बुधवार, 21 मई 2025

Expectation Violation Theory में एक ही मूल से करुणा और घृणा जैसी विरोधी भावनाओं का उद्भव

Expectation Violation Theory में एक ही मूल से करुणा और घृणा जैसी विरोधी भावनाओं का उद्भव

------------------------------------------------

मेरे पिछले लेख (https://www.facebook.com/share/p/1BwcXdHF4a/ ) पर हमारे प्रिय मित्र पीयूष मिश्र जी ने अपने कमेंट में पूछा कि observed status का expected status से कम होना किसी स्थिति में करुणा (compassion/empathy) और किसी अन्य स्थिति में नफरत (contempt/hatred) या घृणा को जन्म क्यों देता है। यह प्रश्न बहुत सुंदर है। अब हम इसी की विवेचना करेंगे। साथ ही हम इसपर भी विचार करेंगे कि जब करुणा पैदा होने की संभावना इसकी विरोधी भावनाओं (ईर्षा, घृणा, आदि) काफी कम है तो हमारा समाज बिखर क्यों नहीं जाता, कंपोज्ड कैसे रहता है।


मूल, प्रथम, प्रश्न का उत्तर मानव मूल्यबोध, संबंध की प्रकृति, और नैतिक न्याय-भावना (moral cognition) से गहराई से जुड़ा है। इसे समझने के लिए और इस लेख में रखे गये तर्क की सुगमता के लिए Expectation Violation Theory (EVT) का संक्षिप्त विवरण आवश्यक है, हालांकि यह पुनरुक्ति होगी।


EVT में मूल स्थिति


व्यक्ति के मन में किसी दूसरे व्यक्ति (या समूह) के लिए एक पूर्व अपेक्षा (expected status) होती है। जब वास्तविक स्थिति (actually observed status) उस अपेक्षा से नीचे पाई जाती है, तो एक violation होता है। इस उल्लंघन की प्रतिक्रिया करुणा, घृणा, उपेक्षा, या विकर्षण किसी भी रूप में हो सकती है — यह इस बात पर निर्भर करता है कि मूल अपेक्षा की नींव क्या थी, और व्यक्ति-प्रतिक्रिया में कौन से मूल्य सक्रिय हैं।


तो भावनाएं किस दिशा में जाती हैं — यह अधोलिखित कारकों  पर निर्भर करता है:


1. मूल्यांकन का नैतिक आधार (Attribution of Cause):


a) यदि व्यक्ति यह मानता है कि गिरा हुआ व्यक्ति अपनी स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं है (जैसे कोई बीमार, शोषित, या शिकार), तो करुणा, सहानुभूति, मदद करने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है।


b) यदि व्यक्ति यह मानता है कि वह खुद अपनी स्थिति का उत्तरदायी है (जैसे आलसी, भ्रष्ट, अयोग्य समझा गया व्यक्ति), तो घृणा, तिरस्कार, या न्यायोचित दंड की भावना जागृत होती है।


यह attribution theory (F. Heider, 1958;  B. Weiner, 1970) से भी जुड़ा है और हमें Gestalt Psychology की ओर ले जाता है।


2. संबंध की प्रकृति (Nature of Relationship):


नज़दीकी/संबंध या समानता की भावना हो (ingroup member) तो गिरावट को देख कर करुणा अधिक सम्भव है।


वहीं, यदि दूरी या विरोध (outgroup) की भावना हो तो वही गिरावट "देखो गिरा हुआ है!" जैसी घृणित तृप्ति या disdain का रूप ले सकती है।


3. संज्ञानात्मक व्याख्या (Cognitive Framing):


यदि दिमाग उस स्थिति को "tragic" के रूप में देखता है तो करुणा होगी।


यदि उसे "moral failure" के रूप में देखता है तो नफरत, तिरस्कार की भावना होगी।


यह framing व्यक्ति की नैतिकता, विचारधारा और सामाजिक conditioning पर निर्भर करता है।


4. भावनात्मक लागत (Emotional Cost):


करुणा अक्सर मदद की जिम्मेदारी को जन्म देती है अतः  यह महंगी भावना है।


घृणा मूल्य-संरक्षण का भाव देती है, अतः यह अपेक्षाकृत सस्ती, संरक्षक भावना है।


इसलिए कुछ लोग अपनी ऊर्जा और आत्म-संरक्षण के लिए करुणा से बचकर घृणा चुनते हैं, खासकर यदि दूसरे की पीड़ा बार-बार, अथवा समाज में सामान्यीकृत हो जाए।


5. समूह की धारणाएँ और नैरेटिव (Ideological Bias):


उदाहरण के लिए - यदि कोई राजनीतिक या सामाजिक समूह किसी समुदाय को "पिछड़ा और शोषित" के बजाय "निकम्मा और भ्रष्ट" के रूप में प्रस्तुत करता है,

तो observed low status करुणा की बजाय घृणा या अवमानना को उत्पन्न करता है।


सब मिलाकर, Observed status अगर Expected status से नीचे हो तो Emotion का रूप  interpretation पर निर्भर करता है।  इसमें कारण तत्व है भावनात्मक प्रतिक्रिया जिसमें


* जिम्मेदारी नहीं है  तो करुणा, सहानुभूति

* खुद की गलती है तो तिरस्कार, घृणा

* समूह के अपने लोग  हैं तो करुणा की संभावना, विरोधी या बाहर वाले हैं तो  नफरत, दुत्कार

* नैतिक विफलता समझा गया तो घृणा और त्रासदी समझा गया तो करुणा।


अब हम दूसरे प्रश्न पर आते हैं।


प्रश्न है: करुणा दुर्लभ है और विघटक भावनाएं प्रचुर, फिर भी समाज संगठित कैसे है? 


कुछ पुनरुक्ति को स्वीकार करें और प्रश्न पर गंभीर चिंतन करें तो हम कहैंगे कि मानव समाज की संरचना का एक केंद्रीय विरोधाभास यह है कि जिन भावनाओं पर उसके स्वस्थ बने रहने की सर्वाधिक आशा होती है, जैसे करुणा और सहानुभूति, वे सबसे दुर्लभ होती हैं; जबकि जिन भावनाओं से समाज में विघटन और परस्पर अविश्वास उपजता है, जैसे ईर्ष्या और घृणा, वे सहज, सस्ती और सामान्य हैं। expectation violation theory (EVT) के आलोक में यह विरोधाभास और भी स्पष्ट हो जाता है। जब किसी व्यक्ति का प्रेक्षित (observed) सामाजिक/आर्थिक/मूल्यगत स्तर हमारी अपेक्षा (expected status) से अधिक होता है, तो ईर्ष्या उपजती है; और जब वह अपेक्षा से कम होता है, तो या तो करुणा उपजती है या घृणा।


यहाँ तक तो EVT का सामान्य सामाजिक-मनःवैज्ञानिक पाठ है। किंतु यदि हम इसे "भावनाओं की लागत" (cost of emotions) के परिप्रेक्ष्य से देखें, तो एक रोचक परिणाम सामने आता है:


ईर्ष्या: अपेक्षाकृत सस्ती, आंतरिक, निष्क्रिय, और सामान्यीकृत भावना है — इससे व्यवहार में कोई स्पष्ट आर्थिक, समयगत या ऊर्जा-आधारित व्यय नहीं होता। यह सामाजिक तुलना (social comparison) का सहज उत्पाद है।


करुणा: अपेक्षाकृत महंगी भावना है — यह व्यवहार की अपेक्षा करती है, जैसे मदद, सहारा, ध्यान, या समर्पण। करुणा दिखाना केवल भाव नहीं, एक उत्तरदायित्व है। यह नैतिकता, संसाधन और भावनात्मक व्यय माँगती है।


घृणा: यह अपेक्षाकृत सस्ती प्रतिक्रिया है, विशेषतः तब जब उसे नैतिक औचित्य के खोल में रखा जा सके। यह करुणा की अपेक्षित जिम्मेदारी से मुक्ति दिलाकर एक भावनात्मक संरक्षक की तरह कार्य करती है।


इसलिए EVT के संदर्भ में observed status less than expected status होने की स्थिति में घृणा की फ्रिक्वेंसी करुणा की तुलना में अधिक होती है। साथ ही, observed status higher than expected status की स्थिति में ईर्ष्या की लागत भी कम होने से इसकी सामान्यता और सामाजिक प्रबलता बढ़ जाती है। इस प्रकार समाज में दो विपरीत किन्तु सस्ती भावनाएँ — ईर्ष्या और घृणा — अधिक प्रचलित हो जाती हैं; जबकि करुणा, जो समाज की स्वस्थता के लिए आवश्यक है, दुर्लभ हो जाती है।


यह स्थिति एक भयावह सामाजिक प्रश्न को जन्म देती है: यदि स्वस्थ भावना दुर्लभ है और विघटनकारी भावनाएँ सामान्य हैं, तो समाज संगठित कैसे रहता है? यह प्रश्न का विशद रूप है।


अब हम इस गुत्थी को सुलझाने की तरफ चलते हैं।


समाज का संगठन: करुणा नहीं, संरचना पर आधारित


ध्यातव्य है कि समाज का संगठन केवल भावनाओं पर नहीं, बल्कि संरचना, बाध्यता, और स्वार्थ-संतुलन पर आधारित होता है।


1. संस्थागत बाध्यता (Institutional Compulsion): कानून, अनुशासन, न्याय, लेन-देन की व्यवस्थाएँ — ये सभी व्यक्ति की भावनात्मक प्रकृति से स्वतंत्र चलने वाली संस्थाएँ हैं। वे व्यवहार को नियोजित और सीमित करती हैं। व्यक्ति अपने आंतरिक द्वेष के बावजूद ट्रैफिक नियम मानता है, टैक्स देता है, अनुबंध निभाता है।


2. स्वार्थ का संतुलन (Equilibrium of Interests): थॉमस हॉब्स के अनुसार समाज इसीलिए बना क्योंकि व्यक्ति अपने स्वार्थ की रक्षा के लिए एक अनुबंध करता है — मैं तुम्हें न मारूँ ताकि तुम मुझे न मारो। यह आत्म-रक्षा की विवशता सामाजिक संगठन की बुनियाद बन जाती है।


3. सांस्कृतिक प्रतीक और मिथक (Cultural Cohesion): राष्ट्र, धर्म, जाति, भाषा जैसे सांस्कृतिक प्रतीक व्यक्ति को एक भावात्मक कल्पना में बाँधते हैं — भले ही वह भीतर से द्वेषमय हो, व्यवहार में एक समूह का सदस्य बना रहता है।


4. करुणा का संस्थानीकरण (Institutionalized Compassion): करुणा यदि प्राकृतिक रूप से दुर्लभ है, तो समाज उसे संस्थाओं में ढालकर संरक्षित करता है — धर्मस्थल, दानप्रथा, NGOs, CSR, सामाजिक न्याय योजनाएँ — ये सब करुणा को व्यवस्थित, बाँधा हुआ, और आंशिक रूप से सस्ता बनाते हैं।


5. नैतिक दिखावा और सामाजिक नियंत्रण: व्यक्ति सहानुभूतिपूर्ण भले न हो, पर सामाजिक लज्जा और 'अच्छा दिखने' की इच्छा उसे करुणा का प्रदर्शन करने को बाध्य करती है। यह करुणा नहीं है, पर उसका व्यवहारिक प्रभाव उत्पन्न करता है।


6. भावनात्मक थकावट और पारस्परिकता: लगातार ईर्ष्या और घृणा करना भी व्यक्ति को थकाता है। वह भी कभी सहारा चाहता है। इसीलिए समाज में एक सीमित स्तर की पारस्परिक करुणा — "आज मैं, कल तू" — बनी रहती है।


इस विवेचना में हम पाते हैं कि करुणा यदि दुर्लभ है, तो भी समाज संगठित रहता है — क्योंकि उसका आधार भावनात्मक आदर्श नहीं, बल्कि संरचनात्मक विवशता और स्वार्थ का नियमन है। करुणा की अनुपस्थिति विघटन की संभावना तो बनाती है, पर संस्थाएँ उस विघटन को सीमित करती हैं।


यह विचारमंथन इस विडंबना को रेखांकित करता है कि ईर्ष्या और घृणा जैसी सस्ती भावनाओं से भरे समाज में करुणा को जीवित रखने के लिए उसे संस्थाबद्ध करना पड़ता है, और वही करुणा की दुर्लभता के बावजूद समाज को ढहने से बचाती है।


यह सब मुझे एडम स्मिथ की किताब The Theory of Moral Sentiments की याद दिलाता है। और एक व्यक्तिगत कहानी की भी।


जब मैं एमए (अर्थशास्त्र) का विद्यार्थी था (1970-1972), तो हमारे प्रोफेसर नर्मदेश्वर झा जी ने हमें इस किताब को पढ़ लेने की अनुशंसा की। किताब भागलपुर विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में नहीं मिली। जब मैं आईआईटी खड़गपुर आया (1975-1984) तो वहां भी नहीं मिली। फिर NEHU आया (1985) तो वहां भी नदारद। इस किताब को पढ़े बिना अर्थशास्त्र का प्रोफेसर बन गया (1991)। यह कमाल की बात है। लगता है हमारे एक्सपर्ट्स भी मेरे-से ही होंगे। ध्यातव्य है कि इस किताब को अर्थशास्त्र वाले दर्शन समझते हैं और दर्शन वाले अर्थशास्त्र। जमूरे! बेचारे बाप को अपने बच्चे ही नहीं समझ पाये।


किताब मिली। इंटरनेट का जमाना आने के बाद। फ्री डॉनलोडेबल है।


मुझे दो लेखकों की अंग्रेजी ने बहुत आकर्षित किया है। एक तो एडम स्मिथ की और दूसरे बर्ट्रांड रसल की। जिंदगी भर चाहा कि इनकी अंग्रेजी जैसी अंग्रेजी लिख पाता। लेकिन बंदर को ट्रेनिंग देकर शेक्सपीयर नहीं बनाया जा सकता। नहीं लिख सका।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें