शनिवार, 17 अगस्त 2019

सत्य के अर्थ और प्रकार

सत्य के नाम पर कई चीजें चलती हैं और इस शब्द का प्रयोग करनेवाले बहुधा यह नहीं बतलाते कि कि वे इसका प्रयोग किस अर्थ में कर रहे हैं| सत्य शब्द का प्रयोग निम्नलिखित अर्थों में होता है:
१. ऋतार्थक सत्य (Ontological Truth): प्रकृति में जो जैसा है वह स्थिति| इसको वस्तुस्थिति सत्य भी कह सकते हैं| दूसरी भाषा में यह फ़ैक्ट (Fact) है| इस सत्य के लिए जानना या कहना आवश्यक नहीं है| कल्पना कीजिये - आज इस दुनियाँ में कोई व्यक्ति या जीव न रहे, कोई देखने-सुनने-कहने वाला न रहे, तब भी प्रकृति में कुछ रहेगा, होता रहेगा| यह ऋत सत्य है| प्रकृति (और परब्रह्म, अगर आप परब्रह्म और प्रकृति को अलग मानते हैं तो) ऋत सत्य है, परिवर्तन और विकृति उसका स्वभाव है| इस सत्य के लिए मानव, ज्ञाता, वक्ता, श्रोता वग़ैरह का होना ज़रूरी नहीं है|
२. ज्ञानार्थक सत्य (Epistemological Truth): जब जीव रहते हैं (मानव रहता है) तो ऋत का संज्ञान होता है, ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ऋत की अनुभूति होती है, ऋत का एक नक़्शा चेतना पर बनता है| ज्ञानार्थक सत्य व्यक्तिगत होता है| इसके लिए किसी अन्य व्यक्ति का होना आवश्यक नहीं है| ध्यातव्य है कि नक़्शा एक छाया है और यह ऋत का पूर्णतः प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता, केवल अंशतः प्रतिनिधित्व करता है| ज्ञानेन्द्रियों की अपनी सीमाएँ हैं| दूर की चीज़ें छोटी लगती हैं, छोटी होती नहीं हैं; आकाश क्षितिज पर धरती से मिलता-सा दिखता है, मिलता नहीं है| मनुष्य कुछ चीज़ों को देख, सुन या सूंघ नहीं सकता पर दूसरे जानवर उसे महसूस करते हैं| चिंतन और अनुमान इस संज्ञान, ज्ञानार्थक सत्य, को ऋत के क़रीब लाने में सहायक होते हैं लेक़िन वे हमेशा सफल हों यह आवश्यक नहीं है| ऋतार्थक और ज्ञानार्थक सत्य में दूरी रह ही जाती है, भ्रम हो ही जाता है| ज्ञान की सीमा है, ज्ञाता की सीमा है किन्तु ऋत निस्सीम है| फिर भी, जीवन को इसी सीमा में रहना होगा, कोई विकल्प नहीं है|
३. अभिव्यक्त सत्य (Expressed Truth): जब ज्ञानार्थक सत्य कर्मेन्द्रियों द्वारा प्रकाशित होता है - कि दूसरे भी उसे जानें - तो यह अभिव्यक्त सत्य है| यह सत्य इशारों, इंगितों, आकृतियों, हाव-भाव, वाणी, लेखन आदि से संचारित होता है| अभिव्यक्त सत्य सप्रयास (intended, volitional) या अप्रयास (unintended, autonomous) हो सकता है| ज्ञानार्थक सत्य व्यक्तिगत होता है, किन्तु अभिव्यक्त सत्य सामाजिक हो जाता है| यह अभिव्यक्त सत्य सीमित होता है| कर्मेन्द्रियों की सीमा, शब्दों की सीमा, इंगितों की सीमा, लेखन की सीमा इत्यादि अभिव्यक्त सत्य को ज्ञानार्थक सत्य से दूर करती हैं| यहीं वर्णनातीत की, अकथनीय, इत्यादि की बात आती है| जब जानबूझ कर किसी उद्देश्य से ज्ञानार्थक सत्य और अभिव्यक्त सत्य में दूरी पैदा की जाती है तो इसे झूठ, धोखा, छल, प्रवंचना, पाखंड कहते हैं|
४. सैद्धांतिक या प्रारूपात्मक सत्य (Axiomatic Truth): जब कुछ मान्यताओं को स्वीकार कर लिया जाता है तो उन मान्यताओं के अनुरूप अनेक बातों का निगमन होता है और उन्हें सत्य माना जाता है| गणित के सत्य सैद्धांतिक होते हैं| इस तरह के सत्य की सीमा उनके आधारभूत सिद्धान्तों के सत्य और उनकी सीमाओं पर निर्भर करती है| अगर आधारभूत मान्यताएँ बदल जाएँ तो सारे प्रारूपात्मक सत्य धराशायी हो जाते हैं| शास्त्र बहुधा इसी तरह के सत्य को प्रतिपादित करते हैं| सैद्धांतिक या प्रारूपात्मक सत्य हमेशा अभिव्यक्त सत्य होते हैं, लेकिन अभिव्यक्त सत्य का सैद्धांतिक या प्रारूपात्मक सत्य होना आवश्यक नहीं है|
५. पारम्परिक सत्य (Conventional Truth): हर समाज की अपनी परंपरा होती है, संस्कृति होती है, मिथक होते हैं, रूढ़ि होती है| इनको सत्य माना जाता है, इसमें समाज का विश्वास स्थापित होता है| इनके सत्य का प्रमाण इनका पारम्परिक होना या शास्त्रों में लिखा होना है| सिवा मिथक या शास्त्रों के प्रमाण के यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि ब्रह्मा के चार मुँह हैं, ब्राह्मण का जन्म विराट पुरुष के मुँह से हुआ, या मूसा (Moses) के सामने भगवान (Yahweh) झाड़ी की आग के रूप में प्रकट हुए थे| धर्मग्रन्थ इस तरह के पारम्परिक सत्यों की खान हैं| राजनीति भी इस तरह के सत्यों को सुस्थापित (reinforce) करती है, या उनकी बखिया उधेड़ती है, नए सत्यों को स्थापित करती है| भारत की स्वतंत्रता के लिए की गयी लड़ाई में और उसके बाद भी बहुत से ऐसे सत्यों की स्थापना हुई|
६. प्रासंगिक सत्य (Incidental and Contextual Truth): मैंने (सच या झूठ) आपसे कहा, और आपने मेरा विश्वास करके वही बात किसी अन्य को कही| आपने तो सच ही कहा लेकिन आपके कहे का सच होना मेरे कहे के सच होने पर निर्भर है| मेरी बात झूठ थी, आपने सत्य बोलते हुए भी झूठ बोला या झूठ बोलते हुए भी सत्य कहा| अफ़वाहों में ऐसे ही सत्य और झूठ होते हैं| इसका विवेचन प्रसंग पर निर्भर करता है|
७. व्यावहारिक सत्य (Practical Truth): आपने पूछा - कैसे हैं? मैंने उत्तर दिया - ठीक-ठाक हूँ| यह केवल फॉर्मेलिटी है, व्यावहारिक सत्य है क्योंकि सत्य जानने के लिए आपने पूछा नहीं था और आते-जाते में आपको अपनी सारी बातें बतला नहीं सकता, अपना दुखड़ा रो नहीं सकता| सामाजिकता से बंधा हूँ|
८. आचरणीय सत्य (Moral or Pragmatic Truth): समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए, उसके विकास और कल्याण के लिए,दुराचार का शमन करने के लिए, कमज़ोरों को न्याय और सुरक्षा देने के लिए कुछ नियमों, आचारसंहिताओं और कानूनों का बनाया जाना आवश्यक है| इसके लिए कुछ आस्थाओं का सृजन भी ज़रूरी है| तमाम धर्म ऐसी आस्थाओं का, विश्वासों का, कल्पनाओं का, काल्पनिक सत्ताओं एवं अस्तित्वों का, धारणाओं का सृजन करते हैं और उन्हें सत्य मानते हैं| आचरणीय सत्य ऋत नहीं हैं, पर उनकी सामाजिक उपयोगिता है| स्वर्ग, नरक, पुनर्जन्म, पिछले जन्म के कर्म इत्यादि की धारणा और उनके अस्तित्व का सत्य आचरणीय सत्य के मूलभूत स्तंभ हैं| इस तरह के सत्य का मूल आधार सामाजिक उपयोगिता (Pragmatism) है जहाँ सत्य उपादेयता और अपने वांछित प्रभावों के कारण स्थापित होता है|
९. तर्कातीत सत्य (Extralogical Truth): कभी-कभी सत्य के नाम पर ऐसी बातें कही जाती हैं जो अपनी तार्किक रचना की बदौलत असत्य साबित की ही नहीं जा सके और इसीलिए अकाट्य हो जाती हैं| उदाहरण के लिए 'सब कुछ समय पर होता है' तर्कातीत सत्य है क्योकि अगर कुछ हुआ तो उसके होने का समय आ गया था और कुछ नहीं हुआ तो उसके होने का समय नहीं आया है| दोनों हालत में 'सब कुछ समय पर होता है' सत्य साबित होता है क्योंकि इसे अपनी रचना के चलते झुठलाया नहीं जा सकता| ऐसे non-falsifiable कथन तर्कातीत होते हैं| भाग्य की परिकल्पना भी इसी श्रेणी में आती है| कुछ हुआ तो भाग्यवश और न हुआ तो भाग्यवश| भाग्य अदृष्ट होता है और इसका कार्य-कारण सम्बन्ध भी स्थापित नहीं किया जा सकता| अतः भाग्य की महत्ता मानने के सिवा कोई चारा नहीं और इस तर्कातीत कथन को सत्य कथन मान लिया जाता है|
१०. सामाजिक सत्य (Social Truth): जब कोई वक्तव्य समाज के अधिकतर लोगों व स्थानों पर और प्रायः सही होता है (किन्तु उसके कुछ-एक अपवाद पाये जाते हैं) तो उसे सामाजिक सत्य का दर्ज़ा मिलता है| इनकी प्रकृति इन्हें ऊँचे दर्ज़े की सम्भवता (likelihood) प्रदान करती है जिसके 'विपरीत वक्तव्य' (contrary) के सही होने की सम्भवता बहुत कम होती है| उदाहारण के लिए अगर कोई गाड़ी अक्सर लेट आती है तो 'फलानी गाड़ी लेट आती है' को सत्य मानकर हम उसपर विश्वास करते हैं और तदनुरूप कार्य भी करते हैं| सामाजिक सत्य गणितीय सत्य की तरह सौ प्रतिशत सत्य नहीं होता|

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