गांधी और कृष्णनीति: प्रतीकों, नियंत्रण और जनचेतना की भूमिका
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गांधी और कृष्ण—दो भिन्न युगों के प्रतिनिधि, लेकिन दोनों ही धर्म के नाम पर सत्ता और समाज को प्रभावित करने वाले विराट पात्र। गांधी ने सत्य और अहिंसा को शस्त्र बनाया, कृष्ण ने बुद्धि और नीति को। दोनों ने स्वयं बहुत कम किया, पर दूसरों से बहुत कुछ करवा लिया।
कृष्ण ने अर्जुन से युद्ध करवाया, स्वयं रणभूमि में रथ चलाया। गांधी ने जनांदोलन चलवाए, स्वयं लाठी भी नहीं चलाई।
प्रश्न यह नहीं है कि क्या किया, प्रश्न यह है—कैसे करवाया? किस माध्यम से? किस नीयत और नीति से?
* प्रतीकों की सत्ता: भाषा से अधिक प्रभावी संकेत
कृष्ण के पास रथ, वंशी, शंख, चक्र जैसे प्रतीक थे, जो केवल सौंदर्य या अस्त्र नहीं थे, बल्कि एक सामाजिक-सांस्कृतिक मनोविज्ञान का निर्माण करते थे। रथ के सारथि बनकर उन्होंने युद्ध में प्रवेश नहीं किया, पर युद्ध की दिशा और ध्येय स्वयं तय किए। चीरहरण और गीता जैसे प्रसंग, प्रतीकात्मक सत्ता के उदाहरण हैं, जहाँ नीति, धर्म और सत्ता का पुनर्परिभाषण किया गया।
गांधी के प्रतीकों में लाठी, चश्मा, धोती, चरखा और नमक रहे। ये सब वस्त्र या उपकरण नहीं, बल्कि उपनिवेशवाद के विरुद्ध सांस्कृतिक चेतना के शस्त्र थे। नमक सत्याग्रह मात्र एक कानून विरोध नहीं था, यह दैनंदिन जीवन की वस्तु को राजनीतिक प्रतीक में बदल देने की कला थी। गांधी ने अपने शरीर, वस्त्र और आचरण को प्रतीकों में ढाल दिया, और उन्हीं से साम्राज्य को चुनौती दी।
* नियंत्रण की नीति: प्रत्यक्ष हिंसा नहीं, पर प्रत्यक्ष प्रबंधन
कृष्ण ने प्रत्यक्ष युद्ध नहीं किया, पर हर निर्णायक क्षण में उनके निर्णय निर्णायक बने। अर्जुन के मन में उठते प्रश्नों का समाधान गीता के रूप में उन्होंने दिया, जो केवल दर्शन नहीं, बल्कि कर्म के लिए नैतिक कमांड बन गया। भीष्म, द्रोण, कर्ण, जयद्रथ—इनकी मृत्यु में नीति और युक्ति से प्रेरित निर्णय थे, जहाँ युद्ध-नीति के साथ-साथ नैतिक द्वंद्व भी जुड़ा हुआ था।
गांधी ने किसी को बंदूक नहीं दी, लेकिन उनके शब्द, मौन, व्रत और सत्याग्रह लोगों को आंदोलन में उतरने के लिए प्रेरित करते रहे। जब जनता नियंत्रण खोती, तो वे आंदोलन रोक लेते, जैसे चौरी-चौरा कांड के बाद। उनका नियंत्रण प्रत्यक्ष हिंसा के विरुद्ध था, पर भीतर से वह एक कड़े अनुशासन की माँग करता था। उन्होंने संघर्ष को आत्मसंयम की कसौटी पर कस दिया।
* जनचेतना का खेल: प्रेरणा बनाम प्रयोग
कृष्ण ने समाज को कर्म और धर्म की स्पष्ट घोषणाओं के साथ प्रेरित किया। उन्होंने अर्जुन से कहा कि युद्ध ही उसका धर्म है, और मोह को त्यागकर निष्काम कर्म करे। उनकी चेतना आत्म-बलिदान नहीं, बल्कि धर्म के लिए सक्रिय हस्तक्षेप थी। गीता में वे कर्म की स्वतंत्रता को स्वीकारते हैं, पर दिशा-निर्देश भी देते हैं।
गांधी ने जनचेतना को मनोवैज्ञानिक ढंग से निर्मित किया। सत्य और अहिंसा के नाम पर उन्होंने एक ऐसी नैतिक ऊँचाई गढ़ी, जहाँ जनता को लगता कि वे बिना हिंसा के भी इतिहास रच सकते हैं। आत्मत्याग, उपवास, मौन और ब्रह्मचर्य—इन सभी को उन्होंने साधन बनाया, जिससे जनसामान्य प्रेरित होता रहा।
कृष्ण की प्रेरणा में गति और परिणाम का आग्रह है; गांधी की चेतना में धैर्य, तप और संकल्प की लंबी साधना ही हथियार है। एक युद्ध से सीधा संबंध मुक्त करता है, दूसरा संघर्ष को धर्म का रूप देकर मोक्ष की ओर ले जाता है।
* कृष्णनीति और गांधीवाद: तुलनात्मक दृष्टि
यदि हम कृष्ण और गांधी के दृष्टिकोण की तुलना करें, तो स्पष्ट होता है कि दोनों के पास युक्ति और संकेत की शक्ति थी। कृष्ण नीति के माध्यम से सत्ता और धर्म के बीच संतुलन बैठाते हैं। वे युद्ध करते नहीं, करवाते हैं; लेकिन उसके सभी नियम स्वयं निर्धारित करते हैं। उनका धर्म परिणामोन्मुख है—जहाँ अधर्म का नाश और धर्म की रक्षा सर्वोच्च ध्येय बन जाता है, भले ही उस राह में मर्यादाएँ तोड़नी पड़ें।
गांधी का दृष्टिकोण परिणामोन्मुख नहीं, साधनामुख लगता है। उनके लिए साध्य से अधिक साधन का शुद्ध होना आवश्यक लगता है। उन्होंने आंदोलन में नैतिक अनुशासन, संयम और आत्मशुद्धि को अनिवार्य तत्व बना कर बल बना दिया। वे अहिंसा को केवल रणनीति भी मानते हैं, और प्रकटतः जीवनमूल्य भी मानते हैं। किंतु यथार्थ में उनके आंदोलनों ने असहयोग, बहिष्कार और जनाक्रोश को इस प्रकार उकसाया कि उसकी परिणति कई बार हिंसा की ओर भी गई। गांधी ने हिंसा नहीं की, पर जनभावना को इस प्रकार आंदोलित किया कि हिंसा स्वतः जन्म ले सके। फिर वे पीछे हटे और जन को नैतिक अनुशासन की याद दिलाई। किंतु यह भी देखना होगा कि यह कितनी आस्थापरक है और कितनी रणनीतिपरक।
कृष्ण की नैतिकता लचीली, प्रयोजनशील और औचित्यपरक है। गांधी की नैतिकता आदर्शवादी, आत्मशुद्धिपरक और संयमप्रधान दिखती है। दोनों के पीछे एक विराट दृष्टि है—धर्म के संरक्षण की, पर उनके मार्ग भिन्न हैं।
* गांधी—राम की वाणी में कृष्ण की छाया?
गांधी की भाषा राम की तरह मर्यादित थी, पर नीति कृष्ण जैसी थी। वे स्वयं 'सीता' को अग्नि-परीक्षा नहीं देते थे, पर युग को बार-बार तपाते थे। कभी “प्राण जाय पर वचन न जाय” कहते थे, कभी “अहिंसा के नाम पर आंदोलन वापिस” कर देते थे।
गांधी ने राम की नैतिकता को मंच पर रखा, पर पर्दे के पीछे कृष्ण की नीति से खेल खेला। इसमें कोई छल नहीं है—बल्कि यह भारतीय परंपरा की दो महान धारणाओं का समन्वय था:
धर्म का पालन राम से सीखो,
धर्म की रक्षा कृष्ण से सीखो।
गांधी ने अपनी आत्मा को राममय रखा, पर अपने युग को संचालन कृष्ण की तरह किया। इसलिए वे प्रतीक बन पाए, परंपरा से संवाद कर पाए, और भारत की आत्मा को उसकी ही भाषा में जाग्रत कर पाए।
* निष्कर्ष: गांधी को कुछ लोग राम की कसौटी पर कसना चाहते हैं। कृष्ण को भी। फिर वही लोग राम को कृष्ण की कसौटी पर कसना चाहते हैं। यह एक मॉरल कंफ्यूजन को जन्म देता है। Multicriteria Decision Making के साहित्य में Nontransitivity of Preference पर बहुत बहस है। हम उन्हीं के शिकार के उदाहरण हो जाते हैं। सही यह होगा कि हम पहले इवैल्युएशन क्राइटेरिया और उसके धरातल को समझें, फिर मूल्यांकन करें। नहीं तो हम उलझे ही रहेंगे।
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