सोमवार, 2 सितंबर 2019

धर्मो रक्षति रक्षितः

अपने एक अज़ीज़ दोस्त ने एक बड़ा अहम सवाल पूछा है: "धर्म हमारी रक्षा करता है या हम धर्म की रक्षा करते हैं?". मैं कोई ज्ञानी आदमी नहीं हूँ - लेकिन अपनी मति के अनुसार जो सोचता हूँ वह नीचे लिख रहा हूँ| आप भी सोचिये|
पहली बात: धर्म कहते किसे हैं? धर्म उन सारे विचारों और कर्तव्यों/कार्यों का समवाय (organic whole) है जिससे समाज को सामंजस्य (balance) , स्थिरता (stability) , कुशलता (efficiency) ,विकास (development) और न्याय (justice) मिलते हैं| इन चीज़ों के तीन पहलू हैं - भौतिक (फिजिकल और मटेरियल), बौद्धिक (इंटेलेक्टुअल) और पराबौद्धिक या आध्यात्मिक (स्पिरिचुअल)| धर्म इस समन्वय को कहते हैं|
धर्म के इतने व्यापक रूप को समझना बहुत कठिन है| इसलिए व्यवहारिकता के लिए चार उपदेश हैं| (१) देखो, आदर्श लोगों ने क्या किया है| आदर्श लोग अधिक सुलझे, दूरदृष्टि वाले, भले और समाज के हितचिंतक होते हैं| भरसक, उनका अनुगमन करो| (२) देखो, पढ़ो, चिंतन करो कि शास्त्रों में क्या लिखा है| उनके सार को समझो, सीठी को मत पकड़ो, और उन्हें अपने जीवन में लाओ| (३) कोई नहीं जानता कि तुम्हारे सोचने और करने का असर समाज के हित में होगा कि नहीं - वे समाज के सामंजस्य, स्थिरता, कुशलता, विकास और न्याय के अनुकूल होंगे या प्रतिकूल| अंतिम फल तुम्हारे हाथ में नहीं है| लेकिन भावनाओं को, नीयत को, पवित्र रखो| नीयत महत्वपूर्ण है| (४) विवेकवती आस्था रखो - आस्था सही कर्तव्य के विवेचन और ज्ञान के लिए मददगार है| लेक़िन आस्था का अर्थ अंधभक्ति नहीं है| आस्था को विवेक से विहीन मत करो| आस्थाहीन विवेक मूलहीन है और विवेकहीन आस्था बाँझ होती है| ऊपर के तीनों (आदर्श लोगों का अनुकरण, शास्त्रों का अनुशीलन और नीयत की अच्छाई) व्यवहारों को विवेक से परिमार्जित करो, क्योंकि उन तीनों में विरोध या विरोधभास हो सकता है|
दूसरी बात: धर्म की रक्षा कैसे होती है, इसकी रक्षा कौन करता है, और धर्म पर ख़तरा कब होता है, किसके चलते होता है? धर्म की रक्षा समर्थ और विवेकवान व्यक्तियों के द्वारा होती है, उनके आचरणों से होती है| असमर्थ जनता समर्थ और विवेकवान व्यक्ति को समर्थन देकर और उनका अनुकरण कर के धर्म की रक्षा में मदद कर सकती है, साथ ही जनता को समर्थ लेक़िन अविवेकी व्यक्तियों को समर्थन देने और अनुकरण करने से विमुख होना पड़ेगा|
धर्म पर ख़तरा तब आता है जब सामर्थ्यवान लोग अविवेकी होते हैं और समाज के इतर व्यक्ति, स्वार्थ, अंधभक्ति या अदूरदर्शिता के कारण, उनका समर्थन, सम्पोषण और अनुकरण करके उन्हें और मज़बूत बनाते हैं|
तीसरी बात: धर्म रक्षा कैसे करता है - किसकी रक्षा करता है? धर्म पहले तो अपना कार्य करता है - समाज को सामंजस्य, स्थिरता, कुशलता, और विकास प्रदान करता है, और साथ ही साथ न्याय देकर व्यक्ति की रक्षा करता है, उसे समाज के सामंजस्य, स्थिरता, कुशलता और विकास में भागीदार बनाता है|
इसीलिए कहा गया है - धर्मो रक्षति रक्षितः| यह हर व्यक्ति का कर्तव्य हो जाता है कि वह धर्म की रक्षा में सहयोग दे - आस्था और विवेक को साथ लेकर चले| यह ख़ास कर सामर्थ्यवान व्यक्ति के लिए अनिवार्य कर्त्तव्य है|

महाभारत में सत्य-असत्य का विवेचन

सत्यमेव जयते, या सत्यं वद, या सदा सत्य बोलो आदि प्रचलित वाक्यों (memes) ने हमें विना सोचे कुछ-से कुछ कहने-करने को मज़बूर कर दिया है| सत्य का अपने आप में (intrinsic) महत्त्व नहीं है और सदा सत्य बोलने की ज़िद कोई बुद्धिमत्ता या धर्मशीलता नहीं है| सत्य का महत्त्व समाज-कल्याण से निरूपित होता है| कल्याणकारी असत्य भी सत्य से अधिक आदरणीय है और अकल्याणकारी सत्य झूठ से भी अधिक गर्हित है (देखिये कर्णपर्व अध्याय 69 में कृष्ण का अर्जुन को उपदेश)| अगर आप धार्मिक हैं और कृष्ण को भगवान और सत्यस्वरुप मानते हैं तो भी उनके द्वारा अर्जुन या युधिष्ठिर को अधर्म (असत्य भाषण अगर सर्वथा अधर्म है तो) के लिए उकसाना कृष्ण पर शंका करना है|
महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 109 के अनुसार सत्य-असत्य का विवेचन इस प्रकार है| (यह भीष्म युधिष्ठिर संवाद है)|
युधिष्ठिर ने पूछा- "भरतनन्दन! धर्म में स्थित रहने की इच्छा वाला मनुष्य कैसा बर्ताव करे? विद्वान! मैं इस बात को जानना चाहता हूँ। भरत श्रेष्ठ! आप मुझसे इसका वर्णन कीजिये। राजन! सत्य और असत्य ये दोनों सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित है; किन्तु धर्म पर विश्वास करने वाला मनुष्य इन दोनों में से किसका आचरण करे। क्या सत्य है और क्या झूठ? तथा कौन सा कार्य सनातन धर्म के अनुकूल है? किस समय सत्य बोलना चाहिये और किस समय झूठ?"
भीष्म ने कहा- "भारत! सत्य बोलना अच्छा है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है; परंतु लोक में जिसे जानना अत्यन्त कठिन है, उसी को मैं बता रहा हूँ।
जहाँ झूठ ही सत्य का काम करे (समाज को स्थिरता, विकास, कल्याण और न्याय दे) वहाँ झूठ बोलना ही उचित है। जहाँ सत्य ही झूठ बन जाय (समाज को अस्थिरता, दुर्दशा, क्षति और अन्याय दे) ऐसे अवसरों पर सत्य नहीं बोलना चाहिये। वहाँ झूठ बोलना ही उचित है। सत्य और असत्य का पालन करने वाला पुरुष ही धर्मज्ञ माना जाता है। जो नीच है, जिसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है तथा जो अत्यन्त कठोर स्वभाव का है, वह मनुष्य भी कभी अंधे पशु को मारने वाले बलाक नामक व्याध की भाँति महान पुण्य प्राप्त कर लेता हैं| कैसा आश्चर्य है कि धर्म की इच्छा रखने वाला मूर्ख (तपस्वी) (सत्य बोलकर भी) अधर्म के फल को प्राप्त हो जाता है (देखिये कर्ण पर्व: अध्याय 69 श्लोक 36-51)। गंगा के तट पर रहने वाले एक उल्लू की भाँति कोई (हिंसा करके भी) महान् पुण्य प्राप्त कर लेता है ( गंगा के तट पर किसी सर्पिणी ने सहस्रों अण्डे देकर रख दिये थे। उन अण्डों को एक उल्लू रात में फोड फोडकर नष्ट कर दिया। इससे वह महान पुण्य का भागी हुआ; अन्यथा उन अण्डों से हजारों विषैले सर्प पैदा होकर कितने ही लोगों का विनाश कर डालते।)। युधिष्ठिर ! तुम्हारा यह पिछला प्रश्न भी ऐसा ही है। इसके अनुसार धर्म के स्वरूप का विवेचन करना या समझना बहुत कठिन है; इसीलिये उसका प्रतिपादन करना भी दुष्कर ही है; अतः धर्म के विषय में कोई किस प्रकार निश्चय करे?
प्राणियों के अभ्युदय और कल्याण के लिये ही धर्म का प्रवचन किया गया है; अतः जो इस उद्देश्य से युक्त हो अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्ध होते हों, वही धर्म है, ऐसा शास्त्रवेत्ताओं का निश्चय हैं।"
महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन के अनुसार - 'यतो अभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्मः' - जिन विचारों और कर्मों से व्यक्ति और समाज के सामंजस्यपूर्ण अभ्युदय (उन्नति) की प्राप्ति/सिद्धि हो उसे ही धर्म कहते हैं| धर्म को सत्य (for its own sake) से कुछ लेना-देना नहीं है| सत्य हो या असत्य, अगर उससे समाज और व्यक्ति का समग्र विकास (अभ्युदय) होता है, कल्याण (निःश्रेयस) होता है तो वह धर्म है, अन्यथा वह अधर्म है|

समाज का अर्थ

भारतीय संस्कृति में आत्मा केंद्र है| आत्मा सर्वज्ञाता है जिसमें जन्म-जन्मांतरों का ज्ञान होता है| इस ज्ञान के भंडार का एक पहलू चेतना है| आत्मा शरीर, चेतना और अहंकार (अपने अस्तित्व का ज्ञान) को धारण करता है|
केन्द्रभूत आत्मा के लिए प्रथम समाज यह शरीर है| शरीर समाज है क्योंकि यह अनेक तत्वों, इन्द्रियों, शक्तियों, भावनाओं इत्यादि का समन्वय है| पाँच ज्ञानेन्द्रिय (आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ) और पाँच कर्मेन्द्रिय (हाथ, पाँव, मुँह, मल-मूत्रोत्सर्ग की इन्द्रियाँ, और प्रजनेन्द्रिय ) मन तथा चेतना के माध्यम से आत्मा का संपर्क वाह्य जगत से करवाते हैं| चेतना के पास इन दसों इन्द्रियों (पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय) के अतिरिक्त और भी कर्म तथा अनुभव के साधन हैं| शरीर में अनेक कर्मेन्द्रियाँ स्वचालित हैं जैसे हृदय, पाचन तंत्र और श्वसन तंत्र के अंग, इत्यादि| कुछ आंतरिक ज्ञान के साधनों से चेतना शारीरिक संतुलन, तापमान, गति, गुरुत्व, शरीर के अवयवों की स्थिति, दुःख, दर्द, अवयवों पर दबाव और शारीरिक वेग, मानसिक विकार और उत्तेजना, शरीर में वाह्य वस्तुओं की उपस्थिति, समय (काल), दिशा, आदि को समझती है| बुद्धि और विवेक चेतना के सहज गुण हैं जो अनुभवजन्य सूचनाओं का मूल्याङ्कन और आवश्यक उपयोग करते हैं| अचेतन आत्मा का दूसरा पहलू है| अचेतन बहुत विशाल है (चेतन की तुलना में)| चेतन और अचेतन का व्यवहार आत्मा का अपना निर्णय है जो बुद्धि और मन की पहुँच के बाहर है| चेतन और अचेतन का व्यवहार गतिशील/परिवर्तनशील है और इसका निर्णय आत्मा करता है| इस प्रथम समाज (शरीर) को धारण (uphold) करना आत्मा का मौलिक धर्म है|
द्वितीयक समाज व्यक्ति के शरीर के बाहर का भौतिक संसार है जिससे संपर्क की स्थापना व्यक्ति के शरीर की इन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों) के द्वारा होती है| इस समाज के कई भेद हैं, जैसे समजातीय समाज (जैसे मनुष्यों का समाज), विषम जातीय समाज (मनुष्यों के साथ अन्य जीवों/निर्जीवों का सहजीवन, जैसे पशुओं, पक्षियों, वृक्षों, नदियों, पहाड़ों, खानों, खनिजों,आदि का समवेत समाज)| इसे इकोलॉजिकल समाज कहते हैं| इस समाज की धारणा मानव का धर्म है| व्यक्ति का द्वितीयक समाज से अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है|
तृतीयक समाज भौतिक और वैचारिक तत्वों का समन्वय है| भौतिक दुनियाँ के अलावे एक वैचारिक दुनियाँ भी होती है| वैचारिक दुनियाँ के व्यक्तियों को विचार, सिद्धांत, ज्ञान का संचित कोष, आदर्श, मूल्य और मानक (values) आदि कहते हैं| अध्यात्म भी इसी तृतीयक समाज का प्राणी है जो जीवात्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में चिंतन है| इस तृतीयक समाज की धारणा भी मानव का धर्म है|
अतः मानव धर्म के कई स्तर हैं - जो प्राथमिक (corporal, internal), द्वितीयक (physical, external) और तृतीयक (intellectual, ideal) समाज को धारण (uphold) करते हैं| किसी भी समाज (प्राथमिक, द्वितीयक या तृतीयक) की हिंसा (स्वार्थमूलक, अविवेकपूर्ण तरह से संतुलन का बिगाड़ना, non-constructive destruction driven by ill will) अधर्म है|

त्रिदेव की परिकल्पना

हिन्दू संस्कृति में ब्रह्मा, विष्णु, और महेश के नाम से त्रिदेव (Trinity) की परिकल्पना है| ब्रह्मा उत्पत्ति (creation) के, विष्णु पालन (upholding, maintenance) के, और महेश संहार (destruction) के मूल देवता माने जाते हैं| इन तीनों की कहानियाँ इतनी गुत्थमगुत्था है कि कौन पहले और कौन पीछे कहा नहीं जा सकता| ये सीधी रेखा पर नहीं होकर वृत्त पर हैं, अतः आगे-पीछे के चिंतन से परे हैं, अनादि हैं, अनंत हैं, चिरंतन हैं| किसी एक को पहले मानना साम्प्रदायिकता है, समझदारी नहीं|
जायते, वर्धते, स्थीयते, परिणमते, नश्यते का चक्र प्रकृति में सदैव चलता रहता है| Destructive construction और constructive destruction हमेशा चलते रहते हैं| पुराने का विघटन और नए का सृजन हमेशा चलता रहता है| यह जीव जगत में होता है, निर्जीव जगत में होता है| यह भौतिक संसार में होता है, वैचारिक संसार में होता है, यहाँ तक कि ब्रह्मांड में भी होता है| इस प्रवाह की सत्ता को भारतीय चिंतकों ने माना है, विदेशी चिंतकों ने माना है| विदेशी चिंतकों में इसे मानने वाले मुख्य विचारक हैं - चार्ल्स डार्विन, जॉर्ज हेगेल, कार्ल मार्क्स, वर्नर सॉम्बर्ट, आर्थर शॉपेनहावर, फ्रेड्रिक नीत्शे, माइकेल बकुनिन, जोसेफ़ शुम्पीटर, इत्यादि| ख़ासकर जोसेफ़ शुम्पीटर ने क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन (Creative destruction) को लोकप्रिय बनाया| किन्तु ये विद्वान 'सृष्टि-स्थिति-विनाश' के चक्र को प्रकृति या समाज के किसी ख़ास पहलू में देखते थे, सार्वभौम नहीं| भारतीय संस्कृति में इसे सार्वभौम देखा गया - सृष्टि , स्थिति और विनाश को एकरूप देखा गया है|
सृष्टि स्थिति विनाशानां शक्तिभूते सनातनि!। गुणाश्रये गुणमये नारायणि! नमोऽस्तु ते॥
सैव काले महामारी सैव सृष्टिर्भवत्यजा| स्थितिं करोति भूतानां सैव काले सनातनी || (देवी सप्तशती)|

भारतीय संस्कृति में मानव, देवता, दैत्य और मानवेतर जातियाँ

हमारी सांस्कृतिक कथाओं (माइथोलॉजी) में मानव और इस सृष्टि की मानवेतर जातियों और उनके आपसी संबंधों का सांकेतिक वर्णन हुआ है|
सबसे पहले दैत्य हुए जो अंधकार के प्रतीक हैं, जिसका वर्णन हम बाद में करेंगे| ध्यान रखें शुरू में अंधकार ही था, प्रकाश बाद में आया|
फिर देवता हुए| देवता तैंतीस (33) हैं| बारह आदित्य, आठ वसु, ग्यारह रुद्र, वषट्कार (यज्ञ) और प्रजापति (अन्यत्र वषट्कार और प्रजापति के स्थान पर दो अश्विनीकुमार गिनाए गए हैं, जिसकी विवेचना हम बाद में करेंगे)|
बारह आदित्य, आठ वसु और यज्ञ (कुल मिलाकर इक्कीस) मानव के बाहरी वातावरण (environment) को नियंत्रित करते हैं| रुद्र, यज्ञ और प्रजापति (कुल मिलकर तेरह) मानव के आंतरिक वातावरण को नियंत्रित करते हैं| यज्ञ आतंरिक और वाह्य दोनों वातावरणों को नियंत्रित करता है|
बारह आदित्य हैं - विष्णु (सूर्य), अर्यमन, अंशुमान, विवस्वान, वरुण, पर्जन्य, मित्र, त्वष्टा, इंद्र, धाता, भग, और पूषा| सूर्य (विष्णु) अंधकार का नाश करते हैं| अर्यमन (शीत) और अंशुमान (उष्ण) प्रवहमान हैं, इन्हीं से गति उत्पन्न होती हैं, विवस्वान अग्नि हैं, वरुण जल हैं, पर्जन्य मेघ तथा सिंचक हैं, मित्र चन्द्रमा तथा समुद्र हैं, त्वष्टा निर्माण के देवता हैं, इंद्र शक्तिस्वरुप हैं, धाता संतुलन और स्थिति का नियंत्रण करते हैं, भग प्रजननकर्ता हैं, पूषा पोषक अन्न हैं| शुरू के दस आदित्य अजैव और जैव सारे वातावरण का नियंत्रण करते हैं| अंतिम दो आदित्य जीव जगत से ख़ास करके जुड़े हैं जो प्रजनन और पोषण से सम्बंधित हैं| बाकी दसों आदित्य भी अपनी कुछ कलाओं को जीव में देते हैं|
आठ वसु हैं - धर (धरा), अनल, अनिल, आप (जल), प्रत्यूष, प्रभाष, सोम और ध्रुव| धर आकर्षणशक्ति है, पृथ्वी है, धारण करने वाली है| पृथ्वी को वसुधा, वसुमती और वसुंधरा भी कहते हैं| इसमें आकर्षण शक्ति (धर) हैं| पृथ्वी पर या इसके इर्द-गिर्द जो हवा होती है (atmosphere) अनिल कहलाती हैं, पृथ्वी पर की अग्नि अनल कहलाती है| पृथ्वी को घेरने वाला तत्व आकाश (प्रभाष) है, सारे ग्रह नक्षत्र इसी में हैं| प्रत्यूष सबेरा, प्रकाश है, सोम रात का प्रकाश और वनस्पतियों का पोषक है| ध्रुव पृथ्वी की धुरी है (जिसके ऊपर यह घूमती है)| वसु पृथ्वीवासी देवता हैं, किन्तु आदित्य अंतरिक्ष वासी हैं, पर अपनी कुछ कलाओं के साथ वे पृथ्वी पर और जीवों में भी रहते हैं|
ग्यारह रुद्र हैं - जो जीवित शरीर में रहने वाले दस वायु हैं और ग्यारहवां आत्मा है (बृहत् आरण्यकोपनिषद)| इन्हें रुद्र इसलिए कहा जाता है कि जब ये शरीर को छोड़ते हैं तो मृत्यु होती है जिसपर सभी रोते हैं - रुलाने के कारण रुद्र कहे गए हैं| दस रुद्र या वायु हैं - प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, और धनंजय| इसमें से पहले दो दृश्य हैं और शरीर को बाहरी वातावरण से जोड़ते हैं| बाकी आठ शरीर में रहकर शरीर के कार्यों को संपन्न करते हैं| अन्यत्र पहले पाँच को मुख्य कहा गया है और बाद के पाँच को गौण क्योंकि पहले पाँच जीवन के लिए आवश्यक हैं और बाद के पाँच स्वास्थ्य के लिए| जीवन की तुलना में स्वास्थ्य गौण है| ग्यारहवाँ रुद्र आत्मा सबका स्वामी है|
प्राण वायु श्वास-प्रश्वास (respiration) से सम्बंधित है, इसी से शरीर को शक्ति बनाने की ऊर्जा मिलती है; अपानवायु अन्न ग्रहण करता है (देखें माण्डूक्योपनिषद) और मलनिष्काशन (excretion ) करता है| अपानवायु ही जननकर्म (reproductive system) का नियंत्रण करता है| प्राण और अपान मिलकर शरीर को वाह्य आधार से जोड़ते हैं| यही जीवनशक्ति को कायम रखते हैं| समानवायु खाए हुए अन्न को पचाने (digestive) तथा पचे हुए अन्न से रस, रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है। यही अस्थियों तथा मांसपेशियों के कार्य (skeletal and muscular system) का नियंत्रण करता है| उदानवायु कण्ठ से शिर (मस्तिष्क) तक के अवयवों में रहता है और शब्दों के उच्चारण, वमन आदि का नियंत्रक है| व्यानवायु सम्पूर्ण शरीर में रहता है। यह सम्पूर्ण संचारतंत्र - रक्तसंचार (cardiovascular ), ग्रन्थि-स्राव संचार ( endocrine and lymphatic system), नाड़ीतंत्र (nervous system) का नियंत्रण करता है| पाँच उपप्राण बाकी कार्य करते हैं डकार निकालना नाग वायु का कर्म है, नेत्रों के पलक लगाना खोलना कूर्म वायु का कर्म है, छींक करना कृकल वायु का कर्म है, जम्हाई लेना देवदत्त वायु का कर्म है, और धनंजय वायु सर्व शरीर में व्याप्त रहता है और अध्यावरणी तंत्र (Integumentary system) का नियंत्रण करता है| इस तरह ये दस वायु शरीर के 11 तंत्रों को चलाते हैं| आत्मा ग्यारहवाँ रुद्र है जो बाक़ी दस रुद्रों का अधिपति और नियंता है| जबतक आत्मा शरीर को नहीं छोड़ता, बाक़ी दस रुद्र भी शरीर में निवास करते हैं|
शंकर (शिव) को प्रधान रुद्र माना गया है, यही आत्मा है| शंकर परम योगी थे और उन्होंने ही सबसे पहले प्राण और अपान को प्रयास से वश करने का तरीका (प्राणायाम योग) निकाला| प्राणायाम से बाक़ी आठ वायु स्वतः नियंत्रित हो जाते हैं, सारे तंत्र स्वतः ठीक-ठाक चलने लगते हैं| आत्मा (व्यक्ति में स्थित) और परमात्मा के एकत्व के कारण यह कहा जाता है कि शिव आत्मा भी हैं और परमात्मा भी|
प्रजापति रचना तथा प्रजनन के सार्वभौम देवता हैं और इस कार्य को भग देवता और अपानवायु की मदद से संपन्न करते हैं| वषट्कार (यज्ञ) शारीरिक शक्ति (energy), कार्यान्वयन (implementation) और व्यवस्था (organization) के देवता हैं और आदित्य इंद्र की सहायता से काम करते हैं| जहाँ अश्विनी कुमारों को देवता माना गया है वहाँ वे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का नियमन करते हैं|
ये देवता संसार के हर जीव में और निर्जीव वस्तु में अपनी कलाओं में विद्यमान हैं और अपने महत रूप में संहति में विद्यमान हैं| इस व्यष्टि और संहति कोटि में विद्यमान होने के कारण यह कहा जाता है कि देवताओं की संख्या 33 कोटि है|
स्वायम्भुव मनु ब्रह्मा के मानस संतान थे| शतरूपा ब्रह्मा की मानस पुत्री थी| इन्हीं दोनों से मानव हुए|
सृष्टि के अन्य जीव भी ब्रह्मा के छह पुत्रों पौत्रों तथा कश्यप ऋषि (जो ब्रह्मा के पोते और मरीचि ऋषि के पुत्र थे) की संतानें हैं| कश्यप की अनेक पत्नियाँ थीं| वे दक्ष की पुत्रियाँ थीं| कश्यप ऋषि को अदिति में 12 आदित्यों, दिति में 2 दैत्यों (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु), दनु में 34 दानवों, सिंहिका में राहु, क्रूरा में क्रोधवश गण, दनायु में 4 पुत्र (वृत्र, बल, वीर और विक्षर), काला में चार मुख्य पुत्र (विनाशन आदि), विनता में गरुड़, अरुण आदि, कद्रू में शेष, वासुकि आदि नाग, मुनि में नारद आदि सोलह पुत्र (गन्धर्व), प्राधा में देवगंधर्व और अप्सराएँ, कपिला में गायें, अमृत, गन्धर्व और अप्सराएँ, पैदा हुईं| इसी तरह लता वृक्षों, पक्षियों आदि की भी सृष्टि हुई| ब्रह्मा के पुत्र स्थाणु से रुद्रों की उत्पत्ति हुई| धर्म ब्रह्मा के पुत्र थे जिनकी पत्नियाँ दक्ष की पुत्रियाँ थीं| इन्हीं से वसुओं का जन्म हुआ| दोनों अश्विनीकुमार (दस्र और नासत्य) सूर्यपुत्र हैं| इसकी पूरी वंशावलि महाभारत के आदिपर्व के संभवपर्व में है|
सत्ता को लेकर कश्यप के पुत्रों में विरोध हुआ और उनके पुत्र दो दलों में बंट गए| कुछ ने देवताओं का पक्ष लिया और कुछ ने दैत्यों-दानवों का| देवता-विरोधी दल असुर कहलाया| देवताओं ने कुछ आदर्शों के ऊपर दुनियाँ को चलाना चाहा और असुरों ने इसमें विघ्न पैदा किया| इसी कारण दैत्य अंधकार के प्रतीक हैं और देवता प्रकाश के प्रतीक हैं| देव (देवता) शब्द की उत्पत्ति दिव् से हुई है जिसका अर्थ है प्रकाशमय होना| हमारी संस्कृति देवताओं द्वारा स्थापित व्यवस्था के पक्ष में है|

मंदी बनाम ढीलतंत्र की दुलत्ती (Recession - the Backlash of the Soft State)

आज हर कोने से एक ही आवाज़ आ रही है - मंदी, मंदी, मंदी| राष्ट्रीय आय की बढ़त की दर बहुत घट गयी है| अचल संपत्ति का बाज़ार (Real Estate Market) डूबने की कगार पर है| गैर-बैंकीय वित्तीय संस्थान डूब रहे हैं, गाड़ियाँ नहीं बिक रहीं हैं, बैंकों की हालत पतली है, मौद्रिक क़िल्लत है, शेयर बाज़ार की हालत खस्ता है, विदेशी विनियोग रूठ गया है, रूपये का भाव गिरता जा रहा है, इत्यादि, इत्यादि|
बहुत लोग मोदी को इस का उत्तरदायी मानते हैं| सदा शांति, अहिंसा और मौनधारण के पुजारी श्रीमनमोहन सिंह जी भी बुलंद आवाज़ में बोल रहे हैं| मोदी ने भयंकर गलतियाँ की हैं| तो क्या बैंक का सारा NPA मोदी सरकार की देन है? क्या बैंक का nationalization करके उसका राजनीतिक दोहन मोदी ने शुरू किया? क्या सारे स्कैम मोदी ने करवाये? क्या स्विस बैंक में मोदी का पैसा जमा है? क्या भारतीय व्यवस्था (oligopoly) मोदी की देन है? जब डुबकी मार कर अपना हगा पानी पर उतरा रहा है तो लोग छी-छी कर रहे हैं|
पहले ज़रा धंधे की बात कर लूँ | जनश्रुति में मनमोहन सिंह जी जाने-माने अर्थशास्त्री हैं - सत्ता से जुड़े रहने वाले अर्थशास्त्री, अर्थशास्त्र के सैद्धांतिक बकवास से दूर| लेकिन हर धंधे का एक उसूल होता है, उसकी एक अपनी संस्कृति होती है, एक तौर-तरीक़ा होता है, एक मानदंड होता है, एक कसौटी होती है| जेएम कीन्स (JM Keynes) कोई छोटे अर्थशास्त्री नहीं थे| मंदी के अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ थे| वह चुप नहीं रहे, बोले, बहुत बोले| लिखा, बहुत लिखा| अर्थशास्त्र के पूरे नजरिये को बदल डाला| गुन्नार मिर्डल (Gunnar Myrdal) कोई छोटे अर्थशास्त्री नहीं थे| वह राजनीति में भी सक्रिय रूचि लेते थे, मिनिस्टर भी थे| लेकिन लिखा भी, और जमकर लिखा| आज जो हम भ्रष्टाचार के अर्थशास्त्र की बात करते हैं, उसपर अर्थशास्त्रियों का ध्यान उन्होंने ही खींचा था| जेके गालब्रेथ (JK Galbraith)| बड़े अर्थशास्त्री थे, राजनीतिज्ञ भी थे| भारत में अमेरिकन एम्बेसेडर भी रहे| धुवाँधार लिखते थे, बोलते थे| जेएस मिल (JS Mill)| बड़े अर्थशास्त्री थे - बहुत लिखते थे, बोलते थे, राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेते थे| धंधे की बात करें तो ऐसे अर्थशास्त्रियों की तुलना में मनमोहन जी भुनगे हैं| पिछले अनेक वर्षों से राजनीति से जुड़े हैं और हर कोई कहता है कि वह बड़े अर्थशास्त्री हैं| क्या लिखा उन्होंने अर्थशास्त्र में? आज के भारतीय अर्थशास्त्र के विद्यार्थी को उन्होंने क्या दिया? उनके दसियों (decades) के अनुभव का सारांश क्या है? धंधे में लोग उनके लेखों की आशा करें कि नहीं? हमारा धंधा मौन को नहीं, लेखन को आंकता है| मनमोहन जी उसपर खरे नहीं उतरते| वह जो कुछ भी हैं, बड़े अच्छे हैं, लेक़िन जीवंत अर्थशास्त्री नहीं हैं, बड़े अर्थशास्त्री तो कभी नहीं थे| उनका कहना क्या और न कहना क्या! इन दिनों अपनी राजनीतिक पार्टी की तरफ़ से बोलते हैं, अर्थशास्त्र की तरफ़ से नहीं|
जब देश स्वतंत्र हुआ तो हमारी अर्थव्यवस्था में एक ख़ास तरीक़े के स्ट्रक्चर (structure) का उदय/विकास हुआ और उसकी स्थापना हुई| सक्षेप में यह स्ट्रक्चर व्यापारियों, राजनेताओं, पदाधिकारियों और भूस्वामियों का गिरोह (coalition) था जिसका सम्मिलित उद्देश्य देश की जनता और क्षमता (संसाधनों) को अपने हित के लिए लूटना था| इस लूट की सफलता के लिए चार चीज़ों की ज़रूरत थी: (१) सत्ता की अछुण्ण अनवरतता (perpetuation of hold on power), (२) सुव्यवस्थित तर्कसंगतता (invincible rationalization), (३) जनता का अंधभक्ति पूर्ण समर्थन (populistic non-critical support), और (४) गिरोह के सदस्यों में आपसी पृष्ठपोषण (mutual support among the members of the coalition)| इसी बात को हिंदी के महाकवि धूमिल कहते हैं: "मैंने हरेक को आवाज़ दी है/ हरेक का दरवाजा खटखटाया है/ मगर बेकारमैंने जिसकी पूँछ/ उठायी है उसको मादा पाया है। वे सब के सब तिजोरियों के दुभाषिये हैं। वे वकील हैं। वैज्ञानिक हैं। अध्यापक हैं। नेता हैं। दार्शनिक हैं । लेखक हैं। कवि हैं। कलाकार हैं। यानी कि- कानून की भाषा बोलता हुआ अपराधियों का एक संयुक्त परिवार है।"
सत्ता की अछुण्ण अनवरतता के लिए कई चीज़ों की आवश्यकता जान पड़ी| आर्थिक और माँसपेशियों के बल (economic and muscular strength) की आवश्यकता ने मोटे उत्कोच (घूस, kickback) और गुंडागर्दी (hooliganism) को जन्म दिया और पाला-पोसा| वोट-बैंक की राजनीति और जनता को वर्गों, जातियों, धर्मों में बाँटने की राजनीति शुरू हुई| यह सब चलता रहे इसके लिए ढीली-ढाली प्रशासनिक व्यवस्था की ज़रूरत भी हुई| पुलिस और न्याय व्यवस्था को लचर करने की ज़रूरत हुई| लूट मचती रहे, स्कैम होते रहें, अपराध होते रहें, मुक़दमे चलते रहें - अंत में हो कुछ भी नहीं| समय हर घाव पर मलहम लगा दे (Time cures every injury)| यह हमारे समाज और देश की संस्कृति में घुस गया|
सुव्यवस्थित तर्कसंगतता के लिए बुद्धिजीवियों या बुद्धिधारियों का सहारा लिया गया| किताबें लिखो, परचे छपवाओ, भाषण दो, पढ़ाओ, रिसर्च करो, गोष्ठियाँ आयोजित करो और प्रमाणित कर दो कि सरकार की योजनाएँ और उसके प्रयास तो सही हैं लेक़िन - | इस लेक़िन में सारा दोष जनता को दो, जनसंख्या को दो, विरोधी पार्टी के नेताओं को दो, इतिहास को दो, अंग्रेज़ों को दो, विदेशी शक्तियों को दो, धर्म को दो, भारतीय संस्कृति को दो, कुशिक्षा को दो, मैकॉले को दो, मौसम को दो, भाग्य को दो| जिसके सर पर चाहो ठीकरा फोड़ो, जिसे भी चाहो दोष दो, पर सरकार को दोष मत दो, व्यवस्था को दोष मत दो, अधिकारियों को दोष मत दो, व्यापारियों को दोष मत दो - coalition के सदस्यों को दोष मत दो| हर तर्क दो जो साबित कर दे कि सरकार ओर प्रशासन तो चुस्त-दुरुस्त है लेक़िन आप बच्चे बहुत ज़्यादा पैदा करते हो| एक ही बच्चा होता तो कलक्टर होता, गवर्नर होता| चार बच्चे कर लिए तो वे बेरोज़गार नहीं होंगे तो क्या होंगे| यह हुई सुव्यवस्थित तर्कसंगतता| इसको क़ायम करने का जिम्मा शिक्षा विभाग को मिला| कभी यह बात नहीं उठी कि चलो, माना मैकॉले बहुत बदमाश आदमी था, पर छः-सात दशकों में हमने उसे निकाल बाहर क्यों नहीं किया?
जनता के अंधभक्ति पूर्ण समर्थन के लिए सारे इंतज़ाम किये गए| सबसे पहले तो उसे सोचने और सवाल करने की छूट नहीं दी गयी| मज़बूरी में जीना सीखो, आवाज़ मत उठाओ| इसी को गालब्रेथ accommodation कहते हैं| अगर शिकायत की सुनवाई न हो, या शिकायत बेअसर हो, या शिकायत करने वाला दंडित हो, तो धीरे-धीरे लोग शिकायत करना छोड़ देंगे और भुनभुनाने लगेंगे| भारत भुनभुनाने वालों का देश बन कर रह गया| भुनभुनाने वाले लोग आशा और प्रलोभन पर आसानी से बिक जाते हैं और उन्हें बहका कर किसी भी अस्मिता का रंग दिया जा सकता है क्योंकि उनकी कोई अपनी अस्मिता नहीं होती| वे किसी भी टुच्ची-सी अस्मिता के लिए अंधभक्ति को स्वीकार लेते हैं| इसी बात को हिंदी के महाकवि धूमिल ने कहा है - वे (नेता) जिनकी पीठ पर हाथ रखते हैं उनके पीठ की हड्डी (मेरुदंड) गल जाती है| ज़ाहिर है, हवा का हल्का झोंका भी धूल को उड़ाने का सामर्थ्य रखता है| जनता की अंधभक्ति और समर्थन के लिए उन्हें धूल बनाकर रखो (चट्टान नहीं रहने या बनने दो)| इसके लिए आवश्यक है कि उसका आत्मविश्वास तोड़ो, उसकी शिकायतों पर ध्यान मत दो, उन्हें लाचार बना डालो| यह सबकुछ किया गया - समझ-बूझ कर किया गया और यह परंपरा बहुत पुरानी है| इसी बात को हिंदी के महाकवि धूमिल कहते हैं "यह जनता…/ उसकी श्रद्धा अटूट है/उसको समझा दिया गया है कि यहाँ/ ऐसा जनतन्त्र है जिसमें/ घोड़े और घास को/ एक-जैसी छूट है/ कैसी विडम्बना है/ कैसा झूठ है/ दरअसल, अपने यहाँ जनतन्त्र/ एक ऐसा तमाशा है/ जिसकी जान/ मदारी की भाषा है।"
गिरोह के सदस्यों में आपसी पृष्ठपोषण के लिए सारे और देशव्यापी तंत्र ने काम किया| व्यापारियों को नक़ली अभाव/क़िल्लत के सृजन (creation of artificial shortage) का मौका दिया गया, उन्हें खुले-आम एकाधिकारी बनने दिया गया, मुनाफ़ाख़ोरी करने दिया गया| उन्हें सरकारी प्रतिष्ठानों द्वारा घाटा उठाकर भी सस्ता कच्चा माल और व्यवसाय के लिए पूँजी दी गयी| इसकी शुरुआत दूसरी पंचवर्षीय योजना में हुई| बिरला (हिंद मोटर्स) ही मोटर क्यों बनाते रहे और सारे सरकारी विभाग केवल एम्बेसेडर कार ही क्यों खरीदते रहे? यह मोनोपोली क्यों? व्यापारियों ने लूट का एक हिस्सा नेताओं को दिया| भारत में नेतागीरी का धंधा चल निकला| गुंडों को संरक्षण दिया गया| गुंडे नेता बनने लगे, नेता गुंडागर्दी करने लगे| इनकी आमद के तीन श्रोत हुए - व्यापारियों से गुप्त धनदान, सरकारी संस्थानों में लूट और गवन, तथा जनहित में आवंटित धन का दुरूपयोग| राजीव गाँधी तक ने स्वीकार किया था कि जनता के लिए आवंटित धन का पचासी प्रतिशत (85%) ज़मीन पर आने के पहले ही ग़ायब हो जाता है| शासनतंत्र के पदाधिकारी जमकर घूस लेने लगे और जनता के पैसों पर संपन्न होने लगे| जनता हर तरह से मज़बूर हो गयी| शिकायत भी करे तो किस-किस की और कहाँ-कहाँ? दबंगों को देहाती राज दे दिया गया, उन्हें लूटने का अधिकार और वोट-बैंक की सुरक्षा का कर्त्तव्य मिल गया|
इस तंत्र ने एक लचर व्यवस्था - ढीलतंत्र (the soft state) को जन्म दिया| यह एक बेहद लचीली स्थिति का नाम है जिसमें सब कुछ चलता है| कोई अपराधी है पर आराम से पुलिस और नेताओं के संरक्षण में अपना धंधा चला रहा है; अरबों का गवन कर लिया है, मज़े में बीस साल से मुक़दमा लड़ रहा है, कांट्रैक्ट लिया, आधा-अधूरा काम किया और पैसा हज़म| कोई कार्रवाई नहीं| पढ़ाता नहीं है, मज़े से सरकारी पैसा खा रहा है, ट्यूशन पढ़ा रहा है; लड़के खुले-आम परीक्षा-हॉल में नकल कर रहे हैं, वीक्षक नक़ल करवा रहे हैं, प्रिंसिपल निगरानी कर रहा है| दफ़्तरों में बाबू बारह-बजे तक नहीं आये हैं| ट्रेन में पुलिस पैसे वसूल रही है, कंडक्टर पैसेंजर से बिना रसीद के पैसा ले रहा है| सब देखते हैं, सब चल रहा है, सिस्टम चल रहा है| यह soft state है|
मोदी सरकार ने इस ढीलतंत्र पर हमला किया| नोटबंदी बहुत भारी झपट्टा था - गुरिल्ला वार के स्टाइल वाला| बहुत सारे पदाधिकारियों और नेताओं पर भी झपट्टे मारे गए हैं| काली सम्पत्ति ख़तरे में है, काले धंधे चलानेवाले ख़तरे में हैं| व्यापारियों के पुराने नेटवर्क स्ट्रक्चर टूटने लगे हैं, नए नेटवर्क बन नहीं पाए हैं, न्यायव्यवस्था में थोड़ी चुस्ती आयी है, जनता का आत्मविश्वास लौट रहा है| अब पैसा लगाया तो पैसा आया कहाँ से - पूछा जा रहा है, यह आधार कार्ड मुसीबतों की जड़ बनता जा रहा है, केवायसी (KYC) ने बखेड़ा खड़ा कर दिया है| कम्प्यूटर और इंटरनेट विनाशकारी सिद्ध हो रहे हैं|
यह स्ट्रक्चरल परिवर्तन एक झटका है, एक हलका-फुलका भूचाल है| लोग छुई-मुई की पत्तियों की तरह सिकुड़ गए हैं - और इसी कारण मंदी आयी है| मंदी भागते ढीलतंत्र की दुलत्ती है, the backlash of the soft state.
सिस्टम अपने को नयी स्थिति में ढाल लेगा| अर्थव्यवस्था बहुत हद तक एक self-organizing सिस्टम है| मंदी रहेगी नहीं, लेकिन अपना गाना गाकर ही जाएगी - It will run its own course.


सोमवार, 19 अगस्त 2019

विवेकशील हिंदुत्व (रैशनल हिंदुत्व - Rational Hindutva)

हिंदुत्व की धारणा चार वैचारिक स्तम्भों पर खड़ी है: (१) राष्ट्रीय एकता, (२) व्यक्तिवाद के ऊपर उठकर सामाजिक कल्याण की भावना की वरीयता, (३) ऐहिक (मैटेरियल) , बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल) तथा आध्यात्मिक (स्पिरिचुअल) तत्वों का सामंजस्य, और (४) भारतीय संस्कृति और मूल्यों पर आधारित जीवन दर्शन|
राष्ट्रीय एकता की धारणा यह विश्वास है कि उत्तर में कश्मीर से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक और पूर्व में अरुणाचल, नागालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम से लेकर पश्चिम में गुजरात तक भारत एक राष्ट्र है, एक सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक इकाई है, इसके कल्याण और सरोकार समन्वित है, इनपर ख़तरा समन्वित है और इसकी एकता की रक्षा राष्ट्रीय कर्त्तव्य है| सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, आचारपरता और भाषाओं की विविधता के बावजूद भारत एक राष्ट्र है| विभिन्न प्रांतों में इसका विभाजन केवल व्यवस्थापकीय सुविधा के लिए है जिससे राष्ट्रीय अछुण्णता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता|
विवेकशील हिंदुत्व की धारणा सामाजिक कल्याण को पहले दर्जे पर रखती है और व्यक्तिगत कल्याण को इसका मातहत समझती है| इसका एकसूत्री वर्णन करते हुए कौटिल्य कहते हैं कि कुल की रक्षा के लिए व्यक्ति को छोड़ दे, गांव की रक्षा के लिए कुल को छोड़ दे, इलाक़े की रक्षा के लिए गांव को छोड़ दे और आत्मा की रक्षा (आध्यात्मिकता) के लिए पार्थिव (भौतिक, materialistic, ऐहिक, worldly) स्वार्थों को छोड़ दे| संक्षेप में, कौटिल्य कहते हैं कि संहति (समुदाय, समाज) के हित में व्यक्तिगत स्वार्थ को छोड़ दे| भारतीय धर्म, नैतिकता, कर्त्तव्य और अधिकारों की विवेचना, राजनीतिक धारणाएँ, मूल्य और मानदंड, सभी कुछ सामाजिक कल्याण की वरीयता पर आधारित है| व्यक्तिगत स्वाथों के आपसी टकराव की उलझी हुई गुत्थी केवल सामाजिक कल्याण के दर्शन से सुलझाई जा सकती है|
आधुनिक भारतीय शिक्षा और चिंतन पर पश्चिम (विदेशों) में विकसित व्यक्तिवाद का बहुत असर पड़ा है| इस आयातित (aquired) व्यक्तिवाद का भारतीय सामाजिक और सांस्कृतिक आस्थाओं के साथ समन्वय नहीं हो सका| इसलिए व्यक्तिवाद पर आधारित आधुनिकतावाद और भारतीय रगों में बसी संस्कृति के बीच टकराव शुरू हुआ| इस टकराव से एक सामाजिक और बौद्धिक धुंध पूरे जनमानस पर छा गया और हम कर्त्तव्य विमुख होते गए| आधुनिक काल में ऐसा कोई दार्शनिक भारत में नहीं हुआ जो इस टकराव को सहयोगिता में बदल दे जिससे सामाजिक/बौद्धिक धुंध साफ हो जाये| विवेकशील हिंदुत्व की धारणा इसी धुंध को साफ करने के लिए है, आधुनिकता और भारतीय संस्कृति में सामंजस्य स्थापित करने के लिए है| इसके तहत हम आधुनिक होते हुए भी अपनी संस्कृति को कायम रख सकते हैं| जापान ने इसे कर दिखाया है, हम भारतीय भी कर सकते हैं|