गुरुवार, 12 सितंबर 2019

मास्टर साहब के रेखाचित्र

घर-बाहर अनेक लोग जानते थे कि मास्टर साहब हिंदी जगत के आसमान के चाँद थे जिन्हें परिस्थितियों के राहु ने ग्रस लिया था | वह जितना भी छटपटाते थे, उतना ही राहु की दाढ़ों में समाते जाते थे | वह चीखते थे लेकिन उनकी चीख ज़मीन तक न आ पाती थी, किसी के कानों में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था | उनका रोना-चिल्लाना अरण्यरोदन से भी कम प्रभावशाली था, शायद साहित्य की भाषा में उसे अंतरिक्षरोदन कहा जायेगा |
मास्टर साहब को कोई सुख नहीं था जिसे वह औरों के साथ बांटते| उनके खाते दुख से भरे थे और कोई भी दुख बाँटने के लिए तैयार नहीं था | अतः वह दुख बाँटने के लिए लालायित रहते थे| मेरी उनसे निकटता थी| अतः दुख बाँटने के लिए मैं अक्सर पकड़ लिया जाता था | एक दिन मैं ऐसे ही पकड़ा गया था कि उन्होंने अपने पेंटिंग्स की बात शुरू कर दी | मैं नहीं जानता था कि मास्टर साहब ललित कला में सिद्धहस्त थे (हालाँकि मैं जानता था कि जवानी के दिनों में वह सितार-वादन, हारमोनियम-वादन एवं शास्त्रीय गायन में भी दख़ल रखते थे और 'हठ न कर मग छाँड़ दे' पर घंटों आलाप लिया करते थे | यह बात मुझे उनके एक बेटे ने बतलायी थी जो मास्टर साहब की मज़ाकिया नक़ल करता था और छाँड़ की जग़ह तुक मिलाते हुए एक ज़्यादा प्रभावपूर्ण शब्द को रख दिया करता था)|
सभी जानते हैं कि वेदना कला की जननी है| मास्टर साहब की वेदना महादेवी वर्मा की वेदना से हज़ार गुनी तीव्र थी और किसी उत्स (सोते) की तरह पत्थर फाड़ कर निकलने की क्षमता रखती थी | तभी तो वह मास्टर साहब के हृदय से कविता, कहानी, लेख, गायन, वादन, चित्रकला के रूप में अनेक सोतों से बहती थी | ग़नीमत थी कि वेदना ने कभी नृत्यकला के रूप में बहने की ज़िद नहीं की थी अन्यथा मास्टर साहब भरतनाट्यम, कथक, कथकली, ओडिसी, कुचिपुड़ी बग़ैरह में भी खूब नाम कमाते|
तो मास्टर साहब हाथ पकड़ कर, स्नेहपूर्वक, मुझे अपनी स्टूडियो में ले गए जो उनके घर के पीछे बनी गुहाल के एक कोने में सिमटी हुई उपेक्षा का जीवन जी रही थी |
मास्टर साहब ने बड़े उत्साह के साथ अपनी पहली कलाकृति (जो एक फटी और मैली-सी धोती से ढँकी थी) का परिचय दिया| उन्होंने बतलाया कि वह कलाकृति 'धूमिल' की एक कविता से अनुप्राणित है और इंदिरा गाँधी द्वारा लाये गए इमर्जेंसी काल की है| वह इस कलाकृति को खुलकर जनता के सामने नहीं ला सके और न किसी कलाप्रदर्शनी में भेज सके क्योंकि ऐसा करने से उनकी जीविका छिन जा सकती थे, वह डंडे खा सकते थे और जेल भी जा सकते थे | फिर उन्होंने उसका अनावरण किया | हिंदुस्तान के क़रीब आधे नक़्शे पर एक गन्दा, बेतुका पर विशाल धब्बा था - लगता था कि उसपर चाय गिर कर फैल गयी थी और फिर सूख गयी थी | उस धब्बे ने बंगाल, बिहार, यूपी, दिल्ली, मध्य प्रदेश और राजस्थान पर पूरा कब्ज़ा कर लिया था और इस तरह हिंदुस्तान के नक़्शे का सत्यानाश कर दिया था |
मेरे चहरे पर मूढ़ता देखकर मास्टर साहब मुस्कुराये और बोले - "समझे नहीं? हिंदुस्तान के नक़्शे पर गाय ने गोबर कर दिया था | वह देखकर मुझे धूमिल की कविता याद आ गयी और लगे-हाथ गौमाता के साहित्य प्रेम एवं कलाप्रेम को देखकर मैं अभिभूत हो गया | मैंने हिंदुस्तान के नक़्शे को कैनवास बोर्ड पर टाँग दिया और जब लीद सूख गयी तो उसे झाड़ दिया | केवल यह बड़ा-सा धब्बा बच गया - गंदा, घिनौना,बेडौल| लेकिन यही तो कला है - जीवंत, वास्तविक पर कल्पनाओं से भरी| यह यथार्थवाद से जुड़ी है, आक्रोश से जुड़ी है, नवचेतना का आह्वान करती है| अब कहो, कैसी लगी यह रचना?
मुझे चकित देखकर वह मुझे अपनी दूसरी पेंटिंग की ओर ले चले |
दूसरी पेंटिंग एक मटमैले-से परदे से ढँकी थी जो किसी सीमेंट की बोरी को फाड़कर बनाई गई थी| विना किसी प्राक्कथन के मास्टर साहब ने उसे अनावृत कर दिया | देखा, चित्र में एक पोपले-मुँह, खुले सफ़ेद केश, झुकी क़मर वाली, अर्ध-नग्न खूसट बुढ़िया अपनी साड़ी को खिंचने से और निर्वस्त्र होने से अपने को बचाने के लिए जद्दोज़हद कर रही है और दूसरी और कई लोग मिलकर उसे निर्वस्त्र करने के लिए सारी ताक़त लगा रहे हैं| कृष्ण की ओर से आनेवाली असीम साड़ी का अंकन ही नहीं है | मैंने पूछा - "मास्टर साहब, द्रौपदी तो बूढ़ी नहीं थी, न दुःशासन अनेक थे| फिर इस पेन्टिंग का क्या अर्थ है?" मास्टर साहब हँसने लगे | बोले - "अच्छा यह बताओ, क्या दुःशासन के सिर पर टोपी थी? इस चित्र में तो हर प्रतीकात्मक दुःशासन के सिर पर अलग-अलग किस्म की टोपी है| आदमी टोपी से ही तो पहचाना जाता है - कौन नेता है, कौन सेठ है, कौन पंडित है, कौन मौलवी है, कौन शोहदा है, इत्यादि| आदमी की अपनी वैल्यू क्या है टोपी के विना?" टोपियों का रहस्य विना समझे ही मैंने पूछा - "और मास्टर साहब, द्रौपदी तो बुढ़िया नहीं थी - आपने उसे बुढ़िया क्यों दिखाया है?" मास्टर साहब फिर से हँसने लगे और बोले - "अगर भारत के पढ़े-लिखे नौजवानों को इतनी समझ होती ही तो रोना किस बात का था?" फिर मुझे हाथों से खींचते तीसरी चित्रकलाकृति की और बढ़ गए|
तीसरी कलाकृति को अनावृत करते समय मास्टर साहब के चेहरे पर एक हलकी-सी मुस्कान तैर गयी| मैंने देखा - कैनवास पर चार बंदर आँके गए थे| तीन बंदर तो चिरपरिचित थे - गाँधीजी वाले| एक ने दोनों हाथों से अपनी दोनों ऑंखें ढक रखी थी, दूसरे ने अपने दोनों कान और तीसरे ने अपना मुँह| लेक़िन चौथा बंदर अपने बाएँ हाथ में कई केलों को पकड़े हुए था और दाएँ हाथ से एक केला गपागप मुँह में डाले हुए था| मैं हँसने लगा तो मास्टर साहब बोले - यहाँ हँसने का क्या है? वह बंदर केले हथियाए हुए है और खा भी रहा है| बाक़ी बंदरों में से एक ने यह सब न देखने की क़सम खा रखी है, दूसरे ने चुप रहने की क़सम खा रखी है और तीसरे ने केले हथियाने वाले बंदर की शिकायत नहीं सुनने की क़सम खा रखी है| सबके हाथ भी इसी में बंधे है| तीनों की सारी ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ केले हथियाने वाले बंदर का अकर्मात्मक सहयोग कर रही हैं| यह कलाकृति स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरान्त होने वाली सारी घटनाओं को समग्रात्मक रूप से आँकती है| ये चारों ही बंदर एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं, चारों ही गाँधीजी के पालतू बंदर हैं| एक केले खाता रहा और बाक़ी तीन नाम कमाते रहे| इस कलाकृति को आँकने की प्रेरणा मुझे नागार्जुन जी की एक कविता से मिली थी|
मास्टर साहब मुझे अपनी चौथी चित्रकला दिखाना ही चाहते थे कि उनका सबसे छोटा लड़का दौड़ता-हाँफता आया और बोला - बाबू जल्द से दुआर पर आइये, पुलिस वाले आपको बुला रहे हैं| भैया का अता-पता पूछ रहे थे| बोले कि बैजेगाँव में हुई परसों रात की डकैती में भैया शामिल थे| मैंने कह दिया कि भैया तो तीन महीने से घर आये ही नहीं| पुलिस वालों ने कहा कि जा बाप को बुला ला| उन्हीं की ख़बर लेंगे| भैया तो घर में ही छिपे हैं| अब उन्हें कैसे बचाया जाय, यह सोचिये| चित्रकला को चूल्हे में डालिये, पहले भैया को बचाइए| जल्द चलिए|
मैंने कहा, तो अब चलता हूँ मास्टर साहेब, ज़रूरी काम आ गया तो अब यह भी आपको सलटना ही होगा| चित्रकला कभी और देख लेंगे| मुझे छोड़कर मास्टर साहेब अपने दुआर की तरफ़ लपक गए|

आधी पत्नी की कहानी

उसका नाम प्रज्ञा है और वह एक स्कूल मास्टर की बेटी है | मास्टर साहब ने उसका नाम बहुत सोच-समझ कर रखा था| कहते हैं यथा नामस्तथा गुणः| हालाँकि एक बहुत प्रतिभाशाली कवि (काका हाथरसी) ने अपनी कविता "नाम बड़े - दर्शन छोटे" में दिखाया है कि नाम और गुण का कोई ताल्लुक़ नहीं है | जेएस मिल ने भी कहा है कि व्यक्तिवाची नाम गुण सूचित नहीं करते| मास्टर साहब हिंदी के आला दर्जे के विद्वान थे इसलिए काका हाथरसी जैसे विदूषक कवि की कविता को गंभीरता से लेने में उनकी हेठी होती थी| बची जेएस मिल की बात| सो मिल साहब हिंदी में तो लिखते नहीं थे | मास्टर साहब मानते थे "यन्न भारते तन्न भारते"| जो ज्ञान कहीं भी है वह हिंदी में भी है और जो ज्ञान हिंदी में उपलब्ध नहीं है वह कहीं उपलब्ध नहीं है| अतः मिल को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी| उनका वश चलता तो वह प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद और हरिवंश राय बच्चन की क़िताबों के ज़रिये गणित, भौतिकी, रसायन शास्त्र, जीवविज्ञान और यांत्रिकी पढ़वाते| लेक़िन उनकी चलती नहीं थी|
सो मास्टर साहब ने अपनी बेटी का नाम प्रज्ञा इसलिए रखा था कि बुद्धि किसी न किसी दिन ख़ुद चलकर आएगी और उनकी बेटी को बुद्धिमती बना जाएगी, विदुषी बना जाएगी | इस दृढ़ विश्वास के बाद उन्होंने बेटी को स्कूल भेजना या घर पर पढ़ाना आवश्यक नहीं समझा| बेचारी प्रज्ञा अनपढ़ रह गई| फिर भी उसे अपने पिता पर पूरा भरोसा था और वह ईमानदारी के साथ मानती थी कि स्त्री जाति में - चाहे वह कमला हो कि विमला, लक्ष्मी हो या दुर्गा - उसकी मां से ज़्यादा समझदार कोई नहीं हो सकती| बची मर्दों की बात| तो मास्टर साहब को छोड़ कर और सभी मर्द बुद्धू होते हैं - प्रत्यक्षे किं प्रमाणं|
लेकिन प्रज्ञा की माँ मास्टर साहब की तरह अतिशिक्षित नहीं थी| वह ख़ुद अनपढ़ थी और इसका उन्हें गर्व था| मास्टर साहब के लाख प्रयासों के बावजूद ताजिंदगी वह अपना हस्ताक्षर नहीं कर सकीं, और अपनी इस विशेषता को वह अपनी प्रतिभा एवं सतीत्व का सबूत मानती रहीं | कहती थी - औरत का पढ़ना-लिखना उसे चरित्रहीनता की सरहद पर ले जाकर छोड़ देता है| अगल-बग़ल के परिवारों से कई लड़कियाँ स्कूल-कॉलेज जाती थीं और उनकी चरित्रहीनता के किस्से (सत्य या कल्पित) उन्हें ज़ुबानी याद थे | अतः अपनी बेटी/बेटियों को स्कूल भेजकर वह उन्हें चरित्रहीनता की दहलीज़ पर ले जाकर छोड़ देने के पक्ष में नहीं थी| मिला जुला कर, पुत्री-शिक्षा के मामले में वह मास्टर साहब की अनुयायिनी थी। अतः प्रज्ञा की पढ़ाई-लिखाई का प्रश्न ही नहीं उठता था| यह बात आलहदा थी कि जब उनके बेटे की शादी के पैग़ाम आने लगे तो मास्टर साहब (मय श्रीमती जी के) दुल्हन के दो गुणों के राग अलापने लगे - सुशिक्षिता और अर्थकरी (प्रचुर दहेज़ लाने वाली)| उन्होने साफ कहा - सरस्वती और लक्ष्मी के मुद्दों पर कोई बहस नहीं - हम बहू के रूप-सौंदर्य को ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं समझते, कौन कोठे पर बिठाना है? काली-कलूटी और यहाँ तक कि अक्ष्णा काणः, पादेन खञ्जः, पाणिना कुन्ठः चलेगी|
प्रज्ञा की माँ के अनुसार बेटियों को गृहकार्य में निपुण होना चाहिए | गृहकार्य मुख्यतः पाँच होते हैं - (1 ) झाड़ू-बुहारू करना और चौका-आँगन लीपना (2) बर्तन व कपड़े धोना (3) रसोई करना, (4) बच्चे संभालना, और (5) अचार डालना, बड़ी-बचके तैयार करना, इत्यादि| ये कार्य सैद्धांतिक नहीं होते - इनमें कुशलता किसी क़िताब के पढ़ने से नहीं हासिल होती | ये कलाएँ मनोयोग पूर्वक करने से - करते रहने से - आती हैं| अतः प्रज्ञा की माँ ने प्रज्ञा को (जो सबसे बड़ी बेटी थी) इन गृहकार्यों में दक्ष बनाने के लिए व्यावहारिक शिक्षा देनी शुरू कर दी| सबेरे उठकर झाड़ू-बुहारू करना और चौका लीपना, बर्तन व कपड़े धोना तथा बच्चों को संभालना ज़्यादा शुरुआती शिक्षा थी | प्रज्ञा के चार भाई बहन उससे छोटे थे | उन पर अपना प्रभुत्व पाकर प्रज्ञा फूली न समाई| तीन-चार वर्ष लगे और एक तरफ़ तो प्रज्ञा इन कार्यों में पूर्णरूपेण प्रशिक्षित हो गयी और दूसरी तरफ़ उसकी दो छोटी बहनें प्रज्ञा की कक्षा में आने के लायक़ हो गयी | अतः प्रज्ञा को प्रमोशन मिल गया | वह रसोई करने, अचार डालने, बड़ी-बचके बनाने इत्यादि कार्यों में प्रशिक्षण पाने लगी | धीरे-धीरे माँ का रोल केवल प्रशिक्षिका का रह गया | प्रशिक्षण देने के अतिरिक्त सुबह देर तक सोना, पान-ज़र्दा खाकर पड़ोसिनों से गप्पें लड़ाना, पड़ोसियों के बारे में सूचना एकत्र करना और उनकी समीक्षा करना इत्यादि ऊँचे स्तर के काम उनके ज़िम्मे रह गए|
यहाँ पर एक बात उल्लेखनीय है | आपने बया चिड़िये के खोंते (नीड) को बहुधा ताड़ के पेड़ पर पत्तों से लटकता देखा होगा| इस को बनाने की कला बहुधा माँ-बाप से सीखी जाती है क्योंकि बया झुण्ड में रहने वाली चिड़िया है| अलग़-अलग़ खोतों में कुछ अंतर जरूर होता है क्योंकि यह अनुभव और परिपक्वता पर आधारित है लेक़िन मुख्य स्थापत्य एक ही रहता है| इसी तर्ज़ पर प्रज्ञा ने बया की तरह सब कुछ सीखा| जो उसकी माँ करती थी, वह सारा काम - खाना बनाने से अचार डालने तक - उसी तरह करती थी| वह किसी भी तरह के नवीकरण (innovation) के पक्ष में नहीं थी | इस कार्य में कोई रिस्क नहीं था - सब कुछ कालपरीक्षित (time tested) था| यह सब कहने का यह अर्थ नहीं कि प्रज्ञा मानव रोबो (human robot) थी, पूरी तरह से प्रोग्राम्ड| वह मानवी थी और एक भली लड़की थी|
बेटी की बाढ़| प्रज्ञा पन्द्रह वर्ष की हुई और मास्टर साहब उसके हाथ पीले करने की सोचने लगे| यह वाजिब भी था | गृहकार्य में कुशलता हासिल होने से प्रज्ञा में एक अच्छी पत्नी के तीन गुण स्वतः आ गए थे,लेकिन बचे तीन नहीं आ पाए| कहा गया है (गरुड पुराण, पूर्व खण्ड, आचार काण्ड) - "कार्येषु मन्त्री करणेषु दासी,भोज्येषु माता शयनेषु रम्भा । धर्मानुकूला क्षमया धरित्री ,भार्या च षाड्गुण्यवतीह दुर्लभा ॥" उसमें तीन गुणों का सर्वथा अभाव था - मंत्री सम्बन्धी, रम्भा सम्बन्धी और अनुकूलता| इसका मुख्य कारण यह था कि पहले तो ये गुण उसकी प्रशिक्षिका में ही नहीं थे | स्त्री के चरित्र के मामले में प्रज्ञा की माता जी के विचार बहुत मौलिक थे | उनके विचार में पत्नी का अपने पति से शारीरिक सम्बन्ध भी एक क़िस्म की चरित्रहीनता है| अतः अच्छी पत्नी ऐसा कुछ न करे कि पति भी उसकी तरफ़ आकर्षित हो| पति अगर ज़बरन कुछ कर ही बैठे तो बेचारी स्त्री क्या कर सकती है - सिवा इसके कि स्नान करके तुलसी के चौरे पर जल चढ़ा दे| इस सीख के बाद तो अप्सराएँ भी सन्यास ले लेंगी - कोई अदना लड़की तो रम्भा बनने की दिशा में एक डेग भी आगे नहीं बढ़ सकती है| और भी दूसरे गुणों के लिए जिस प्रज्ञा की आवश्यकता होती है वह बेचारी प्रज्ञा को उपलब्ध नहीं था |सात वर्षों तक अनवरत चौका चूल्हा करके वह दासी रूप में निपुण हो गयी थी| उसने घर का काम-काज करते हुए अपने चार छोटे भाई-बहनों को संभाला था और इस अनुभव ने उसे धरती की तरह सहनशील बना दिया था | वह घर भर के सारे लोगों की मनपसंद सब्जियाँ बनाती थी और सबको खिलाकर खुद तीसरे पहर खाती थी - कुछ न बचे तो ख़ुद सूखी रोटी या छूछे भात में नमक-पानी मिलाकर खा लेती थी - सारे बच्चों को माँ की तरह खिलाती-पिलाती थी| सब मिलाकर वह आदर्श पत्नी होने की आधी योग्यता रखती थी|
मास्टर साहब के इलाके मैं आदर्श वर ढूंढ़ना आसान काम नहीं था | आदर्श वर आदर्श पति भी होता है| कहा गया है (कामन्दकनीतिशास्त्रम्)- "कार्येषु योगी करणेषु दक्षः रूपे च कृष्णः क्षमया तु रामः । भोज्येषु तृप्तः सुखदुःखमित्रम् षट्कर्मयुक्तः खलु धर्मनाथः ॥" ऐसे आदर्श वर का दहेज़ तो दुर्धर्ष होगा| मास्टर साहब की गिनती विपन्न लोगों में तो नहीं थी, पर वह संपन्न भी नहीं थे| एक पलड़े पर उन्होंने यथायोग्य धन एवं और तरह-तरह के वंचनापूर्ण प्रलोभनों को रखा और दूसरे पलड़े पर गुण समेत भावी वर को | कांटे ने बतलाया कि इतने में एक पढ़ने-लिखने में ठीक-ठाक पर असुंदर, दरिद्र, दीन लड़का ही मिल सकता था | कहा गया है - सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते - यानि अगर पैसा कम लगे तो अन्य गुणों को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है | कांचन बचा तो सभी गुण हैं | इस तर्क का सहारा लेकर मास्टर साहब ने प्रज्ञा के वर का जुगाड़ कर लिया |
जल्द ही प्रज्ञा का विवाह संपन्न हुआ| मास्टर साहब ने अपनी औकात के हिसाब से ठीक-ठाक ही खर्च किया लेक़िन प्रज्ञा की ससुराल की तरफ़ से पूरी विपन्नता का प्रदर्शन हुआ| और तो और, वर के कपड़े भी फटीचर वाले थे| प्रज्ञा को गहने बग़ैरह तो नहीं ही पड़े| वर शकल-सूरत से भी असुंदर था| ख़ैर, जो हुआ सो हुआ| प्रज्ञा बिदा होकर ससुराल पहुँची| उसके सारे सपने टूट कर बिखर गए| एक जीर्ण-शीर्ण, टूटे छप्परों वाला मकान| तीन कमरे विना किवाड़ों के, एक अदद रसोईघर, उपलों पर चलने वाला चूल्हा | घर में शय्या के नाम पर कोई चौकी-खटिया नहीं| खर-पात (पुआल) का बिछावन, पुआल की आँटी का तकिया| बिछावन पर चादर पड़ने का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था | टॉयलेट नदारद| पानी के लिए खारे जल से भरा कुआँ| आपने अगर कभी हिंदी फ़िल्म 'तीसरी क़सम' देखी है तो याद कीजिये वह दृश्य - जहाँ हिरामन हीरा बाई को बैलगाड़ी में बिठाकर ले जा रहा है और गाड़ी के पीछे-पीछे बच्चे नाचते-कूदते 'लाली लाली डोलिया में लाली रे दुल्हनियाँ' गाते चलते हैं| कच्ची सड़क के दोनों ओर झोपड़ियों, टूटे-फूटे मकानात, की याद कीजिये| प्रज्ञा के जीवन में यह सब ससुराल आते ही एक हकीक़त हो गया| लेक़िन इस विपन्नता में एक ही चीज खुशग़वार थी - प्रज्ञा को सास-ससुर भले मिले थे|
लेक़िन प्रज्ञा के भाग्य में और दुख लिखा था| कहते हैं टूट टाट घर टपकत, खटियो टूट. पिय के बांह उसीसवां, सुख कै लूट! अगर औरत को प्यार करनेवाला - साथ देनेवाला - पति मिले तो वह अभावों को झेल जाती है| प्रज्ञा का दुर्भाग्य यहीं था| जब प्रज्ञा की शादी तय हुई तो कोई दहेज़ नहीं दिया गया था - एक वचन दिया गया था कि मास्टर साहब अपने दामाद को दो वर्षों तक एमए में पढ़ने का ख़र्च देंगे| वह इसके लिए सक्षम थे | लड़का दरिद्र पर महत्वाकांक्षी था - सोचता था कि अगर वह एमए कर लेगा - और अगर थोड़ी आर्थिक सहायता मिले तो अच्छा परीक्षाफल लाएगा - तो उसे कोई-न-कोई नौकरी तुरंत मिल जाएगी और उसका बेड़ा पार लग जाएगा| किन्तु विवाह होते ही मास्टर साहब पूरी तरह बदल गए| लड़के के ज़िम्मे ग़रीबी तो पहले से थी - पर कहीं अन्यत्र कुछ दहेज़ लेकर अपनी पढ़ाई पूरी करने का अवसर था और प्रवंचना की कोफ़्त नहीं थी| अब उसे इन अंतिम दो दुर्भाग्यपूर्ण मानसिक तनावों ने ग्रस लिया| वह प्रज्ञा के सामने ही मास्टर साहब को (उनकी गैरमौज़ूदगी में) गाली दिया करता था| लेक़िन प्रज्ञा के दिमाग़ में अपने माता-पिता की महानता यंत्रस्थ (हार्ड वायर्ड) थी| वह अपने माता-पिता की वादाफरामोशी और पति के टूटते सपनों एवं प्रवंचना के कोफ़्त को नहीं समझ सकती थी| उसने एक बार भी नहीं माना कि उसके पिता ने उसके पति को धोखा दिया था | इसका फल यह हुआ कि उसके पति ने प्रज्ञा को माता-पिता के पक्षपात का दोषी समझना शुरू कर दिया| प्रज्ञा को मानसिक और शारीरिक यातना दी जाने लगी| उसके बाद न कहानी बदली, न प्रज्ञा बदली, न उसका पति बदला, न इसके द्वारा प्रज्ञा को दी जाने वाली शारीरिक और मानसिक यंत्रणा बदली| बेचारी प्रज्ञा अपनी हार्ड वायर्ड धारणाओं, नहीं बदलने की अवचेतनात्मक ज़िद, अपने पिता के कमीनेपन और पति के आक्रोश एवं पाशविकता का शिकार होती रही|
एक नयी दुर्घटना ने अतिरिक्त विपत्ति का आह्वान किया| प्रज्ञा के पति ने जैसे तैसे एमए किया और नौकरी की तलाश शुरू की, पर कुछ महीनों में ही टीबी का शिकार हो गया | वह एमए की पढ़ाई के वक़्त गन्दी, अँधेरी,सीलन-भरी कोठरी में रहने, अनवरत कुपोषण और अधिक श्रम का परिणाम हो सकता था| बीमारी बढ़ती गयी और लगने लगा कि प्रज्ञा के भाग्य में अपमान और ग़रीबी के साथ वैधव्य भी लिखा है| इस संकट में भी परिवार का कोई आदमी उन्हें देखने या सहानुभूति दिखाने नहीं आया| और तो और, प्रज्ञा के पिता भी अपनी बेटी या दामाद की ख़बर लेने नहीं आए| बहाना तो यह था कि ऐसे बदतमीज़ दामाद को बचा कर क्या होगा| लेक़िन आंतरिक बात यह थी कि कहीं कुछ आर्थिक मदद करनी न पड़ जाये| एक बात और थी| प्रज्ञा का वैधव्य मास्टर साहब के परिवार के लिए एक वरदान साबित होता | उन्हें सारी जिंदगी के लिए एक कर्मठ, कुशल, सहनशील और विश्वासपात्र दासी मिल जाती जो दो जून रूखा-सूखा खाकर, विना पगार लिए अपनी सेवाएँ देती रहती| गाँवों में ऐसे सैकड़ों उदाहरण पड़े हैं|
लेक़िन होता वही है जो मंज़ूरेखुदा होता है| प्रज्ञा का पति दो वर्षों की बीमारी भोग कर, टिकटिकाकर, ठीक हो गया| इस अनुभव ने उसे तीन चीज़ें सिखाईं जो उसके स्वभाव में समा गई| पहली तो यह कि वह ज़ल्द मरने नहीं आया है, दूसरी यह कि सारे संबंध झूठे हैं, तीसरी यह कि उसने अपने बूते पर - कठिन मिहनत से - आगे बढ़ना है| वह एक तरह से सनकी (एक्सेंट्रिक) हो गया| वह सारी दुनियाँ को छोड़कर, सारी भावनाओं से परे - अपने लक्ष्य के ऊपर समर्पित हो गया - कुछ वैसे ही जैसे सौप्तिक कांड में अश्वत्थामा ने शंकर जी को संतुष्ट करने के लिए अपने शरीर की यज्ञाहुति की थी | पत्नी रहने के बावजूद वह भावनात्मक रूप से उससे अलग़ हो गया| बच्चे हुए, लेक़िन वह भावनात्मक रूप से उनसे जुड़ नहीं पाया | दोस्त थे, परिवार के लोग थे, समाज के लोग थे, उनसे मिलता जुलता भी था, बातें भी करता था, लेक़िन केवल सतही तौर पर| हँसता भी था तो औरों को दिखाने या मात्र उनका साथ देने| वह पानी में रहकर भी पुरइन के पत्ते की तरह रहता था - स्नेहहीन, भावनाहीन| जैसे बतख़ के पीठ पर पानी नहीं टिकता, उसी तरह वह भीड़ में रहकर भी अकेला होकर अपने शोध की समस्याओं पर गंभीर रूप से सोचते हुए तन्मय हो जा सकता था| इन गुणों या दुर्गुणों के चलते अपनी चुनी हुई दिशा में उसकी ख़ूब उन्नति हुई - आर्थिक सम्पन्नता मिली, समाज में सम्मान मिला| लेक़िन वह पति और पिता के रूप में पूर्णतः विफल रहा| वह इन सारी बातों को समझता था लेक़िन उसे समझने वाला कोई नहीं था| वह बोलते हुए भी मौन रहता था और मौन रहकर भी कुछ कहता था| "मुँह की बात सुने हर कोई दिल के दर्द को जाने कौन। आवाज़ों के बाज़ारों में ख़ामोशी पहचाने कौन ।" बातचीत में वह कभी-कभी खुल जाता है| कहता है - मैंने सँड़सी से अपने दिल को दबाये रखा तो लोहू के कतरे सादे कागज़ पर गिरते रहे, बेतरतीब फैलते रहे | वे सूखे तो न जाने कैसे-कैसे आकार लेते गए | चाहो तो उन्हें पसंद करो, चाहो तो नापसंद करो| वे अर्थपूर्ण भी हैं और अर्थहीन भी|
इन सारे वाक़यात के बीच प्रज्ञा अपने बच्चों को पाल कर बड़ा करती रही| सभी बच्चे एक विघटित और कलहपूर्ण घरेलू वातावरण में - नासमझ पर स्नेहमयी माँ के आँचल और समझदार किन्तु निस्पृह पिता की उपेक्षा के साये में - बड़े हुए और वे जो हो सकते थे, नहीं हो सके| प्रज्ञा को आर्थिक समस्या नहीं थी - उसका पति घर चलाने के लिए उसे पर्याप्त पैसे देता था और कभी हिसाब नहीं माँगता था| पैसे में उसके पति को न कोई दिलचस्पी थी और न उसे अर्थाभाव था | इन मामलों में प्रज्ञा सचमुच में मालकिन थी | लेक़िन प्रज्ञा को पति का प्रेम, दो स्नेहपूर्ण बोल, सम्मान और सहयोग कभी नहीं मिला| इन आयामों में प्रज्ञा की दुनियाँ सूनी थी| कभी किसी सामाजिक पार्टी में जाती तो पति को साथ ले जाती थी - लेक़िन पति महोदय केवल शरीर से जाते थे और मानसिक रूप से अनुपस्थित रहते थे | हम शुरू में ही कह आये हैं - प्रज्ञा कभी मंत्री, रंभा या अनुकूला नहीं बन सकी, वह दासी, माता और धरित्री ही रह गयी | फिर एक दिन आया कि उसके पति रिटायर्ड हो गए और इस शहर में आकर सपत्नीक बस गए|
मैं साल में एक या दो बार प्रज्ञा से मिलने जाता हूँ | इसी शहर के एक दूर दराज़ कोने में एक खोली में रहती है और सुबह उठकर चौका-बर्तन करना शुरू कर देती है - बाज़ार जाकर राशन लाती है, सब्ज़ी लाती है और पतिदेव को जिमाती है| प्रज्ञा के पति महोदय अंगिका की एक कहावत को चरितार्थ करते हैं - सुगरॅ के गू न बोरसीं न करसीं| मतलब किसी काम के नहीं हैं | बातें करने में माहिर हैं| तीन बेटे थे - जो सबसे अधिक पढ़ा-लिखा, सहृदय और कमाऊ था वह अल्लाह को प्यारा हो गया| प्रज्ञा के पति उस बेटे की फोटो को अपने काम करने की टेबल के सामने रखते हैं और उनकी आँखों से आँसू और कलम से वैचारिक निबंध निकलते रहते हैं| मालूम नहीं कि यह दुख के चलते, विवशता के चलते या अपराध-बोध के चलते होता है| बाक़ी दो बेटे अपने भोजन, गुह्य-गोपन और दंशनिवारण के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकते, हालाँकि वे हृदयहीन नहीं है | पर सभी जानते हैं कि सहृदयता का कोई आर्थिक महत्त्व नहीं होता है| एक बेटी है - ब्याहता| दामाद सर्वगुणनिधान हैं| किसी तरह जी रही है|
कहते हैं, बुढ़ापे में घर का काम-काज बहू संभाल लेती है | जब प्रज्ञा बहू बनकर अपनी ससुराल गयी थी तो उसने अपनी सास को चौके-बर्तन और रसोई से निवृत्त कर दिया था | लेक़िन प्रज्ञा के भाग्य में यह नहीं लिखा था | उसने सात बरस की उमर से चौका-बर्तन करना शुरू किया और अब सत्तर बरस की उमर में भी वही कर रही है| शायद मरेगी भी तो अपना बनाया खाना खाकर |
यह प्रज्ञा की कहानी है - आधी पत्नी की कहानी - आधी औरत की कहानी|

एकलव्या - एक पगली-सी लड़की की कहानी

उसका नाम प्रभा था और उसका घर मेरे घर की बग़ल में था| वह उम्र में मुझसे दो-तीन साल बड़ी थी| वह मेरे घर अक्सर आती थी और घंटों बैठती थी| मेरी माँ अगर छोटा-मोटा काम करने कह देती तो ख़ुशी-ख़ुशी कर देती थी| मेरी पढ़ाई-लिखाई शुरू हो चुकी थी और मैं स्लेट पर ककहरा सीखने लगा था| वह बहुत ग़ौर से मुझे स्लेट पर लिखते हुए देखती रहती थी और शायद मन ही मन - मन के हाथ से मन की स्लेट पर - वही लिखती रहती थी जो मैं स्लेट पर लिखा करता था | कुछ देर के बाद जब मैं अपना काम पूरा कर स्लेट को साफ़ करके टेबुल पर रख देता था तो वह बहुत देर तक स्लेट को निहारती रहती थी - फिर अपने घर चली जाती थी|
एक दिन मैं लिखाई का काम पूरा करके स्लेट साफ़ करने ही वाला था कि वह मेरे क़रीब आ गयी और बोली - ला, मैं साफ़ कर दूँ| तेरे हाथ गंदे हो जाते हैं और तुम हाथों को पेंट में पोंछ कर पेंट भी गन्दा कर लेते हो| बात वाज़िब थी| मैंने पूछा - स्लेट तोड़ेगी तो नहीं ? वह हँसी और बोली - क्या तुम मुझे बच्ची समझते हो कि मैं स्लेट तोड़ दूंगी ? मैंने उसे स्लेट साफ़ करने का काम दे दिया | दो-चार दिनों ऐसा करते रहने से उसकी पहुंच मेरी स्लेट और पेन्सिल तक हो गयी| वह स्लेट साफ़ करने के पहले मेरी लिखी इबारतों को निहारती थी जैसे मन-ही-मन उस पर लिख रही हो | फिर स्लेट को साफ करती और टेबुल पर रख देती |
मुझे ककहरा लिखना मेरे पिता ने सिखलाया था - हाथ पकड़कर| उसे ककहरा लिखना किसी ने नहीं सिखलाया | लेक़िन एक दिन जब मेरे पिता ने मुझे बही और लेड-पेन्सिल लाकर दी और मैं स्लेट छोड़कर बही पर लिखने लगा तो वह झिझकते हुए मुझसे बोली - तेरी स्लेट-पेन्सिल तो यूँ पड़ी है, मैं उस पर ककहरा लिख लूँ? मैं हँसने लगा और उससे पूछा - तुझे लिखना आता है? वह तपाक से बोली - स्लेट-पेन्सिल दे तो मुझे, दिखाती हूँ| मैंने उसे स्लेट-पेन्सिल दे दी| उसने पूरा ककहरा लिख डाला| मैं चकित रह गया| मैंने पूछा कि तुझे ककहरा लिखना किसने सिखलाया, तेरे पिताजी तो तुझे पढ़ाते ही नहीं हैं| उसने कहा - अरे, तुम बोलते भी ही, लिखते भी हो| मैं सुनती हूँ, देखती हूँ| तुम मुझे क्या अंधी-बहरी समझते हो? इसी तरह देखते-सुनते मैं सीख गयी| इसमें अचरज क्या है? यहाँ एक बात कह दूँ - मेरे लिखे अक्षर मेरे पिताजी के अक्षरों जैसे ही सुडौल और सुन्दर होते हैं| लेकिन प्रभा के लिखे अक्षर बेडौल थे| आगे चलकर भी वे सुधरे नहीं | अपने-आप सीखने की भी एक हद होती है|
मैं धीरे-धीरे छोटी-मोटी किताबें पढ़ने लगा | मेरे पिताजी मुझे स्कूल नहीं भेजकर घर पर ही पढ़ाते थे| मैं जब एक क़िताब पूरी करता था तो वह दूसरी क़िताब ला देते थे| मेरी पढ़ी हुई क़िताब यूँ ही रखी रहती थी जिसे प्रभा पढ़ती थी और मुझे नयी क़िताब को ज़ल्द पढ़कर ख़त्म करने के लिए उकसाती रहती थी | मेरी पढ़ाई में उसका निजी स्वार्थ था - एक निर्मल स्वार्थ, एक आदर्श स्वार्थ| सरस्वती की उपासना का लोभ - जानने का लोभ| शिक्षित होने का लोभ| विश्वास कीजिये, मैंने एकलव्य को बहुत बचपन से ही देखा है - यह कहानी नहीं तथ्य है कि एकलव्य होते हैं - आज भी होते हैं | उस उतरन वाली किताबें पढ़कर शिक्षित होने वाली प्रभा का ही नाम एकलव्य है|
मेरी पढ़ाई आगे बढ़ती रही और मेरे पीछे-पीछे उसकी भी| मेरे पिता जी मुझे संस्कृत पढ़ाना चाहते थे| अतः उन्होंने मेरे हाथ में अमरकोश रख दिया और आज्ञा दी कि पन्ने पर पन्ना कंठस्थ करूँ और हर शाम जितना कंठस्थ किया उतना उन्हें सुना दूँ| उनकी आज्ञा अटल होती थी| मैं वही करने लगा| संस्कृत श्लोकों को कंठस्थ करने के लिए स्वरित पाठ ज्यादा फलप्रद होता है| मेरा स्वरित पाठ प्रभा के लिए वरदान साबित हुआ | वह सुन-सुन कर ही अमरकोश के श्लोकों को हृदयस्थ करने लगी| कोई पाठ हृदयस्थ हो जाये तो उसे कंठस्थ करना बहुत कठिन नहीं होता | वह मुझे उतना सुना देती थी जितना मैं अपने पिता जी को सुनाता था| इस क्रम में प्रभा अब मेरी सहपाठिनी हो गयी|
लेकिन धीरे-धीरे मेरे मन में प्रतियोगिता और तज्जन्य ईर्ष्या का जन्म हुआ| मैंने सोचा कि प्रभा की पढ़ाई तो मेरे बोल-बोल कर पढ़ते रहने और याद करने पर आश्रित है| अगर मैं चुप-चुप पढ़ कर याद करूँ तो प्रभा याद नहीं कर सकेगी और मैं हमेशा प्रभा से आगे ही रहूंगा| अतएव मैंने बोल-बोल कर याद करना छोड़ दिया| इस चाल से प्रभा की पढ़ाई रुक सी गयी| प्रभा व्याकुल रहने लगी, पर बेचारी अगर शिकायत करे तो किससे और क्यों ? पढ़ने-लिखने से प्रभा का क्या सरोकार ? और फिर अगर मैं बोले विना पढ़ता हूँ तो प्रभा का क्या बिगड़ता है?
लेकिन जल्द ही प्रभा ने तरीका निकाल लिया| एक दिन मुझसे बोली - तुम सस्वर पढ़ा करो| इसके बदले में मैं तुम्हारे कपड़े साफ कर दिया करुँगी| कपड़े गन्दा करके रोज़-रोज़ माँ से डांट खाते हो और कभी-कभी पिटते भी हो| मैं कपड़े साफ कर दूँगी तो डांट से बचोगे - माँ खुश रहेगी | प्रभा की यह चाल चल गयी | प्रभा मेरे कपड़े साफ कर दिया करती थी | वह लगे-हाथ माँ के दिए कुछ कपड़ों को भी साफ कर दिया करती थी | इसीलिए माँ प्रभा पर बहुत प्रसन्न रहती थी | सब कुछ प्रभा के मनोनुकूल हो गया| मैं सस्वर पढ़कर अमरकोश के श्लोक याद करता रहा और प्रभा सुन-सुन कर उन्हें याद करती रही | वह मेरी सहपाठिनी बनी रही | कहा जाता है, विद्या गुरु की सुश्रूषा से भी प्राप्त होती है| प्रभा इसी सेवा-सुश्रूषा के बल पर विद्या प्राप्त करने लगी| मुझे मेरे पिता जी के अथक प्रयासों के कारण विद्या मिल रही थी और प्रभा को अपने सेवा-बल पर| प्रभा के गुरु प्रच्छन्न थे और शायद उनकी रौशनी में मैं दिखता था| जिस तरह मूर्ति में देवता प्रच्छन्न होते हैं और मूर्तिपूजा उनकी पूजा हो जाती है, उसी तरह मेरी सेवा करके वह मुझमें प्रच्छन्न गुरु की सेवा करने लगी थी |
एक दिन बोली - जानते हो, तुम्हारा अमरकोश अधूरा है | उसमें पृथ्वी के कई नाम नहीं हैं| मैंने पूछा - बताओ तो सही कि पृथ्वी के कौन से नाम मेरे अमरकोश में नहीं हैं? वह नए नाम ले आयी - विपुला गह्वरी धात्री गौरिला कुम्भिनी क्षमा; भूतधात्री रत्नगर्भा जगती सागराम्बरा| वह जीत गयी | मेरे अमरकोश में सचमुच ये नाम नहीं थे | इसका फल यह हुआ कि मैं भी सोचने लगा कि इसके साथ मिलकर पढ़ने में ही भलाई है | नहीं तो यह तो नए नाम जान जाएगी और मुझसे आगे बढ़ जाएगी | उसने सहपाठिनी होने का अधिकार अपने बूते पर हासिल कर लिया| कहते हैं - "गुरुशुश्रूषया विद्या पुष्कलेन धनेन वा । अथवा विद्यया विद्या चतुर्थी नोपलभ्यते ॥" यानि विद्या से भी आगे की विद्या मिलती है| प्रभा ने अतिरिक्त ज्ञान के जरिये अतिरिक्त ज्ञान को साधा - ज्ञानार्जन की व्यवस्था की | वाह री एकलव्या | तभी तो तुम्हें याद रखे हूँ और आज तेरे वारे में लिख रहा हूँ | नहीं तो कौन लिखता तुझ जैसी नाचीज़ पर?
संस्कृत एक कवित्वपूर्ण भाषा है और इसके साहित्य का बहुत बड़ा हिस्सा छंदोबद्ध है - यानि श्लोकों में है| अनुष्टुप इसका सबसे अधिक व्यापक छंद है| संस्कृत के विद्यार्थी को गति, यति और मात्रा का ज्ञान स्वतः हो जाता है| इसीलिए संस्कृत के विरले विद्यार्थी ही अपनी मातृभाषा में कविताओं की तरफ़ नहीं झुकते और अपनी कविता नहीं करने लगते हैं| लेकिन कविता केवल छंदोबद्धता, लयात्मकता या गति, यति, मात्रा, तुक और गणों में नहीं रहती| शब्दों का चुनाव, और भावों की गहराई सबसे महत्वपूर्ण होते हैं|
संस्कृत के प्रभाव के कारण मैं छोटी-मोटी कविताएँ लिखने लगा जिसमें शब्द और प्रवाह तो होते थे, लेकिन भाव और प्रभाव नदारद होते थे| प्रभा को इस प्रकार की कविता थेथरई जैसी दिखती थी| वह मुझे यह सब ऊल-जलूल लिखने से मना करती थी| लेकिन वह ख़ुद कहानियाँ लिखने लगी| चूँकि वह मेरी कविताओं को ऊल-ज़लूल कहती थी, चुनांचे यह मेरा अधिकार था कि मैं उसकी लिखी कहानियों को बेकार पन्ने रँगने की सस्ती कला कहूँ| वह बहियाँ भी मुझी से लेती थी, कलम और स्याही भी मेरी होती थी | इसीलिए मैं प्रायः कहा करता था - कागज़ कलम पर दया कर प्रभा, कविता लिख मेरी तरह - कम शब्द अधिक भाव, कागज़ की बचत| परन्तु उसने कभी नहीं सुना|
समय बीतता गया और एक दिन आया जब प्रभा के पिता-माता ने प्रभा की शादी तय कर दी| मेरे पिता जी ने भी मुझे स्कूल भेजना शुरू कर दिया ताकि मैं स्कूल का विद्यार्थी बनकर मैट्रिक के इम्तहान दे सकूँ| देखते-देखते प्रभा की शादी हो गयी और वह अपने ससुराल चली गयी और मैं गाँव के स्कूल की दसवीं कक्षा में पढ़ने लगा| हम दोनों सहपाठी अलग हो गए - वह अपने रास्ते चल पड़ी और मैं अपने रास्ते चल पड़ा|
एक साल बीता और मैंने मैट्रिक पास करके पास ही के शहर के कालेज में दाखिला ले लिया| मेरे कालेज से प्रभा की ससुराल बहुत नज़दीक थी - कोई आधा घंटा पैदल चलने की दूरी पर बसे एक गांव में| एक दिन मैंने प्रभा से मुलाक़ात करने की सोची और पहुँच गया उसकी ससुराल| चूँकि मैं प्रभा के पीहर से था, अतः प्रभा की ससुराल के लोगों ने मेरा स्वागत किया| मुझसे मिलकर प्रभा खूब रोयी | मैंने देखा - प्रभा सूखकर आधी हो गयी थी| मैंने पढ़ा था कि बाघ का चमड़ा देखकर बकरी और सास का मुखड़ा देखकर बहू - दोनों की जानें हलक में अटक जाती हैं | मुझे यह कहावत उस दिन सटीक लगने लगी|
दो-चार महीनों को दरम्यान करके मैं प्रभा से मिल आता था| धीरे-धीरे बहुत कुछ पता चला - कुछ तो उसकी सास के द्वारा की गयी शिकायतों से, कुछ प्रभा की जुबान और आँसुओं से| कुछ बातें उसके मुहल्ले की ननद लगने वाली लड़कियों ने भी बतलायीं| कुछ-कुछ मैंने अनुमान भी लगाया|
प्रभा की सास ने अपना दुखड़ा रोते हुए बतलाया - एक ही बेटा है, सोचा था कि ढंग की बहू मिलेगी| लेक़िन ऐसी बहू मिली कि सारे अरमान मिट्टी में मिल गए | एक तो इसका बाप दलिद्दर है - बेटी-दामाद को कुछ नहीं दिया| ऊपर से अपनी सिड़न बेटी को हमारे यहाँ फेंक गया | कहते हैं - पीहर में एक मुट्ठी अनाज़ के लिए दूसरों के घर कपड़े धोती थी, बच्चे संभालती थी और कूड़े बीनती थी | वह आदत यहाँ भी बरक़रार है| दूकान से कोई चीज़ कागज़ के ठोंगे में आयी तो ठोंगे के कागज़ को सलीक़े से फाड़ कर उसे ऐसे पढ़ने लगती है जैसे बाप भाई के यहाँ से आयी चिट्ठी हो| ठोंगे में आये सामान में इसे कम दिलचस्पी है - ठोंगे के कागज़ में ज़्यादा | पहले सारे काग़ज़ जमा करती थी - न जाने क्या करने | मैंने एक दिन जमा कूड़े को चूल्हे में डाल दिया| तब से वैसे कागज़ों को जमा तो नहीं करती पर उन्हें पढ़ने की लत अभी भी है| तुम्हीं बतलाओ बेटा, यह पागलपन नहीं तो और क्या है? वैसे बात नहीं उलटाती है, पर बात-बात में रो देती है | क्या ये लच्छन अच्छे हैं?
एक तीखे नैन-नक्श वाली लड़की ने - जो स्थानीय कालेज में पढ़ती थी और जिसके चेहरे पर भाव कुछ वैसे ही आते-जाते रहते थे जैसे फूलों पर रंग-बिरंगी तितलियाँ - बतलाया: पढ़ी-लिखी तो ख़ाक नहीं - सातवीं तक भी नहीं - लेक़िन भैया के हिज्जह् सुधारने लगी | भैया बीए हिंदी ऑनर्स हैं| उसकी गुस्ताख़ी पर भैया बिगड़ पड़े लेक़िन वह नहीं मानी, बहस करने लगी| फ़िर भैया ने जब जूते मार-मार कर उसकी तबीयत सुधार दी, तब उसने अपनी ग़लती मानी|
किसी दूसरी लड़की ने बतलाया - पंडित जी पाठ कर रहे थे तो लगी विना कारण हँसने | पंडित जी नाराज़ हो गए | उनके जाने के बाद में बड़ी माँ ने हँसने का कारण पूछा तो कहने लगी कि पंडितजी ग़लत पाठ करते थे | पाठ तो पाठ है - पंडितजी पोथी सामने रखकर करते थे | पाठ ग़लत कैसे होगा? फ़िर उसे ढंग से समझाया गया कि अपनी होशियारी अपने पास रखे | पागल है - सोचती है कि वही एक सही है, बाकी दुनियाँ ग़लत है| मालूम नहीं कैसे निरच्छर परिवार से है जो कभी स्कूल तक नहीं गयी, लेक़िन अपने को बीए एमए पास समझती है| चार लाइन लिख कर भी नहीं दिखा सकती और अपने को विद्वान समझती है| जभी तो मैं उसके पास कभी नहीं बैठती| बकवास का पुलिंदा है|
ख़ुद प्रभा ने बतलाया - घर मैं एक किताब नहीं है, अख़बार भी नहीं आता| कोई पढ़े तो क्या पढ़े? ठोंगे के कागज़ में कुछ पढ़ने को मिल जाता है| कभी-कभी अच्छे लेख के हिस्से भी मिल जाते हैं | मैं उन्हें सँजो कर रखती थी कि कभी पढ़ने का मन हो तो पढूँगी | दूसरों को यह आदत कूड़ा जमा करने की-सी लगी| तब से जमा नहीं करती, लेक़िन कुछ लेखांश इतने अच्छे होते हैं कि पढ़कर फेंकने के वक़्त मन कचोटने लगता है| फिर भी, फेंकना ही पड़ता है| तुम आते हो तो एक दो क़िताबें ले आया करो - छिप कर पढ़ लूँगी और जब तुम अगली बार आओगे तो तुम्हें वे क़िताबें लौटा दूँगी | मेरी मदद करने वाला कोई नहीं है | यहाँ लोगों के पेट और मन दोनों ही भात-रोटी से भर जाते हैं | लेक़िन विना कुछ पढ़े मेरा मन नहीं भरता | कुछ तो मदद कर, भाई| मैं सरस्वती से प्रार्थना करूँगी कि तुझे बहुत विद्या दे | तू पढ़-लिख लेगा तो समझूँगी मैंने भी पढ़-लिख लिया|
मैं प्रभा के दर्द को समझता था| सोचता था, कहाँ फँस गयी बेचारी| पड़ी पद्मिनी भांड़ के पल्ले| लेक़िन मेरे वश में कुछ नहीं था| गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है - "या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी; यस्यां जाग्रन्ति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः|" प्रभा जिस दुनियाँ में जी चुकी थी और जीना चाहती थी उस दुनियाँ के दरवाज़े उसकी ससुराल से सैकड़ों मील दूर थे| देवी-पूजा में भी उसकी ससुराल वाले प्रसाद (बलिदान के उपरांत प्राप्त होने वाले - बलि के बकरे की बोटियों) में ज़्यादा रुचि लेते थे | पाठ के शुद्ध-अशुद्ध होने में उन्हें कोई रुचि नहीं थी | देवी से क्षमा प्रार्थना भी तो इसीलिए की जाती है कि शुद्ध-अशुद्ध माफ़ हो| फिर शुद्ध-अशुद्ध पाठ पर क्यों सोचें| हाँ, प्रसाद की बोटियाँ कम न पड़ें, मसाले कम ज़्यादा न पड़ें, बोटियाँ ज़्यादा गलकर हड्डियाँ न छोड़ दें, इत्यादि ध्यान देने की चीज़ें हैं|
एमए करके मैं अपने शहर से बहुत दूर चला गया और थोड़ी और पढ़ाई (पीएचडी) करके नौकरी से लग गया | इसलिए बरसों नहीं मिल सका प्रभा से | एक बार अपने देश लौटा तो प्रभा से मिलने गया | प्रभा के बच्चे स्कूल में पढ़ने लगे थे | प्रभा उन्हें हिंदी और संस्कृत पढ़ाती थी | घर में कुछ क़िताबें रहने लगी थीं| इन चीजों से प्रभा का मन बहल जाता था| अब उसे अपने पढ़ने के लिए बेचैनी नहीं रहती थी, वह बच्चों को पढ़ाने के लिए बेचैन रहने लगी थी| मैंने सोचा, चलो, देर आयद दुरुस्त आयद| मैंने प्रभा को बतलाया कि मैंने पीएचडी कर ली है| ख़ुश हुई और बोली - तो समझो मैंने भी पीएचडी कर ली है| तुमने लिख-पढ़ कर की, मैंने सुनकर की|
मैं उठकर चलने ही वाला था कि प्रभा का बड़ा बेटा वहां आया और बोला - माँ, मैं दादी के साथ बाज़ार जा रहा हूँ कुछ मंगाना है क्या? प्रभा ने मुझसे कहा कि मैं एक कागज़ के टुकड़े पर उन चीज़ों के नाम लिख दूँ जो वह लिखा रही है | मैंने पूछा - कि मैं क्यों लिख दूँ, क्या तुम खुद नहीं लिख सकती हो? तो बोली - पहले वो कर जो कहती हूँ - बाद में सारी बातें बतलाऊँगी| मैंने प्रभा के कहे मुताबिक लिस्ट बना दिया और उसका बेटा लिस्ट लेकर चला गया | फिर प्रभा ने बतलाया कि पहले वह छठे-छमाहे अपने माँ-बाप को चिट्ठी लिख देती थी| उसकी सास को भरम हो गया कि चिट्ठी में वह अपने ससुराल के बारे में अपने माँ-बाप से शिकायत करती है| तो जीजा जी ने इसी शुबहे पर उसे बहुत पीटा| दाहिने हाथ का अँगूठा डंडे मार-मार कर तोड़ दिया| तभी उसने प्रतिज्ञा की कि अब कलम नहीं पकड़ेगी| जरुरत पड़ने पर बाँयें हाथ के अँगूठे से निशान लगाती है और कोई यह देखकर हँसता है तो कह देती है कि वह निरच्छर है - अँगूठा छाप|
कुछ दिनों के बाद पता चला कि प्रभा चल बसी| ख़त्म हुई एकलव्या की कथा - एक पगली-सी लड़की की कहानी| लेक़िन आज भी वह कहीं से देखती होगी कि मैंने आख़िर कविता छोड़ कर कहानी लिखनी शुरू कर दी है - बेकार पन्ने रँगने की सस्ती कला का अभ्यास शुरू कर दिया है| कहती होगी - मैं जानती थी - आज न कल तुम रास्ते पर आ ही जाओगे|

असुरों ने अपनी नयी राजधानी चुनी

देवर्षि नारद जी आकाशमार्ग से बड़ी तेज़ी से कहीं जा रहे थे कि उनकी मुलाकात डिंडिभासुर से हो गयी| प्रणाम करके डिंडिभासुर ने पूछा कि नारद जी कहाँ से आ रहे और कहाँ जानेवाले हैं| नारदजी ने बतलाया कि वह देवताओं की एक मीटिंग से आ रहे हैं और विष्णुलोक जा रहे हैं| चूँकि भगवान विष्णु और लक्ष्मीजी मीटिंग में नहीं आये थे, अतः देवताओं ने उनसे अनुरोध किया है कि वह शीघ्रातिशीघ्र भगवान विष्णु से मिलें और मीटिंग के रिजॉल्यूशन के वारे में उन्हें बतलाएँ|
देवताओं की मीटिंग और रिजोल्यूशंस की बात सुनकर डिंडिभासुर की जिज्ञासा का बढ़ना स्वाभाविक था| वह नारद के चरणों में लोट गया और विनयपूर्वक बोला कि अगर बातें अतिगुप्त नहीं हों और असुरों से छिपाने लायक़ नहीं हों तो कृपया उसे भी जानकारी दी जाये कि मीटिंग में देवताओं ने क्या निर्णय लिया है| नारद जी तो मन ही मन सारी ख़बरें डिंडिभासुर को सुनाना ही चाहते थे| उन्होंने कहना शुरू किया|
हे डिंडिभासुर, कुछ महीने (ध्यान रखना कि देवताओं का एक दिन मानवों के एक वर्ष के बराबर होता है) पहले देवताओं ने अपनी मीटिंग में भारत में रहने वाले मानवों के संबंध में कुछ निर्णय लिए थे और वे अपना निर्णय बदलें या उसी पर चलें यह कुछ महीने बाद होनेवाली मीटिंग (जो आज हुई) में तय करने वाले थे| आज उन्होंने निर्णय लिया है कि चूँकि भारत के मनुष्यों के आचार-व्यवहार में या सोच में कोई अंतर नहीं आया है, वल्कि गिरावट ही आयी है, अतः देवताओं के निर्णय भी यथावत रहेंगे और सारे कार्य तदनुरूप चलेंगे| शायद भगवान विष्णु एवं लक्ष्मीजी को यह आभास था अतः वे मीटिंग में न आये| फिर भी इंद्र महाराज ने मुझे कहा है कि मैं सारी बातें उन्हें बतला आऊँ|
इतनी बात जानकर डिंडिभासुर थोड़ा प्रगल्भ हो गया और हाथ जोड़कर बोला - हे देवर्षि, अगर आप हमें इस योग्य समझते हैं कि हम असुर भी जानें कि देवताओं ने भारत में रहने वाले मानवों के संबंध में क्या निर्णय लिए हैं, तो कृपया वह भी बतलाएँ|
नारद जी ने कहा: हे डिंडिभासुर, प्रायः देवता और देवियाँ भारत में रहने वाले मानवों के आचार, व्यवहार एवं विचार से क्षुब्ध हैं| उनमें देवताओं को धोखा देने की प्रवृत्ति अत्यधिक बढ़ गयी है| वे सोचने लगे हैं कि देवता कुछ नहीं समझते और वे फूल-पत्तियों, मिठाइयों और भावनाहीन स्तोत्रों को सुनने के लिए लालायित रहते हैं| वे ग़लत-सही मन्त्रों के वश में हैं और उन्हें जब चाहो बुलाया और अपने घर भेजा जा सकता है| पंडितगण पाखंडी हैं और पूजा-पाठ को धंधा समझते हैं - पर ख़ुद आचार-हीन हैं और बहुधा मूर्ख और धर्मध्वजी हैं| त्रिपुंड लगाकर वे पापकुण्ड में कूदने के लिए हमेशा तैयार मिलते हैं| पूजा के बहाने लोग चंदा मांगकर अपने भोग-विलास पर ख़र्च करते हैं और मेलों-तमाशों का आयोजन करके सस्ता मनोरंजन करते हैं| एक तरफ़ पूजा का स्वांग होता है और दूसरी तरफ़ भद्दे फ़िल्मी गाने मीलों तक गूँजते हैं| विध्वंसक आतिशबाजी कान के पर्दे फाड़ती हैं| पूजा रचनात्मक होती है, विध्वंसात्मक नहीं, और आज-कल की पूजा केवल विघटनात्मक प्रवृत्तियों का प्रतीक होकर रह गयी है|
तीनों महादेवियाँ - सरस्वती, लक्ष्मी और दुर्गा बहुत अप्रसन्न हैं| सरस्वती जी शिकायत कर रही थी कि स्कूलों और कालेजों में मेरी पूजा का ढोंग किया जाता है| न कोई पढ़ता-लिखता है और न कोई पढ़ाना चाहता है| शिक्षक और विद्यार्थी दोनों ही मुझे मूर्ख समझते हैं और वे सोचते हैं कि मिठाई और बेर खाकर मैं उन्हें विना पढ़े-लिखे ही विद्वान बना दूँगी - मतलब कि मैं घूस खाकर उनका काम कर दूँगी| यह मेरा अपमान है - घर बुलाकर, आवाहन कर के| अब तो मैं बहुत पंडालों में जाती भी नहीं हूँ - ऐसी पूजा करने से पूजा न करना ही बेहतर है - कम से कम मेरा आवाहन करके अपमान तो नहीं किया जाता| मैं अब विना पूजा के ही प्रसन्न हूँ - पूजा होती है तो मन दुखने लगता है, गुस्सा भी आता है|
लक्ष्मी जी ने अपनी अप्रसन्नता व्यक्त करते हुए बतलाया कि बेईमानी कर के पाप से कमाए धन से मुझे नफ़रत है - और मैं प्रतीक्षा करती हूँ कि लोगों में अपने-आप समझ आ जाये| नहीं तो मैं अपने भाई-बन्दों को खुला छोड़ देती हूँ| वे असुर हैं और अपना काम करना जानते हैं|
दुर्गा देवी ने ज़्यादा कुछ कहा नहीं, लेक़िन उनके चेहरे पर रोषभरी तमतमाहट थी| वह इतना ही बोली कि उन्हें उन दुष्टों का दमन करने के हज़ार तरीक़े ज्ञात हैं - बीमारी, महामारी, मृत्यु, पराजय, अपमान, अशान्ति, भ्रान्ति, आपसी फूट, कलह और अनिष्ट का आवाहन वे स्वयं कर रहे हैं| मैं चुप बैठी देखती रहती हूँ| सब काम अपने ही हो जायेगा| वे लोग इसी के लायक़ हैं| वे मेरी कृपा की आकांक्षा बेकार ही करते हैं|
इसके अलावा प्रकृति, गङ्गा, यमुना आदि नदी देवियों, पृथ्वी देवी, तारिकाओं तथा अनेकानेक अन्य देवियों ने अपने-अपने अपमान और आक्रोश की बातें कहीं | देवियों का पूरा समूह ही असंतुष्ट और क्रोधित है|
देवताओं में सूर्य, चन्द्रमा, वायु और सारे वसु असंतुष्ट हैं| अग्नि तो स्वभावतः उग्र हैं और क्रोधित भी| इंद्र कुछ बोले नहीं, क्योंकि सभापति थे| लेक़िन उनकी मुखाकृति अप्रसन्न-सी थी|
सारी कहानी सुनकर डिंडिभासुर हँसने लगा| शह पाकर नारद से बोला - तो देवर्षि, भगवान विष्णु को सारा समाचार बतलाकर धरती पर अवश्य जाइएगा, और भारत के लोगों से कहियेगा कि देवता उनसे अप्रसन्न हैं, लेक़िन असुर उनकी मदद करने में कोई कोताही नहीं करेंगे| हम उनके साथ हैं और हम उन्हें हर संभव सहयोग देंगे| देवताओं से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है|
इधर नारद जी वैकुण्ठ की तरफ़ रवाना हुए और डिंडिभासुर चला अन्य असुरों को बतलाने कि भारत में अपने राज्य की बहुत सम्भावनाएँ है| तैयारी शुरू की जाए| अंतिम विजय दानवों और असुरों की होगी| हम अब पाताल में नहीं, भारत में अपनी राजधानी बनायेंगे, कहीं दिल्ली के आस-पास|

संत रामगोपाल

संत रामगोपाल 21 दिनों से अनशन कर रहे थे - पानी तक नहीं पीते थे| उनकी ज़िद थी कि या तो महाकाल दर्शन दें और मेरी मनोकामना पूरी करें - या फ़िर मुझे अनशन पर ही मरने दें |
आख़िर इक्कीसवीं रात को महाकाल पसीज़ गए| कैसे मरने दें इतने सच्चे भक्त को? प्रकट होकर बोले - रामगोपाल, उठो| क्या मनोकामना है तेरी? बतलाओ| अनशन तोड़ो|
रामगोपाल गद्गद हो गए| बोले, प्रभु आप प्रसन्न हैं तो मेरी मनोकामना पूरी करें| भारत में किसी विभाग में अगर शीर्ष अधिकारी चरित्रहीन हो तो वह अपंग और पागल हो जाये| महाकाल हँसे और बोले - एवमस्तु| यह कहकर महाकाल अंतर्धान हो गए|
अगली सुबह अख़बार इस ख़बर से भर गए कि अमुक विभाग के अध्यक्ष पागलों जैसा व्यवहार कर रहे है, अनाप-सनाप बक रहे हैं| तमुक विभाग के उच्चतम अधिकारी कल शाम 6 बजे से कटोरा लिए भीख माँग रहे हैं और हर मुसाफ़िर के पाँव छू रहे हैं| लमुक विभाग के सर्वोच्च अधिकारी अपनी कोठी के सामने नंगा होकर नाच रहे हैं| भमुक विभाग के मुख्य अधिकारी मोहल्ले वालों का मज़मा लगाए हैं और हास्यास्पद बातें कर रहे है| इत्यादि, इत्यादि|
बारह बजे तक टीवी एक ही तरह के समाचार से भर गए| अमुक मिनिस्टर तमुक मिनिस्टर के ऑफिस में घुस कर तोड़-फोड़ कर रहे हैं, दरवानों तक से हाथापाई कर रहे हैं, अनर्गल बातें बोल रहे हैं| एक भी मंत्री के होश ठिकाने नहीं हैं| सारा कुनबा जैसे पागल हो गया है|
राष्ट्रपति ने विना संवैधानिक क़दम उठाये, विवशता की तहत, बहुत फ़रमान जारी किये और हर विभाग में एक आपातकालीन प्रभारी की नियुक्ति की - तत्काल विभागों को चलाने के लिए| हर विभाग के उच्चतम अधिकारी को हॉस्पिटल भेज दिया|
अगला तमाशा और संगीन था| हर विभाग का प्रभारी अधिकारी भी पागलों की सी हरकतें करने लगा| विवश होकर राष्ट्रपति ने उन्हें भी हॉस्पिटल भेजा और उनकी जग़ह नए प्रभारी नियुक्त किये गए|
यह सिलसिला चलता रहा और कुछ विभागों में लिपिक और दरवान तक इस डर से ऑफ़िस नहीं आने लगे कि अगर पकड़े गए तो प्रभारी बना दिए जायेंगे और अगले दिन हॉस्पिटल भेज दिए जायेंगे| कुछ विभागों में केवल दरवान आते थे और ऑफ़िस का दरवाज़ा खोल कर बैठ जाते थे| अकेलेपन से जूझने के लिए बीड़ी पीते रहते थे|
दो-तीन महीनों के अंदर सरकार का चक्का जाम हो गया, पब्लिक बिलबिला गयी, बैंक बंद होने लगे, यातायात ठप हो गया, शहर के लोग भाग-भाग कर गाँवों में आकर बैठ गए, बिजली नहीं आने लगी, हॉस्पिटल बंद हो गए, स्कूल, कालेजों और विश्वविद्यालयों में किवाड़ बंद हो गए| इनके सारे अधिकारी हस्पताल से पागलख़ाने पहुँच गए|
इसी तरह कई महीने गुज़र गए तो संत रामगोपाल को पछतावा होने लगा| मध्य रात्रि में वह मंदिर गए और महाकाल के सामने बुक्का फाड़ कर रोने लगे| महाकाल तुरत प्रकट हुए| रामगोपाल उनके चरणों में गिर गए - भर्राती आवाज़ में बोले - क्षमा, भगवन, क्षमा| कुछ चरित्रहीनों को बख़्श दीजिये, नहीं तो सारा समाज, सारा देश डूब जायेगा| यह कहकर रामगोपाल सुबक-सुबक कर रोने लगे|
महाकाल द्रवित होकर बोले - एवमस्तु| सुनो, रामगोपाल, चरित्रहीनता बहस करने के लिए है, लेक्चर और भाषण देने के लिए है, वास्तविक जीवन से हटाने के लिए नहीं| यह कलिकाल है, यहाँ चरित्रहीनता ही उन्नति का मूल है| नष्टे मूले नैव शाखा न पत्रम् | जड़ ही ख़त्म हो जाएगी तो जनजीवन अस्तव्यस्त हो जायेगा| बातों को समझो, दकियानूसी छोड़ो|
इतना कह कर महाकाल अंतर्धान हो गए| अगले दिन से स्थिति सुधरने लगी| सुधार देखकर रामगोपाल नाचने लगे| लोगों ने कहा - लो, अब यह साला पगला गया, अपने को बड़ा संत और चरित्रवान मानता था|

मंगलवार, 10 सितंबर 2019

पाप, पापी और हम

प्रायः हर भारतीय इन दोनों शब्दों - पाप और पापी - से परिचित है| हम में से बहुत लोग इस नसीहत से भी परिचित हैं कि हमें पाप से, न कि पापी से, नफ़रत करनी चाहिए| यह भगवान बुद्ध ने भी कहा था, और गाँधी ने भी| गाँधी ने कहा था - पाप से नफरत करो, पापी से प्रेम करो। वैसे छान्दोग्योपनिषद (10.9) के अनुसार पापियों के संग रहने से भी पाप होता है|
खैर, शब्दकल्पद्रुम (संस्कृत शब्दों का विश्वकोश) के अनुसार 'पाप' शब्द की व्युत्पत्ति पा (पाति रक्षति अस्मदात्मनि इति) + पः (पानीविधिभ्यः पः) से है| इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि किनसे और क्यों अपनी रक्षा की जाये| यह पाप के पर्यायवाची शब्द 'पातक' से स्पष्ट हो जाता है| शब्दकल्पद्रुम के अनुसार 'पातक' की व्युत्पत्ति पातयति अधोगमयति दुष्क्रियाकारणमिति (पत् + शिच् + ण्वुल्) यानि 'उन कर्मों से जिनसे पतन होता है' से हुई है| कहने का अर्थ यह है कि जिन कर्मों से कर्त्ता और समाज का पतन होता है उसे पाप कहते हैं अतः इनसे अपनी व समाज की रक्षा करनी चाहिए, इनसे बच कर रहना चाहिए|
पाप फैलता है, बहुत तेज़ी से फैलता है| पाप कैसे फैलता है यह देखें (गारुड नीतिसार, अध्याय 112):
आलापात् गात्रसंसर्गात् संवासात् सहभोजनात्
आसनात् शयनात् यानात् पापं संक्रमनेत् नृणाम् ||
आसनात् एकशय्याया भोजनात् पङ्क्तिसङ्करात्
ततः संक्रमते पापं घटाद्घट इवोदकम् ||
[बात-चीत करने से, शरीर-संपर्क से, साथ रहने से, साथ खाना खाने से, एक आसन पर बैठने से, एक साथ घूमने-फिरने एवं यात्रा करने से, एक शय्या पर सोने से, एक पंक्ति में भोजन करने से पाप उसी तरह संक्रमण करता है जैसे एक घड़े के पानी को दूसरे घड़े के पानी को मिलाने से जल का दोष संक्रमण करता है].
राजा राष्ट्रकृतात् पापात् पापी भवति वै हरे
तथैव राज्ञः पापेन तद्राज्यस्थाः तु ते जनाः ||
वर्नाश्रमादयः सर्वे पापिनो नात्र संशयः
भार्यान्होदुष्कृतो स्वामी व्रिजिनात् स्वमिनोवलाः ||
तथा देशिकपापात्तु शिष्यः स्यात् पातकी सदा
शिष्यात् हि पापिनो नित्यं गुरुर्भवति दुष्कृती ||
[प्रजा के पाप से राजा और राजा के पाप से प्रजा के सभी वर्ण एवं आश्रम, पत्नी के पाप से पति और पति के पाप से पत्नी, तथा निर्देशक (=गुरु, देशिक का अर्थ है दिशा निर्दिष्ट करने वाला जैसे "धर्म्माणां देशिकः साक्षात् स भविष्यति धर्म्मभाक्" महाभारत 13|147|42. शब्दकल्पद्रुम, खण्ड 2, पृष्ठ 748) के पाप से शिष्य और शिष्य के पाप से गुरु पाप में भागी होते हैं] |
इसीलिये 'पापी से प्यार और पाप से नफ़रत' द्वारा पाप को फैलने से रोका नहीं जा सकता| पाप और पापी दोनों से दूरी बनानी होगी|
वैसे तो उच्च दर्शन पाप और पुण्य से सर्वथा ऊपर की बात करता है| (देखिये देवी सप्तशती)
या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी: पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥
[जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये]
वैसे भी देवी महामाया हैं| वह पापियों के घर लक्ष्मी रूप में और सत्कर्मियों के घर दरिद्रा के रूप में भी निवास करने की ठान ले सकती हैं, बहुधा ठान लेती हैं| उन्हें कौन मना कर सकता है? कहते हैं, भगवान भृगु ने भगवान विष्णु को लात मारी| एवज़ में श्री लक्ष्मी जी ने भृगु को शाप दिया कि उनके तथा उनके वंशजों के घर हमेशा दरिद्रा का निवास होगा (चाहे वे सुकृत करें या दुष्कृत)|
सर्वत्र में स्थित देवीभाव से लक्ष्मी और अलक्ष्मी को बराबर मानना व्यावहारिक नहीं है| अगर होता तो देवी ने मधु-कैटभ का, चंड-मुंड का, शुम्भ-निशुम्भ का, महिषासुर का हृदय-परिवर्तन क्यों न कर दिया? वे पापी थे तो उन्हें मारने की क्या ज़रूरत थी? उनके हृदय-परिवर्तन से पाप ख़त्म हो जाता, पापी सामान्य हो जाता| क्या भगवान विष्णु हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप का हृदयपरिवर्तन नहीं कर सकते थे? हमारे ही शास्त्रों में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिसमें पाप तो हँसता खेलता रहा, पर बेचारा पापी मारा गया| वैसे, भगवान बुद्ध के द्वारा अंगुलिमाल के हृदयपरवर्तन की कथा भी सर्वविदित है| किन्तु पापी का हृदयपरिवर्तन करना सर्वगम्य नहीं है| अन्यथा दंड (जेल, फाँसी और अर्थदंड) देने के बदले हमारी न्यायव्यवस्था हृदयपरिवर्तन का रास्ता अपनाती|
पापी से प्यार और पाप से नफ़रत गाँधी जैसे पुरुष कर सकते हैं, हम जैसे साधारण मानव नहीं| हमें तो पाप और पापी दोनों से दूर रहना होगा|
गाँधी से बड़ा महात्मा और कौन हो सकता है? उन्होंने बड़े मार्के की बात कही है - जब तक गलती करने की स्वतंत्रता न हो तब तक स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं है। इसी लिए उनके अनुयायी भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, यह जाँचने-परखने के लिए कि स्वतंत्रता सचमुच मिली है या यह एक भ्रम है, सपना है, धड़ल्ले से गलतियाँ करने लगे | इन ग़लतियों की - पापकृत्यों की - अधिक आलोचना भी नहीं हुई क्योंकि गाँधी के तीन बंदर देखने, सुनने और बोलने की मनाही करते | कोई चौथा बंदर था नहीं जो ग़लतियाँ या पापकृत्य करने से मना करता| फिर गलतियाँ न करने देना स्वतंत्रता के लिए घातक होता| फलतः हम भाषणों में, कमीटियों में, रिपोर्टों में, लेखों में, पुस्तकों में, संसद की बहसों में, अख़बारों में, विकृत शिक्षासंस्थानों में, चालाक काकधर्मी विद्वद्गोष्ठियों में, चंडूखाने की गप्पों में, आवारा औरतों/मर्दों की बाँहों में पाप से नफ़रत करते रहे और पापी से प्रेम करते रहे |

शनिवार, 7 सितंबर 2019

भारतीयता और प्रतिक्रियावाद

यह ऐतिहासिक सत्य है कि पिछले हज़ार-बारह सौ वर्षों की ग़ुलामी और दमन ने भारतीय मनोबल को तोड़ा, हमारी संस्कृति को क्षत-विक्षत किया, हमारे शास्त्रों का विनाश किया, हमारे इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा| यह आवश्यक है कि हम अपना पुनर्निर्माण करें, टूटी कड़ियों को जोड़ें, नयी व्याख्याओं का प्रवर्त्तन करें, अपने खोये आत्मबल को जाग्रत करें|
लेक़िन पुनर्निर्माण का महान कार्य प्रतिक्रियावादी बनने से संपन्न नहीं होगा| यह "I am OK, you are not OK" की मनोग्रंथि से संपन्न नहीं होगा| अतीत पर अनावश्यक गौरव करने से नहीं होगा| यह कहने से नहीं होगा कि जो कहीं भी है हमारे वेद-शास्त्रों में पहले से ही है और जो हमारे वेद-शास्त्रों में नहीं है वह कहीं नहीं है| ऐसा मानना प्रतिक्रियावाद है जो आत्मघाती है|
वेद-शास्त्रों को पढ़ना-समझना ज़रूरी है लेक़िन काफी नहीं है| यह आवश्यक है कि हम उन शास्त्रों को भी पढ़ें जो विदेशों में बने| ज्ञान और सरस्वती पर भारतीयों का एकाधिकार नहीं है| माता सरस्वती को उजली या काली चमड़ियों वाले पुत्रों से घृणा नहीं है|
उन्होंने (विदेशियों ने) हमारा शोषण किया, हमारा अपमान किया | लेक़िन माता सरस्वती की उपासना उन्होंने भी की है| अतः माँ का वरदान उन्हें भी मिला है| हम अपने गुस्से के चलते उन्हें माँ की कृपा से वंचित नहीं कर सकते| समझदार वे हैं जो विद्या/ज्ञान को कहीं से भी ले लेते हैं - कौवों से, कुत्तों से, गधों से| दत्तात्रेय के कैसे-कैसे गुरु थे? तो विदेशियों से कैसी चिढ़?