, त्याग और तिरस्कार के शिकार
-
आशा कार्यकर्ता, ANM, नर्स —
देश की रीढ़, पर न्यूनतम वेतन और अनिश्चित भविष्य -
डॉक्टरों पर हमले —
क्योंकि सिस्टम लोगों की उम्मीद तोड़ चुका है
और सामने सिर्फ डॉक्टर बचा है, जिससे लोग हिसाब माँगते हैं
ये राज्य द्वारा संचालित असंवेदनशीलता है —
जहाँ स्वास्थ्य सेवा संविधान की गारंटी नहीं,
बल्कि नियति और पैसे का उत्पाद बन चुकी है
10.8. निष्कर्ष: बीमारियों से नहीं, व्यवस्था से मरता है भारत
भारत की अधिकांश मौतें —
- इलाज की अनुपलब्धता
- समय पर देखभाल न मिलना
- और गरीबीजनित बीमारियाँ (कुपोषण, संक्रमण, मानसिक अवसाद) से होती हैं
पर कोई इनकी बात नहीं करता —
क्योंकि ये लाभकारी बीमारियाँ नहीं हैं
इनसे मुनाफा नहीं, केवल न्याय देना होता है
और न्याय इस व्यवस्था का लक्ष्य कभी रहा ही नहीं
“जहाँ बीमारी को सामाजिक दोष और स्वास्थ्य को निजी उत्तरदायित्व बना दिया जाए, वहाँ सरकार सिर्फ शासन करती है, सेवा नहीं।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 11: बैंकिंग व्यवस्था और वित्तीय शोषण — जनता की पूँजी पर अमीरों का पर्व
“जब बैंक बचत नहीं लूटते, तब वे कर्ज़ देकर आत्महत्या करवाते हैं। भारतीय बैंकिंग प्रणाली — गरीब की उम्मीद और अमीर की षड्यंत्रकारी चुप्पी।”
11.1. बैंकिंग का स्वतंत्रता-कालीन मिथक: "जनता की संपत्ति, जनता के लिए"
स्वतंत्रता के बाद बैंकिंग को समाजवादी रंग देने की कोशिश हुई:
- 1969 में प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण
- उद्देश्य: “गरीबों, किसानों, लघु उद्यमियों को ऋण सुविधा”
पर सच क्या था?
- गाँव में बैंक की शाखा खुली,
पर ऋण वही मिला जिसे ‘पहचाना’ गया - गरीब को गाँव का मुखिया, बैंकर मित्र और क्लर्क तय करते थे
बैंक लोकतांत्रिक संस्था नहीं, वर्गीय गेट कीपर बन गए।
11.2. फिक्स्ड डिपॉजिट — बचत की कब्रगाह
- आम आदमी की मेहनत की कमाई
फिक्स्ड डिपॉजिट में रखी जाती है - और बैंक देता है:
5% ब्याज, जबकि महँगाई 6% से ऊपर
यानी वास्तविक ब्याज दर = ऋणात्मक
आपकी पूँजी घट रही है, पर आपको अहसास नहीं
सच्चाई:
“बचत खाताधारक बैंक का ग्राहक नहीं, बैंक का कच्चा माल है।”
11.3. ऋण वितरण — गरीब को दस्तावेज़, अमीर को डील
कर्ज़ चाहिए?
-
गरीब से माँगे जाते हैं:
आय प्रमाण पत्र, ज़मीन का नक्शा, गारंटी, खेती का विवरण,
और अंततः ‘संतोषजनक’ रिश्ता -
वहीं दूसरी ओर:
बड़े उद्योगपति, बैंक के संपर्क अधिकारी के साथ बैठते हैं,
और हज़ारों करोड़ का ऋण 10 मिनट में स्वीकृत हो जाता है
क्यों?
क्योंकि —
- उनका ऋण ‘सामाजिक दायित्व’ नहीं,
ब्याज आधारित लाभ का सौदा होता है - और उनका डिफॉल्ट —
‘एनपीए’, पुनर्गठन, hair-cut, और अंत में write-off!
पर किसान का डिफॉल्ट?
वसूली नोटिस, खेत की कुर्की, आत्महत्या की खबर।
11.4. बैंकों की निजीकरण नीति — पूँजीवाद का श्रंगार
2010 के बाद तेज़ी से:
- सरकारी बैंकों को Merge किया गया
- निजी बैंकों को बढ़ावा दिया गया
- ऑनलाइन बैंकिंग लाकर ‘डिजिटल समावेशन’ का नारा दिया गया
पर हकीकत?
- सेवा शुल्क, SMS शुल्क, NEFT शुल्क,
हर लेन-देन पर 'डिजिटल दंड'
“जिसे तकनीक सिखाई नहीं गई, उसे तकनीक से दंडित किया गया।”
11.5. ऋण माफी बनाम कॉरपोरेट बेलआउट — शोषण की दो परिभाषाएँ
जब किसान का 30 हज़ार का कर्ज़ माफ होता है —
तो टीवी पर बहस: “मुफ्तखोरी की आदत”
पर जब एक उद्योगपति का ₹30,000 करोड़ write-off होता है —
तो चुप्पी: “सिस्टम की मजबूरी”
“कर्ज़ के प्रति सरकार का रवैया व्यक्ति नहीं, वर्ग देखकर तय होता है।”
11.6. सहकारी बैंक और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक — भ्रष्टाचार के खेत
- RRB और सहकारी बैंकों को “ग्रामीण सशक्तिकरण” के नाम पर खोला गया
- पर इन पर स्थानीय नेताओं और अफ़सरों का नियंत्रण
- ऋण वितरण — केवल अपने समुदाय, जाति या दल के आधार पर
- और पुनर्भुगतान — अक्सर माफ, टाल, या ‘राजनीतिक चिठ्ठी’ से प्रभावित
इससे क्या हुआ?
“लोगों ने बैंक को सरकारी दुकान समझ लिया, और बैंक ने लोगों को चोर।”
11.7. डिजिटलीकरण — समावेशन नहीं, डिजिटल बहिष्कार
-
गाँव के बुजुर्ग, महिला, मज़दूर — जिन्हें ATM नहीं चलाना आता
उनकी पेंशन, राशन, MGNREGA मज़दूरी बैंक खाते में फँसी रहती है -
और यदि KYC नहीं हुआ तो?
“आपका खाता अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया है।”
आधार लिंक, मोबाइल अपडेट, बैंक OTP —
गरीब की पहुँच से बाहर, और बैंक की ज़िम्मेदारी से परे
11.8. निष्कर्ष: बैंकिंग व्यवस्था — वित्तीय तानाशाही का लोकतांत्रिक मुखौटा
भारत में बैंक:
- गरीब से पैसा लेते हैं
- अमीर को ब्याज पर देते हैं
- गरीब को नियमों में बाँधते हैं
- अमीर को छूट, छाया और संबंध देते हैं
“आपका बैंक खाता — आपकी पहचान नहीं, आपकी वित्तीय गुलामी का डिजिटल प्रमाण है।”
“यदि किसी देश में मेहनतकश की बचत को ही लूट लिया जाए, तो उसे लूट नहीं कहते — उसे ‘वित्तीय नीति’ कहते हैं।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 12: मूल्य-संतुलन का षड्यंत्र — औद्योगिक वस्तु महंगी, कृषि उपज सस्ती
“जब एक ट्रैक्टर की कीमत दस साल में दस गुना हो जाए, पर गेहूं की कीमत दो गुना भी न हो — तब समझिए कि देश की रीढ़ को तोड़ने की योजना सफल हो चुकी है।”
12.1. अर्थशास्त्र नहीं, सत्ता का खेल है मूल्य निर्धारण
भारत में मूल्य तय होते हैं:
- वोट बैंक की दृष्टि से
- लाबिंग और लॉबियों के दबाव से
- और सबसे बढ़कर —
"असंगत औचित्य" के आदर्शवादी आवरण में लिपटे हुए आर्थिक पाखंडों से
फलतः:
- कृषि को 'जीविका' समझा गया, उद्योग को 'अर्थव्यवस्था'
- किसान को “सब्सिडी” का याचक, उद्योगपति को “विकास का इंजन” माना गया
12.2. किसान की उपज — लागत मूल्य से नीचे, बाजार मूल्य से कोसों दूर
- सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) घोषित करती है,
पर खरीद केवल चंद मंडियों में, और वहाँ भी बिचौलियों के हाथ में - गेहूं, धान, मक्का, सरसों —
इनकी कीमतें 2005 और 2023 के बीच औसतन 2.5 से 3 गुना ही बढ़ीं
वहीं दूसरी ओर:
- ट्रैक्टर, खाद, बीज, डीजल, बिजली —
5 से 10 गुना तक महंगे हो गए
नतीजा:
किसान बेचता है घाटे में, खरीदता है महँगी चीजें
यानी: वह लगातार ऋण में डूबता है
12.3. औद्योगिक उत्पाद — मूल्यवृद्धि का सुरक्षित खेल
-
स्टील, सीमेंट, पेंट, ट्रैक्टर, ट्रक, मोबाइल, शौचालय —
इनके मूल्य हर साल बढ़ाए जाते हैं, कभी लागत से, कभी ब्रांडिंग से -
सरकारी नीति:
“मूल्य नियंत्रण से बाजार पर असर पड़ेगा”
यानी उद्योग को आज़ादी, किसान को बंधन
“एक किसान के आलू के लिए अधिकतम मूल्य तय, पर चिप्स का मूल्य खुला छोड़ दिया गया।”
12.4. मूल्य श्रंखला — जिसमें किसान सबसे नीचे, व्यापारी सबसे ऊपर
- किसान → बिचौलिया → मंडी व्यापारी → थोक व्यापारी → खुदरा विक्रेता → ग्राहक
- हर स्तर पर लाभ, सिर्फ किसान को छोड़कर
उदाहरण:
- किसान बेचता है टमाटर ₹6 प्रति किलो
- मंडी में ₹12
- खुदरा बाज़ार में ₹30
- मॉल या ऑनलाइन में ₹60
फायदा किसका? — किसान का नहीं, प्रणाली का
12.5. उद्योग के लिए संरक्षण, किसान के लिए उपेक्षा
-
उद्योग को:
- टैक्स में छूट
- उत्पादन आधारित प्रोत्साहन (PLI)
- निर्यात बढ़ाने के लिए सहायता
- विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ)
-
वहीं किसान को:
- आंशिक ऋणमाफी (जो अक्सर देर से)
- मौसम आधारित बीमा (जो समय पर नहीं मिलता)
- और कृषि क़ानून, जिसे बिना पूछे लाया गया और भारी विरोध पर वापस लिया गया
“कृषि को सुधारने की नहीं, नियंत्रित करने की नीति अपनाई गई।”
12.6. कृषि से उपभोक्ता तक — मूल्य वृद्धि से 'वास्तविक आय' का क्षरण
- शहरी निम्न-मध्यवर्ग के लिए
एक ओर:- वेतन में वृद्धि धीमी
दूसरी ओर: - खाद्य सामग्री, यातायात, बिजली, दवा महंगी
- वेतन में वृद्धि धीमी
असली पीड़ित:
- वह व्यक्ति जो न तो किसान है, न उद्योगपति
- पर हर मूल्यवृद्धि को झेलता है
- उसकी वास्तविक आय घटती जाती है
क्योंकि जीवन-ज़रूरतों की दर बढ़ती जाती है
12.7. डेटा की लूट — आधिकारिक आँकड़े बनाम ज़मीनी हकीकत
- सरकार कहती है:
“कृषि में वृद्धि दर सकारात्मक है”
“उपभोक्ता मूल्य सूचकांक नियंत्रण में है”
पर गाँव के किसान और शहर का उपभोक्ता दोनों
बोलते नहीं, बिलबिलाते हैं
क्योंकि आंकड़े मुद्रास्फीति को बताते हैं 4%,
पर बाजार में कीमतें दोगुनी दिखती हैं
12.8. निष्कर्ष: मूल्य का अन्याय, असमानता की जननी
यह केवल आर्थिक विषय नहीं,
राजनीतिक और सामाजिक असमानता का स्थायी यंत्र है
“जिस देश में गेहूं का मूल्य MSP पर रु. 23/kg और उसी गेहूं से बने ब्रांडेड आटे का मूल्य रु. 50/kg हो — वहाँ किसान मेहनतकश नहीं, केवल खपत का कच्चा माल है।”
"किसान को केवल उपज का मूल्य नहीं चाहिए — उसे नीति में स्थान, सम्मान और नियंत्रण का अधिकार चाहिए।"
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 13: श्रमिकों को जीवित रखने लायक मज़दूरी — विकास के नीचे दबी हड्डियाँ
“उनसे पूछो जिन्होंने पुल बनाया, सड़क डाली, फैक्ट्री खड़ी की — वे आज कहाँ हैं?
क्या उनके बच्चों को भी वह सुविधा मिली, जो उन्होंने दूसरों के लिए बनाई?”
13.1. राष्ट्र निर्माण की नींव — श्रम, पर श्रमिक नहीं
भारत के "विकास" की गाथा बार-बार पुलों, बाँधों, फैक्ट्रियों, रेलवे और शहरीकरण से जोड़ी जाती है।
पर ये सब किसने बनाया?
- मज़दूरों ने
- दिहाड़ी पर काम करने वालों ने
- पलायन करके शहरों में झुग्गियाँ बसाने वालों ने
किन्तु क्या इन्हें विकास में भागीदारी मिली?
उत्तर:
“केवल काम मिला, वह भी इतना कि शरीर चलता रहे — आत्मा नहीं।”
13.2. Subsistence Wage: जीवित रहने की व्यवस्था, जीने की नहीं
भारत में अधिकांश मज़दूरों को जो मज़दूरी मिलती है, वह इतनी होती है कि:
- वे भूख से न मरें
- काम पर लौट सकें
- और नया श्रमिक जन्म दें — “आगामी जनशक्ति”
इसे ही Subsistence Wage कहते हैं —
यानी, “वेतन नहीं, जीवित रहने का न्यूनतम ईंधन”
इससे क्या होता है?
- श्रमिक को न शिक्षा मिलती है
- न स्वास्थ्य
- न जीवन की गरिमा
13.3. सरकारी योजनाएं — झुनझुना बनाम न्याय
- मनरेगा (MGNREGA)
100 दिन का वादा, पर 50 दिन का भुगतान - श्रमिक कल्याण बोर्ड
पंजीकरण में घूस, और लाभ में राजनीति - बीमा योजनाएँ
कागज़ी प्रमाणपत्रों के जंगल में भटकी उम्मीद
“जिस मज़दूर के पास पेट भरने का समय नहीं, वह कागज़ कहां से लाएगा?”
13.4. असंगठित क्षेत्र — श्रम है, श्रमिक नहीं
भारत की 90% से अधिक मज़दूरी असंगठित क्षेत्र में है:
- निर्माण मज़दूर
- घरेलू कामगार
- ईंट भट्ठे के श्रमिक
- खेतिहर मजदूर
- कूड़ा बीनने वाले
इनके पास नहीं होता:
- न्यूनतम वेतन का पालन
- काम के घंटे का निर्धारण
- छुट्टी या मातृत्व लाभ
- पेंशन या ग्रेच्युटी
“इनकी मेहनत पर देश चलता है, पर देश इन्हें चलता हुआ नहीं देखता।”
13.5. कॉन्ट्रैक्ट श्रमिक — पूंजीवाद का नवदास
नए भारत की फैक्ट्रियों और शहरी कार्यस्थलों में श्रमिकों को
“स्थायी नियुक्ति” नहीं, “ठेका” मिलता है।
- कंपनी को लाभ:
- PF, पेंशन, बोनस की ज़िम्मेदारी नहीं
- कभी भी हटाया जा सकता है
- श्रमिक को अस्थिरता, भय और मौन शोषण
“वह हमेशा काम करता है, पर कभी नौकरी पर नहीं होता।”
13.6. महिला श्रमिक — दोहरा शोषण, अदृश्य श्रम
-
खेतों, निर्माण स्थलों, घरेलू काम में महिलाएं
पुरुषों से अधिक काम करती हैं -
पर:
- कम मज़दूरी
- कोई पहचान नहीं
- कोई प्रसव अवकाश नहीं
- यौन शोषण से सुरक्षा नहीं
“महिला श्रम वह अदृश्य इंजन है जिसे कभी श्रेय नहीं, केवल श्रम मिला।”
13.7. श्रमिक आंदोलन और उसके पतन की कहानी
-
एक समय था जब यूनियनें मज़दूरों की आवाज़ थीं
-
आज वे हैं:
- राजनीतिक दलों की शाखाएं
- विभाजित जाति और धर्म के नाम पर
- अफ़सर-मैनेजर से सौदे कर लेने वाली चुप्पी
“श्रमिक की शक्ति को उसी की जाति, धर्म और भूख के खिलाफ खड़ा कर दिया गया।”
13.8. विकास परियोजनाएँ और विस्थापन — मज़दूरों का उजाड़ा हुआ घर
-
बड़े बांध, SEZ, एक्सप्रेसवे —
जहाँ पहले खेतिहर श्रमिक थे, अब कंक्रीट है -
उन्हें मिला:
- पुनर्वास के झूठे वादे
- मज़दूरी का लालच
- और अंततः झुग्गियों में निर्वासित जीवन
“उसने विकास के लिए घर छोड़ा, और विकास ने उसके लिए घर नहीं छोड़ा।”
13.9. निष्कर्ष: विकास की कीमत किसने चुकाई?
विकास के चमकीले नारे और GDP के आँकड़े जिनकी पीठ पर खड़े हैं,
वे आज भी—
- भूख से मरते हैं
- कुपोषण से जूझते हैं
- बिना स्वास्थ्य सुविधा के मर जाते हैं
- और शिक्षा से वंचित अगली पीढ़ी छोड़ते हैं
“हमने विकास किया नहीं, करवाया — और करवाने वालों को भूला दिया।”
“विकास की हर ईंट पर मज़दूर की हड्डी की धूल है — और हमारी चुप्पी उसका कफ़न।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 14: मध्यवर्ग — जो न भूखा है, न तृप्त; न अमीर, न निर्बल — बस ठगा गया है
“मध्यम वर्ग वह सेतु है जो अमीरों की सुविधा के लिए बना, और गरीबों की पीठ पर खड़ा किया गया।”
– एक भूला हुआ प्रोफेसर, VRS के बाद
14.1. विकास की सबसे बड़ी गलतफहमी: मध्यवर्ग को लाभ मिला है
आंकड़ों में भारत का मध्यम वर्ग बढ़ा है —
- 1991 में 10%
- 2020 में लगभग 30%
पर यह सांख्यिकीय वृद्धि है, सामाजिक सशक्तिकरण नहीं।
मूल प्रश्न:
- क्या इस वर्ग की वास्तविक आय बढ़ी?
- क्या इसकी जीवन-गुणवत्ता सुधरी?
- क्या इसकी सुरक्षा, स्वतंत्रता, और आश्वस्ति पुख्ता हुई?
उत्तर:
नहीं। केवल आकांक्षाएं बढ़ीं, और आकांक्षाओं की पूर्ति का साधन बना कर्ज।
14.2. मध्यवर्ग का अर्थशास्त्र — EMI की बेड़ियों में बंधा जीवन
- घर की किस्त
- बच्चों की फीस
- वाहन लोन
- स्वास्थ्य बीमा
- मोबाइल और इंटरनेट
- किराना, ट्रैवल, टैक्स
**इन सबके बाद जो बचता है, वह “सपनों का टुकड़ा” नहीं —
बल्कि “तनाव का अवशेष” होता है।
“वह 9 से 9 काम करता है, ताकि 9% की ब्याज दर पर 20 साल तक किस्त चुका सके।”
14.3. मुद्रास्फीति बनाम ब्याज दर — डबल ब्लो
-
एफडी पर ब्याज 5-6%
-
महंगाई दर 7-8%
⇒ शुद्ध वास्तविक रिटर्न: नकारात्मक -
शेयर बाजार जोखिम भरा
-
सोना अपर्याप्त
-
प्रॉपर्टी अकल्पनीय
तो वह क्या करे?
“सेविंग्स में डूबे और निवेश में जले” — यही उसकी नियति है।
14.4. शिक्षा और स्वास्थ्य — आत्मनिर्भरता नहीं, व्यावसायिक लूट
- सरकारी स्कूलों से विश्वास उठ गया
- निजी स्कूल फीस की होड़ में
- कॉलेज डिग्रियाँ बेअसर, स्किल का भ्रम
- स्वास्थ्य — बीमा के बिना इलाज नहीं, बीमा के बाद भी असुरक्षा
फीस:
- KG से 12वीं तक 15 लाख
- MBBS 1 करोड़
- इंजीनियरिंग + MTech 10 लाख
“मध्यवर्ग डॉक्टर नहीं बनाता, डॉक्टर खरीदता है — वह भी किस्तों में।”
14.5. रोज़गार की अनिश्चितता — White Collar Slavery
- Contractual teacher
- Probationary engineer
- Bank PO (transferable, target-driven)
- Journalist (कम वेतन, अधिक जोखिम)
- IT कर्मचारी (24x7, “bench” पर नौकरी नहीं)
“कल अगर वह अपनी नौकरी खो दे, तो उसके बच्चों का भविष्य भी डगमगाता है।”
14.6. मध्यवर्ग की राजनीतिक गूंगापन — न आवाज़, न प्रतिनिधित्व
-
अमीरों के पास लॉबी है
-
गरीबों के पास वोट बैंक
-
पर मध्यवर्ग?
- विभाजित है जाति, धर्म, भाषा में
- थका हुआ है दैनिक जीवन की थकान से
- और भ्रमित है मीडिया के तमाशों से
“वह विरोध नहीं करता, बस online गुस्सा निकालता है।”
14.7. सामाजिक दबाव — दिखावे का अंतहीन बोझ
- बच्चों की कोचिंग
- मोबाइल का ब्रांड
- शादी का खर्च
- घूमने का फोटो
- घर का इंटीरियर
- “Status” बनाए रखना
“वह जी नहीं रहा, प्रदर्शन कर रहा है — हर दिन, हर घंटे।”
14.8. निष्कर्ष — मध्यवर्ग: स्थिरता के भ्रम में स्थायी अस्थिरता
यह वर्ग:
- श्रमिकों जितना श्रम करता है
- पूंजीपतियों जैसा टैक्स भरता है
- सरकारी कर्मचारी जितना सुरक्षित नहीं
- और किसान जैसा रो नहीं सकता
फिर भी देश का “स्पाइन” कहलाता है।
“जिस वर्ग ने देश के लिए सबसे अधिक ज़िम्मेदारी उठाई, उसे सबसे कम सुरक्षा मिली।”
“वह जितना पढ़ा-लिखा है, उतना ही विवेकशून्य बना दिया गया है।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 15: स्वास्थ्य व्यवस्था — बीमार तंत्र में मरणासन्न जनता
“स्वास्थ्य अधिकार नहीं, अवसर है — वह भी उन्हीं के लिए जो उसे खरीद सकें।”
15.1. स्वतंत्र भारत की स्वास्थ्य दृष्टि: “रोगमुक्त समाज” नहीं, “जुगाड़मुक्त सिस्टम”
आज़ादी के बाद भारत ने कई पंचवर्षीय योजनाओं में स्वास्थ्य की बात की —
लेकिन वह प्राथमिकता में कभी ऊपर नहीं आया।
- GDP का केवल 1.1-1.4% स्वास्थ्य पर खर्च
- विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश: कम-से-कम 5%
“सरकार बीमार को इलाज नहीं देती, बल्कि बीमा योजना का प्रचार देती है।”
15.2. सरकारी अस्पताल: दवा कम, दया अधिक चाहिए
- डॉक्टर की कमी
- दवाइयों का अभाव
- उपकरण पुराने
- बेड अपर्याप्त
- भ्रष्टाचार सर्वव्यापी
परिणाम:
- अस्पतालों से लोग भागते हैं
- और “अस्पतालों में भर्ती होना” गरीब के लिए मौत का आदेश बन जाता है
“सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं होता, धैर्य की परीक्षा होती है।”
15.3. निजी स्वास्थ्य सेवा: लाभ का अस्पताल, मानवता का शवगृह
- फीस असमान्य
- जाँचें अनावश्यक
- ICU में ज़बरन भर्ती
- डॉक्टर की बजाय hospital management निर्णय करता है
स्वास्थ्य उद्योग नहीं, अब “health business vertical” है।
“तुम मरते रहो, अगर तुम्हारे पास बीमा है तो हम तुम्हें जीवित दिखाएंगे — बिल भरने तक।”
15.4. बीमा योजनाएँ — जनकल्याण की चादर में कॉर्पोरेट कल्याण
-
आयुष्मान भारत जैसे कार्यक्रम
- लाभ पाने के लिए कार्ड, प्रक्रिया, अस्पताल की स्वीकृति आवश्यक
- ज़्यादातर निजी अस्पतालों ने मना किया या सिर्फ़ कागज़ी इलाज दिखाया
-
सरकारी बीमा:
- प्रीमियम सरकार देती है, लाभ निजी अस्पताल उठाते हैं
- धोखाधड़ी आम
“बीमा कंपनियाँ पैसा खा जाती हैं, और बीमार मर जाते हैं।”
15.5. ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा — जो वहाँ है ही नहीं
- PHC में डॉक्टर नहीं
- ANM भी नहीं
- दवा कभी नहीं
- अम्बुलेंस केवल VIP के लिए
“गाँव में बीमार होना मृत्यु से बड़ा अपराध है — क्योंकि उसका कोई उपाय नहीं।”
15.6. महामारी और व्यवस्थागत पतन
COVID-19 ने सबकी पोल खोल दी:
- ऑक्सीजन नहीं
- बेड नहीं
- श्मशानों में जगह नहीं
- डॉक्टर थके हुए, प्रशासन लापता
फिर भी:
- निजी अस्पतालों ने 20-30 गुना ज़्यादा वसूला
- टीका वितरण में भी राजनीति
15.7. निष्कर्ष — स्वास्थ्य अब सेवा नहीं, सौदा है
“अगर तुम बीमार हो और गरीब भी, तो भारत में तुम्हारे लिए न तो अस्पताल है, न दवा, न ईश्वर।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानीअध्याय 16: बैंक और बीमा — भरोसे का ब्याज शून्य, लूट का लाभांश 100%
“बैंक पहले भरोसे का प्रतीक था, अब वह एक सुव्यवस्थित भ्रम है।”
16.1. बचत का संस्कार और उसका अपमान
भारतीय समाज ने सदियों तक बचत को धर्म माना —
- FD
- बचत खाता
- recurring deposits
किन्तु:
- FD पर ब्याज 5-6%
- महँगाई 7-8%
⇒ शुद्ध ब्याज: नकारात्मक
“बैंक अब बचत का रक्षक नहीं, मूल्यह्रास का उपकरण है।”
16.2. बैंकिंग धोखा — NPA का पैसा जनता से वसूला गया
- बड़ी कंपनियाँ हज़ारों करोड़ का लोन लेती हैं
- NPA घोषित होता है
- फिर write-off, और
- PSU बैंक रीकैपिटलाइज़ किए जाते हैं — टैक्सपेयर के पैसे से
आपने कभी आम आदमी का लोन माफ होते देखा?
“बैंक लोन माफ़ी नहीं, वर्ग विशेष की छूट है।”
16.3. बैंक कर्मचारी: लक्ष्य के बोझ तले पिसता मध्यवर्ग
- “लोन बेचो”
- “बीमा बेचो”
- “म्युचुअल फंड बेचो”
- “गोल्ड लोन दो”
न बेचो तो ट्रांसफर, बेचो तो उपेक्षा
“बैंक अब सेवाओं का संस्थान नहीं, उत्पादों का बाज़ार बन गया है।”
16.4. बीमा: सुरक्षा का भ्रम, मुनाफे की व्यवस्था
- स्वास्थ्य बीमा में कागज़ी इलाज
- जीवन बीमा में बोनस की भ्रमित गणना
- बीमा एजेंट का दबाव
- क्लेम करते समय अस्वीकृति के बहाने
“बीमा तब तक प्रेम है, जब तक आप पैसे दे रहे हैं; क्लेम के समय वह कानून का अंधा लेखपाल बन जाता है।”
16.5. डिजिटलीकरण और “फाइनेंशियल इंक्लूज़न” का पाखंड
- जनधन खाते: जीरो बैलेंस में फंसा हुआ विश्वास
- UPI: डेटा तो गया, सुरक्षा नहीं
- ATM चार्ज, ट्रांजैक्शन चार्ज, SMS चार्ज, Statement चार्ज
“तुम्हारा पैसा तुम्हारे पास नहीं — बैंक के पास है, वह भी शर्तों पर।”
16.6. निष्कर्ष — बैंकिंग में अब सिर्फ़ भवन बचा है, भावना नहीं
“जब भरोसा सूद से कम हो जाए, तब व्यवस्था नहीं, समाज बीमार होता है।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 17: औद्योगिक उपभोक्ता वस्तुओं के मूल्यों की साज़िश बनाम कृषि मूल्य का पतन
“किसान अन्न उगाता है, उद्योगपति दाम तय करता है — और उपभोक्ता केवल मुँह बंद करके भुगतान करता है।”
17.1. विकास का झूठा संतुलन: जब मूल्यों की दिशा विपरीत हो
भारत में आर्थिक सुधारों के बाद उपभोक्ता वस्तुओं की पहुँच बढ़ी —
टीवी, AC, फ्रिज, मोबाइल, कार...
किन्तु:
- इन वस्तुओं की कीमतें लगातार बढ़ीं
- वहीं किसानों के उत्पाद — गेहूँ, चावल, सब्ज़ी, दूध — की कीमतें स्थिर या घटती रहीं
क्यों?
क्योंकि किसानों को बाजार में उपभोक्ता नहीं, उत्पादक मात्र माना गया।
17.2. कृषि: लागत बढ़ी, लाभ नहीं
- खाद-बीज के दाम दोगुने
- कीटनाशक, डीज़ल, बिजली महँगी
- मज़दूरी बढ़ी
- मौसम अस्थिर
लेकिन:
- MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) नाम मात्र का
- मंडियों में बिचौलियों की मनमानी
- सरकारें MSP का प्रचार करती हैं, क्रय नहीं करतीं
“किसान का उत्पाद सिर्फ़ खाद्य नहीं — उसका खून भी निचोड़ा गया है।”
17.3. उपभोक्ता वस्तुएँ — टैक्स में छूट, सब्सिडी में सुविधा
- कारों पर loan सुविधा
- इलेक्ट्रॉनिक्स पर EMI
- टैक्स रिबेट
- सेल और छूट
पर कृषि उत्पाद?
- कोई प्रमोशन नहीं
- उपेक्षा और तिरस्कार
“ध्यान दो — एक कार को सरकार सब्सिडी देती है, पर एक गाय को नहीं।”
17.4. मूल्यनिर्धारण की साज़िश: कौन लाभ में, कौन हानि में
- किसानों की उपज open market में बिकती है
- उपभोक्ता वस्तुएँ MRP के नाम पर मनमाने दाम पर बिकती हैं
- विज्ञापन से उपभोक्ता भ्रमित होता है
- किसान अपने दाम खुद तय नहीं कर सकता
अर्थशास्त्र की इस विकृति में:
- उद्योगपति लाभ लेता है
- उपभोक्ता भ्रमित रहता है
- और किसान मरता है
“मंडी में किसान का मूल्य घटता है, मॉल में वही उत्पाद सोने के भाव बिकता है।”
17.5. निष्कर्ष: कृषि बनाम उद्योग नहीं — न्याय बनाम शोषण की लड़ाई
“अगर कृषि को उत्पादन मानते हैं, तो उसे उद्योग की तरह सुरक्षा भी दें। वरना किसान को उपभोक्ता वस्तुओं की माया नहीं — आत्महत्या की राह चुननी पड़ेगी।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानीअध्याय 18: शिक्षा का खोखलापन और मूढ़ शिक्षितों की फौज
“शिक्षा अब ज्ञान नहीं देती, डिग्रियाँ देती है; और डिग्रियाँ अब भविष्य नहीं बनातीं, केवल भीड़ बनाती हैं।”
18.1. शिक्षा का लक्ष्य: सोचने वाला नागरिक या नौकरी का गुलाम?
स्वतंत्र भारत में शिक्षा की कल्पना थी —
- विवेकशील, नैतिक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला नागरिक
किन्तु वास्तविकता:
- स्कूली शिक्षा रट्टा
- कॉलेज शिक्षा दिखावा
- कोचिंग शिक्षा का विकल्प
- डिग्री शिक्षा का पर्याय
“हमने स्कूल में ज्ञान नहीं पाया, बस परीक्षा पास करना सीखा।”
18.2. सरकारी स्कूल: न शिक्षक, न पढ़ाई, न सम्मान
- शिक्षक गायब
- बच्चे मिड-डे मील के भरोसे
- शिक्षा अधिकारी निरीक्षण के बजाय फ़ाइलों में व्यस्त
परिणाम:
- गरीब बच्चे बिना जड़ और बिना पंख के
- साक्षर तो हुए, पर शिक्षित नहीं
18.3. निजी स्कूल: दिखावे की शिक्षा, शोषण की व्यवस्था
- अंग्रेज़ी माध्यम का भ्रम
- फीस की लूट
- कोचिंग और ट्यूशन का दबाव
- प्रतियोगिता में नंबर का आतंक
“बच्चा सवाल नहीं पूछता, क्योंकि शिक्षक को भी जवाब नहीं पता।”
18.4. विश्वविद्यालय: बेरोज़गारों की फैक्ट्री
- शिक्षक नियुक्ति में भ्रष्टाचार
- पाठ्यक्रम अप्रासंगिक
- शोध पत्र कॉपी-पेस्ट
- डिग्री से नौकरी नहीं, नौकरी के लिए कोचिंग
“MA, PhD, NET — फिर भी बेरोज़गारी में No Entry नहीं।”
18.5. प्रतियोगी परीक्षाएँ: एक विडंबनात्मक तमाशा
- IAS हो या रेलवे ग्रुप D — तैयारी वही
- 1 पद पर 10 लाख आवेदन
- पेपर लीक, परीक्षा स्थगित, परिणाम विलंब
तथाकथित टैलेंट राष्ट्र की सेवा में नहीं, कोचिंग संस्थानों की सेवा में लग गया।
18.6. शिक्षा का अंतिम परिणाम: मूढ़ शिक्षितों की फौज
- जो मोबाइल चला सकता है, पर विचार नहीं
- जो भाषा जानता है, पर सत्य नहीं
- जो नौकरी चाहता है, पर श्रम से भागता है
- जो स्वयं को श्रेष्ठ समझता है, पर समाज से कटा है
“ऐसा शिक्षित वर्ग जो पढ़ा-लिखा मूर्ख है — और सत्ता के लिए सबसे उपयोगी है।”
18.7. निष्कर्ष: शिक्षा प्रणाली को नहीं, शिक्षा के लक्ष्य को बदलो
“अगर शिक्षा प्रश्न पूछना नहीं सिखाती, तो वह केवल सत्ता का विस्तार है — ज्ञान का नहीं।”
गंदी गलियों से गुज़रते हुए विकास की कहानी
अध्याय 19: कृषि का योजनाबद्ध विनाश — अनाज नहीं, किसान ही उगाया गया शिकार
“खेती भारत की आत्मा थी — नेताओं ने उसे उद्योग के लिए कच्चा माल बना डाला।”
19.1. नीतिगत दृष्टि: कृषि विकास नहीं, केवल खाद्यान्न सुरक्षा
स्वतंत्र भारत के शासकों ने कभी भी खेती को एक उद्योग की तरह प्रतिष्ठा नहीं दी।
उनके लिए कृषि का मतलब सिर्फ़ अनाज था — वह भी शहरों के लिए।
- किसान के लिए नहीं, शहरी उपभोक्ता के लिए नीति
- “हरित क्रांति” में बीज कंपनियों की जीत
- सिंचाई में राजनीतिक बंदरबांट, कृषि नहीं
19.2. मूल्य नीति — MSP का धोखा, व्यापारियों की मौज
- MSP की घोषणा होती रही, पर सरकारी खरीद नगण्य
- मंडियों में बिचौलिए और आढ़तियों का बोलबाला
- समर्थन मूल्य सिर्फ़ गेहूं-चावल तक सीमित
- सब्ज़ी, फल, दलहन, तिलहन — ‘भावांतर’ की बलि चढ़े
“सरकार कहती है — किसान लाभ में है। किसान कहता है — मुझे लाभ दिखा दो, मैं खेत छोड़ दूँ।”
19.3. किसान क्रेडिट कार्ड — ऋण की चक्रव्यूह नीति
- अल्पकालिक ऋण ⇒ दीर्घकालिक कर्ज़ ⇒ आत्महत्या
- बीमा योजना ⇒ दावा ठुकराया ⇒ कर्ज़ फिर भी चुकाना
- भूमि का टुकड़ा, अब कर्ज़ का बंधक
19.4. कृषि का निजीकरण — कॉर्पोरेट के लिए पोषण, किसान के लिए अनिश्चितता
- संविदा कृषि (contract farming) ⇒ दाम कॉर्पोरेट तय करता है
- किसान का बीज, ज़मीन, श्रम ⇒ लाभ कॉर्पोरेट का
- किसान को सिर्फ़ “परिश्रम का अनिश्चित परिणाम”
19.5. निष्कर्ष — खेत अब खेत नहीं, निवेश का रिस्क ज़ोन है
“कृषि भारत की आत्मा थी, और हमने उस आत्मा को ब्याज, बीमा और बिचौलिए में बेच डाला।”
गंदी गलियों से गुज़रते हुए विकास की कहानी
अध्याय 20: श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी बनाम अधिकतम शोषण
“जो तुम्हारे शहर बनाते हैं, उनके लिए शहर में न जगह है, न जीवन।”
20.1. योजना और शोषण का संबंध
आज़ादी के बाद “मज़दूरों के हित” के नाम पर तमाम कानून बने:
- Factory Act
- Minimum Wages Act
- Contract Labour Regulation Act
पर हुआ क्या?
- वेतन न्यूनतम, काम अधिकतम
- बिना जॉब सिक्योरिटी
- बिना सोशल सिक्योरिटी
- और अब तो श्रम संहिताओं में भी पूँजी के पक्ष में लचीलापन
20.2. श्रमिक बनाम कर्मचारी
- सरकारी कर्मचारी ⇒ स्थायी वेतन, लाभ, पदोन्नति
- श्रमिक ⇒ ठेके पर, काम अस्थायी, जीवन अनिश्चित
Contractualization of Labour का मतलब:
- काम वही, पर वेतन आधा
- सेवा वही, पर अधिकार नहीं
“सरकारी भवन बनाने वाले मज़दूर सरकारी गेट से अंदर नहीं जा सकते।”
20.3. प्रवासी श्रमिक — राष्ट्रनिर्माता या शोषण के प्रतीक?
- महामारी में पैदल चले
- कोई बीमा नहीं
- कोई रिकॉर्ड नहीं
- कोई राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं
“उनकी जान की कीमत नहीं, और उनके जीवन की गिनती नहीं।”
20.4. मज़दूर आंदोलन का दमन और बौद्धिक वर्ग की चुप्पी
- ट्रेड यूनियनें राजनीतिक दलों की गुलाम
- मज़दूरों की हड़तालें anti-national बताई जाती हैं
- “श्रम सुधार” अब कॉर्पोरेट सुधार का पर्याय है
20.5. निष्कर्ष — श्रम भारत का असली धन था, हमने उसे खपा दिया
“अगर भारत निर्माण मज़दूर करते हैं, तो भारत की नींव उन्हीं की अस्थियों पर बनी है।”
गंदी गलियों से गुज़रते हुए विकास की कहानी
अध्याय 21: लोकल गवर्नेंस का पाखंड और सत्ता का विकेंद्रित दोहन
“सत्ता का विकेन्द्रीकरण नहीं हुआ — केवल भ्रष्टाचार का विकेन्द्रीकरण हुआ।”
21.1. पंचायती राज — गांधी की कल्पना या नौकरशाही का विस्तार?
गांधी ने ग्राम स्वराज की बात की थी।
लेकिन हुआ क्या?
- पंचायतें बनीं, पर उनके पास सत्ता नहीं, केवल शोषण का ढाँचा आया।
21.2. महिला, दलित, आदिवासी आरक्षण — प्रतिनिधित्व या प्रॉक्सी राजनीति?
- महिला प्रधान ⇒ पति सरपंच
- दलित प्रधान ⇒ सवर्ण सचिव का दबाव
- आदिवासी प्रधान ⇒ नगर से आयातित सलाहकारों की कठपुतली
“आरक्षण से कुर्सी मिली, पर निर्णय का अधिकार नहीं।”
21.3. फंड और घोटाले का गणित
- पंचायतों को मिलते हैं हज़ारों लाखों
- लेकिन:
- काम बिना टेंडर
- सामग्री ऊँची दर पर
- योजना अधूरी
अंततः:
- लाभ सचिव, सरपंच, इंजीनियर का
- जनता केवल फोटो खिंचवाती है
21.4. लोकल समृद्ध वर्ग के सहारे गरीबों का वोट बैंक निर्माण
- प्रधानों के इर्द-गिर्द बनता है “स्थानीय सत्ता गुट”
- ये लोग:
- लाभ उठाते हैं
- ठेके लेते हैं
- पंचायत सचिव को “साझेदार” बनाते हैं
“गाँव का लोकतंत्र अब गाँव की लूटतंत्र बन गया है।”
21.5. निष्कर्ष — ग्राम पंचायतें अब ग्राम विकास की नहीं, ग्राम दोहन की इकाई हैं
“लोकल सेल्फ गवर्नेंस की परिकल्पना मर चुकी है — अब वहाँ बस एक शोभा का संविधान बचा है।”
गंदी गलियों से गुजरते हुए विकास की कहानी
अध्याय 22: मध्यवर्ग की दुविधा — अस्मिता, आकांक्षा और असुरक्षा के त्रिकोण में फंसा वर्ग
“न तो गरीबों की सहानुभूति मिली, न अमीरों की स्वीकार्यता — मध्यवर्ग हर दिशा से अकेला है।”
22.1. स्वतंत्र भारत में मध्यवर्ग — आशा की किरण या शोषण की खाद?
- स्वतंत्रता के बाद नवगठित भारत में मध्यवर्ग को शिक्षा, नौकरी, नैतिकता का प्रतीक माना गया।
- परंतु आर्थिक नीतियों और नौकरशाही के जाल में वह एक 'करदाता प्राणी' बन कर रह गया।
22.2. आर्थिक असुरक्षा — ज़िम्मेदारियों का बोझ, सुविधाओं की अनुपलब्धता
- हर नीति की सब्सिडी से वंचित
- टैक्स में सबसे अधिक दंडित
- महँगाई का सीधा शिकार
- बच्चों की शिक्षा, माता-पिता की चिकित्सा, भविष्य की बचत — सब अकेले वहन करता है
“वह खपत भी करता है, निवेश भी करता है, टैक्स भी देता है — फिर भी नीतियों में कहीं नहीं गिना जाता।”
22.3. सांस्कृतिक संकट — मूल्य खो गए, दिखावा रह गया
- पश्चिमी जीवनशैली की नकल
- पारिवारिक ढाँचा डगमगाया
- नैतिक दुविधा:
- आध्यात्मिक बनें या उपभोक्तावादी?
- सेवा करें या सफलता पाएं?
22.4. राजनीतिक विस्थापन — न कोई प्रतिनिधि, न कोई आवाज़
- न गरीब वर्ग की तरह सशक्त वोट बैंक
- न कॉर्पोरेट जैसा लॉबिंग पावर
- इसलिए नीति निर्माता इसे "invisible mass" मानते हैं — उपयोग करो, भूल जाओ
22.5. निष्कर्ष — मध्यवर्ग अब किसी नीति का नायक नहीं, केवल एक टैक्सपेइंग जोकर है
“जिस वर्ग ने देश को पढ़ाया, अब वह सबसे अनसुना, सबसे अनछुआ, और सबसे अधिक कुंठित है।”
गंदी गलियों से गुज़रते हुए विकास की कहानी
अध्याय 23: नई पीढ़ी की मानसिक टूटन — तकनीक के युग में अकेलापन
“डिजिटल युग ने सूचनाएँ दीं, पर शांति नहीं; कनेक्शन दिए, पर संबंध नहीं।”
23.1. प्रतिस्पर्धा से भयाक्रांत बालपन
- कोचिंग, परीक्षा, सोशल मीडिया — हर तरफ़ एक 'करो, बनो, दिखाओ' का दबाव
- खेल, प्रश्न, संवाद — सब गायब
- बचपन में ही मूल्यांकन और निराशा का बोझ
“जो 6 साल की उम्र में IIT की तैयारी कर रहा है, वह 26 की उम्र में क्या जीवन से प्यार करेगा?”
23.2. तकनीक का दबाव — कनेक्टेड पर कटे हुए
- हर हाथ में मोबाइल
- हर सिर में comparison
- हर आंख में FOMO (Fear of Missing Out)
पर:
- न दोस्ती गहरी
- न संवाद सजीव
- न आत्मा में स्पर्श
23.3. उद्देश्यहीनता — नौकरी की खोज, पर पहचान की भूख
- “Career” शब्द ने “Character” को नष्ट किया
- युवाओं को काम मिला, पर अर्थ नहीं
- वे चल रहे हैं — बिना दिशा, बिना विश्वास
23.4. मानसिक स्वास्थ्य — अवसाद, चिंता, आत्महत्या
- स्कूलों में तनाव
- कॉलेज में चिंता
- नौकरी में burnout
- घर में संवादहीनता
“दुनिया से जुड़े, अपने आप से टूट गए।”
23.5. निष्कर्ष — नई पीढ़ी को न तकनीक की ज़रूरत है, न उपदेश की — उसे चाहिए एक आश्रय और अर्थ
“अगर हम युवा पीढ़ी को केवल डिग्रियाँ देंगे, तो वे केवल गूगल करेंगे — जीवन नहीं जिएँगे।”
गंदी गलियों से गुज़रते हुए विकास की कहानी
अध्याय 24: राजनीतिक वर्ग का नैतिक पतन और मीडिया की साँठगाँठ
“राजनीति अब विचारधारा नहीं, केवल प्रबंधन है — और मीडिया उसका स्पीकर।”
24.1. स्वतंत्रता के बाद का राजनीतिक स्वप्न — और उसका अवसान
- कभी गांधी, लोहिया, जयप्रकाश जैसे विचारक थे
- अब केवल जाति, धर्म, दलबदल और धन
“राजनीति अब सेवा नहीं, ब्रांडिंग है; और राजनेता अब लोकसेवक नहीं, सीईओ हैं।”
24.2. भ्रष्टाचार — नीति नहीं, सामान्य प्रवृत्ति
- राजनीति में धन कमाना अब संकोच का नहीं, सफलता का प्रमाण है
- टिकट बेचना, पद बेचना, स्कीमों में हिस्सा लेना — ‘accepted norm’
24.3. मीडिया — चौथा स्तंभ या झुका हुआ कैमरा?
- मीडिया अब आलोचक नहीं, इवेंट मैनेजर है
- दल विशेष की भक्ति
- विपक्ष को anti-national, सत्ता को development icon बताया जाता है
- ‘Godi Media’ का जन्म
24.4. जनता की चुप्पी — नैतिकता की अंतिम मृत्यु
- मतदाता अब जाति/धर्म के आधार पर मतदान करता है
- घोटाले, बलात्कार, हिंसा — अब केवल समाचार हैं, चिंता नहीं
24.5. निष्कर्ष — राजनीति में नैतिकता मर चुकी है, और मीडिया उसके अंतिम संस्कार का आयोजक है
“जब नैतिकता वोट नहीं दिलाती, तब झूठ और डर सबसे बड़े मतदाता बन जाते हैं।”
गंदी गलियों से गुज़रते हुए विकास की कहानी
अध्याय 25: निष्कर्ष और बदलाव की संभावनाएँ
"जहाँ विकास एक छलावा था, वहाँ परिवर्तन का रास्ता भी भ्रम से भरा है"
25.1. निष्कर्ष: यह कैसी विकास-गाथा थी?
इस पुस्तक की कथा उस भारत की है,
जिसने लोकतंत्र पाया — पर लोक खो दिया।
जिसने योजना बनाई — पर नियत खो दी।
जिसने विकास किया — पर विकासशील मनुष्य नहीं बना सका।
हमने देखा:
- विकास के नाम पर शहरी वर्ग की इच्छाओं की पूर्ति हुई, ग्रामीण जनता की उपेक्षा हुई।
- सत्ता का विकेंद्रीकरण केवल लूट का विकेंद्रीकरण साबित हुआ।
- शिक्षा, स्वास्थ्य, श्रम, कृषि — सबको बाजार का ग्रास बना दिया गया।
- मध्यवर्ग को करदाता बना कर चुप कराया गया, युवाओं को अकेलेपन और अवसाद में झोंक दिया गया।
- और सबसे भयावह — नैतिकता का सर्वनाश कर दिया गया, क्योंकि नीति बनाने वाले ही लाभार्थी बन गए।
यह एक ऐसा देश है,
जहाँ 'राष्ट्रीय आय' बढ़ी पर वास्तविक आमदनी घटी,
जहाँ 'मध्यम वर्ग' पढ़ा-लिखा तो बना, पर विवेकशील नहीं।
जहाँ 'विकास दर' चमकी, पर आदमी अंदर से सूख गया।
25.2. हम इस स्थिति तक पहुँचे कैसे?
-
नीति और आस्था का विभाजन
- राष्ट्र के नाम पर बनी नीतियाँ व्यक्ति और वर्ग विशेष की इच्छा- स्वाद का माध्यम बनें।
-
अधूरी आधुनिकता
- न वैज्ञानिक दृष्टिकोण आया, न परंपरागत वैज्ञानिक दृष्टिकोण - एक संशयपूर्ण और भोगी समाज बना।
-
वोटबैंक राजनीति
- नागरिक नहीं, समुदाय को संबद्ध किया गया।
- गरीबी हटाने के बजाय स्थायी बना कर लाभ उठाया गया।
-
गुण वर्ग का पतन
- जो सोचा, वो बिक गया।
- जो बोला, वह डर गया।
- जो लड़ रहा था, वह मुखिया का मुखिया बन गया।
25.3. इस जहाज़ से बाहर जाने के लिए क्या रास्ता है?
है - पर आसान नहीं है. यह एक 'व्यक्तिगत नैतिक आंदोलन' से शुरू होगा।
1. लोकशक्ति का पुनर्स्थापना
- गाँव-शहरों में स्थानीय नेतृत्व को स्वतंत्र रूप से विकसित करना
- ग्रामसभा की वास्तविक शक्ति को पुनः स्थापित करना
2. शिक्षा का नवीनीकरण
- रटने की जगह आलोचनात्मक सोच
- नौकरी केंद्र नहीं, जीवन केंद्र शिक्षा
- सामाजिक विज्ञानों को पुनः आरंभ करना
3. संरचनात्मक आर्थिक संतुलन
- कृषि और शिल्प कारीगरों और बाजार प्रौद्योगिकी से जुड़ें
- स्थानीय उत्पादों के लिए स्थानीय उपभोक्ताओं को प्राथमिकता
- एमएसएमई को कोई अनुदान, स्वतंत्रता और स्थिरता नहीं दी जानी चाहिए
4. नागरिक पुनर्जन्म
- नागरिकों को उपभोक्ता न उपभोक्ता - वह विचारशील, प्रश्नशील और आत्मनिर्भर हो
- करदाता और वोटदाता से आगे - नीति-निर्माता में सहभागी बने
5. मीडिया और ज्ञान स्वतंत्रता की स्वतंत्रता
- इन अनुयायियों को सत्य से असंबद्ध रखना अनिवार्य है
- अंत में बोलना और सत्य को टोकना - अपनी मूल अनुकूलता बनाना
25.4. अंतिम उद्धरण: यह क्या है?
नहीं.
कोई भी क्रांतिकारी राजनीतिक क्रांति से नहीं - सांस्कृतिक क्रांति से आता है।
हमें भारत के उस अलौकिक विवेक को जगाना होगा
जो न नीति में था, न विदेशी मॉडल में -
बल्कि गांवों, विद्या और साधना में निहित था।
हमें लौटना होगा -
ना अतीत की मूर्ति पूजने,
ना पश्चिम की नकल करना -
बल्कि अपने अंदर के भारत को पुनर्जीवित करना।
"अगर हम अपने स्ट्रीट-कूचों की सच्चाई को जीवंतता से लिखेंगे, तो एक दिन विकास की वह स्ट्रीट भी निकलेगी, जो रोशनी तक पहुंचेगी।"
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