सोमवार, 31 मई 2021

जीवन का उदय और अस्त

 1. परमात्मा (the Ultimate Existence Principle) है।

2. प्रकट होना (the act of manifestation or being overt) और प्रच्छन्न होना (the act of concealment or being covert) परमात्मा की माया है। यह लुका-छिपी उसका खेल है। प्रकट भी वही होता है और प्रच्छन्न भी वही होता है। उदय और विलय उसी का खेल है।

3. प्रकट होने और प्रच्छन्न होने की माया सात पदार्थों का सृजन करती है। कणाद यहीं से शुरू करते हैं। वे सात पदार्थ हैं - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। इन सातों के अनेक भेद हैं। 

4. परमात्मा में सभी द्रव्य, सभी गुण, सभी कर्म हैं। बात प्रकट होने और प्रच्छन्न होने की हैं। प्रच्छन्नता में परमात्मा में कोई द्रव्य, कोई गुण, कोई कर्म नहीं है, लेकिन प्रकटता में द्रव्य, गुण और कर्म आभासित हो जाते हैं। यह माया का खेल है।

5. जो सब में प्रकट हो उसे सामान्य कहते हैं, जो एक में प्रकट हो पर औरों में प्रच्छन्न हो उसे विशेष कहते हैं, और जो सभी में प्रच्छन्न हो उसे अभाव कहते हैं। अत्यन्ताभाव का भी अत्यन्ताभाव परमभाव है। परमात्मा परमभाव है, The Ultimate Existence है।

6. द्रव्यों की संहति और तज्जन्य संयोग से पूर्व प्रच्छन्न गुण कर्मों का उदय या पूर्व प्रकट गुण कर्मों का विलय ही समवाय है।

7. जड़, निर्जीव और अचेतन में जीवन, आत्मा, चैतन्य, और मन का प्रकट होना उसी की माया है, और सजीव व चेतन का जड़ होना भी उसी की माया है। ये माया के दो रूप Eros और Thanatos हैं। Eros और Thanatos क्रमशः जीवेषणा और मृत्य्वेषणा है, जड़ से चैतन्य और चैतन्य से जड़ होने की कामना है।

8. जीवेषणा रचनात्मक है और मृत्य्वेषणा संहारात्मक है। दोनों ही की दिशाएं वाह्य या आभ्यंतरिक हो सकती हैं। दोनों अलग-अलग भी हो सकती हैं और जुड़ी हुई भी।

9. जीवित और निर्जीव दोनों के अंतस्तल में उसके पिछले दिनों के अनुभवों की छाप होती है। ये अनुभव विशेष/व्यक्तिगत हो सकते हैं और समष्टिगत भी। इन छापों की स्मृति हो भी सकती है और न‌ भी हो सकती है।

10. योग उन छापों को सप्रयास टटोलना और उन्हें चेतन स्मृति में लाना है। योग ज्ञानप्राप्ति के लिए किया गया प्रयास और अभ्यास है। योगाभ्यास से कर्म में भी कुशलता आती है।

11. पूर्व संस्कारों की स्मृति स्वयंस्फूर्त भी हो सकती है। स्मृति स्थायी हो सकती है और अस्थायी भी, स्पष्ट या धुंधली भी।

12. पंचभूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, और आकाश), दिशा और काल, मन और आत्मा द्रव्य कहलाते हैं। पंचभूत स्थिति, गति, शक्ति, ऊर्जा, और अंतरिक्ष हैं। पंचभूत दिशा और काल में हैं। इनके समवाय में चेतना का प्रकटीकरण आत्मा या जीवात्मा है। चेतना में वाह्य जगत से संयोग की कामना मन को प्रकट करता है। मन इन्द्रियों का निर्माण करता है। वही मन इंद्रियगम्य वाह्य जगत को अन्तर्जगत से, चेतना और आत्मा से, जोड़ने का पुल या सेतु है।

13. दिशा और काल में स्थित सजीव समवाय में सातों द्रव्य प्रकट होते हैं। निर्जीव समवाय में केवल पांच द्रव्य प्रकट होते हैं क्योंकि उनमें आत्मा और मन प्रकट नहीं होते। सजीव समवाय में आत्मा और मन का तिरोभाव जीव की मृत्यु है। इन सात द्रव्यों के प्रकटीकरण से बने समवाय में दो का तिरोभाव और केवल पांच का प्राकट्य पंचत्व में जाना कहलाता है। सप्तत्वात् पंचत्वं गतः या पंचत्वं गतः, यानी मर गया।

14. जीव की मृत्यु के बाद आत्मा कहीं बाहर नहीं चली जाती, न मन कहीं बाहर चला जाता है। वे केवल प्रच्छन्न हो जाते हैं। निर्जीव समवाय में आत्मा और मन कहीं से आते नहीं हैं। वे तो रहते ही हैं, केवल प्रकट हो जाते हैं।

15. निर्जीव में जीव कहां से आया, यह प्रश्न ही बेतुका है। निर्जीव समवाय में जीव - आत्मा और मन - प्रच्छन्न थे। वे प्रकट हो गये तो निर्जीव समवाय संजीव हो गया। वे छिप गये तो सजीव समवाय मर गया, पंचत्वं गतः। यह सप्तत्वं गतः और पंचत्वं गतः का खेल है।

16. वह परमात्मा सब में - सजीव में, निर्जीव में, व्यष्टि में, समष्ठि में, समग्र रूप से स्थित है। फर्क इसमें है कि उसकी माया ने कहां, कब, किसमें, कितना प्रकट किया है और कितना प्रच्छन्न रखा है।

बुधवार, 23 अक्टूबर 2019

माँ के मज़ूर

शुरू के दिनों में विवेकानंद अपनी मुक्ति के वारे में सोचा करते थे, श्री रामकृष्ण परमहंस से भी उसी मुक्ति की युक्ति के वारे में पूछा करते थे|
एक दिन श्री परमहंस ने उनको डाँटा| कहा कि अपनी मुक्ति के वारे में स्वार्थी की तरह इतना क्यों सोचते रहते हो? माँ ने जीवन देकर तुम्हें अपनी चाकरी में बहाल किया है| उनका काम करो| शाम होगी तो मजूरी मिल जाएगी| चले जाना| मुक्ति ही मुक्ति है, कौन पकड़े हुए है तुम्हें? क्या और मजूर नहीं मिलेंगे माँ को? फिर, मर्जी हो तो काम पर आ जाना| काम-धाम साढ़े बाइस, आते ही मजूरी चाहिए|
विवेकानंद जी समझदार थे| गुरु जी का इशारा समझ गए|

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2019

विवेकानंद जी की समाधि

कहते हैं, विवकानंद जी समाधि की अनुभूति प्राप्त करने के लिए ज़िद मचाये हुए थे, और श्री रामकृष्ण परमहंस उनको टालते जा रहे थे| आख़िर श्री रामकृष्ण परमहंस हार गए, और उन्होंने विवकानंद जी को समाधि कि स्थिति में पहुँचा दिया| जब विवेकानंद जी समाधि की स्थिति से सामान्य स्थिति में लौटे, तो गुरु महाराज ने कहा - देख लिया न? बस| अब तू कभी समाधि की स्थिति में नहीं जा सकेगा| ताला बंद, चाबी मेरे पास| अब ताला एक वार ही खुलेगा - जब तू जानेवाला होगा| फिर तू चला जायेगा, लौटेगा नहीं| महासमाधि होगी|
विवेकानंद जी चिंतनशील थे| वह सोचने लगे कि गुरु जी ने देकर क्यों छीना? क्या मंशा है उनकी? क्या चाहते हैं? विना कहे ही क्या कहा उन्होंने? क्या उपदेश दिया? उनके लिए तो शिष्य को समाधि दिलाना और बच्चे को अमरुद दिलाना दोनों बराबर हैं, फिर यह ताले-चाबी की बात क्यों? क्या समाधि से भी बड़ी कोई चीज़ है जो मुझे देना चाहते हैं| क्या समाधि खिलौना है और वह नहीं चाहते कि मैं खिलौने के पीछे पागल होकर अपने उद्देश्य को भूल जाऊँ? क्या चाहते हैं वह? क्या करवाना चाहते हैं मुझसे? फिर अंतकाल में महासमाधि क्यों? क्या वह चाहते हैं कि मैं जाने के पहले यह समझ लूँ कि जो किया वह भी खेल था, जीना खेल था, करना खेल था, अब जाना भी खेल है? चलो, वाहे गुरू की फ़तह| उन्हीं की चले, जैसी उनकी मर्जी|
विवेकानंद जी पढ़े-लिखे व्यक्ति थे| उनकी गहरी पैठ थी भारतीय और पाश्चात्य दर्शन में| आश्चर्यजनक याददाश्त और धारणाशक्ति थी उनकी| मन-ही-मन सारा पढ़ा शास्त्र खँगालने लगे| श्री रामकृष्ण परमहंस और विवकानंद जी में यह बहुत बड़ा अंतर था| श्री परमहंस का चित्त/मन सब्लिमेटरी था - वह एक दुनियाँ से दूसरी दुनियाँ में फांद कर चले जाते थे विदाउट गोइंग थ्रू अ प्रॉपर चैनल, पलक झपकते ग़ायब| विवकानंद जी रास्ते-रास्ते जाने वाले थे, क्रमिक ढंग से, लेक़िन बहुत तेज़ी से| सो, वह चले रास्ता पकड़ कर|
शास्त्रों को खँगाला तो हर जग़ह एक ही निष्कर्ष| पूरब में भी, पश्चिम में भी| जीवन का उद्देश्य है समाज का कल्याण, समाज का उत्थान, मानवीय मूल्यों की स्थापना, हृदय-हृदय में आलोक और शुभ-चिंतन, आईने सा साफ़ मन, फूलों का समाज, बच्चों की किलकारियों से भरा समाज, मां की ममता और बहन-बेटी के प्रेम से लबालब भरे नारी-हृदय, पिता और भाई के स्नेह से भरे पुरुष हृदय| भूख नहीं, बीमारी नहीं, चिंता नहीं, भय नहीं, ग़ुलामी नहीं| कर्म का यही अर्थ, धर्म का यही अर्थ, सत्य का यही अर्थ, तप का यही अर्थ, नैतिकता का यही अर्थ, जीवन का यही अर्थ, मृत्यु का यही अर्थ| अपनी व्यक्तिगत मुक्ति, और समाधि में उलझने का अपने-आप में कोई अर्थ नहीं है| अगर यम, नियम, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि समाज के लिए नहीं, वरन केवल अपने लिए हैं तो वे खिलौने हैं, बच्चों के लिए हैं|
विवेकानंद जी चिंतन में डूबे खड़े थे, कि श्री परमहंस वहाँ आ गए| हँसते हुए बोले - अब तो समझ गए? पर छूछे समझने से क्या होगा? करो, करना शुरू करो|
इस आदेश पर विवेकानंद जी ने सारी जिंदगी डाल दी|
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सोमवार, 21 अक्टूबर 2019

खखरी और पोचा

सुजला, सुफला, शस्यश्यामला| पता नहीं, कवि (बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय, आनंदमठ में) ने सुदूर विगतकाल का वर्णन किया था, या तत्कालीन स्थिति का वर्णन किया था. या वर्णित स्थिति के भविष्य में आने की कामना की थी| एक सौ छत्तीस वर्ष गुज़र गए आनंदमठ के| तब क्या होता था, कौन बतलाये? हाँ, जो कवि ने दर्शाया है वह बंगाल का दुर्भिक्ष काल था, जब लोग दाने-दाने के लिए तरस रहे थे - सब गाँव छोड़कर यहाँ-वहाँ भाग रहे थे| तो अवश्य ही कवि ने माता के उस रूप की कल्पना की होगी जो बेड़ियों के कटने के बाद होगी, या बेड़ियों के लगने के पहले की होगी| मेरे परदादे का जमाना - बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का जमाना - सुजला, सुफला, शस्यश्यामला धरती - मेरी धरती - मेरी जन्मभूमि - मेरे बाप-दादे-परदादे की जन्मभूमि| वन्दे मातरं|
मैं, बंकिमचंद्र का परपोता, क्या देख रहा हूँ? पृथ्वीमाता के अनगिनत परपोतों, प्रपरपोतों की भीड़ - बेरोज़गार बच्चों की भीड़, ख़ानदान की परंपरा और इज्ज़त को तार-तार करने के लिए हुहुआती भीड़, किसको कहाँ और कैसे लूट लें का मौक़ा ढूंढती भीड़, माता की गरिमा पर कीचड़ उछालने को उत्सुक भीड़, अपनी संस्कृति को लतियाती भीड़, भेड़ियों की भीड़, भेड़ों की भीड़, दलालों की भीड़, कंगालों की भीड़, फटे-हालों की भीड़|
धान के पौधे पला गए| पुआल ही पुआल - दाने नहीं लगे| सारा खाद-पानी बेकार गया| उपजा पर पोचा-पुआल| बुद्धि तो घास चरकर जिन्दा रह सकती है, लेक़िन शरीर क्या करे? बुद्धिमान लोग चारा खा सकते हैं, उन्हें पुआल की जरूरत है, पुआल-पोचा फ़सल बेशकीमती है - जहाँ चाहेँगे लगा देंगे - एक जून का खाना देकर - जय बोलेंगे, प्रदर्शन करेंगे, धरना देंगे, लाठी खायेंगे, टाँग तुड़वा कर घर लौट आयेंगे, इंकलाब करते हुए खेत आयेंगे, ख़ून की खाद दे देंगे| पुआल बड़े काम की चीज़ है - पोचा बड़े काम की चीज़ है| लेकिन आम आदमी तो पुआल खाकर जिन्दा नहीं रह सकता, सब तो नेता नहीं बन सकते|

खखरी - केवल भूसा, दाना नहीं| ओसाओ, फटको तो सब उड़ जायेंगे| हाँ, तब भी काम में आयेंगे - चूल्हे-भाड़ में झोंकने के काम आयेंगे - गाय-गोरू को खिलाने के काम आयेंगे| भारतमाता की औलाद - खखरी| डिग्री भी देते हैं और अनइम्प्लॉयेबल (निकम्मा, रोज़गार के अयोग्य) भी कहेंगे| अस्सी से अधिक प्रतिशत यांत्रिकी-डिग्रीधारी निकम्मे - डोनेशन देकर पढ़े - बाप की ज़मीन बिकवाकर पढ़े| खखरी|
कुछ खखरी अपने को बुद्धिजीवी कहने लगे हैं | थोथा चना बाजे घना| मैंने एक बुद्धिजीवी लौंडे को पूछा कि मार्क्स की क़िताब Das Kapital में Das का क्या अर्थ है? वह झुंझलाकर बोला - मेरा मज़ाक उड़ा रहे हो अंकल| अरे, यह भी कोई प्रश्न है? दास का मतलब है ग़ुलाम| कैपिटल की इस्पेलिंग ग़लत लिखी है तुमने, Capital होती है| आप क्या समझेंगे, आप सब साम्राज्यवादी रहे हैं, पूँजीवाद के समर्थक| तभी तो Calcutta से Kolkata बनाया गया| Das Kapital का मतलब है सर्बोहारा - जिन्हें पूँजीवादियों ने गुलाम - दास - बनाया है|
खखरी, पोचा| दादा बंकिमचंद्र जी, आपके परपोते और उनकी औलाद खर-पतवार हैं|

चिंता का विषय

इसपर कोई दो राय नहीं होनी चाहिए कि भारत का समाज, इसकी मनोवृत्ति, इसके संस्थान और इसकी अर्थव्यवस्था अर्धविकसित (underdeveloped और developing) नहीं पर पिछड़े हुए (lagging) हैं| पिछड़ने के कारण बहुत सारे हैं, जैसे विदेशी शासन और उनकी नीति, स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद की नीति, भारतीय जनता और राजनीतिज्ञों, नेताओं की अदूरदर्शिता, उनका पाखंडपूर्ण देशप्रेम, बुद्धिजीवियों का दोगलापन और विकृत स्वार्थपरता, इत्यादि|
भारतीय राष्ट्रप्रेम ने बीजेपी की जीत के साथ सर उठाया जिसको नरेंद्र मोदी नेतृत्व दे रहे हैं| नरेंद्र मोदी एक ईमानदार, कर्मठ और दृढ़ इच्छाशक्ति वाले चतुर व्यक्ति हैं पर अनेक विरोधी प्रबल शक्तियों (काउंटरवेलिंग पावर्स) से घिरे हुए हैं - यही चिंता का विषय है; उनके ख़ुद के लिए नहीं, भारत राष्ट्र के लिए, भारत की जनता के भविष्य के लिए|
मोदी ने काले धन और पूँजी पर हमला किया, दुश्चरित्रता पर हमला किया, पाखंडपूर्ण सेक्युलरिज़्म पर हमला किया, अलगाववाद पर हमला किया, राजनैतिक वंशवाद पर हमला किया और सबकुछ जल्दी-जल्दी किया, एक साथ किया|
इसका फल यह है कि विरोधी शक्तियाँ अनेक दिशाओं से मोदी और भारतीय राष्ट्रवाद पर प्रहार कर रही हैं| अंदर से भी कमजोरियाँ हैं - बीजेपी के कतिपय नेता न राष्ट्रवादी हैं, न दूध के धुले हैं| वे अपना उल्लू सीधा करने की ताक में लगे हुए हैं, कर भी रहे हैं| ऐसे चरित्रहीन नेता बीजेपी को अंदर से कमज़ोर बनाते हैं और विरोधी ताक़तों को मदद करते हैं|
काले पूँजीपतियों पर प्रहार हुआ है तो अर्थव्यवस्था, जो अबतक काली पूँजी पर टिकी हुई थी, चरमरा गयी है| विरोधी शक्तियाँ इस मंदी को अपना हथियार बना रही है| आभासी वस्तुस्थिति उनके पक्ष में है, उन्हें भविष्य या मूल कारणों से क्या लेना देना|
देशी और विदेशी बुद्धिजीवी एकजुट होकर मोदी की बुली कर रहे हैं, धौंस दिखा रहे हैं, सारा ठीकरा मोदी के सर फोड़ रहे हैं| पिछले सत्तर साल की दुर्व्यवस्था के कारणों पर बोलने-लिखने के लिए उन्हें कुछ नहीं है| उन्हें लगता है कि अगर बीजेपी की सरकार नहीं बनती तो भारत में स्वर्णिम युग होता| सभी धर्मों के लोग आपस में मिलकर चाय-नाश्ता करते| उद्योग धंधे फलते फूलते, बेरोजग़ारी नाममात्र को रहती, ग़रीबी ख़त्म हो गयी रहती|
तथाकथित मशहूर अर्थशास्त्री, जो नालियों में बहे हुए भारतीय दिमाग़ हैं और विदेशी नागरिकता लेकर वहीँ बस गए हैं, अपने पिछड्डे पर ताल बजा कर मोदी को नचाना चाहते हैं| वे चाहते हैं कि मुफ़्तख़ोरी भी बढ़े, निकम्मों को नौकरियाँ भी मिलें, चीजों के दाम भी न बढ़ें, विनियोग भी बढ़े, पूँजीवाद भी बढ़े, और उद्योगपतियों का गला भी घोटा जाये| भारत टुकड़े-टुकड़े भी हो और एक राष्ट्र भी हो जो दुश्मनों और दोस्तों को समान दृष्टि से देखे| चुस्त व्यवस्था भी हो और मनमानी की पूरी छूट भी हो| हम लूटें पर कोई लुटे नहीं| घोड़े और घास, होवे दोनों का विकास| वो बेदर्दी से सर काटें अमीर और मैं कहूं उन से, हुज़ूर आहिस्ता, आहिस्ता जनाब, आहिस्ता आहिस्ता|
भारत एक दब्बू राष्ट्र नहीं रहा तो पड़ोसी देश चिंतित हैं - अब किस देश की बीवी को भाभी कहेंगे? अब जब भारत ने कबूतर उड़ाना बंद कर दिया है तो उनके हाथों के तोते उड़ रहे हैं| चिंतित होना लाज़िमी है|
पिछले छह दशकों से बैंक लूटे जा रहे थे और NPA बनता जा रहा था| अब छमकछल्लो कब तक नाजायज़ पेट छिपाए? पानी में हगा तो आख़िर उतरायेगा ही| अब सब छी-छी कर रहे हैं, नाक मूँद रहे हैं, 'आदा-पादा कौन पादा' खेल रहे हैं और अंत में बीजेपी/ मोदी को मार रहे हैं| यह चिंता का विषय है|
वर्ष 1990 में अमरीकी डॉलर साढ़े-सत्रह रूपये का था| वर्ष 2013 में वह साढ़े-बासठ रूपये का हो गया था| यानि 23 वर्षों में रूपये के गिरने की औसत वार्षिक दर (rate of fall) -0.0538 थी| अब 2019 में डालर 71 रूपये का है और 2014-19 की वही दर -0.0252 है| लोगों को यह नहीं दिखता कि अगर रुपया पुराने दर (-0.0538) से गिरता तो आज डालर 81 रूपये का होता| इसपर घोर चिंता व्यक्त की जा रही है और विरोधियों को शंका है कि अर्थव्यवस्था डूब जाएगी| 1990-2013 में अर्थव्यवस्था फलफूल रही थी|
मोदी सरकार ने क्रिएटिव डिस्ट्रक्शन किया है - एक जर्जर इमारत को, जो बैठने के लिए अब-तब कर रही थी, गिरा डाला है| अब नयी इमारत बनेगी| बहुत सारी ईंटें गल गयी थी, उन्हें मलवे में डालना होगा| अच्छी ईंटों का पुनरुपयोग करना होगा| यह बड़ा काम है, इस की चिंता बड़ी चिंता है|

शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

पाखंड

उनका प्रवचन ख़त्म हो चुका था, श्रोता भक्त गण जा चुके थे; कुछ प्रबुद्ध-से लोग प्रश्नोत्तर सेशन में भाग लेने बैठे थे| संतश्री ने मेवा पाया और हमने भी थोड़ा सा प्रसाद पाया|
प्रश्नोत्तर शुरू हुआ और संतश्री ने एक प्रश्न के उत्तर में कहा - विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि । शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः (पंडित लोग विद्वान विनयी ब्राह्मण को, गाय और हाथी, कुत्ते और चाण्डाल को एक दृष्टि से देखते हैं)| अगला प्रश्न एक प्रौढ़ व्यक्ति, जो देखने से लगता था कि महीनों से नहीं नहाया, गन्दा कुर्ता-पायजामा पहने, दाढ़ी-बाल बेतरतीब बढ़े - ने किया - संतश्री, क्या मैं आपको चाण्डाल या कुत्ता समझूँ?
संतश्री ने तपाक से उत्तर दिया - मैं न पंडित हूँ, न विद्वान विनयी ब्राह्मण हूँ, न गाय, हाथी, कुत्ता या चाण्डाल| मैं संत हूँ| तुम आधुनिक पंडित, विद्वान ब्राह्मण हो, मार्क्सवाद ब्रांड विद्या और विनय से सम्पन्न| तुम चाहो तो अपने को गाय, हाथी, कुत्ता या चाण्डाल समझ सकते हो|

भारतीय अर्थशास्त्र में फैड

फ़ैशन और फैड वे व्यवहार हैं या सोच हैं जो बहुत तेज़ी से बहुत सारे लोगों के चहेते हो जाते हैं, आधुनिकता के प्रतीक समझे जाते हैं, पर कुछ वर्षों के बाद घिस-पिट कर मिट जाते हैं| भारतीय अर्थशास्त्र में इस तरह के अनेक फ़ैशन और फैड आये हैं जिन्हें मैंने ख़ुद देखा है| अभी हम उनके वारे में बातें करेंगे|
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद आर्थिक विकास का फैड चला| पहले आत्म-निर्भरता, सर्वोदय और कुटीर उद्योग का फैड चला| चरखा उसका प्रतीक था| लगता था कि चरखा कातने से देश की सारी आधि-व्याधि दूर हो जाएगी| लेकिन यह फैड पंद्रह वर्षों में दम तोड़ गया|
इसी बीच प्लैनिंग और भारी सरकारी उद्योगों की स्थापना का फैड आया| स्वदेशी, कुटीर उद्योग, चरखा और ग्रामीण आत्मनिर्भरता को पुराना कहकर झटक दिया गया| सारे अर्थशास्त्री प्लैनिंग का गुणगान करने लगे, देश का औद्योगीकरण करने लगे|
वर्ष १९६४-६५ आते-आते कृषिक्षेत्र का फैड आ गया| नए बीज, रासायनिक उर्वरक, हरित क्रांति का फैड अर्थशास्त्रियों का चहेता बन गया| पूरे देश के अर्थशास्त्रियों के लिए सावन आ गया और उनके विचारों में हरित क्रांति छा गयी| सावन के आंधरे को सूझत हरी हरी| हरे शोधपत्रों की भरमार हो गयी|
हरित क्रांति कुछ दिनों में सूखने लगी और क्षेत्रीय असमानताओं के अध्ययन ने फैड का रूप धारण कर लिया| जिसे देखो वही क्षेत्रीय असमानताओं की चिंता में दुबला हुआ जा रहा है| अर्थशास्त्र का अर्थ हो गया क्षेत्रीय असमानताओं का अध्ययन और उसे दूर करने की विद्या| समझने वाले समझ गए और जो न समझे वे अनाड़ी थे| वर्गीय असमानता की तरफ़ किसी का ध्यान नहीं गया| वह तो ट्रिकल डॉन के चलते अपने -आप ख़त्म हो जायेगा|
फिर आया बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैड| इसे सब रोगों की एक दवा माना गया, उद्योग छोटे और बड़े, कृषि, पिछड़े क्षेत्रों का विकास और क्या-क्या नहीं| इसने राजनीतिक दरिद्रता को भी दूर किया| और तत्कालीन अर्थशास्त्रियों ने इसके ख़ूब गीत गाये|
इसके बाद वर्गगत असमानता का फैड आ गया| ग़रीबी को दूर करना जरूरी हो गया , पिछड़े तबक़े के लोगों को सामाजिक न्याय देना ज़रूरी हो गया| यह न हुआ तो कुछ नहीं हुआ|
ग़रीबी और वर्गगत असमानता दूर हुई नहीं कि वैश्वीकरण तथा आर्थिक खुलापन का फैड शुरू हो गया| लाख रोगों की एक दवा हाथ लग गयी| इसी पर धुआंधार रिसर्च होने लगे, शोधपत्र छपने लगे|
लेक़िन जल्द ही एक नया फैड आ गया - मानव विकास का फैड| अर्थशास्त्र के सारे जर्नल मानव विकास की चोंचलेबाजी से गंधा गए| सरकारों ने झूठ-सच संख्याओं से रिपोर्ट भर दिए और अर्थशास्त्रीगण ह्यूमन डेवलपमेंट इंडेक्स बना-बना कर कृतकृत्य हो गए| विकास का मतलब ह्यूमन डेवलपमेंट|
अब एक नया फैड आने वाला ही है| ज़मीन तैयार है| अगर आपका अर्थशास्त्र से कुछ भी रिश्ता है तो आप समझ गए होंगे| शुभं भूयात|
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।
(हम साथ-साथ प्रॉजेक्ट लें, साथ-साथ पेपर छपवाएँ, हमारा साथ-साथ विकास हो - हम मिल-जुल कर पैसा खायें - हम दोनों पढ़ने-पढ़ाने का ढोंग करते हुए तेजस्वी हों, एक दूसरे की पीठ को सहलाएँ, कभी एक दूसरे की पोल न खोलें)|
ॐ शांतिः शांतिःशांतिः|
इति फैडोपनिषद